देहाती समाज
शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
अध्याय 17
विश्वेश्वरी ने कमरे के अंदर आ कर, रुआँसी हो कर पूछा - 'रमा बेटी, कैसी है अब तुम्हारी तबीयत?'
मुस्कराने की कोशिश करते हुए, उनकी तरफ देख कर रमा बोली - 'आज तो कुछ ठीक हूँ, ताई जी!'
रमा को आज तीन महीने से मलेरिया का ज्वर आ रहा है। खाँसी ने उसके बदन की नस-नस ढीली कर दी है। गाँव के वैद्य जी उसका इलाज जी-तोड़ कोशिश से कर रहे हैं, पर सब व्यर्थ। उन बेचारों को क्या मालूम कि रमा केवल मलेरिया के ज्वर से ही आक्रांत नहीं है, उसे तो कोई और अग्नि ही जला कर खाक किए डाल रही है। विश्वेश्वरी को उसकी अव्यक्त अग्नि का कुछ-कुछ ज्ञान हो चला था। वे रमा को अपनी कन्या की तरह प्यार करती थीं, तभी उनकी आँखें रमा के हृदय को पढ़ने में समर्थ हो सकीं। और लोग तो उसे सही तौर पर न जान पाए। तभी मनमानी गलत अनुमान करने लगे, जिसे देख कर विश्वेश्वरी और भी व्यथित हो उठीं।
रमा की आँखें दिन-पर-दिन अंदर को घुसी जा रही थीं, पर आँखों में अब भी एक चमक है, उनकी आँखों में ऐसा जान पड़ता है, मानो वह किसी चीज को देखने की लालसा में अपनी बुझती चमक को एकाग्र कर रही है। उसके सिरहाने बैठ कर, और उसके माथे पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा - 'रमा!'
'हाँ, ताई जी!'
'मुझे तुम अपनी माँ समझती हो न!'
'तुम्हीं तो मेरी माँ हो!'
उसका माथा स्नेह से चूम कर विश्वेश्वरी बोलीं - 'तो मुझे बताओ न सच-सच! तुम्हें क्या हुआ है?'
'मलेरिया का बुखार!'
रमा के पीले चेहरे पर विश्वेश्वरी को थोड़ी देर के लिए लाली की एक क्षीण झलक दिखाई पड़ी। उसके सूखे बालों में, अत्यंत स्नेह से उँगली फिराते हुए उन्होंने कहा - 'यह तो मैं भी देख रही हूँ, बेटी! लेकिन जो तुम्हारे दिल पर गुजर रही है, उसे मत छिपाओ! तुम अच्छी न हो सकोगी, उसे छिपाने से!'
अभी प्रात:काल का प्रथम चरण ही था, धूप भी मंद थी, वायु भी शीतल थी। खिड़की से बाहर देखती हुई रमा चुपचाप चारपाई पर पड़ी रही। थोड़ी देर बाद बोली - 'अब बड़े भैया की तबीयत कैसी है?'
'ठीक ही है! अभी सिर का घाव पुरने में तो दिन लगेंगे ही, पर पाँच-छह दिन में घर आने की छुट्टी मिल जाएगी, अस्पताल से!'
रमा के चेहरे पर व्यथा की रेखाएँ खिंची हुई थीं। उन्हें देख कर वे बोलीं -'दु:खी मत हो बेटी! उसका दिमाग ठिकाने करने को, इस मार की जरूरत ही थी!'
रमा सुन कर विस्मयान्वित हो उठी। उसका चेहरा देख कर वे आगे बोलीं - 'शायद तुमको विस्मय हुआ कि मैं माँ हो कर भी अपने बेटे के लिए ऐसे शब्द निकाल रही हूँ? लेकिन मैं ठीक ही कहती हूँ, बेटी! मैं यह नहीं जानती कि मुझे उसके चोट खाने से दु:ख हुआ है या प्रसन्नता, पर इतना अवश्य जानती हूँ कि इतना पाप करनेवाले को दण्ड अवश्य मिलना चाहिए! मेरी समझ में तो, कल्लू के लड़के ने वेणी को मारा क्या, उसका जीवन ही सँभल गया! उसकी मार ने वह काम किया है वेणी के जीवन के लिए, जो कोई अपना सगे-से सगा भी न कर सकता! बेटी कोयले का रंग बदलने के लिए उसे पानी में धोने भर से काम नही चलता, आग में जलाना भी होता है।'
'घर पर उस समय कोई भी नहीं था?'
'सभी लोग तो थे, पर वह तो जेल जाने की तय करके आया था, तभी उसने आदमियों के बीच मारा! उसने कोई अपनी दुश्मनी के कारण तो उसे मारा नहीं था। जब वेणी बाँक के एक ही वार से बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ा, तो वह रुक गया, दूसरा हाथ नहीं उठाया उसने! और जाते-जाते कह गया कि अगर अब भी उनकी अकल दुरुस्त न हुई, तो मैं चाहे जब लौटूँ, पर इनकी अकल फिर जरूर ही दुरुस्त की जाएगी!'
रमा ने अस्फुट स्वर में कहा - 'भैया के पीछे अभी और भी आदमी घात लगाए हैं, इसके मानी हैं कि पहले तो उन नीच कौम के लोगों में इतनी हिम्मत कभी आई नहीं थी! अब कहाँ से आ गई?'
विश्वेश्वरी ने मुस्कराते हुए कहा - 'किसने इनकी हिम्मत बुलंद की, तुम नहीं जानतीं क्या बेटी? लगी आग बुझते-बुझते भी आस-पास को झुलसा जाती है! मेरा बेटा रमेश जुग -जुग जिए। और अब छूट कर जहाँ जी में आए चला जाए। वेणी के लिए तो मैं कभी आह न भरूँगी!'
कहते-कहते विश्वेश्वरी ने अपने गले से निकलती एक आह को जबरदस्ती दबाया, तो रमा की आँखों से छिपा न रहा। उसका हाथ अपनी छाती पर रख कर वह पड़ी रही।
विश्वेश्वरी ने अपने को संयत कर फिर कहा - 'बेटे के लिए माँ का दर्द अभी तुम नहीं जानतीं! जब वेणी को घायल अवस्था में बैठा कर लोग अस्पताल ले गए, तब मेरे दिल पर जो बीती, वह मैं ही जानती हूँ। पर किसी को दोष देने और कोसने की तबीयत मेरी न हुई, बेटी! मैं जानती थी कि माँ होने के कारण मैं चाहे जितना भी दु:ख क्यों न करूँ, पर उसके कुकर्मों के लिए दण्ड तो मिलना ही था!'
कुछ सोचने के बाद रमा के कहा - 'बहस करने की तो हिम्मत है नहीं तुमसे ताई जी, पर इतना पूछती हूँ कि यदि पाप के फलस्वरूप ही दण्ड मिलता है, तो रमेश भैया जो बड़ा दण्ड भोग रहे हैं सो किस पाप के परिणाम में? उन्हें तो हमने ही जेल भिजवाया है!'
'हाँ, बात तो ऐसी ही है! इसी कारण तो वेणी को अस्पताल की चारपाई पकड़नी पड़ी और तुम्हें भी!'
कहते-कहते वे रुक गईं और बात बदल कर बोलीं - 'बेटी, हर एक कार्य यों ही नहीं हो जाता! उसका एक निश्चित कारण होता है और एक निश्चित परिणाम भी! पर यह दूसरी बात है कि सब उसे न जान सकें! तभी यह समस्या आज उलझी है कि एक आदमी के पास का फल अन्य क्यों भोगता है? पर दरअसल भोगना पड़ता है जरूर!'
रमा को अपने किए की याद आ गई, और इसके साथ ही उसके मुँह से एक ठण्डी आह निकल गई।
विश्वेश्वरी बोलीं - 'कहने से ही कोई भला काम नहीं करता, इस मार्ग पर पैर रखने के लिए अनेक और भी मंजिलें पार करनी होती हैं! रमेश ने निराश हो कर एक दिन मुझसे कहा था कि वह इन सबकी भलाई नहीं कर सकता और जाना चाहता है यहाँ से! मैंने ही उसे जाने से मना कर कहा था - 'बेटा, जिस काम में हाथ डाला, उसे बिना पूरा किए जाना ठीक नहीं!' बात तो वह पलट नहीं सकता मेरी किसी तरह, तभी जब मुझे उसके जेल जाने की खबर मिली, तो मैंने सोचा जैसे मैंने ही उसे धकेल कर जेल जाने पर विवश किया हो!' पर जब वेणी अस्पताल गया, तब मैंने समझा कि उसे जेल की बहुत जरूरत थी, और बेटी, जब तक आदमी भले-बुरे में अपने को खो नहीं देता, उन्हीं का हो कर नहीं रहता, तब तक भलाई करना संभव नहीं। लेकिन मैं न जानती थी कि यह मार्ग इतना कंटकाकीर्ण है। वह तो आरंभ से ही अपनी शिक्षा और उच्च संस्कार के बल पर उस उच्च आसन पर आसीन हो गया था जिस तक किसी के लिए पहुँचना असंभव था। अब मैं उसे समझ सकी हूँ। मैंने ही उसे जाने न दिया, और अपना बना कर भी उसे न रख सकी।'
रमा को कुछ कहना चाहते हुए भी रुकते देख कर वे बोलीं - 'इसके लिए मुझे पछतावा भी नहीं, रमा! क्रोघ न करना सुन कर! अपनों के साथ नीचा हो कर शामिल होने की जरूरत महसूस करो! दरअसल तुमने भी उस ऊँचे आसमान से उसे नीचे गिरा कर उसके साथ भलाई की है; और अब मैं निश्चय के साथ कह सकती हूँ कि सोचने पर वह इसकी सत्यता समझ कर आएगा!'
रमा कुछ भी न समझ सकी, बोली - 'गिराया हमने उन्हें नीचे! कैसे? अपने दुष्कमों के फल तो हमीं को भोगने होंगे, उन्हें उसे क्यों भोगना होगा?'
विश्वेश्वरी व्यथित हँसी हँस कर बोली - 'जरूर भोगना पड़ेगा, बेटी! तुम देख लेना कि तुम्हारा रमेश जेल से लौट कर आने पर बिलकुल बदला हुआ होगा! किसी के उपकार के बदले में उसके साथ उपकार करने में भी, उसे नीचे घसीट कर लाने से उसका कुछ होता-जाता नहीं। भैरव ने उसके दान का यह बदला उसे दे कर उसकी दान प्रवृत्ति को निश्चय ही बदल दिया होगा; पर क्या जाने इसमें भी परमात्मा का कुछ खेल छिपा हो, इसमें भी कुछ भला ही हो!' थोड़ा मौन रह कर उन्होंने फिर कहा - 'हो सकता है, अबकी बार सचमुच ही यह गाँव उसकी पहचान कर सदुपयोग कर सके!' कह कर एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ा उन्होंने। रमा चुपचाप उनका हाथ सहलाती रही थोड़ी देर, फिर अत्यंत वेदनायुक्त स्वर में बोली - 'ताई जी, जो झूठी गवाही दे कर किसी निरपराध को सजा दिलाता है, भला उसकी क्या सजा है?'
विश्वेश्वरी उसके रूखे बालों में अँगुलियाँ फेर रही थीं। उसके नेत्रों से अविकल अश्रुधारा बहती देख कर उसके आँसू पोंछती हुई स्नेहसिक्त स्वर में बोलीं - 'तुम्हारा तो कोई दोष नहीं इसमें, बेटी! जिन्होंने तुम्हें बदनामी का डर दिखा कर ऐसा कार्य करने पर विवश किया, असल दोषी तो वे ही हैं! तुम्हें इसकी सजा क्यों भुगतनी होगी?' कह कर फिर उन्होंने रमा के आँसू पोंछे; लेकिन वे तो अविरल बह रहे थे, सो बहते ही रहे। थोड़ी देर बाद रमा बोली - 'वे तो उनके शत्रु हैं! और उनका कहना ही यह है कि हर तरह से, जैसे बन पड़े; शत्रु को नीचा दिखाना ही चाहिए! पर मैं तो ऐसा कह कर अपने को सांत्वना नहीं दे सकती!!'
'कह क्यों नहीं सकती?' - इतना कह कर उसकी ओर नजर डालते ही इतने दिनों से जो उनके दिल में सिर्फ एक क्षीण संदेह मात्र था, अब उनके नेत्रों के सामने साकार हो उठा। व्यथा और विस्मय से उनका अंतर अभिभूत हो उठा। रमा की व्यथा, जलन व बीमारी का सही कारण अब उनसे छिपा न रहा। रमा की आँखें बंद थीं, विश्वेश्वरी की मुख मुद्रा पर उसकी नजर न पड़ सकी। उसने पुकारा - ताई जी!'
विश्वेश्वरी ने चौंक कर उसका माथा सहलाते हुए कहा - 'बोलो!'
'मैं तुम्हारे सामने एक सत्य स्वीकार करती हूँ। रमेश भैया के शिक्षण से प्रेरित हो कर, गाँव के लोग अच्छी-अच्छी बातों पर विचार किया करते थे। लेकिन इधर ये लोग रमेश भैया के अपराध को और बढ़ाने के लिए षड्यंत्र कर रहे थे कि उसे किसी तरह बदमाशों का गुट साबित किया जाए। पुलिस इस मामले में हाथ में आ जाने का फिर उन्हें न छोड़ती। तभी मैंने उन लोगों को चेता दिया था।'
विश्वेश्वरी सुनते ही सहम कर अनायास ही कह उठीं - हैं, यह सब क्या कह रही हो तुम? वेणी ने इस तरह गाँव में पुलिस का जाल बिछाने की साजिश की थी?'
'मेरी समझ में तो, बड़े भैया भी उसी का फल भोग रहे हैं! पर क्या तुम मुझे क्षमा कर सकोगी, ताई जी?'
विश्वेश्वरी ने रमा का माथा चूमते हुए कहा - 'मैं माफ न करूँगी तो कौन करेगा! बल्कि इसके लिए तो ईश्वर तुम्हारे ऊपर अनेक कृपा करें, यह आशीर्वाद देती हूँ।'
आँसू पोंछते हुए रमा ने कहा - 'अब तो उनके प्रयत्न सफल हो गए! उनके देश के गरीब किसानों में जागृति हो गई है। उन्हें भी वे अब अच्छी तरह पहचान कर, अपने से भी ज्यादा प्यार करने लगे हैं। पर क्या वे इस खुशी में मुझे क्षमा न करेंगे, ताई जी?'
विश्वेश्वरी के मुह से कोई शब्द न निकला। आँखों से दो बूँदें अवश्य टपक कर रमा के माथे पर जा गिरीं। काफी देर तक मौन रह कर रमा ने कहा - 'ताई जी।'
'कहो।'
'हम दोनों ही ने तुमको प्यार किया, बस इसी से हम दोनों साथी बन सके!'
विश्वेश्वरी ने फिर उसका माथा चूम लिया। रमा बोली - 'अपने इसी प्यार के जोर पर तुमसे कहती हूँ कि ताई जी, जब मैं इस संसार में न रहूँ और तब भी वे मुझे क्षमा न कर सकें, तो तुम मेरी ओर से इतना कह देना कि मैंने उन्हें जितनी वेदना पहुँचाई है, मैं भी उससे कम वेदना में नहीं जली हूँ। और जितनी बुरी उन्होंने मुझे समझ रक्खा है, कम से कम उतनी बुरी तो मैं नहीं थी!'
विश्वेश्वरी का दिल भर आया और रमा को छाती से कस कर चिपटा कर उन्होंने कहा - 'चल बेटी, रमेश और वेणी की आँखों से दूर, किसी तीर्थ में चल कर अपने जीवन के अंतिम दिन बिताएँ, जहाँ आँख उठते ही भगवान के दर्शन हों! अब मेरी समझ में आ गया है, बेटी! जब मेरा अंत समय ही आ गया है, तो फिर इस जलन से छुट्टी लेनी होगी; नहीं तो भगवान के दरवाजे पर इस जलन को लेकर न जाया जा सकेगा! ब्राह्मणों की तरह ही हमको भगवान के दरबार में जाना होगा!'
दोनों ही काफी देर तक चुप रहीं, फिर एक आह भरते हुए रमा ने कहा -'मेरी भी यही इच्छा है, ताई जी!'
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