घटना या हादसे कभी किसी खास को नहीं चुनते,वो एकदम से साधारण दिखने वाले हम और आप जैसे चेहरों को,अपना बना लेते हैं।
हर रोज सालों से,अब जब खुद को तो याद नहीं कि पहला कदम कब चला था,तब से अब तक निरंतर चलते ही आ रहे हैं। फिर भी,अचानक एक दिन,गलत कदम कैसे उठ गया..,और कोई गाड़ी ऊपर से कुचलती..,अब कोई नई बात तो थी नहीं..वही सड़क वही लोग और वही रोज के हम!
फिर वही हमारे आम चेहरे और नाम का,अचानक से खास बन जाना।
अखबार के किसी पन्ने के किसी कोने में खुद को दर्ज करवा लेना।
कई बातें हैं जिंदगी में,जो साधारण बात से ,सवाल में बदल जाती हैं और फिर कहीं कोई जवाब नहीं... बस,खाली..फीकी,निरुत्तर आँखे।
शायद ,कई बार खुद को समझ में नहीं आता कि कहना क्या चाह रहे हैं,बस कुछ कहना होता है,अनकही सी बातें कहते जा रहे हैं, जिनका कोई अर्थ है भी कि नहीं! कोई सुन भी रहा है या अपने आप से..बातें...।
जैसे..जैसे.. वो...पगली...करती थी,मैदान में लगे खंबे को पकड़ कर,ऊँगली दिखा-दिखा कर,मानों किसी को समझा रही हो कुछ!
हाँ,आम घरों में से ही तो एक था आकृति का घर!
जिसकी सुबह अलार्म की आवाज़ से शुरू होती थी,फिर थोड़ी देर और सोने की मंशा भी,एकदम सामान्य ही सी थी।उठ कर,अपना कप, प्लेटफॉर्म पर रख,साथ-साथ सब्जी छौंकना।
इसमें कुछ अनोखा या अलग सा तो नहीं था न?आमतौर पर महिलाओं के दिन की शुरुआत ऐसे ही तो होती है!
बच्चों को उठाना,तैयार कर बैग थमाना, हालांकि टिफिन बॉक्स और बैग तैयार करना पिछले कई महीनों से "नवीन" का काम बन गया था।
आजकल शाम को रिया,टिया के होमवर्क की जीम्मेदारी भी उसने अपने आप ही ले ली थी।
शाम को सबके साथ टी.वी देखना और साढ़े दस ग्यारह बजे तक सो जाना।
अब..यही होता है न हर आम घर में!
फिर..फिर..उसका ही घर क्यों खास बनने की कवायत में..
ये बात और थी कि अब नवीन और आकृति के बीच संवाद का अभाव था। शादी के इतने सालों बाद, रह क्या जाता है बात चीत के लिए?
वही रोज का.. क्या बनाऊँ!कौन सा समान कितना लाना है...बच्चों का होमवर्क हो गया?
या यूँ कह लीजिए,बात चीत का कोटा खत्म हो चुका था,या फिर हो सकता है,आदत ही नहीं रही थी।
न जाने कितनी बातें मन ही मन आकृति खुद ही कह लेती और नवीन का जवाब भी ,खुद ही समझ लेती थी।
फिर..घर का काम-काज और..आजकल स्कूल वालों ने क्लास भी दे दी है,प्रॉक्सी! लाइब्रेरी के पीरियड के अलावा एक नई जिम्मेदारी।
पढ़ाना और कॉपी जाँचना।
घर का सारा सामान फेंदा जा रहा था,क्या हॉल,किचन..और क्या ही बेड-रूम।
छोटे से स्टडी रूम में एक तरफ जमीन पर नवीन को लिटा रखा था।वहीं दूसरी दीवार से टिक,आकृति जड़ प्रायः बैठी हुई थी।
लेडी कॉन्स्टेबल बड़ी तस्सल्ली से सवाल पूछ दर्ज कर रही थी।साथ ही साथ उसके चेहरे के हर भाव को बारीकी से परख भी रही थी।
उसका अंदाज बता रहा था कि उसके लिए ये कोई नई बात नहीं थी।
फॉरेंसिक वाले, किसी भी समान को छूने से मना कर रहे थे। गिलास,किताबें,पेन स्टैंड से ले,दरवाजों तक के फिंगरप्रिंट को बारीकी से जाँच ,नोट करते जा रहे थे।
हॉल में,दोनो बच्चियों से पुलिस वाले,घुमा फिरा कर,सवाल कर रहे थे।
"मसलन कौन-कौन आता है घर में?
मम्मी पापा में आपस मे झगड़ा होता था?
आज सुबह मम्मी ने पापा से क्या बात चीत की !
कोई अंकल?जिसके आने से पापा गुस्सा करते हो?वगैरह वगैरह...।"
बच्चे,घर के बाहर और अंदर अनजान चेहरों को देख डरे हुए थे, सिर्फ सिर हिला कर जवाब दे पा रहे थे।
इधर...
"तो आप लाइब्रेरियन हैं?"
"जी?"
"रोज कितने बजे निकलती हैं?"
"पोने आठ पर..."
"ह्म्म्म..और वापस?"
"साढ़े तीन पर..."
"तो..आज..जब..लौटी तो क्या देखा,विस्तार से बताओ?"
आकृति को खुद, विश्वास नहीं हो रहा था कि सचमुच ये उसके साथ ही हो रहा है,लगा कि बुरा सपना चल रहा है..और ये..जो सामने है..वो कोई और ही है,नवीन तो बिलकुल नहीं है।
उसका नवीन ऐसा कर ही नहीं सकता,वो तो टिया और रिया को छाती से लगा कर रखता है।
उनकी स्कूल वैन के आने में पाँच मिनट की भी,जो देर हुई तो सीधा चौराहे पर खड़ा हो जाता था,वो कैसे.. ऐसा कर सकता है!उन दोनों को छोड़..नहीं..नहीं। ये वो है ही नही...!एकबार चादर हटा कर मुँह देख लूँ क्या..?लेकिन..उसने देखा तो था,शक्ल अलग सी थी थोड़ी...।
घर में इतने अंजान लोग घूम रहे हैं और ये...ऐसे लेटा हुआ है,अरे..इसे कहाँ पसंद है भीड़-भाड़..।कैसे बोलेगा..!ये तो..नहीं-नही..
बारह साल से जिसके साथ रह रही थी,वो कोई और था..पिछले छह महीने से थोड़ा शांत ही तो हो गया है,लेकिन आज तो शक्ल भी अलग सी ही लग रही है,कहीं कोई और तो नहीं..घर में।
सुबह तो उसी को छोड़ गई थी घर पर..तब तो वही चेहरा था,अब ये आँखे क्यों बड़ी बड़ी उभरी सी...!चेहरा भी थोड़ा काला काला है,कोई उस जैसा है,पर वो तो कतई हो नहीं सकता।
सच झूट के चक्रव्यूह में फ़सी समझ नहीं पा रही थी तभी..
"मैडम..हाँ..तो आज कितने बजे लौटी..?"
"वही,साढ़े तीन"
"तो,अंदर कैसे आई?"
"दरवाजा रोज नवीन ही खोलता था,पिछले छह महीने से.. जब से वो..घर पर है।"
"तो..आज किसने खोला?"
"आज.. मैंने जब घंटी बजाई तो अंदर से कोई आवाज नहीं आई,मुझे लगा.. बाथरूम में होगा,थोड़ी देर खड़े रहने पर फिर,जब दरवाजा नहीं खोला गया, तो..थोड़ा धक्का दिया और दरवाज़ा खुल गया.."
"हम्म,फिर..?"
"फिर..क्या..?"
"फिर,मतलब आगे बताती जाओ!"
ओह..फिर..नवीन को आवाज़ लगाती हुई,अंदर गई तो.. बैडरूम,किचन कहीं नही दिखा, मुझे लगा दरवाज़ा खुला रख कहाँ चला गया?
ऐसे..वो इस समय ,कभी जाता नहीं है।उसे पता है मेरे और बच्चियों के आने का टाइम है।
बच्चियां..कब आईं?
"बस मेरे पीछे-पीछे ही!
बैग रख कर मैं स्टडी रूम की तरफ गई..
तो...देखा पंखे से...वो..,
मैं जोर से चिल्लाई,बच्चियां भी आ गईं..तब तक पीछे पीछे"
"तो तुमको ऐसा क्यों लगा कि स्टडी रूम में देखें?"
"जब कहीं और नहीं दिखा तो..।"
"हम्म..."
इधर,टिया और रिया सदमे में थीं,इतने सारे वर्दी धारियों को देख डरी हुई थीं।घर के बाहर कम से कम पचास लोगों की भीड़ थी। ये घर..जैसे उनका था ही नहीं।
सबकी आँखे आकृति को भीतर तक खँगालने में लगी थीं।
जिस नवीन को अब तक कोई पहचानता भी न था,वो सबके लिए सीधा-साधा,बिचारा और प्रताड़ित इंसान बन गया था।
भीड़, एक दूसरे पर गिर-गिर कर,आकृति को देखना चाह रही थी।
एक "ऐसी औरत" जिसका पति,पंखे से लटक गया हो,वो देखने में कैसी लगती है।
उसके हाव भाव परख,पुलिस से पहले तफ्तीश करना चाह रही थी।
पड़ौस वाली भाभी से अच्छी बनती थी,अक्सर एक चाबी उनके घर रहती।वो ही बच्चों को बिस्किट-विस्कीट खिला रही थीं।
किचन में खाना जस का तस था।
सुबह सब्जी,दाल और रोटी बना कर गई थी।
नवीन ने कहा था कि,जब उसे खाना होगा,वो चावल चढ़ा लेगा।
रिया,टिया का टिफ़िन भी उसने ही पैक किया था।
तब तो.. उसने कुछ ऐसा नहीं कहा..।
और...कल रात ही तो अपनी मम्मी से बात की है उसने..खूब खिलखिला रहा था,मुझसे नहीं तो अपनी माँ से ही कुछ कहता ...,उनसे तो कह रहा था कि यहाँ आ जाओ घुटनों के ऑपरेशन करा देता हूँ, फिर अचानक ऐसा क्या मन में आ गया उसके।
"ये..साड़ी जो..पंखे में..,तुम्हारी है?"
"हाँ"
"कहाँ से मिली"
"अलमारी से..निकाली होगी"
"तुम दोनों में सुबह कोई बहस,झगड़ा?"
"नहीं "
"समझ रही हो...?सही-सही बताना..खेल नहीं है,सुसाइड है सुसाइड.. "
"वो पति है मे--रा-रा"
"वो तो दिख रहा है!"
"अब जिन रिश्तेदारों को बुलाना है, बुला लिया?"
"हाँ..कल सुबह तक आ जाएंगे....दूर हैं सब।"
"जो होगा अब कल ही होगा, हमारे दो आदमी यहाँ ड्यूटी पर रहेंगे, किसी सामान को हाथ नहीं लगाना,ये कमरा बंद रहेगा,तुम दूसरे कमरे में बैठो।"
आकृति चुपचाप खुद को समेट दूसरे कमरे में जमीन पर सिमट कर बैठ गई,दोनों बच्चियाँ उसकी गोद मे सिर रख वहीं लेट गईं।
पीछे जो मकान थे उनसे पूछ-ताछ जारी थी।
उन्होंने ये कह पल्ला झाड़ लिया कि ज्यादा बात चीत नहीं है हमारी..,हाय हेलो तक सीमित है।
जबकि शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो,जिस दिन हमारे घर से , बिना कुछ लिए उनकी रसोई पकती हो।
बाईं तरफ के पड़ौसी जो नवीन से राजनीति पर घंटो बातें करते थे,उन्होंने यह कह दिया
"कुछ सनकी सा था,किसी बात पर भी अड़ जाता था ,दूसरों की सुनता ही नहीं था।अब..औरत ठीक ही लगती थी,बात चीत से!
किसी के भीतर..क्या चल रहा ,है कौन बता सकता है।"
धूप जब बढ़ने लगी तो भीड़ धीरे-धीरे छटने लगी।
कुछ बच्चे,जरूर डटे रहे,कभी बाउंड्री की दीवाल पर चढ़ झाँकते,तो किसी गाड़ी के ऊपर लटक लटक देखते।
अब तक जो बच्चे रिया टिया के साथ जो बच्चे खेलते थे,वो इस तरह से उन्हें झांक झांक देख रहे थे जैसे कोई नया जानवर चिड़ियाघर में लाया गया हो।
आकृति का घर मेन रोड पर था,उसके उस पार शॉपिंग सेंटर की आखरी दुकान पड़ती थी,मतलब वहाँ से उसका घर सीधा दिखता था।
दुकान से सामान लेने के बाद,कई मर्द चबूतरे पर खड़े हो उसे ताड़ते थे।दुकान वाला भी जानता था कि उसकी दुकान पर बैठक उसी की वजह से जमाई जाती है।
कइयों का सामान लेने आने का टाइम,आकृति के घर से स्कूल और स्कूल से वापस आने का,टाइम बन चुका था।
एकदम साधारण नाक नक्श वाली,लंबी छरहरी
कॉटन की कलफ़ लगी साड़ी,ढीली चोटी और बड़ी बिंदी,आँखों में काजल,बस इतना ही था उसका मेकअप।
न जाने ऐसा क्या अलग सा था उसमें जो सबको अपनी ओर खींचता था। हाँ..शायद उसकी बड़ी,गहरी काजल लगी आँखे।
जो कोई एक बार उससे बातें करता वो बड़ी मुश्किल से अपनी नजर उस पर से हटा पाता था।
बस...नवीन को खींच कर न बाँध पाई पाईं उसकी आँखे।खैर...
जो मर्द अब तक उसे ताड़ते थे वही आज उसके घर की तरफ मुँह कर के बतियाए जा रहे थे,
"अरे भाई, वही हम कहें..कि इतनी सुंदर औरत और इतना साधारण सा दिखने वाला पति...जरूर इधर उधर लप्पन झप्पन रहा होगा।"
दूसरा आदमी अपनी होशियारी झाड़ते बोला,
"हम उनमें से हैं जो उड़ती चिड़िया के पंख गिन लें,....भई..ई..ई..पहनावा उढावा ही बता देता है,कौन कैसा है? उसकी आँख देख कर समझ गया था चालू.. है।"
अब तीसरा भला पीछे कैसे रह जाता, तपाक से बोला,
"सुंदर है तो का..अपने पति को ही..मरवा..
भाई... हमारी वाली देखने में खाती पीती भले लगती हैं,..ससुर.. किसी से चक्कर फक्कर तो नहीं चला पाएंगी!"
ये सब सुन दुकान वाले से न रहा गया,उसने कहा अभी पुलिस वाला आ कर गया है, पूछ रहा था, कौन कौन खड़ा रहता था यहाँ,नाम नोट कर के दो!
सुनते ही चबूतरे पर से पंचायत छट गई।
आकृति पत्थर बन गई थी,हृदयहीन,संवेदनहीन,कपड़ों में लिपटी मैनिक्विन।
कोई प्रतिक्रिया नहीं,गुमसुम।
बीच-बीच मे जा कर बस,नवीन का चेहरा देख,उसे कुछ कह आती और गहरी साँस ले चुप बैठ जाती।
उसके साँस लेने का तरीका ही बदल गया था,वो हिचकियों के साथ लंबी गहरी साँसे खींचती।ऐसा लगता था,हर साँस के साथ दर्द की तह बना कर भीतर कहीं पहाड़ जोड़ रही हो।
आस पास की औरतें कब तक खड़ी झाँकती ,घर का काम भी तो निपटाना था, सो उन्होंने अपना फैसला सुना दिया कि,
"जरूर आकृति का कहीं चक्कर होगा,सुना है उसका पति आजकल घर पर ही रहता था,उसने रोका टोका होगा,आकृति ने ही अपने आशिक के साथ मिल,ये कांड किया है,तभी तो..वो रो नहीं रही...
बिचारी बच्चियां ,त् ..त्..त् अनाथ हो गईं "
उसके बाद बैठक खारिज हो गई।
एक दो साहसी औरतें चाय देने के बहाने घर सूंघ आईं ।
आधे गिलास पानी से आकृति ने,पूरी रात बैठे-बैठे निकाल दी।बच्चियाँ उसके पास ही,वहीं जमीन पर सो गईं।
इस बात को छह महीने हो भी गए क्या?लेकिन उसने तो तब भी कुछ नहीं कहा था!
अब कहती भी क्या?वह क्या..,कोई भी औरत,जब अपने पति के मुँह से यह सुनेगी कि,
उसे ऑफिस में कोई और लड़की पसंद है।
तुम्हारे साथ अब और नहीं रह सकता,और जो पिछले दिनों वह जितनी भी बार "टूर" का, कह कर गया है,दरअसल वो उसके साथ यही..उसके घर पर ही था।
आगे का जीवन भी उसी साथ बिताना चाहता है..तो क्या प्रतिक्रिया देगी!
चौक गई थी बुरी तरह वह ,उसे विश्वास ही नहीं हुआ था।
बस नवीन का मुँह देखती रह गई थी। किसी भी स्त्री को यह कहना कि तुमसे प्रेम नहीं है..मतलब..इससे ज्यादा उसका अपमान,और क्या हो सकता है।आत्म सम्मान के साथ साथ मनोबल की धज्जियाँ उड़ गई थीं।
आज भी याद है उसे,नवीन ने ही उसे शादी के लिए प्रपोज़ किया था।
घरवालों के खिलाफ जा कर, नवीन से शादी की थी आकृति नें।
प्रेम ही तो आधार था, उसके विवाह का!
अब नहीं है ,का क्या मतलब..?किसी और से...।
कारण ये दिया गया कि,वह दिन भर बच्चियों में लगी रहती है,उसका ध्यान नहीं रखती।कभी कभी ,उन्हें सुलाते सुलाते खुद भी उन्हीं के कमरे में सो..।
अजीब है..तो..क्या.. बच्चियाँ उस अकेली की थीं?
या फिर यह शादीशुदा मर्दों का सोचा समझा तर्कहीन बहाना था!
या..कहीं.. फिर..बच्चियों के बाद वो इतनी बदसूरत हो गई है?
अब प्रेम कोई भीख में पाई जाने वाली वस्तु तो है नहीं,कि उसके लिए गिड़गिड़ाया जाए।ठीक है!जब था तो था! अब नहीं है..तो..कोई क्या करे..।
या फिर प्रेम,नोटों से भरा कोई बटुआ तो था नहीं कि रात को चुपके से चुरा अपने पास रख लिया जाए,
ये वो रेत है,जो मुठ्ठी से फिसल जाने के बाद भी, हाथ झाड़ने पर आँख में किरकिरी बन चुभती रहती है।
"मतलब..तलाक?"
"हाँ..तभी उससे शादी हो पाएगी।"
"और..बच्चियाँ?"
"उसकी चिंता मत करो,मैं पैसे टके से कोई कमी नहीं होने दूँगा।"
उसके आगे कहती भी क्या?
बस चुपचाप किचन में चली गई।
अब प्रेम कोई ज़मीन जायजाद तो है नहीं कि कोर्ट, कचहरी से कब्जा किया जाए!
उस दिन के बाद फिर कोई और सवाल-जवाब नहीं हुए।
उस दिन के बाद आकृति ने कभी आईना नहीं देखा,ऐसे ही बाल संवार निकल जाया करती थी।
फिर..सप्ताह भर बाद ही..एक दिन नवीन बदहवास सा घर आया और कमरे में बंद हो गया।
देर रात करीब डेढ़ बजे,बर्तनों की आवाज से आकृति की नींद खुली,देखा तो नवीन चाय बना रहा था।
"कुछ चाहिए क्या?"
"नही..,थोड़ी देर बैठोगी प्लीज!"
आकृति कुर्सी खींच बैठ गई।नवीन ने आकृति का हाथ अपने हाथ मे पकड़ा और फफक-फफक कर रो पड़ा।
"क्या हुआ?"
"पिछले दो साल से "वह" मुझे डेट कर रही थी।
कांट्रेक्ट बेस पर आई थी वो.., मेरी शिफारिश से उसे परमानेंट किया गया।और आज...जब मैं ऑफिस गया तो देखा.."
"क्या ?"
आकृति को अब कोई फर्क नहीं पड़ता था,कि कब ,क्या और कैसे हुआ।
कयोंकि वो त्यज्यता थी,कारण कोई भी रहा है,पत्थर युग से अब तक ।
कभी "सत्य की खोज"को या फिर कोई और अन्य कारण...निमित्त,से क्या फर्क पड़ता है,स्त्रियां ही त्यागी गईं हर बार।
फिर उन्हें किसी भी नाम से पुकार लीजिए,अहिल्या,सीता या फिर यशोधरा ,सब की सब खिलौने से अधिक कुछ नहीं थी, खेलने वाला,अब उनसे ऊब चुका था।
काहे का आत्मसम्मान,कैसी पीड़ा...!
आकृति के अंदर सुलग कर ठंडी हो चुकी राख में,आँच बची ही कहाँ थी..क्योकि नवीन उसे बता रहा था.. इसलिए ही वह बस सुने जा रही थी।
"उसके पास घर नहीं था,तो मैंने पर्सनल लोन ले कर उसके लिए घर...सारा पैसा उसी में लगा दिया..,अब वो ,उस कल के आये लड़के के साथ शादी.. कर रही है।
एक कलीग ने आज शादी का कार्ड दिखाया!
मैंने उससे जा पूछा तो...कहती है,कि मेरे खिलाफ रिपोर्ट कर देगी, मैं छेड़ता हूँ उसे,निकलवा देगी।
अब...सब हँसते है मुझपर ।
मुझसे वहाँ नहीं जाया जाएगा।
मैंने रिजाइन रख दिया।
ठीक किया न मैंने!"
रुपया पैसा इज्जत और ईमान सब गवा बैठा था वह।
"कोई बात नहीं,सब ठीक हो जाएगा"
इससे ज्यादा कुछ और न बोल पाई,
" सुबह उठना है, स्कूल के लिए देर हो जाएगी।"
फिर न जाने कब वह अपने कमरे में वापस गया।
आकृति हाड़ माँस की बनी औरत ही तो थी,कोई गूँधा हुआ आटा तो थी नहीं, कि चट से थोड़ा आटा तोड़ा और उसमें से चूचूं बना दी जाए,या फिर छोटे सींग वाली बकरी...और नवीन को पकड़ा दी जाती,कि लो...खेलो!उसे भी समय की दरकार थी,जिससे सहज हो लौट पाती,या ...."लौटे" ये कोई जरूरी भी नहीं था।
ये घर अब आम न रह कर खास बन चुका था, समय की ऊँगली इस घर की ओर इशारा कर रही थी।
बचपन मे माँ ऊँगली दिखाने पर ,फट से हाथ नीचे कर,कहती थी,अभी फल छोटा है,ऊँगली मत दिखाओ कुम्हला जाएगा।
फिर..धीरे-धीरे सामान्य ही हो गया था नवीन।अखबार के, जॉब वाला पन्ना,मार्कर से रंगता ही रहता था।
न जाने कितने ही इंटरव्यू दे चुका था।एक कंपनी में बात चीत लगभग फाइनल थी।
आकृति ने भी यह सोच कर कि,समझौते निभते हैं सालों साल और प्रेम मियादी होता है..बात आई गई कर दी।
समय भी हाथ मे मल्हम लिए बैठा था,कुछ वक्त बाद लीपा पोती कर,सब ठीक कर देता,लेकिन नवीन ने,समय की तरफ मुड़ कर ही नहीं देखा,हर बात में हड़बड़ी करने की आदत जो थी।
"आकृति...थोड़ी चाय पी लो..सुबह के पाँच बजने वाले हैं,सब आना शुरू कर देंगे।"
"सुबह हो गई? नवीन को दे कर आती हूँ!"
"नवीन अब नहीं पियेगा",कह भाभी आँसू पोछने लगी।
नवीन की खबर मिलने पर,अपनी धोती समेट वो निकल ही रही थी कि तभी कूरियर वाले ने आ, एक लिफाफा थमाया,उसके पिता ने उसे आनन फानन में अपने झोले में डाल लिया था।
बड़ी मुश्किल से कुली ने उन्हें जनरल डब्बे में धकेला।
रास्ते भर नवीन की माँ,आँसू पोछती रही।
बुजुर्ग महिला को देख,लोगों ने बैठने को सीट दे दी थी।उसके पिता वहीं एक कोने में खड़े रहे,तीन चार घंटे बाद वहीं,पत्नी के पैर तले जगह बना बैठ गए।
और उस दिन
***********
भाग 3
जो व्यक्ति उनसे चिपक कर खड़ा था,उसने नवीन के पिता से कहा,
"माँ,जी की देह बहुत गर्म है
लगता है बुखार है"
पिता ने बिना छुए ही झोले में कुछ टटोलना शुरू किया उनके हाथ में पैरासिटामोल का पत्ता आ लगा,वो वही झोला था जिसे ले अक्सर वो, अस्पताल जाते थे।
उसमें से एक गोली निकाल उन्होंने जबरदस्ती अपनी पत्नी को खिला दी, पूरी रात जो उन्हें रेलगाड़ी में निकालनी थी।
दवा का पत्ता वापस रखते हुए उनके हाथ से वह लिफाफा जमीन में सरक गया।
पास बैठे व्यक्ति की नज़र उस लिफाफे पर पड़ी।
"बाबूजी..ये गिर गया" कहते हुए उसने उनके हाथ मे थमा दिया।
बाबूजी ने जब भेजने वाले का नाम पढ़ा तो वो सन्न रह गए,उनके कान गरम हो गए,धड़कने रूक सी गई।
उनके हाथ काँप गए। उन्होनें काँपते हाथों से लिफाफा खोला उसमें एक कागज़ था,जिसे वो एक साँस में पढ़ गए।
माँ,पापा
जब आप ये पढ़ रहे होंगे,तब तक मैं जा चुका होऊँगा। मैं अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में असफल रहा हूँ, मैं आकृति ,रियाऔर टिया का गुनहगार हूँ,न मैं अच्छा पति बन पाया न ही अच्छा पिता,मैंने आपलोगों के लिए भी कभी कुछ नहीं किया।
मेरी गलतियों को आकृति ने भी चुप्पी के साथ माफ कर दिया।मैंने सब कुछ गवा दिया है।न मेरे पास पत्नी है,न काम और न ही पैसा।
मैं अपनी नजरों में गिर चुका हूँ।
मुझसे ये बोझ और नहीं ढोया जाता।
आकृति और बच्चों को संभाल लेना।
हो सके तो मुझे क्षमा कर देना,
आपका कायर बेटा
नवीन
पिता,जो अब तक पहाड़ से मज़बूत बने बैठे थे। पढ़ते ही, खड़ी इमारत की तरह धड़धड़ा के ढह गए।उन्होंने रोते हुए पत्र पत्नी की ओर बढ़ा दिया।
पत्नी ने पथराई आँखों से पत्र पढ़ा और वापस झोले में डाल दिया अचानक से उनमें पति को संभालने की ताक़त आ गई।
कब सुबह हुई और वो नवीन के दरवाजे पर थे,खुद उन्हें नहीं पता।
तभी गेट के खुलने की आवाज़ के साथ,रोने की आवाज कानों से टकराई,
नवीन की माँ धड़ाम से आकृति के पास आ कर गिरी।
पापा कंधे पर थैला लटकाए दरवाजे पर ही ठिठक गए,वो अंदर के दृश्य को देख पाने का सामर्थ जुटा रहे थे,कमजोर पैरों को ताकत से आगे धक्का देने की कोशिश कर रहे थे।
नवीन के पिता को पड़ौस वाले भईया ने सहारा दिया,वो बस बारी बारी से सबका मुँह ताके जा रहे थे।
हमारा सामाजिक ढाँचा ही ऐसा है,बचपन में चोट लगने के बाद भी हम उन्हें रोने नहीं देते,उनकी रुलाई को यह कह कर,
"लड़के होकर रो रहे हो,लोग हँसेंगे तुम पर"
और..गले में वापस ठूस देते हैं।
लड़कों के जिस्म में बचपन से ही ,हृदय की जगह पत्थरों के टुकड़े भरने लगते हैं,जिससे कालांतर में,विषम परिस्थिति पर, अपने आँसुओं को उस पहाड़ के पीछे ठेल,परिजनों को संभाल लें।
ये बात अलग है कि कुछ अपवाद भी होते हैं जैसे उनका पुत्र।
कॉस्टेबल ने दरवाजा खोल,नवीन का चेहरा दिखा दिया।
माँ बहुत छटपटाई,लेकिन उन्होंने जाँच का वास्ता दे छूने नहीं दिया।
बदहवासी ने उनके शब्द छीन लिए थे,बस रिरियाने की आवाज निकल रही थी।
न जाने क्या क्या कहती जा रही थी सास।
जिस माँ का बच्चा ,अपने आप को असफल मान लेना है,वास्तव में वह अपनी माँ का अपमान कर रहा होता है उसके मातृत्व और परवरिश पर प्रश्न चिन्ह लगा जाता है,ठीक उसी दिन से,वो गलने लगती है भीतर ही भीतर,हर रोज़ भरती है मृत्यु,अपने भीतर किश्तों में।
बाहर आ, माँ ने ज्यों आकृति को गले लगाया।पत्थर बनी आकृति ने खुद को उनपर छोड़ दिया,सात समुद्र का खारा पानी ,जो उसने ह्रदय में अब तक बाँध रखा था, सैलाब की शक्ल में उसकी आँखों से,बड़ी भयानक आवाज के साथ बाहर आया।ये रुदन कोई साधारण विलाप नहीं था,ये आँसुओं की अलग लिपि थी।
पूरी रौद्रता के साथ बही जा रही थी,लगता था,मोहल्ला क्या पूरा शहर उसमें डूब जाएगा,अब तक उसके मस्तिष्क ने उसे रिया टिया की जवाबदारी ने बांध रखा था, लेकिन अब उन्हें संभालने वाले आ गए थे।
इस विलाप में "दुख" अकेला नहीं था,उसमें "शिकायत" की भागीदारी का प्रतिशत अधिक था।
शायद ऐसा ही विलाप दौपदी ने किया होगा माता कुंती के समक्ष,चीरहरण के पश्चात।
हस्तिनापुर का साक्षात्कार भी ऐसे ही विलाप से हुआ होगा,
ऐसे ही किसी विलाप को देख पितामह अपने जन्म को कोस रहे होंगे।
दरअसल दौपदी को भरी सभा में नग्न करने वाला दुस्सासन नहीं था,न ही उसका दोषी था दुर्योधन।
उसे निःवस्त्र करने वाला था,स्वयं उसका पति युधिष्ठिर और..मात्र युधिष्ठिर ही क्यों...उसके पाँचो पराक्रमी पति भी थे उस अपराध के भागीदार ।
उनका दोष अक्षम्य था।
ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार नवीन ने बिन अपराध पूरे शहर में आकृति का चरित्रहनन करवाया था।
न दोष उन महिलाओं का था न सामने दुकान पर खड़े लोगों का।
नवीन,आकृति और बच्चों को उस अपराध की सजा दे गया था जो उन्होंने किया ही नहीं था।
न जाने कितने घण्टे लगातार आकृति रोती रही।
सुबह सुबह ही एक अखबार से ,रिपोर्टर आ धमका,उसने बाबूजी से कहा,
"पाँच हजार दीजिए,तो ये खबर तीसरे पन्ने पर छाप देंगे।"
"पैसे! कैसे पैसे?"
पड़ौस वाले भैया जो चाय ले कर आये थे,उछल गए।
"भई..., ऐसी खबरों की सिर्फ हेडलाईन पढ़ी जाती है,अंदर कोई नहीं पढ़ता। हाँ.. अगर मृतक की पत्नी ,किसी के साथ भाग गई होती,तो जरूर ये "सनसनी" बनती..तो सौ, दो-सौ का एडजस्टमेंट कर लिया जाता...।"
केस इंचार्ज ने गेट से घुसते हुए ये बातें सुन लीं उसने रिपोर्टर को भद्दी सी गाली दे, नौ-दो-ग्यारह किया।
पिता ने नवीन की लिखित चिट्ठी उसे सौपी।
तमाम तफ्तीश बंद करा दी गईं।
क्रिया-कर्म पूर्ण होने के पश्चात नवीन के माता पिता वापस चले गए,उन्होंने बच्चों और आकृति को साथ ले जाना चाहा, आकृति इसके लिए तैयार नहीं थी।
वे खाली हाथ वापस नहीं गए,अपने साथ एक हरा घाव ले गए,जिसपर जीवनपर्यंत मख्खियाँ भिनभिनाती रहेंगी।
कुछ दिनों की छुट्टी के बाद स्कूल के ट्रस्टी ने उसका स्थानांतरण पटना करवा दिया,जहाँ आकृति के माता पिता रहते थे।
इस शहर की आबो हवा में अब उसका दम घुटता था।बच्चियाँ फुदकना भूल एकदम से सयानी हो गईं थीं।
नए शहर और नए घर में तीनों ने एक दूसरे को बखूबी संभाल लिया था।
जिंदगी किसी के बिना कब रुकती है,लड़खड़ाती है,औंधे मुँह गिरती है,संभलती है,फिर झाड़ पोछ कर दुबारा चलती है जनाब ये ही जिंदगी है।
समाप्त