देहाती समाज - 10 Sarat Chandra Chattopadhyay द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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देहाती समाज - 10

देहाती समाज

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

अध्याय 10

उस दिन से तीन महीने बाद, एक दिन रमेश सवेरे-सवेरे तारकेश्‍वर के तालाब पर, जिसे दुग्ध सागर भी कहते हैं, गया था। वहीं पर सहसा एक स्त्री से उसकी भेंट हो गई, नितांत एकांत में। वह बेसुध हो उसकी ओर घूरता रहा। वह स्त्री स्नान करके गीली धोती पहने, सीढ़ी चढ़ कर ऊपर आ रही थी। पानी से भीगे उसके केश, पीठ पर मस्ती से पड़े अलसा रहे थे। उसकी उम्र बीस वर्ष की होगी। पानी के भार से, धोती शरीर से सट गई थी, यौवन उससे बाहर फूट रहा था। चौंक कर, पानी का कलश जमीन पर रख, तुरंत अपने दोनों से अपने यौवन-कलश छिपा, अपने ही में सिमटती-सकुचाती वह बोली -'यहाँ कैसे आए आप?'

रमेश दंग रह गया, यह देख कर कि वह इसे पहचानती है। चौंक कर एक तरह हट कर बोला - 'क्या मुझे पहचानती हैं आप?'

'जी! पर आप आए कब यहाँ?'

'आया तो आज ही सवेरे हूँ। मामा के घर से और भी औरतें आनेवाली थीं; पर वे तो आई नहीं दीखतीं!'

'ठहरे कहाँ हैं यहाँ पर?'

'कहीं भी नहीं! यही आने का यह मेरा पहला ही मौका है। अब तो आज की रात बिताने को कहीं स्थान तलाश करना ही होगा।'

'नौकर तो होगा साथ में?'

'नौकर तो नहीं है, अकेला हूँ।'

'हूँ!' और मुस्कराते हुए उसने अपनी आँखें ऊपर कीं, फिर चारों आँखें आपस में लड़ गईं। पर उसने तुरंत ही आँखें नीची कर लीं, और थोड़ी देर कुछ सोचती -सी रह कर बोली - 'तो चलिए फिर, साथ!'

और उसने अपना पानी का कलश उठा कर चलना शुरू कर दिया। रमेश अजीब असमंजस में पड़ गया। बोला - 'अगर मेरे चलने से किसी प्रकार की हानि हो, तो आप इस तरह चलने को कहती भी नहीं, इसी विश्‍वास पर मैं चलता हूँ आपके साथ! याद तो मुझे भी आ रही है कि मैंने आपको कहीं देखा है। सूरत पहचानी-सी पड़ती है, पर यह नहीं याद आ रहा कि कहाँ और कब देखा है। कृपया अपना परिचय तो दे देतीं आप!'

'आप यहाँ प्रतीक्षा कीजिए थोड़ी देर, मैं पूजन कर अभी आई। फिर साथ चलते-चलते, रास्ते में परिचय भी दूँगी आपको!'

और वह मंदिर में चली गई। रमेश उसकी तरफ विमोहित दृष्टि से देखता रहा कि निश्‍चय ही यह यौवन ही है, जो उसकी धोती में से छन-छन कर उसके अंतर को घायल कर रहा है। उसका अंग-अंग रमेश को पहचाना-सा लगने लगा, पर पूरी तरह से उसे अंत तक याद न कर सका। आधा घण्टे बाद पूजा समाप्त कर जब वह मंदिर से बाहर निकली तब फिर पहचान पाने के लिए उसने एक गहरी नजर उसके चेहरे पर डाली, पर फिर भी न पहचान सका।

रास्ते में चलते समय रमेश ने पूछा - 'क्या आप यहाँ अकेली ही रहती हैं?'

'अकेली तो नहीं, एक दासी साथ है, जो घर पर ही काम कर रही होगी! वैसे तो यहाँ का सभी कुछ भली प्रकार मुझसे परिचित है, जब-तब यहाँ आया ही करती हूँ।'

'पर मैं यह तो अब तक न समझ पाया, कि आप मुझे क्यों ले रही हैं अपने साथ?'

उसने रमेश के प्रश्‍न का तुरंत कोई उत्तर न दिया। थोड़ी देर तक तो दोनों ही चुपचाप चलते रहे, फिर उस स्त्री ने कहा - 'न चलने पर, यहाँ आपको खाने -पीने में बड़ा कष्ट होगा। मैं रमा हूँ।'

रमा ने अपने सामने बैठा कर रमेश को खाना खिलाया और पान खिला कर, उसके आराम करने के लिए, अपने ही हाथों से दरी बिछा कर दूसरे कमरे में चली गई। रमेश आँखें बंद करके दरी पर आराम करने लगा। लेटे-लेटे उसे तेईस वर्ष का जीवन इस एक क्षण में ही नितांत बदला-बदला नजर आने लगा। बचपन से ही उसका सारा जीवन निर्देश में ही बीता था, और इस उमर तक, भूख का अनुभव उन्हें सिर्फ पेट भरने तक ही था। उन्हें यह मालूम न था कि उसमें भी एक तृप्ति का आनंद होता है, जिसे आज रमा के हाथ का, उसके सामने ही, उसके माधुर्य में पके भोजन कर उसने पाया था।

रमा को चिंता थी कि वह यहाँ पर रमेश के खाने के लिए कोई विशेष सामग्री न जुटा पाई थी। सभी चीजें बहुत साधारण-सी थीं। उसे यह चिंता कचोट रही थी कि वह कहीं भूखा न रह जाए और उसके मुँह से निंदा के शब्द उसे सुनने पड़ें। पर उसके भूखे रहने में, खुद के भूखे रहने की उसे कितनी चिंता थी? उसने आज सारी लज्जा और संकोच को परे रख, अपने अभिभूत अंत:करण से सारा खाना रमेश के सामने रख दिया था, और कमी को कहीं रमेश ताड़ न ले, इसलिए स्वयं उनके सामने आ कर बैठी थी। और जब रमेश ने भोजन समाप्त कर तृप्ति की साँस ली, तो उससे कहीं बढ़ कर तृप्ति का निःश्‍वास रमा के अंत:करण से निकला - जिसे चाहे और किसी ने न देखा हो, पर अंतर्यामी से वह किसी तरह छिपी नहीं रही।

रमेश दोपहर में कभी सोने का आदी नहीं रहा, इसलिए अपने सामने की खिड़की से बाहर वर्षा के बाद धूमिल बादलों से आच्छादित आकाश को वह टकटकी बाँधे देखता रहा। इस समय से अपनी आनेवाली रिश्तेदार स्त्रियों का बिलकुल खयाल ही न रहा। तभी सहसा उसे रमा का सुकोमल स्वर दरवाजे पर से सुनाई पड़ा - 'आज यहीं न रह जाए! घर तो आपको जाना नहीं है आज!'

रमेश उठ कर बैठता हुआ बोला - 'मकान मालिक से तो अभी मेरा परिचय हुआ नहीं, उनकी आज्ञा के बिना कैसे रह सकता हूँ।'

'मकान मालिक ही आपसे ठहरने का अनुरोध कर रहे हैं! मैं ही इस मकान की मालकिन हूँ।'

'भला यहाँ मकान क्यों ले रखा है?'

'यह स्थान मुझे बहुत रमणीक लगता है। जब तब यहीं आ कर दिन बिता जाती हूँ। आजकल तो यहाँ सूना-सा पड़ा है, वरना कभी-कभी तो तिल धरने तक की जगह नहीं मिलती!'

'तो फिर उसी समय आया करो न!'

रमा ने इसका उत्तर न दिया, केवल मुस्करा कर रह गई।

'तारकेश्‍वर बाबा के प्रति तुम्हारी बड़ी भक्ति जान पड़ती है, क्यों?'

'वैसे मेरे भाग्य कहाँ! पर जो कुछ बन पड़ता है, साँस रहते करने की कोशिश तो करनी ही चाहिए!'

रमेश ने इसके बाद कई सवाल किए। रमा भी वहीं चौखट पर बैठ गई और बात का रुख पलटती हुई बोली - 'क्या खाते हैं रात को आप?'

रमेश ने जरा मुस्करा कर कहा -'जो मिल जाए! खाने पर बैठने के बाद मैं कभी खाने के विषय में नहीं सोचता, और हमेशा अपने महाराज की अक्ल पर संतोष कर लेता हूँ।'

'आज यह उदासी कैसे है?'

रमेश न समझ सका कि रमा ने उसका मखौल उड़ाने के लिए यह वाक्य कहा है अथवा साधारण व्यंग्य में। उसने छोटा-सा उत्तर दिया-'कुछ नहीं, वैसे ही। जरा-सी सुस्ती है!'

'औरों के काम में तो सुस्ती दिखाते कभी नहीं देखा आपको!'

'अगर दूसरे के काम में सुस्ती की जाएगी, तो भगवान की अदालत में उसके प्रति उत्तरदायी होना पड़ेगा! हो सकता है, अपने काम में सुस्ती दिखाई पर भी उत्तर देना पड़ता हो, पर उतना नहीं - यह तो निश्‍चय ही है!'

थोड़ी देर मौन रह कर रमा बोली - 'इस उमर में आपको परलोक की चिंता कैसे लग गई? तीन ही वर्ष तो बड़े हैं आप मुझसे!'

रमेश ने मुस्कराते हुए कहा - 'तब तो तुम्हें मुझसे भी कम परलोक की चिंता रहनी चाहिए! ईश्‍वर की कृपा से तुम्हारी बड़ी उमर हो, पर मैंने अपने बारे में, अपना हर दिन जीवन का अंतिम दिन समझा है।' रमेश ने यह वाक्य अपनी व्यथा के दिग्दर्शन के लिए भी कहा था, और उसका असर भी ठीक ही बैठा। रमा के चेहरे पर काली छाया दौड़ गई। थोड़ी देर मौन रह कर उसने कहा - 'मैंने आपको कभी न मंदिर जाते देखा, न ध्यान करते ही! पर वह न सही, खाना खाते समय आचमन करना भी आपको याद नहीं रहा क्या?'

'याद तो है, पर यह खूब समझता हूँ कि उसका याद रहना-न-रहना एक-सा ही है! और यह सब तुम पूछ क्यों रही हो?'

'आपको परलोक की बड़ी चिंता है, इसलिए।'

रमेश निरुत्तर रहा। फिर थोड़ी देर तक दोनों ही मौन रहा। बाद में रमा बोली - 'हिंदू घर की किसी विधवा को, अपने किसी सगे द्वारा 'बड़ी उमर' का आशीर्वाद शाप देने के बराबर है!' थोड़ी देर मौन रह कर वह फिर बोली -'मैं यह भी नहीं कहती कि आज ही मरने को बैठी हूँ। पर यह जरूर सत्य है कि अधिक दिन तक जीने के विचार से ही मेरा सारा शरीर सिहर उठता है। परंतु आपके साथ यह बात लागू नहीं होती! वैसे तो मुझे कोई हक नहीं कि आपसे किसी बात के लिए जोर दे कर कहूँ, पर जब दूसरों के लिए मगज मारना आपको भी, दुनिया में आ जाने के बाद बचपना मालूम पड़े, तब मेरी बात याद कर लीजिएगा!'

रमेश ने इसका कोई भी उत्तर नहीं दिया। एक लंबी-सी, ठण्डी आह उसके अंदर से फूट निकली। थोड़ी देर बाद, अस्फुट स्वर में वह बोला-'जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, वहाँ तक तो मुझे कोई ऐसी बात याद नहीं पड़ती! आज तो मेरा -तुम्हारा कोई नाता नहीं, बल्कि यों कहूँ तो अधिक सत्य होगा कि मैं तुम्हारे रास्ते का एक रोड़ा हूँ। फिर भी आज जितनी खातिर तुमने मेरी की है, उतनी खातिर जिसे रोज मिले, वह दूसरों के दु:ख और उनकी व्यथा देख, पागल हो कर इधर-उधर दौड़े बिना नहीं रह सकता! मैं अभी पड़ा-पड़ा यही सोच रहा था। किंतु तुमने जरा-सी देर में ही, मेरे जीवन-स्रोत में नवीनता की एक उमंग भर दी है। जीवन में यह पहला अवसर है, जब किसी ने मुझे इतने प्रेम और आदर के साथ अपने पास बैठा कर खिलाया है। और वह तुम हो, रमा! आज जीवन में पहली बार, तुम्हारे हाथ और प्रेम से परोसा खाना खा कर यह ज्ञात हुआ कि भोजन में भी महान आनंद है!'

रमा सुन-सुन कर मारे लज्जा के सिहर उठी। उसका सारा चेहरा आरक्त हो उठा। अपने को संयत कर उसने कहा - ' लेकिन इसे भी आप थोड़े दिनों में भूल जाएँगे; और फिर कभी याद भी आएगा, तो यों ही मामूली तौर पर!'

रमेश ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। रमा ने ही फिर कहा - 'मैं अपना अहोभाग्य समझूँगी, अगर आप घर जा कर मेरी निंदा न करें!'

रमेश ने एक ठण्डी आह भर कर कहा - 'न मैं इसकी तारीफ करूँगा, न निंदा ही! मेरा आज का दिन तो इन दोनों से परे है!'

रमा निरुत्तर रही; थोड़ी देर तक दोनों ही चुपचाप बैठे रहे। बाद में रमा वहाँ से उठ कर कमरे में चली गई, जहाँ उसकी आँखों से आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें टपकने लगीं।

***