देहाती समाज - 18 Sarat Chandra Chattopadhyay द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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देहाती समाज - 18

देहाती समाज

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

अध्याय 18

जेल की चहारदीवारी के भीतर बंद रमेश को स्वप्न में भी यह आशा न थी कि बाहर उनका विरोधी वातावरण अपने आप ही स्वच्छ हो कर निर्मल हो सकता है। अपनी कैद समाप्त कर, जेल के फाटक से बाहर का दृश्य देख कर विस्मयानंद से उनके दोनों नेत्र विस्फरित हो उठे कि उनके स्वागत के लिए, जेल के फाटक पर लोगों का जमघट खड़ा है। हिंदू -मुसलमानों की भीड़ के आगे विद्यार्थी समुदाय खड़ा है, उनके आगे मास्टर लोग हैं। सबसे आगे, सिर पर चद्दर डाले वेणी बाबू विराजमान हैं।

रमेश को गले से लगाते हुए, भरे गले से वेणी बाबू बोले - 'हमारा-तुम्हारा रक्त एक है! उसमें कैसा आकर्षण है! उसे मैंने पहले जान-बूझ कर अपने से दूर रखा था। मैं जानता तो पहले से भी था, पर जबरदस्ती आँखें मूँद रखीं कि रमा भैरव को बरगला कर, अपनी लाज-शर्म ताक पर रख कर, अदालत में तुम्हारे विरुद्ध झूठी गवाही दे कर तुम्हें इस तरह फँसा देगी। मुझे भी भगवान ने इस पाप का खूब दण्ड दिया है! जेल के भीतर तुम्हारा जीवन इन सब बातों से दूर शांति से तो बीता; मैं तो वेदना की आग में निरंतर छह माह तक जलता रहा हूँ।!'

रमेश तो इस अप्रत्याशित दृश्य को देख कर स्तब्ध रह गया था। खड़े-खड़े कुछ समझ ही न पा रहे थे कि क्या कहें, क्या करें? स्कूल के हेडमास्टर जी ने तो साष्टांग दण्डवत कर, उनकी चरण-रज माथे पर लगा ली। भीड़ में से आगे बढ़ कर किसी ने आशीर्वाद दिया, किसी ने पैर छुए, किसी ने सलाम किया, किसी ने नमस्कार! वेणी का दिल उमड़ पड़ रहा था। भरे गले से वे फिर बोले -'मुझसे अब न रूठो, भैया! चलो, घर चलो! माँ ने रोते-रोते आँखें फोड़ डाली हैं!!'

घोड़ागाड़ी वहीं तैयार खड़ी थी। रमेश चुपचाप जा कर उस पर बैठ गया और वेणी उसके सामनेवाली सीट पर बैठे। उन्होंने अपने सिर से चादर हटा ली थी। चोट का घाव तो सूख गया था, पर अपने निशानों की छाप स्पष्ट छोड़ गया। उस पर नजर पड़ते ही रमेश ने चौंक कर कहा - 'यह क्या हुआ, बड़े भैया?'

दीर्घ निःश्‍वास छोड़ कर, वेणी ने अपना दाहिना हाथ उलटते हुए कहा - 'मेरे अपने ही कर्मों का फल है भैया, क्या करोगे सुन कर उसे?'

वेणी ने चेहरे पर व्यथा के चिह्न स्पष्ट हो उठे। वे चुप हो गए। उन्हें अपनी गलती स्वयं स्वीकार करते देख कर रमेश का हृदय द्रवित हो उठा उनके प्रति।

रमेश को आशंका हो गई कि कोई घटना अवश्य घटी है। पर उसे जानने के लिए अधिक अनुरोध न किया उन्होंने। रमेश को इसका कारण न पूछते देख, वेणी ने सोचा कि जिस बात को कहने के लिए उन्होंने इतनी सफलता से पृष्ठभूमि तैयार की थी वह जैसी की तैसी ही रही जा रही है, तो थोड़ी देर चुप रह कर, दीर्घ निःश्‍वास छोड़ स्वयं ही बोले - 'मेरी जन्म से ही आदत है कि जो मन में होता है, वह जुबान से भी साफ कह देता हूँ। कई बार छिपा कर नहीं रख पाता! अपनी इस आदत के कारण, न जाने कितनी बार सजा भुगतनी पड़ी है, पर होश नहीं आता!'

रमेश को सुनते देख आगे कहा - 'भैया, जब मुझसे वेदना का भार न सहा गया, तो मैंने रो कर रमा से कहा कि हमने तुम्हारा ऐसा क्या बिगाड़ा था कि तुमने हमारा घर ही बिगाड़ डाला! रमेश की सजा की बात सुन कर, माँ रो-रो कर जान दे देंगी। हम भाई -भाई हैं, चाहे लड़ते-झगड़ते रहें, कुछ भी करते रहें, फिर भी दोनों भाई हैं; पर तुमने तो एक ही चोट में मेरे भाई को मारा और हमारी माँ को भी! भगवान हमारी भी सुनेंगे!' कह कर वेणी ने गाड़ी के बाहर से आसमान की तरफ देखा, मानो फिर भगवान के सामने कुछ विनती कर रहे हों। रमेश शांत बैठा रहा। थोड़ी देर बाद वेणी ने फिर कहा - 'उस रमा ने तो वह चंडी रूप धारण किया कि रमेश, मैं तो आज भी उसकी याद से सिहर उठता हूँ। उसने दाँत किटकिटा कर कहा था - रमेश के बाबू जी ने भी तो मेरे बाप को जेल भिजवाना चाहा था, और बस चलता तो भिजवा कर ही रहते! मुझसे उसका घमण्ड देखा न गया और मैंने भी कह दिया कि रमेश को छूट कर आ जाने दो, तब देखा जाएगा! बस यही है मेरा दोष, भैया!'

रमेश को वेणी की बातें पूरी तरह समझ में नहीं आ रही थीं। उसे यह भी नहीं मालूम था कि कब उसके पिता ने रमा के पिता को सजा कराना चाहा था! उसे यह याद हो आया कि जब वह गाँव में आया ही आया था, तब भी रमा की मौसी ने ऐसी ही बात कह कर जली-कटी सुनाई थी। इसलिए बड़े ध्यान से सुनने लगा। वेणी ने भी उनकी उत्सुकतापूर्ण लगन देख कर कहा - 'खून-खच्चर तो उसके बाएँ हाथ का काम है! तब तुमको मारने के लिए अकबर लठैत को भेजा था; जब तुमसे बस न चला तो फिर मुझे ही धर -दबाया, सो वह तुम्हारे सामने ही है!'

और उसके बाद कल्लू के लड़के के संबंध में, झूठी-सच्ची नमक -मिर्च मिला कर मनगढ़ंत बातें वेणी ने रमेश को सुना दीं।

'फिर क्या हुआ?'

वेणी ने उदास चेहरे पर हँसी लाते हुए कहा - 'उसके बाद की मुझे भी याद नहीं कि कौन, कैसे, कब अस्पताल ले गया और वहाँ क्या हुआ? मुझे तो पूरे दस दिन बाद होश आया - यह कहो कि मेरा दूसरा जन्म हुआ है और वह भी माँ के प्रताप से! माँ लाखों में एक है हमारी।'

रमेश शांत बैठा रहा। सुनते-सुनते उसके दोनों हाथ एक में गुँथ कर मजबूती से कस उठे। अंदर ही अंदर घृणा, क्षोभ और व्यथा की प्रचंड ज्वाला धधकने लगी। उसका अंत कहाँ होगा, यह रमेश भी स्वयं न जान सका।

वेणी को वह अच्छी तरह समझ गया था कि वह कोई भी नीच से नीच कार्य नि:संकोच कर सकते हैं, पर उसने यह न सोचा था कि नि:संकोच हो, निर्लज्जता से वे झूठ भी हर दर्जे का बोल सकते हैं। तभी तो उसने उनकी बात को सत्य मान कर, अपने मन को दोषी ठहरा लिया, इसी कारण गुस्से से उसे मूर्च्छा तक आ गई थी। उसके गाँव में लौटने पर, चारों तरफ खुशियाँ मनाई जाने लगीं। हर समय कोई न कोई मिलने आता ही रहता। रमेश को सजा सुनते समय या जेल के अंदर पहुँच कर जो ग्लानि हो रही थी, अब वह न रही। उनके पीछे आस-पास के सभी गाँवों में एक सामाजिक नवजागरण हो उठा था। जब ठण्डे दिमाग से बैठ कर उसने सोचा कि इतना बड़ा परिवर्तन इतने से दिनों में ही कैसे संभव हो गया तब उसकी समझ में आया कि वेणी के विरोधी होने के कारण, जो धारा धीरे-धीरे उनके विरोध का सामना करते हुए बह रही थी, उनकी अनुकूलता से वह दोगुने वेग से बह उठी थी। वेणी को कितना मानते हैं गाँववाले! उलटा करने को कहे तो सब साथ, सीधा करने को कहे तो सब साथ! यह बात रमेश ने आज जानी। रमेश ने अब शांति की साँस ली - वेणी के विरोध से छुट्टी पा कर। सभी उनके दुख के प्रति अफसोस, उनके लिए सद्‍भावना प्रकट कर गए। समस्त गाँव की सद्‍भावना और वेणी का सहयोग पा कर रमेश की छाती फूल उठी। छह माह पहले जिस काम को छोड़ कर अचानक उन्हें इस तरह जेल चले जाना पड़ा था, उसे बढ़ाने का व्रत लेकर, वह फिर पूरे जोश के साथ उसमें जुट गया।

रमा से संबंधित बातों से, वह अपने को पूरी कोशिश करके अलग ही रखता था। रमा की बीमारी की सूचना उन्हें रास्ते में ही मिल गई थी, लेकिन एक बार भी उन्होंने यह न जानना चाहा कि उसको बीमारी क्या है। गाँव में आते ही अनेक लोगों से सुना था कि रमा ही उनके समस्त दुखों का कारण है। इसने वेणी की बातों को और भी पुष्ट कर दिया।

वेणी और रमा का पीरपुर गाँव की एक जायदाद के बँटवारे के सिलसिले में काफी पहले से ही मनमुटाव चला आ रहा था। उसे हथियाने का यह बड़ा ही उत्तम अवसर जाना, तभी उन्होंने पाँच-छह दिन बाद रमेश को जा घेरा। रमा से उन्हें भी मन ही मन डर लगता था। पर आजकल वह बीमार भी है। दवा-दारू तो हो न सकेगा उससे, और पीरपुर की प्रजा भी रमेश के कहे में है - उसे बेदखल करा कर अपने अधिकार में करने का यही उत्तम अवसर है! रमेश से इसमें साथ देने की उन्होंने जिद की, तब रमेश ने खुले शब्दों में, इस काम में उनका हाथ बँटाने में साफ मना कर दिया। हर तरह से उसे राजी करने की कोशिश कर चुकने के बाद वेणी बोले - 'उसने तो जरा भी कोर-कसर न रखी, तुम्हारे साथ बुराई करने में; तो फिर तुम क्यों न कर सकोगे? तुम सोचते होगे कि आजकल बीमार है - तुम भी तो जब बीमार पड़े थे उस जमाने में, उसने तुम्हें जेल भिजवाया था!'

बात तो सही कही थी वेणी ने, लेकिन फिर भी रमा के विरुद्ध कुछ भी करने को उनका जी न चाहा। जैसे-जैसे वेणी अपनी उत्तेजनापूर्ण बातों से उन्हें प्रभावित करना चाहते, वैसे-वैसे रमा की बीमार तस्वीर उनके सामने आ कर, उसके विरुद्ध कुछ भी करने की पुष्टि करती जाती। ऐसा क्यों हो रहा था, इसे वे स्वयं भी नहीं जानते थे। रमेश ने वेणी की किसी बात का उत्तर न दिया। वेणी भी हार कर चले गए।

रमेश पहले से जानता था विश्‍वेश्‍वरी को संसार से अधिक मोह नहीं रहा है। जेल से छूट कर आने पर, संसार से उनकी विरक्तता उसे आज अधिक जान पड़ी। आज जब उसने सुना कि वे काशीवास करने जा रही हैं और उनका विचार अब वहाँ से लौट कर आने का नहीं है, तब वह दंग रह गया। उसे इस संबंध में अब तक कुछ पता ही न था। जब वह पहले उनसे भेंट करने गया था, तब तो उन्होंने इस संबंध में कुछ कहा न था! बस, इन्हीं पाँच-छह दिनों से तो वह उनके पास नहीं जा पाया है!

रमेश को मालूम था कि उन्हें अपनी तरफ से किसी की आलोचना करने की आदत नहीं, और न उनका वैसा स्वभाव ही है। पर इस बात को सुन कर, उनके उस दिन के विरक्त व्यवहार की याद करके, उसकी आँखों के सामने सारी बातें साफ हो गईं। अब उनके जाने में उन्हें जरा भी संदेह न रहा और उनके प्रवास का विचार आते ही उसकी आँखें भर आईं और जरा भी देर न कर वह ताई जी के घर पहुँच गया। वहाँ पहुँचते ही दासी से पता चला कि वे रमा के घर गई हैं।

रमेश को विस्मय हुआ, पूछा - 'इस समय?' दासी काफी पुरानी थी। मुस्कराते हुए उसने कहा - 'आज तो यतींद्र का जनेऊ है न, और फिर उनके लिए समय-असमय की क्या बात है?'

रमेश ने और भी विस्मयान्वित हो कर पूछा - 'यतींद्र का जनेऊ है? यह तो मालूम ही नहीं है किसी को!'

'उन्होंने किसी को निमंत्रण नहीं दिया और दिया भी होता तो भी कोई उनके यहाँ खाने न जाता! उन्हें जाति से अलग जो कर दिया है!'

अब तो रमेश के विस्मय की सीमा न रही। थोड़ी देर तक मौन रह कर उसने पूछा - 'इसका कारण?'

दासी ने शरमा कर गर्दन घुमाते हुए कहा - 'हम तो गरीब आदमी ठहरे, छोटे बाबू! कुछ जानते नहीं। उनकी इधर-उधर ऐसी-वैसी बदनामी जो उड़ी है, उसी कारण। मैं जानती नहीं सब बातें!'

कह कर दासी चली गई और रमेश हक्का-बक्का-सा खड़ा रहा और थोड़ी देर बाद घर लौट आया। बिना पूछे ही, उसकी समझ में इतना तो आ गया कि वेणी के गुस्से का यही परिणाम है, जो रमा भुगत रही है। लेकिन क्यों इतना भयंकर क्रोध हुआ उसे, इसका कारण ही वह न जान सका।

***