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देहाती समाज - 6

देहाती समाज

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

अध्याय 6

श्राद्धवाले दिन विश्‍वेश्‍वरी के व्यवहार की चर्चा, आस-पास के दस-पाँच गाँव तक में फैल गई। वेणी की हिम्मत नहीं थी कि उसके लिए वह उनसे कुछ कहे। तभी वह जा कर मौसी को बुला लाया और वास्तव में उन्होंने विश्‍वेश्‍वरी को वह खरी-खोटी सुनाई, कि जिस तरह सुना जाता है कि पहले कभी तक्षक नाग ने अपना एक दाँत गड़ाकर ही, पीपल के पेड़ को जला कर राख कर दिया था; उसी तरह उनका शरीर जल कर राख तो नहीं हुआ, पर उसकी जलन से वे तिलमिला जरूर गईं। उन्होंने समझ तो लिया कि उनके सुपुत्र के ही षडयंत्र से उनका यह अपमान हुआ है, तभी उसका खयाल कर, उसे चुपचाप पी गईं, क्योंकि उन्हें डर था कि अगर उन्होंने किसी भी बात का उत्तर दिया, तो पुत्र की पोल खुल जाएगी और रमेश भी उसे सुनेगा। इस विचार-मात्र ने ही उन्हें शर्म से पानी-पानी कर दिया था।

पर रमेश के कानों तक बात पहुँच ही गई थी। रमेश को यहाँ तक तो खतरा था कि ताई जी और वेणी भैया में उसे लेकर काफी कहासुनी होगी; पर उन्हें स्वप्न में भी वेणी से यह आशा नहीं थी कि वह इतनी नीचता तक भी पहुँच सकता है कि एक अन्य घर की स्त्री को बुला कर अपनी माता का ही अपमान कराए! इसका विचार करते ही रमेश के गुस्से की सीमा न रही और उनके मन में आया कि अभी, इसी समय वेणी के घर जा कर, जो भी कटु वचन कहा जा सके जी खोल कर सुना आए। लेकिन उससे तो ताई जी का ही और अधिक अपमान होगा - यही सोच कर वे नहीं गए। पिछले दिन मास्टर साहब तथा दीनू भट्टाचार्य जी से रमा के संबंध में सुन कर, उसके प्रति उनकी भावना काफी उच्च बन चुकी थी। ताई जी के अलावा, इस अंधकार के साम्राज्य में उन्हें दूसरी प्रकाश-किरण मुकर्जी के परिवार से ही दीख रही थी। इससे उन्हें प्रसन्नता बड़ी हुई थी, लेकिन ताई जी के अपमान की घटना ने उनके मन में रमा के प्रति एक अजीब घृणा भर दी और अब तक जहाँ उसे प्रकाश दिखाई देता था, वहाँ उसे घृणित घोर अंधकार दिखाई पड़ने लगा। उन्हें पूरा विश्‍वास हो गया था कि रमा और उनकी मौसी ने मिल कर, वेणी का पक्ष लेकर उनके संबंध में ही ताई जी का अपमान किया है; पर चाह कर भी उन्हें अंत तक यह न समझ में आया कि आखिर वह इस अपमान का बदला उससे ले, तो कैसे ले!

अभी तक ऐसी भी बहुत-सी जायदाद मौजूद थी - जो मुखर्जी और घोषाल - दोनों घरानों के साझे में ही थी। भैरव आचार्य के घर के पीछे गढ़नाम का तालाब तीनों के साझे में ही था। एक जमाना था जब तालाब काफी बड़ा था -लेकिन साझे में, मरम्मत की जिम्मेदारी किसी ने न लेने पर, वह बेचारा निराशा से मर-मिटा और अब एक मामूली गड़ही के आकार का ही रह गया था। अच्छी मछलियाँ कभी उनमें तो होती ही नहीं थीं और न बाहर से ही मँगा कर उसमें छोड़ी जाती थीं। बस दो-एक तरह की साधारण-सी मछलियाँ ही उसमें होती थीं। उस दिन वेणी उसमें से मछलियाँ पकड़वा रहे थे और रमेश को इसका पता भी नहीं था - तभी भैरव ने दौड़ कर इस घटना की उनको सूचना दी।

'गढ़ की सारी मछलियाँ पकड़ी जा रही हैं, सरकार महाशय! अपने आदमी नहीं भेजे, अपना हिस्सा लाने को!'

सरकार ने हाथ की कलम कान में खोंस ली - पकड़वा कौन रहा है?'

'भला और हिम्मत किसकी हो सकती है! मुकर्जी का पछैया दरबान है और वेणी बाबू का एक नौकर है। आपका कोई आदमी वहाँ नहीं देखा, तभी कहने आया हूँ कि जल्दी भेजिए वहाँ किसी को!'

'ले जाने दो, हमारे बाबू को मांस-मछली से घृणा है।'

'उन्हें घृणा है, तो इसमें अपना हिस्सा भी छोड़ बैठेंगे?'

'चाहते तो हम भी सभी हैं, उसमें से हिस्सा लेना - और अगर बड़े बाबू मौजूद होते, तो वे लेकर ही रहते। लेकिन हमारे छोटे बाबू तो इस प्रवृत्ति के नहीं हैं!'

सुन कर भैरव विस्मयान्वित नेत्रों से सरकार जी के मुँह की तरफ देखता रहा। उसे इस तरह देखता देख, सरकार ने आगे जरा व्यंग्यभरी मुस्कान से कहा - आचार्य जी, आँखें क्यों फाड़ रहे हो? उस दिन वह हाट की उत्तर तरफ वाला, बड़ा-सा एक इमली का पेड़ कटवा कर, उन दोनों ही घरों ने आपस में बाँट लिया। मैंने आ कर बाबू से कहा, तो वे किताब पढ़ते हुए जरा देर को सिर उठा कर थोड़ा-सा मुस्करा दिए और फिर किताब पढ़ने लगे, बिना एक शब्द भी मुँह से निकाले! हमें उस पेड़ का पत्ता तक भी न मिला। जब मैंने कई बार कहा, तब उन्होंने एक लंबी-सी उसाँस लेकर कहा कि क्या हमारे यहाँ इमली के और पेड़ नहीं? मैंने कहा भी कि पेड़ तो अपने पास बहुत हैं, पर अपना हिस्सा है, उसे तो लेना ही चाहिए! पाँचेक मिनट मौन रह कर, उन्होंने मुस्करा कर कह दिया - 'यह सब कुछ ठीक होते हुए भी, दो -चार लकड़ियों के पीछे झगड़ा क्यों किया जाए!'

भैरव की विस्मित आँखें और चकित हो कर फट गईं, बोले - 'कहते क्या हैं आप यह?'

'मैंने तो सच ही कहा है। उसी दिन समझ पाया और समझ लिया कि ऐसी बातों के लिए इनसे कुछ भी कहना धूल में लट्ठ मारना है। सच तो यह है आचार्य जी, कि इस घर की लक्ष्मी तो चली गई तारिणी बाबू के साथ ही!'

भैरव कुछ देर मौन रह बोले - 'मेरा तो फर्ज था कहने का, क्योंकि वह ताल मेरे घर के पीछे ही पड़ता है।'

'कहीं किताबों में ही हरदम आँखें गड़ाए रहने से जमींदारी चली है! यह मुकर्जी की लड़की भी इन सब बातों को सुन, खूब मखौल उड़ाती है और उसी दिन उसने गोविंद को बुला कर खिल्ली उड़ाते हुए ही कहा था, कि रमेश बाबू को तो चाहिए कि वे अपनी सारी जमींदारी हमें दे दें, और अपना महीने का खर्चा लिए जाएँ। भला आचार्य जी! एक औरत इस तरह एक पुरुष की खिल्ली उड़ाए? इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है?' यह कह, सरकार महाशय मुँह लटका कर, फिर कलम कान पर से हटा कर घिसने लगे।

घर में स्त्री न होने के कारण सब खुला चौपट्ट मैदान था। भैरव धड़धड़ाते अंदर पहुँच गए। रमेश एक बरामदे में, एक टूटी-सी आराम कुर्सी पर लेटे पुस्तकावलोकन कर रहा था। भैरव ने पहले तो उन्हें जमींदारी की रक्षा तथा उसे चलाने के लिए उनके कर्तव्यों का एक लेक्चर पिला कर, अपने फर्ज को निभाने के लिए उत्तेजित किया और तब असल मकसदवाली बात कही। सुनते ही रमेश गरज कर कुर्सी से उछल पड़ा - 'भजुआ! रोज की ये चालाकियाँ यों चलती रहेंगी क्या?'

उनके उस अग्र रूप को देख कर भैरव भी सिहर उठे और उनकी समझ में ही न आया कि चालाकियों से रमेश का इशारा किस तरफ है।

भजुआ का शहर गोरखपुर था। लाठी खूब भाँजता था और शरीर भी काफी बलवान था। लाठी में रमेश को वह गुरु मानता था, अपना नाम सुनते ही वह रमेश के सम्मुख आ उपस्थित हुआ।

उसे आता देख रमेश ने आज्ञा दी कि जा कर सारी मछलियाँ बीन लो। अगर कोई रोकने की गुस्ताखी करे, तो उसे घसीट कर मेरे सामने ले आओ, और नहीं तो उसके दाँत तो तोड़ ही आना!

भजुआ को तो मन की मुराद मिल गई, आज्ञा पाते ही अपनी तेल-पिलाई लाठी लेने अंदर लपका। भैरव और भी सिहर कर काँप उठे। उनकी हिम्मत तो बस बातों से ही झगड़ा करने भर की थी और जब भजुआ रमेश की आज्ञा पर चला गया, तब दुर्घटना की चिंता ने उन्हें व्याकुल कर दिया और उन्हें खयाल हो आया कि जो बादल गरजते नहीं, वे बरसते जरूर हैं! वे रमेश के हितैषी जरूर थे, तभी तो सूचना देने आए थे। पर चाहते यही थे कि बातों से ही, चीख -पुकार कर काम बन जाए। लेकिन यहाँ तो बानक ही दूसरा बना जा रहा था। भैरव फौजदारी की साँसत से कोसों दूर भागना चाहते थे। थोड़ी देर बाद, भजुआ तेल से तर मोटी लाठी लेकर अंदर से आया और माथे से लाठी लगा रमेश को प्रणाम कर जाने लगा। तभी भैरव ने एकाएक रोना शुरू कर दिया और रमेश के दोनों हाथ पकड़ कर कहा - 'रुक जाओ भज्जू भैया। क्षमा करो भैया रमेश! जान साँसत में पड़ जाएगी। गरीब आदमी ठहरा!'

भजुआ रुक गया था। रमेश ने भैरव से हाथ छुड़ा लिए और दंग हो कर उनकी तरफ देखने लगा। भैरव ने रोते हुए ही कहा - 'वेणी बाबू ने कहीं सुन पाया कि मैंने ही इत्तला दी थी, तो बस मेरी खैर नहीं! घर-बार तक उजड़ जाएगा। फिर तो देवी-देवता भी रक्षा नहीं कर सकते मेरी!'

रमेश स्तंभित बैठे रहा। शोर सुन कर सरकार महाशय भी तशरीफ ले लाए। सुन कर वे भी बोले - 'भैयाजी, आचार्य का कहना ठीक ही है!'

रमेश ने किसी बात का उत्तर न दिया। हाथ से ही भजुआ को जाने का संकेत कर दिया और स्वयं उठ कर, बिना किसी से कुछ कहे-सुने अंदर चला गया। भैरव के इस अत्यधिक डर ने उसे और भी उत्तेजित कर दिया, जिसके कारण उनका सारा शरीर उत्तेजना से जल रहा था।

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