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दलदल

 नाम  - ममता शुक्ला

व्यवसाय-   गृहिणी,

स्थान -     अहमदाबाद,

शिक्षा- स्नातक(बी.ए)

रुचि  - नए एवं पुराने लेखकों की रचनाएँ

       कहानी,कविता,उपन्यास,आत्मकथा,

        संस्मरण आदि पढना।

    



       

दलदल
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हर सुबह की तरह आज भी अनामिका ने झट  अलार्म बंद किया।अलार्म लगाना उसकी आदत में शुमार था,हालांकि अलार्म बजने से पहले ही उसकी नींद खुल जाया करती थी,और बजने के दो मिनट पहले ही वो झट से अलार्म बंद कर दिया करती।

वो नही चाहती थी कि उसकी आवाज से साक्षी की नींद खुले।

वो बिस्तर से उठी,बालों में लगाने वाला क्लिप और चश्मा तकिए के नीचे से उठाया,स्लिपर पैर में फसाई और धीरे से बैडरूम से नीचे हॉल में चली आई।


साक्षी और वो देर तक बाते करती रही थीं।

कहने को तो साक्षी उसकी बेटी थी,लेकिन शायद ही कोई बात हो,जो साक्षी उससे छुपाती हो,और वो भी अपने हाव भाव  कभी उससे नही छुपा पाई।

ऐसा कहा जाए कि माँ-बेटी से ज्यादा वो एक दूसरे की बेस्ट फ़्रेण्ड थी।

न जाने कितनी बाते थी साक्षी के पास,अनामिका को बताने की।सुनते सुनते कब नींद आ गई पता ही नही चला।
      साक्षी इंजीनियरिंग खत्म कर ,नौकरी कर,बैंगलोर में रहती थी।

कुछ दिनों की छुट्टियों पर आई हुई थी।

इसलिये कई कहानी किस्से थे उसके पास।
  हालांकि उसके जाने के बाद अनामिका एकदम अकेली पड़ गई थी,कब तक रखती उसे अपने पास,एक न एक दिन तो जाना ही था।
उसके जाने के बाद कुछ दिनों अनामिका को बड़ा बुरा लगता,ऐसा लगता जैसे कुछ खो गया हो।

अपाहिजपन,बेचैनी सी,सब आधा अधूरा सा, लेकिन कहते है न समय हर घाव भर देता है।

थोड़े दिन चिड़चिड़ी सी भी रहती,लेकिन खुद को जल्दी ही संभाल भी लेती थी।
समय ने उसे अकेला रहना बहुत पहले ही सिखा दिया था।
    
हर किसी को,कोई न कोई नशा होता है।

अनामिका को भी एक नशा था,"चाय"।

उसकी सबसे प्रिय चीज,उसके अकेलेपन का साथी।

ज्यादातर उसे उसके साथ अकेले रहना अच्छा लगता था।
वो और उसकी चाय का कप।
सुबह की चाय वो खुद ही बनाना पसंद करती थी।

चीनी मिट्टी के केटली,जो सफेद रंग की थी,उसमे छोटे छोटे गुलाबी फूल बने थे।एकदम मंदिर के पुजारी जैसी,शांत,सफेद,स्वच्छ, पाक,अपने भीतर,दो कप चाय समेटे हुए,ठीक वैसे ही जैसे पुजारी पहुँचता है मंदिर पूजन के लिये।

दिन की शुरुआत करता है एक अच्छे काम से।
हाजिर हो जाती थी केटली यही भाव लिए,अनामिका के समक्ष।
    अनामिका के लिये वो चाय नही जीवन दर्शन थी।

हर स्वाद निहित था उसमें,अदरक का तीखापन,काली मिर्च की चिरपीराहट,तुलसी का औषधीय गुण।
अनामिका को सुबह की पहली चाय एकदम अकेले  लॉन में बैठ,पेड़ पौधों के सानिध्य में,जहाँ सुबह सुबह हर पंछी दूसरे से अपनी व्यथा,आपबीती,मिलन और फिर विरह की कहानी कह रहे होते थे,वहाँ पीनी पसंद थी।
वो सबकी चीं-चीं को बड़े ध्यान से सुनती थी जैसे सबकी कहानी समझने की कोशिश करती थी,उसमें से अपने जैसी को पहचानने की कोशिश करती हो जैसे।
हर गरम गरम घूँट के साथ साथ अपने अतीत की एक एक घटना की आहुति देती जाती थी।
उस वक्त उसे ऐसा करते कोई देख न ले,या उसका दयनीय अतीत निःवस्त्र,नंगा  तांडव करता,न देख ले,इसलिये सुबह खुद के साथ अकेले में बिताती थी।

कभी कभार ऐसा हो जाता कि उसके साथ कोई जाग जाता और साथ चाय पीता तो उसे लगता आज बिना हवन उठ गई पूजा से,आधी अधूरी पूजा।

कल रात साक्षी ने जब बातों बातों में अमन का नाम लिया,उसका कलीग,जिसने उसके साथ ही कंपनी में जॉइन किया था। वो सहम सी गई।
वहां जब साक्षी को मलेरिया हुआ,तो अमन ने उसकी बड़ी मदद की।डॉक्टर के पास ले गया दवाई दी,जूस दिया,और रात रात भर हॉस्पिटल में बैठा रहा,क्योंकि डॉक्टर ने कहा था शायद ड़ेंगू न हो।

ब्लड रिपोर्ट आने तक खयाल रखना पड़ेगा।
साक्षी ने ये बात माँ से छुपा ली थी कि कही माँ घबरा न जाये।
इतने दिनों बाद अब जब घर आई तब सब बताया।
साक्षी की हर बात में कही न कही अमन का जिक्र था,"वो मना करता है बाहर नही खाना,उसने जबरदस्ती दूध पिलाया,वो लौटते हुए रोज जबरदस्ती नारियलपानी पिला ही देता है"वगैरह वगैरह।
अनामिका को समझ मे आ रहा था कि साक्षी उस से बहुत इम्प्रेस है।वो मन ही मन घबरा रही थी पता नहीं कहीं, ये साक्षी का सामयिक का आकषर्ण तो नही?
मन ही मन सोच रही थी काश कोई ऐसा मेग्नीफाइन ग्लॉस होता जिससे इंसान के भीतर का "आदमी" दिखता।
अतीत के पन्ने जोर जोर से फड़फड़ाने लगे,फड़ फड़ कर के किताब के पिछले पन्ने खुलने लगे,और कई पन्ने पलट कर एक पन्ना खुला और वही अटक गया।
सोचते सोचते अनामिका यादों के जंगल मे घिर गई,इतना सघन और अंधकार व्याप्त था,वहाँ वो अकेली खड़ी थी ।

पूरी तरह रास्ता भूली भटकी हुई , दिशाहीन।

कोई रास्ता नही दिख रहा था जिससे दशा सुधरने का संकेत मिलता।
न जाने कैसे जीवन की संध्या तक समय यू गुजर गया।
वो छब्बीस साल पहले पहुँच गई,जैसे किसी टाइम मशीन ने उसे वहां ला पटक दिया हो।
   एकदम कल की ही तो बात लगती है,जब गाँव के ,दूर के खानदानी रिश्तेदार,जो चाचा लगते थे पिताजी के,अचानक आ टपके थे।
माँ ने खूब अच्छा-अच्छा खाना बना खिलाया,मैने उन्हें सौफ दी, भोजन के बाद।
मुझे गौर से देखने के बाद, कुछ सोचा उन्होंने और पिताजी से कुछ कुछ बाते करने लगे।

पिताजी भी सिर हां में हिलाए जा रहे थे।

पिताजी कह रहे थे"अगर आपको उचित लगता हो तो सब ठीक ही होगा।साक्षी आपकी भी बेटी जैसी है,बात आगे बढ़ाइए"।
                            
अनामिका समझ गई थी उसकी ही बात हो रही है।वैसे भी माँ पापा ने कई लोगो से कह रखा था रिश्ते के लिये।
किसी का घर ठीक होता तो,लड़का न जँचता, कोई लड़का अच्छा लगता ,तो घर और घर वाले न जँचते।

श्रीवास्तव जी की वो अकेली बेटी थी।बड़ी लाड़ली,दो भाइयों की प्यारी बहन।दोनो भाई बाहर कार्यरत  थे।
बड़ा दिल्ली में डिफेंस में अच्छे ओहदे पर था। छोटा पुणे में इंजीनियर था।बड़े की शादी हो गई थी।छोटा बाकी था।अनामिका ने भी ग्रजुऐशन के बाद जनर्लिज्म का कोर्स करना चाहा था,लेकिन माँ को जल्दी थी ।

रिश्तेदार जो टोकने लगे थे।
लड़को की तलाश शुरू हो गई थी।
  बेटियों को किसी और को सौपना बड़ा मुश्किल होता है।एक नया जन्म,बड़ा डर होता है।
कहाँ ?कौन?कैसा मिलेगा?

इसलिये माँ पापा जल्दी तय नही कर पा रहे थे।


वो दूर के चाचा,जो रिश्ते की बात ले कर आये थे,वो वापस चले गए।

दस दिन बाद ही वो फिर से आ गए लड़के की और उसके परिवार की फ़ोटो ले कर।
वो उनकी तारीफ में कसीदे पढ़ें चले जा रहे थे।


"पूरा परिवार पढ़ा लिखा है।लड़के की माँ टीचर थी।पिता बैंक में थे।
दो बहनें है दोनो की हाल ही में शादी की है।दोनो भी खूब सुखी घर मे गई है।पहले दोनो ही स्कूल में पढ़ाती थी।
एक छोटा भाई है" छुट्टन",वो इंजीनियर है।
बड़े"सूरज"की शादी हो जाये फिर उसकी होगी।
लड़का बड़ी कंपनी में इंजीनियर है।खूब पैसा है।
जमशेदपुर मेंअपना मकान है।लेकिन लड़के की नॉकरी"बोकारो"झारखंड में है।कंपनी का बड़ा मकान  मिला हुआ है उन्हें ।सब एकसाथ मिलकर जुलकर उसी में रहते हैं।


सबको रिश्ता जम गया,क्योंकि रिजेक्ट करने का कोई कारण नही नजर आया।

हमेशा से अनामिका सुनती आई थी कि पढ़े लिखे लोग अलग से नजर आते है,चेहरे पर ही सभ्यता झलकती है।हाव भाव से भी सभ्य।
कम पढ़े लोंगो की बोल चाल ही बता देती है वगैरह वगैरह"।

“सूरज “फ़ोटो से ही बड़ा सौम्य, सलीकेदार दिख रहा था।

लंबा चौड़ा डील डौल,जिसे देख हर लड़की पसंद कर ले।
अनामिका को सूरज और उसका परिवार काफी पसंद आए।
दोनो परिवारों ने तय किया कि लड़की,लड़के आपस मे मिल लें।

ये औपचारिकता पूरी करवा ली जाए। लिहाजा सगाई का दिन तय हो गया।
उनकी तरफ से ज्यादा लोग नही थे ।खुद का ही परिवार और दोनो दामाद।
हँसी खुशी सगाई की रस्म पूरी हुई।उपहारों का आदान प्रदान हुआ।जैसा कि आमतौर पे होता है।
वो वापस चले गए कि जल्दी ही शादी की तारीख मुकर्रर कर संदेश भिजवाएंगे। ये कह गए थे।

तब मोबाइल की सुविधा तो थी नही,लिहाजा शुरू हुआ सिलसिला ग्रीटिंग कार्ड्स भेजने भिजाने का।


बड़े सुंदर कार्ड्स मिलते थे उन दिनों,आर्चीज़ के,हर ओकेजन वाले ।
बड़े बड़े म्यूजिकल भी,जिन्हें खोलने पर म्यूजिक बजता था।लव कार्ड्स,फ्रेंडशिप कार्ड्स।रिलेशनशिप कार्ड्स और भी कई तरह के।
उन दिनों लेटरपेड भी आते थे बड़ी सुंदर सुंदर फ़ोटो बनी होती थी उस के ऊपर खत लिखे जाते थे।पत्र जिनमे प्रेम की भीनी भीनी खुशबू हुआ करती थी,भाव और छुवन के अहसास से परिपूर्ण।

खैर सगाई के बाद शुरू हुआ ग्रीटिंग और सुंदर  चित्र वाले खतों के आवागमन।
बड़ा इंतजार करती थी अनामिका उन दिनों,सूरज के लेटर का।

कभी पाँच,तो कभी सात दिन लग जाते थे।

ये पांच- सात दिन का इंतजार बहुत बड़ा लगता था।

कोई बात लिखो,तो उसका जवाब पांच दिन बाद मिलता था।

अनामिका दो दिन तो अपने मन को मनाए रखती,तीसरे दिन दिन बस बारह बजे से ही पोस्टमैन का इंतजार करना शुरू कर देती ।

कभी कभी जब पोस्टमैन देर से आता तो,पोस्ट आफिस का चक्कर भी लगा आती, पोस्टमैन समझ जाता उसकी बेचैनी ,मुस्कुरा के कहता,कुछ आएगा तो घर आके दे जाऊँगा।

इसपर अनामिका झेंप जाती।
कभी सूरज इतना बड़ा कार्ड भेज देता कि घरवालों के सामने रिसीव करने भी शर्म आती।

उस वक्त वो जमीन से थोड़ा ऊपर चल रही थी।उसके  अच्छे दिन जो चल रहे थे।आमतौर से शुरुआती दिन ऐसे ही होते हैं।अन्य लड़कइयों जैसे,अनामिका भी सपनों में जी रही थी।

दिन पंख लगा के उड़ रहे थे।      

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