कभी कभी जब हम इस जिंदगी की भाग दौड़ को पीछे छोड़ एकांत में कुछ पल बिताते है तो बहुत से सुलझे अनसुलझे सवालों से हमारा सामना होता है।
जैसे की जब भी हम कभी बीती बातों को गौर करते है, तो पाते है कि, अरे! ऐसा भी होता है।
भूत में हुए उन सभी खट्टी मीठी यादों को यथार्त में गौर करना ही पुनरावृति है, जैसे कि....
"मैं" बचपन में जब अपनी जन्मस्थली यानी की गाँव को छोड़ आगे की पढ़ाई के लिए शहर आया तो कँहा जानता था कि, जिंदगी का यह नया अध्याय मेरी जिंदगी में बहुत से रोमांच पैदा करने वाला था।
कहने को तो गाँव में हमारा पुश्तैनी मकान था पर नया था, छह भाई बहनों में "मैं" सबसे छोटा था पर बहुत शांत था।
लोग कहते है कि, "मैं" दब्बू किस्म का था खैर छोड़ो मुद्दे पर आते हैं, गाँव में मेरे दादा जी, दादी जी, माँ, तीन बड़ी बहने और "मैं" रहते थे।
और शहर में मेरे चाचा जी का परिवार रहता था ।
हालाँकि शहर में मेरे पिता जी और मुझसे बड़े मेरे दो भाई बहन भी रहते थे ।
हुआ यूँ कि, मेरी माँ और मेरी बहनों ने मेरी पाँचवी की पढाई के बाद कँही मैं गाँव के दुसरो लड़को की तरह गलत संगति में न पड़ जाऊँ, किसी तरह लड़ झगड़ कर मुझे शहर में आगे की पढ़ाई के लिये पिता जी को मना लिया।
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गाँव से जब में शहर आया तो सब मुझे समझाते थे कि, ऐसे मत रहना , वैसे मत रहना, ज्यादा टीवी मत देखना, खाते समय बोलना मत वैगरह - वैगरह ।
कभी चाची कहती कि, बेटा ज्यादा देर सोना मत वरना तुम भाईसाब (पिता जी) को नहीं जानते ।
कभी चाचा कहते रात को जल्दी सोया करना नही तो तुम बाबू जी (पिता जी) को नहीं जानते।
तो कभी कजन्स कहते ये मत करना वो मत करना नही तो बच्चू तुम ताऊ जी (पिता जी ) को नहीं जानते।
"मैं" हर बार मन में यही सोचता कि, पिता जी में आखिर ऐसा क्या है जो मैं नही जानता क्योंकि गाँव में रहने के कारण मेरा पिता जी से कम ही लगाव था या कहें कि, शून्य मात्र ।
हालांकि पिता जी हर महीने गाँव आते थे।
कुछ दिनों में मैं ये भली भाँति समझ गया था कि, पूरा माजरा क्या है।
बात ये थी कि, डेन्फेस मिनिस्ट्री में बड़े पद में होने की वजह से पिता जी थोड़े से सख्त थे ।
उनका मानना था कि, बिना कड़े अनुशासन कोई भी व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।
उनके इन्ही सिद्धान्तों को सब खौफ़ का नाम देते थे।
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रोज शाम को 7 बजते ही सारा घर जो कुछ समय पहले तक किसी युद्धस्थली सा लगता था जँहा सिर्फ कोलाहल गूँजता था अचानक से किसी शांत नदी सा हो जाता था ।
एक लाइट बुझा दी जाती थी। सब पढाई करने लगते थे।
पिता जी थोड़ा रूढ़िवादी सोच के व्यक्ति हैं।
वो आधुनिक युग की चाल चलन से बचते थे । और यही कारण था कि , वो घर की पतंग की डोर को अपने हाथों में रखना चाहते थे।
जब भी कोई इस डोर से खुद को आजाद करने की जुर्रत करता पिताजी झट से डोर खींच लेते।
हालाँकि पिता जी आधुनिक युग की सभी चीजे हमें देर सवेर ही सही मुहैया करा ही देते थे।
फिर भी न जाने क्यों सब उनको गलत समझते थे।
बाजार में कोई नई चीज का आगमन होता नहीं की हम उसे लेने की इच्छा व्यक्त कर देते और चाची भी भाईसाब क्या बोलेंगे ? कहकर हमे शांत करा देती थी।
पर हम भी कँहा पीछे हटते थे, यही कहते कि, उनको अभी बताएंगे ही नहीं।
और फिर रूठ कर , रो कर किसी भी तरह वो चीज हथिया ही लेते थे।
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दुपहर को स्कूल की छुट्टी के बाद हम घर पर ऐसे आते थे मानो सीधा कारगिल के युद्ध से आ रहे हो ।
बैग करीब करीब पटकते हुए हम टीवी का रिमोट ऐसे पकड़ते जैसे अब जिंदगी में दूसरा काम ही नहीं।
जिसकी लाठी उसकी भैंस अथार्त जिसके हाथ में रिमोट उसी का चैनल लगेगा और फिर एक और विश्वयुद्ध छिड़ता रिमोट के लिए।
पिता जी के आने के बाद फट से टीवी बन्द कर दिया जाता था । कुछ सोने का बहाना करते तो कुछ पढ़ने का ।
पर तवे की भाँति गर्म टीवी और टूटा हुआ रिमोट चीख़ - चीख़ कर अपने ऊपर हो रहे अत्याचार की गवाही दे देते।
पिता जी भी पल भर में, घर में छिड़ी महाभारत का आकलन लगा लेते।और फिर किसी भूखे शेर की तरह हम पर झपट पड़ते थे।फिर हमें ज्ञान देने लगते कि, "तुम लोग जिंदगी में कुछ नहीं सकते"।
"तुम्हे तो कोई मुफ्त में भी नहीं रखेगा नौकरी पर" वैगरह - वैगरह।
फिर भी हम भी कँहा सुधरने वाले थे,
उनकी बातों का कुछ पल के लिये ही सही हम अनुसरण करते फिर फुर्र हो जाते किसी आजाद पंछी की तरह मटरगश्ती करने।
शाम को सात बजते ही हम दोस्तों से ये कहकर विदा लेते कि, "पापा आ गए" होंगे । मानो हम उनके आदर का स्वांग रचा रहे हो।
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......और अंत में पिता जी को समर्पित चन्द पंक्तिया,
"जब बचपन की चादर ओढ़े
मैं बेसुध होकर सोता था,
तब माँ सहला कर पुचकार कर
मुझको उठाती थी
और कहती थी........
कि, उठो राजा बेटे मेरे
देखो पापा आ गए......
तब मैं नंगाकर, आँख मीच कर
उठता था
पापा को मुस्कराता देख
झट से उनके गोद में जाता था,
और जोर जोर से चिल्ल्लाता था
पापा आ गए........
पापा आ गए........"
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