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भारतीय वाद्य यंत्र

भारतीय वाद्य यंत्र

संगीत हो या नृत्य कला दोनों का ही वाद्य यंत्रों से बहुत गहरा संबंध है। जब कोई गायक मंच पर अपनी प्रस्तुति देता है तब सितार, तबला या हारमोनियम जैसे वाद्य यंत्रों का साथ उसकी गायकी को और निखार देता है। इसी तरह जब कोई मंच पर नृत्य की प्रस्तुति करता है तब भी वाद्य यंत्र उसकी प्रस्तुति में चार चांद लगा देते हैं।

वाद्य यंत्रों से आशय ऐसे उपकरणों से है जिनके द्वारा संगीतमय ध्वनि उत्पन्न की जा सके। ऐसी कोई भी वस्तु जो वह ध्वनि पैदा करती है जो कर्णप्रिय हो तो उसे वाद्य यंत्र कहा जा सकता है। मानव संस्कृति की शुरुआत से ही वाद्य यंत्रों का प्रयोग हो रहा है। वाद्य यंत्रों का शैक्षणिक अध्ययन अंग्रेज़ी में ओर्गेनोलोजी कहलाता है। ऐसा संगीत जो केवल वाद्य यंत्र के उपयोग से रचा जाए वह रचना वाद्य संगीत कहलाती है।

भरत मुनि द्वारा संकलित नाट्यशास्त्र में धवनि की उत्पत्ति के आधार पर वाद्य यंत्रों को चार वर्गों में विभाजित किया गया है।

1. तत् वाद्य अथवा तार वाद्य इनमें तार द्वारा ध्वनि पैदा की जाती है।

2. सुषिर वाद्य अथवा वायु वाद्य इनमें हवा के प्रयोग से ध्वनि पैदा की जाती है।

3. अवनद्व वाद्य और चमड़े के वाद्य इन्हें ताल वाद्य भी कहते हैं। चमड़े की झिल्ली पर थाप द्वारा ध्वनि पैदा की जाती है।

4. घन वाद्य या आघात वाद्य यह ठोस धातु के होते हैं जिन्हें आपस में टकरा कर ध्वनि पैदा की जाती है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत में कई प्रकार के वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता रहा है। इनमें से कई वाद्य यंत्र बिना नृत्य व गायन के भी बजाए जाते हैं। आइए जानते हैं कुछ वाद्य यंत्रों के बारे में।

वीणा

ज्ञान व कला की देवी माँ सरस्वती के हाथ में वीणा सुशोभित होती है। वीणा एक प्राचीन वाद्य यंत्र है। यह तत् वाद्य की श्रेणी में आता है। इसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत में किया जाता है। वीणा भारतीय संगीत में प्रयुक्त सबसे प्राचीन वाद्य यंत्र है जिसमें समय के साथ बदलाव कर कई प्रकार विकसित हुए हैं। जैसे रुद्रवीणा, विचित्र वीणा वगैरह लेकिन इसका प्राचीनतम रूप एक-तन्त्री वीणा है। ऐसा कहा जाता है कि मध्यकाल में अमीर खुसरो दहलवी ने सितार की रचना वीणा और बैंजो जो इस्लामी सभ्यताओं में लोकप्रिय था को मिलाकर किया।

सितार

सितार पूर्ण भारतीय वाद्य यंत्र है। इसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत से लेकर हर तरह के संगीत में किया जाता है। प्रसिद्ध विचित्र वीणा वादक डॉ लालमणि मिश्र ने अपनी पुस्तक भारतीय संगीत वाद्य में इसे प्राचीन त्रितंत्री वीणा का विकसित रूप सिद्ध किया है। इसमें भी वीणा की तरह भारतीय वाद्यों की तीनों विशेषताएं हैं। तंत्री या तारों के अलावा इसमें घुड़च, तरब के तार तथा सारिकाएँ होती हैं।

भारत में मुस्लिमों ने इसे सह यानी तीन और तार को मिला कर सहतार कहना शुरू किया जो बाद में सितार हो गया। पं रविशंकर ने इसे विश्व भर में ख्याति दिलाई।

तानपुरा

तानपूरा अथवा तम्बूरा भारतीय संगीत का लोकप्रिय तंतवाद्य यंत्र है। इसमें चार तार होते हैं। इसका आकार सितार से बड़ा होता है। इसका उपयोग बड़े बड़े गायक गाने के समय स्वर का सहारा लेने के लिए करते हैं।

तानपूरा के मुख्यत: छह अंग होते हैं।

तुम्बा, तबली, घुड़च, धागा, कील, मनका

बांसुरी

खोखले बांस का बना यह यंत्र सुषिर वाद्य है। भगवान श्रीकृष्ण के अधरों के स्पर्श ने इसे अमर बना दिया है। भारतीय समाज में बांसुरी का आध्यात्मिक महत्व भी है।

बांसुरी को बंसी, वेणु, वंशिका आदि कई सुंदर नामों से जाना जाता है। इसमें सात से लेकर ग्यारह छेद होते हैं। इनके बजाने की शैलियां भी अलग अलग होती हैं।

पंडित पन्नालाल घोष जी ने अपने अथक परिश्रम से बांसुरी में अनेक परिवर्तन किए। उसकी विभिन्न वादन शैलियों का विकास किया। उन्होंने बांसुरी को भारतीय संगीत में सम्माननीय स्थान दिलाया। लेकिन उनके बाद पुनः: बाँसुरी एकाकी हो गई। आज हरिप्रसाद चौरसिया जी का बाँसुरी वादन विश्व प्रसिद्ध है।

शहनाई

शहनाई एक प्रसिद्ध सुषिर वाद्य है। विवाह जैसे शुभ अवसर पर इसे बजाने का चलन है। शहनाई एक खोखली नली होती है। जिसका एक सिरा अधिक चौड़ा तथा दूसरा पतला होता है। शहनाई के संकरे सिरे पर विशेष प्रकार की पत्तियों और दलदली घासों से डैने के आकार की बनी 1 सेंटीमीटर लम्बी दो रीड या पत्तियाँ लगी होती है।

भारत रत्म उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का नाम शहनाई से गहराई से जुड़ा है। 1947 में भारत के स्वतंत्रता समारोह की पूर्व संध्या पर आप ने शहनाई बजाई। उसके पश्चात हर वर्ष उस्ताद जी के शहनाई वादन की प्रथा बन गई।

तबला

तबला को भी शास्त्रीय के साथ हर तरह के संगीत के साथ प्रयोग किया जा सकता है। इसका प्रयोग भारतीय संगीत में मुख्य रूप से मुख्य संगीत वाद्य यंत्रों का साथ देनेवाले वाद्य यंत्र के रूप में किया जाता है।

यह लकड़ी के दो ऊर्ध्वमुखी बेलनाकार खोखले टुकड़ों के मुंह पर चमड़ा मढ़ कर बनाया जाता है। इन दोनों टुकड़ों को दाएं बाएं रख कर बजाये जाने की परंपरा है। इसी अनुसार इन्हें "दायाँ" और "बायाँ" कहते हैं।

तबले के दो भागों को क्रमशः तबला तथा डग्गा या डुग्गी कहा जाता है। तबला शीशम की लकड़ी से बनाया जाता है। तबले को बजाने के लिये हथेलियों तथा हाथ की उंगलियों का प्रयोग किया जाता है। तबले के द्वारा अनेकों प्रकार के बोल निकाले जाते हैं।

यह तालवाद्य हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में काफी महत्वपूर्ण है और अठारहवीं सदी के बाद से इसका प्रयोग शाष्त्रीय एवं उप शास्त्रीय गायन-वादन में लगभग अनिवार्य रूप से हो रहा है। इसके अतिरिक्त सुगम संगीत और हिंदी सिनेमा में भी इसका प्रयोग प्रमुखता से हुआ है। यह बाजा भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, और श्री लंका में प्रचलित है।[ पहले यह गायन-वादन-नृत्य इत्यादि में ताल देने के लिए सहयोगी वाद्य के रूप में ही बजाय जाता था, परन्तु बाद में कई तबला वादकों ने इसे एकल वादन का माध्यम बनाया और काफी प्रसिद्धि भी अर्जित की।

मृदंग

यह मुख्यतः दक्षिण भारत का एक ताल वाद्य है। इसका प्रयोग भक्ति संगीत में अधिक होता है। यह कर्नाटक संगीत का प्रमुख ताल यंत्र है। मृदंग पहले मिट्टी से ही बनाया जाता था, लेकिन आजकल मिट्टी जल्दी फूट जाने और जल्दी ख़राब होने के कारण लकड़ी के खोल बनाये जाने लगे हैं। इस वाद्य को बकरे की खाल से दोनों तरफ़ छाया जाता है और इनके दोनों तरफ़ स्याही लगाई जाती है।

बंगाल के प्रसिद्ध कृष्ण भक्त संत चैतन्य महाप्रभु मृदंग बजा कर कृष्ण भक्ति के पद गाते थे।

ढोलक

ढोलक भी एक प्राचीन वाद्य यंत्र है। इसे शीशम की लकड़ी के खोल के दोनों सिरों पर चमड़ा मढ़ कर बनाया जाता है।

लकड़ी को पोला करके दोनों मुखों पर बकरे की खाल डोरियों से कसी रहती है। डोरी में छल्ले रहते हैं, जो ढोलक का स्वर मिलाने में काम आते हैं। चमड़े अथवा सूत की रस्सी के द्वारा इसको खींचकर कसा जाता है।

उत्तर भारत में विवाह व अन्य शुभ अवसरों पर ढोलक बजा कर खुशी के गीत गाए जाते हैं।

मंजीरा

मंजीरा भजन में प्रयुक्त होने वाला एक महत्वपूर्ण घात वाद्य है। इसमें दो छोटी गहरी गोल मिश्रित धातु की बनी कटोरियाँ जैसी होती है। इनका मध्य भाग गहरा होता है। इस भाग में बने गड्ढे के छेद में डोरी लगी रहती है। ये दोनों हाथों से बजाए जाते हैं, दोनों हाथों में एक-एक मंजीरा रहता है। परस्पर आघात करने पर ध्वनि निकलती है। मुख्य रूप से भक्ति एवं धार्मिक संगीत में ताल व लय देने के लिए ढोलक तथा हारमोनियम के साथ इसका प्रयोग होता है।

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