घड़ी
हमारे घर में एक बहुत पुरानी घड़ी पड़ी हुई है। जब भी हम पिताजी से इस घड़ी के बारे में पुछते हैं तो वह यही कहते हैं कि ’’बेटा यह घड़ी राजा विक्रमादित्य के समय की घड़ी है’’ यह सुनकर हम कुछ शंका व्यक्त करते हुए जब यह कहते हैं कि ’’पिताजी राजा विक्रमादित्य की घड़ी हमारे यहाँ कैसे पहुँच गई’’ तो पिताजी हमेशा ही जवाब में कहते हैं कि ’’राजा विक्रमादित्य हमारे पूर्वज थे और उन्होंनें हमारे दादा श्री को यह घड़ी दी थी’’। यह सुनकर हम कुछ और ही सोचने लगते है। और पिताजी की बात को सच मानते हुए एक नजर घड़ी की ओर देखते हुए कमरे से बाहर जाकर अपने दोस्तों के साथ गुल्ली डंडा खेलने लगते हैं।
एक दिन हम कुछ पढ़ रहे थे कि अचानक हमारी दृष्टि उस घड़ी पर जा टिकि। अब वो घड़ी खराब पड़ी थी और दीवार की धूल चाट रही थी। फिर क्या था उस घड़ी को देखते ही मन में एक विचार आया। विचार बड़ा ही दिलचस्प किस्म का था। जब ये विचार हमारे मन में आया उस समय हम दसवीं का इम्तीहान दे चुके थे। मई का महीना था और सुबह के ग्यारह बजे थे। इस विचार के दौरान हमने सोचा की क्यों न आज इस घड़ी को ही ठीक किया जाए अगर यह घड़ी ठीक हो गई तो बड़े प्रसन्न होंगें और हमारे पूर्वजों की आत्मा को भी शांती मिलेगी कि उनके समय की खराब घड़ी भी ठीक हो गई।
फिर क्या था हमने लपक कर घड़ी को उठाया और उसे उलट-पलट कर देखने लगे फिर घड़ी को चाबी दी तो देखा कि घड़ी की सेकण्ड की सुईं अपना काम ठीक प्रकार से कर रही है। फिर क्या था हम समझ गए की घड़ी में क्या खराबी है। फिर हम अपने औजार एक प्लास और एक पेंचकस ले आए और लगे घड़ी को खोलने। पेंचकस को हमने एक पेंच पर रखकर कहा घूम और यह क्या हमने देखा कि पेंचकस अपने आप घूमता जा रहा है। और देखते ही देखते घड़ी खुल गई। पर यह क्या? घड़ी खुलते ही हम अजीब सी सोच में पड़ गए। दरअसल घड़ी के अंदर के पुर्जों में इतने सारे चक्कर थे कि उन चक्करों की भूल भूलैया में खोकर हम यह भूल गए की कौन सा चक्कर ठीक करना है। हम घड़ी को देखते तो हमें ऐसा प्रतीत होता मानों घड़ी हमसे कह रही हो कि ’’कम्बख्त जब तुझे घड़ी ठीक करनी नही आती तो मुझे अपने मनहूस हाथों से खोला ही क्यों था”? घड़ी की बात सुनकर हमारा दिल और डर गया। अब तो ऐसा प्रतीत होता था मानों सिर मुंडाते ओले पड़ गए हों। अब हम सोच में पड़ गये गहरी सोच में। घड़ी की ओर नजर गड़ाए बैठे रहे। अचानक मस्तिष्क में एक विचार आया। फिर क्या था हम अपना छोटा चाकू लाए और उससे सारे चक्करों को घुमा कर देखा कि किस चक्कर से क्या होता है। अचानक जाँच पड़ताल करने से वह चक्कर हाथ लग ही गया जिसका इलाज करना था। फिर हमने घड़ी से चाकू बाहर निकाला तथा उस चक्क्र के पीछे पड़ गए। पर एक अड़ंगा फिर आ गया। अब हम अपना माथा पीटने लगे और माथा पीटते हुए आँखों से आँसू आने लग गए दरअसल हुआ यूँ था कि जिस चक्कर को हम घुमा-घुमा कर ठीक कर रहे थे तो उस चक्क्र की चोट के कारण उस घड़ी के चार और चक्कर बाहर आ गए। एक चक्कर ने तो हद कर दी उछल कर हमारे मुँह पर ऐसे लगा जैसे मानों घड़ी ने हमारे मुँह पर एक जोरदार झापड़, रसीद कर दिया हो। इससे दो बातें सिद्ध होती थीं एक तो यह कि घड़ी को हमारे ऊपर गुस्सा आ गया था और दूसरी यह कि घड़ी की इस गुस्ताख हरकत से हम तिलमिला उठे थे और लाल पीले हो गए थे। अब हमने घड़ी को बंद करके रख देने में ही अपनी और घड़ी की खैर समझी। फिर क्या था हम घड़ी को मायूसी भरी सोंचों के साथ बंद करने लगे। घड़ी को बंद करते-करते हम सोचने लगे कि आज तो फजीता हो गया क्या सोचा था और क्या हो गया? हमने तो सोचा था कि घड़ी में थोड़ी ही खराबी होगी और वह थोड़ी ही देर में ठीक हो जाएगी पर अब यह नौबत आ गई थी कि घड़ी ठीक होने के बजाए कुछ ज्यादा खराब हो गई थी। अब साहब आपको क्या बताए घड़ी ने बंद होने में भी बहुत आनाकानी दिखाई।
जब हम घड़ी में स्टैण्ड का स्क्रू लगा रहे थे तो घड़ी के अंदर वो स्क्रू घुस तो जाए पर घूमें नहीं अब हम बडें परेशान। परेशानी में हमें एक गाना सूझा हम धीरे-धीरे वो गाने लगे वो गाना था ’’ क्या करें क्या ना करें ये कैसी मुश्किल हाय कोई तो बता दे इसका हल ओ मेरे भाइ के एक तरफ तो स्क्रू को टाइट करें हम और एक तरफ स्क्रू से ही डरें हम’’ ये गाना गाते-गाते हम अपना हथौड़ा ले आए और लगे घड़ी को पीटने अब हमने क्या देखा की घड़ी तो बंद हो गई पर बदकिस्मती से उसका शीशा टूट गया अब हमने देखा कि घर पर सब सो रहे थे। दोपहर के 2 बज चुके थे। अब हमने चुपचाप घड़ी को उसी जगह रख दिया जिस जगह से उठायी थी। फिर हमने चुपचाप घड़ी का टूटा हुआ शीशा समेटा। इतने में ही हमारी दादी हमारे कमरे में आईं और हमें जगाने लग गई। हमारी नींद उखड़ गई और हम सपनों की दूनिया से हकीकत में आ गए। वैसे हमारा ये सपना था बड़ा खूबसूरत।
और अंत में मैं आप सबसे एक ही बात कहना चाहूँगा कि आप सभी जीवन भर ऐसे ही हँसते मुस्कुराते रहिये क्योंकि
जीवन में
सपने तो बहुत हैं पर हकीकत नहीं, इच्छाएँ तो बहुत हैं पर ज़रिया नहीं
मंजिलें तो बहुत हैं पर रास्ते नहीं, सफ़र तो बहुत हैं पर हमसफ़र नहीं
राहें तो बहुत हैं पर हमराही नहीं, रिश्ते तो बहुत हैं पर वो चाहत नहीं
पराए तो बहुत हैं पर कोई अपना नहीं, मित्रता तो बहुत है पर कोई सच्चा मित्र नहीं
उद्देश्य तो बहुत हैं पर लगन नहीं, समय तो बहुत है पर उसका सदुपयोग नहीं
दुःख तो बहुत हैं पर दवा नहीं, बेवफ़ाई तो बहुत है पर वफ़ा नहीं
कहानी रचयिता: दीपक सिक्का
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