देहाती समाज
शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
अध्याय 8
'ताई जी!'
'रमेश बेटा! चले आओ भीतर!'
विश्वेश्वरी ने झटपट, उसके बैठने को एक चटाई बिछा दी। अंदर पैर रखते ही, वहीं पर बैठी एक दूसरी स्त्री पर उसकी नजर पड़ी, जिसके मुँह पर नजर पड़ते ही वह समझ गया कि वह रमा है! उसे देख कर वह चकित रहा गया। तुरंत ही मौसी द्वारा ताई जी के अपमान की बात याद आते ही, गुस्से से भर उठा वह।
रमेश के इस तरह एकाएक आ जाने से, रमा भी अजीब संकट में फँस गई थी। अन्य कारणों के अलावा एक यह भी कारण था उसके इस तरह संकोच करने का कि रमेश से उसका एक दूसरा ही संबंध होनेवाला था। उस कारण से, एक बिलकुल अपरिचित की तरह पर्दा करने में भी उसे संकोच होता था, और न करते ही बनता था। मछलियों का झगड़ा अभी थोड़े ही दिन पहले हो चुका था। रमेश भी उसकी ओर बिना धयान दिए, चटाई पर ही एक तरफ बैठ गया और बोला - 'ताई जी!'
'दोपहर में कैसे भूल पड़े इधर?'
'दोपहर को न आऊँ तो कब आऊँ? और तो जब कभी आता हूँ, तो काम में लगी रहती हो, एक मिनट बैठने भी नहीं पाता तुम्हारे पास!'
विश्वेश्वरी ने जरा हँसकर, उसके इस वाक्य की सत्यता को स्वीकार कर लिया।
रमेश ने मुस्कराते हुए कहा - 'ताई जी! एक बार छोटेपन में, यहाँ से जाते समय तुमसे विदाई लेने आया था; वैसे ही आज भी विदा लेने ही आया हूँ, और संभवतः यही अंतिम विदाई भी हो!'
चेहरे पर उसके मुस्कराहट जरूर खेल रही थी, पर स्वर से स्पष्ट होता था कि उसका अंत:करण कितनी व्यथा से भरा है। रमा और विश्वेश्वरी - दोनों ही निश्चय में पड़ कर उद्विग्न हो उठीं।
'बड़ी उमर हो तुम्हारी, रमेश बेटा! ऐसी बात मुँह से नहीं निकालते!' - कहते--कहते उन दोनों की आँखें भर आईं। उन्होंने भरे गले से पूछा -'क्या यहाँ तबियत ठीक नहीं रहती तुम्हारी?'
अपने बलिष्ठ शरीर पर नजर डाल कर रमेश ने कहा - 'शरीर तो परिश्रम की दाल-रोटी से बना है! इतनी आसानी से खराब होने वाला नहीं है! मेरी तबियत तो भली-चंगी है; लेकिन यहाँ रहना मुहाल हो रहा है, एक क्षण को भी। यहाँ हर घड़ी दम निकलता-सा है।'
उसकी तबीयत तो अच्छी है, जान कर विश्वेश्वरी के जी में जी आया और निश्चिंतता की लंबी साँस खींच, हँसकर बोलीं - 'तुम यहाँ पैदा हुए; यहाँ की माटी में ही खेल-कूदकर पले-पुसे, बड़े हुए। यही तुम्हारी जन्मभूमि है, फिर क्यों नहीं रहा जाता?'
'तुम जानती तो हो सब कुछ! मैं अपने मुँह से सब बातें नहीं कहना चाहता।'
थोड़ी देर तक सभी मौन रहे, फिर विश्वेश्वरी बोलीं - 'जानती हूँ जरूर; पर सब नहीं, थोड़ा-सा ही! और तभी कहती हूँ कि और कहीं जाने से भी काम नहीं बनने का!'
'पर यहाँ तो मैं किसी को फूटी आँखों नहीं सुहाता!'
'इसीलिए तो तुम्हें यहाँ और भी जमना चाहिए! और फिर अपने इस हट्टे-कट्टे शरीर की तारीफ के पुल बाँध रहे थे सो क्या यों मुश्किलों से भागने के लिए बनाया है?'
रमेश का रोआँ-रोआँ गाँव के विरुद्ध बोल रहा था और आज तो वह पराकाष्ठा तक पहुँच गया। गाँव से स्टेशन को जाने वाला रास्ता आठ-दस वर्ष पहले की बरसात से टूट गया था, और तब से आज तक किसी ने उनकी बात तक न पूछी थी। हर साल बरसात में उसका आकार बढ़ता ही गया। वहाँ सदैव ही थोड़ा-बहुत पानी जमा होने लगा, जिसके कारण स्टेशन से आने-जानेवाले लोगों को हरदम खतरा रहता, और बड़ी मुश्किल से उसे पार करना होता। कभी लोग उसमें बाँस डाल देते और कभी ताड़ की छोटी नाव ही औंधी डालकर उस पर से पार होते। पर किसी गाँववाले ने कष्ट सहते हुए भी यह न सोचा कि इसे ठीक ही करा लिया जाए! रमेश ने उसकी मरम्मत कराने में पहल की, और मरम्मत के लिए चंदा उगाहने की बात सोची। पर आठ-दस दिन की दौड़-धूप के बाद भी उसे नाकामयाबी ही मिली। यहीं तक बात रहती, तो भी गनीमत थी; किंतु वहाँ तो लोगों में काना-फूसी चल रही थी। आज सबेरे वह जब टहलकर लौट रहा था, तब उन्होंने वह सुनार की दुकान के अंदर इसी बारे में काना-फूसी सुनी। एक ने हँसते हुए कहा था - 'एक धोला मत देना तुम लोग! उन्हें ही सबसे ज्यादा गरज है, सड़क बनाने की। ऐसे में भला चमकते जूते पहनकर उसे कैसे पार कर सकते हैं? तुम लोग दो चाहे न दो, मरम्मत तो वह आप कराएगा ही...तो फिर नाहक में हम दें ही क्यों भला? रही हम लोगों की बात, तो अब तक आते-जाते ही थे स्टेशन, काम तो रुका नहीं था, सो अब भी न रुका रहेगा!'
एक और आदमी ने कहा- 'अरे, अभी देखते तो चलो! उस दिन चटर्जी महाशय कह रहे थे - अभी तो रमेश से शीतला का मंदिर ठीक कराना है! बस, 'बाबू' कह कर दो-चार खुशामदी बातें कही नहीं कि काम बना नहीं!'
यही दो बातें थीं जो सबेरे से उसके सारे अंत:करण को विदीर्ण कर, उसे गाँव के प्रति विद्रोही बना रही थीं।
विश्वेश्वरी ने भी उसी काटे पर चोट कर पूछा -'बेटा, उस सड़क के ठीक कराने की बात थी न, सो क्या हुआ?'
रमेश तो जला-भुना बैठा ही था उस बात से, और तुनक कर बोले -'अब नहीं ठीक होती वह सड़क! न कोई एक धेला खर्च करेगा और न सड़क ही बनेगी!'
'और कोई न देगा, पर तुम तो अपने पास से खर्च कर ठीक करा ही सकते हो! बाबूजी जो बहुत सारा पैसा छोड़ गए हैं, उसी में से लगा देना, थोड़ा-सा!' रमेश के कटे में नमक लग गया। बोला - 'मुझे क्या गरज, जो मैं दूँ! बिना सोचे-समझे; स्कूल में ही इतने रुपए बहा दिए, उसी का सोच हो रहा है मुझे तो! यहाँवालों के लिए कुछ करना तो बिलकुल पाप है!' रमा की तरफ हाथ आगे करके बोला - 'यहाँवालों की कुछ भलाई करो, तो समझते हैं कि खूब बेवकूफ फँसा है - लूट सको तो लूट लो! और समझते हैं जैसे मेरी गरज है, हर काम में! किसी को क्षमा कर दो, तो सोचते हैं - डर गया, तभी छोड़ दिया!'
विश्वेश्वरी ठहाका मार कर हँस दीं, पर रमा मारे लज्जा के गड़ी जा रही थी। उसकी आँखें चेहरा एकदम से आरक्त हो उठीं।
रमेश उनके हँसने से और जल उठा। नाराज हो कर बोला - 'हँसी क्यों, ताई जी?'
'न हँसूँ तो क्या करूँ बेटा?' एक दीर्घ नि:श्वास लेकर वे बोलीं - 'रमेश, क्या तुम समझते हो कि इन पर नाराज हो कर भी कुछ असर डाला जा सकता है? ये हैं भी इस योग्य कि इन पर नाराज हुआ जा सके?' फिर एक ठण्डी आह भर कर बोलीं - 'अगर तुम जानते कि कितने गरीब, जाहिल, निर्बल हैं ये लोग, तो शायद तुम कभी यहाँ से जाने की बात न कहते! तुम इन्हें छोड़ कर जाना चाहते हो! मैं तो कहती हूँ कि जब तुम यहाँ आ ही गए हो, तो इन्हीं के बीच में रहो, बेटा!'
'पर मैं उन्हें फूटी आँख भी नहीं सुहाता।'
'तुम्हें अपना ही समझने की तमीज इनमें होती, तो फिर क्या बात थी? क्या अब भी तुम्हारी समझ में नहीं आता कि ये इस काबिल भी नहीं हैं कि इन पर तुम गुस्सा भी दिखा सको। और यही गाँव ऐसी हो, सो बात नहीं - यहाँ तो सभी गाँवो की यही दशा है, बेटा!' फिर सहसा रमा की तरफ नजर डाल कर बोलीं - 'अरे वाह बेटी, तुम तो बस सिर गड़ाकर ही बैठी हो, जैसे कोई मूर्ति हो! तुम दोनों भाई-बहनों में बोलचाल नहीं है क्या, रमेश?...नहीं, नहीं! ऐसा नहीं होना चाहिए, बेटी! बाप के साथ झगड़ा था, सो उन्हीं के साथ चला भी गया वह, अब उसे भूल जाना चाहिए!'
रमा ने उसी तरह से सिर झूका, आहिस्ता से कहा - 'मेरे मन में तो कोई मैल नहीं, ताई जी! रमेश भैया...।'
तभी रमेश कर्कश स्वर में बोल उठा और रमा का नम्र स्वर खो गया - 'तुम इस मामले में दखल मत दो, ताई जी! अभी इनकी मौसी से जाने कैसे जान बची है; और यदि आज फिर इन्हें भेज दिया, जो बिना कच्चा खाए न छोड़ेंगी!' और बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए वे बाहर चले गए।
'अरे, एक बात तो सुनता जा, बेटा! जरा रुक तो सही!'
रमेश ने दरवाजे के बाहर ही रुक कर कहा - 'ताई जी! मारे घमंड के जो तुम्हारे सिर पर चढ़ कर बोलना चाहते हैं, उनकी तरफदारी मत करो!' और जब तक विश्वेश्वरी फिर कुछ कहें, वह वहाँ से जल्दी-जल्दी चला गया।
रमा बिलख पड़ी और विश्वेश्वरी की तरफ भरी आँखों से देख कर बोली -'मैं तो मौसी को सिखा कर भेजती नहीं ताई जी! फिर मेरे माथे पर यह दोष क्यों? क्यों इसके लिए मुझे जिम्मेदार ठहराया, कलंक थोपा गया मेरे ऊपर?'
विश्वेश्वरी ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर और स्नेह से अपने अंक में आबद्ध कर कोमल, स्नेह-सिक्त स्वर में कहा - 'नहीं सिखाती हो तो क्या, पर गेहूँ के साथ घुन पिसता ही है!'
रमा ने आँसू पोंछ कर, क्रुद्ध पर दृढ़ता के स्वर में कहा - 'मौसी की बातों की जिम्मेदारी मुझ पर नहीं है! सच सकती हूँ ताई जी - मुझे उसका तनिक भी ज्ञान नहीं! फिर इस तरह झूठा दोष लगा कर क्यों मुझे अपमानित कर गए?'
इस बात को आगे बढ़ाना विश्वेश्वरी ने अच्छा नहीं समझा, सो उत्तेजना को कम करने के लिए कहा - 'बेटी, यह क्या जाने तुम्हारे घर के भीतर का हाल? उसकी नजर में तो, सब तुम्हारे इशारे से ही होता है! पर यह मैं पूरे विश्वास से कहती हूँ कि वह कभी तुम्हारा सिर नीचा नहीं देखना चाहेगा। गोपाल सरकार से मुझ पता चला है कि वह तुम्हें कितनी श्रद्धा और स्नेह की दृष्टि से देखता है - उसका तुम्हें पता भी नहीं! जब उस दिन इमली का पेड़ कटवा कर, तुम दोनों ने उसे किसी तरह का हिस्सा न दे, आपस में ही बाँट-बूँट लिया, तो लोगों के लाख कहने पर भी उसने यही कहा कि रमा ऐसी नहीं कि वह दूसरों के माल पर नजर डाले। जब तक वह है, मुझे किसी बात की चिंता नहीं! लाख लड़ाई-झगड़ा हो, पर मैं अच्छी तरह जानती हूँ बेटी, कि वह पहले की तरह तुमसे स्नेह करता है। और वैसा ही विश्वास भी। यदि उस दिन ताल की मछलियाँ...।'
और सहसा रमा के रक्तहीन चेहरे पर नजर पड़ते ही उनकी जुबान रुक गई और आँखें वहीं जम गईं। थोड़ी देर बाद स्वर में गंभीरता ला कर बोलीं - 'बेटी, रमेश के जीवन की कीमत, तुम्हारी सारी जमीन-जायदाद से कहीं ज्यादा है! कभी किसी लोभ में पड़ कर उसे खो मत बैठना! उसे खो देने से हुई हानि की फिर पूर्ति होना असंभव है!'
रमा निरुत्तर रही। विश्वेश्वरी भी मौन रहीं। थोड़ी देर बाद रमा ने ही कहा - 'अब घर चलूँ ताई जी! अबेर हो गई है।' और वह प्रणाम कर वहाँ से चली गई।
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