देहाती समाज - 16 Sarat Chandra Chattopadhyay द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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देहाती समाज - 16

देहाती समाज

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

अध्याय 16

हर वर्ष रमा दुर्गा पूजा बड़ी धूम-धाम से करती थी - और पूजा के एक दिन पूर्व से ही 'गाँव के सब गरीब किसानों को जी भर कर भोजन कराती थी। चारों तरफ से आदमियों का जमघट हो जाता उसके घर माता का प्रसाद पाने के लिए। आधी रात के बाद भी घर भर में पत्तल पर, पुरवों, सकोरों में भर कर मिठाई का दौर चलता ही रहता। चारों तरफ जूठन बिखर जाता। खाने की सामग्री इस तरह बिखरी रहती कि आदमी के पैर रखने तक की जगह न मिल पाती। यह बात नहीं कि उस उत्सव में केवल हिंदू ही आ कर शामिल होते हों, पीरपुर के मुसलमान भी बड़े चाव से आ कर हिस्सा लेते और माता का प्रसाद बड़ी श्रद्धा से खाते थे।

रमा इस वर्ष दुर्गा पूजा के अवसर पर बीमार थी, फिर भी तैयारी पूरी की गई। सप्तमी की पूजा ठीक समय हुई। उसके बाद सुबह बीती, दोपहर आया, वह भी बीता और शाम होने आई, और चंद्रमा अपना खिलता मुखड़ा दिखा कर आसमान पर ज्योत्स्ना बिखेरने लगा। लेकिन उत्सव प्रांगण में कुछ इने-गिने भद्र पुरुषों के आलावा सुनसान था। भीतर चावल पर पपड़ी पड़ी जा रही थी। भोजन सामग्री भी रखी-रखी अपने भाग्य पर रो कर, स्वयं ही सिकुड़ी-ठिठुरी जा रही थी। पर माता का प्रसाद लेनेवाले किसानों में से एक भी अभी तक नहीं आया।

वेणी बाबू मारे तैश के, पैर फटफटाते कभी बाहर जाते, कभी अंदर आते और चीखते फिर रहे थे - 'इतना मिजाज इन नीच कौमों का कि हमने तो इतना सब कुछ इंतजाम किया इस सबके लिए और ये आए ही नहीं! न इसका मजा चखाया सालों को, तो बात ही क्या रही! चुन-चुन कर ठीक करूँगा ससुरों को - घर उजड़वा दूँगा!' और भी जो कुछ तैश में उनके मुँह में आता गया, सो वे कहते गए।

धर्मदास और गोविंद गांगुली भी आग बबूला हो रहे थे और घूम -घूम कर सोच रहे थे कि किसके बरगलाने से वे ससुरे नहीं आए हैं। सबको यह बड़ा ताज्जुब हो रहा था कि न एक हिंदू आया और न एक मुसलमान! दोनों ही कौमें इसमें एकमत हो गई थीं।

मौसी भी अंदर बैठी-बैठी चिल्ला रही थीं - बस शांतचित्त अगर था कोई तो रमा! उसने किसी पर दोष नहीं मढ़ा और न किसी का बुरा ही चीता। उसमें बिलकुल परिवर्तन आ गया था। न वह पहलेवाला गुस्सा रहा, न जिद रही और न वह अभिमान ही। बीमारी के कारण उसका रूप भी क्षीण हो चला था। चेहरे पर एक व्यथा एवं क्षोभ की कालिमा आ गई थी। आँखों से ऐसा जान पड़ता, मानो विश्‍व की सारी व्यथा का सागर समा गया हो, उसकी इन दो पुतलियों में! जो दरवाजा चंडी मंडप की तरफ से है उसी तरफ से आ कर वह देवी की मूर्ति के पास खड़ी हो गई। उसे आया देख हितचिंतक उसे सुना -सुना कर, बड़े -बड़े चुने वाक्यों में नीच कौम को कोसने लगे। रमा ने उन्हें सुना और मुस्कान की रेखा खिल गई उसके होंठों पर। उस मुस्कान में एक अजीब व्यथा छिपी थी, जिसमें अपने अवसान के प्रति अपने आप ही एक व्यंग्य था, किसी अन्य के प्रति कुछ भी नहीं! यह ठीक नहीं कहा जा सकता कि क्या-क्या छिपा था उसकी उस मुस्कान में?

वेणी ने बिगड़ते हुए कहा - 'यह इस तरह हँस कर टाल देने की बात नहीं है! हर्गिज नहीं है! जरा पता तो चले कि आखिर है कौन इस सबकी जड़ में? यों मसल कर फेंक दूँगा उसको!' दाँत किटकिटा कर उन्होंने गुस्से से अपनी दोनों हथेलियाँ मसल डाली।

रमा उनका वह रूप देख कर सिहर उठी।

वेणी बोले - 'जिस रमेश पर इन ससुरों की इतनी हिम्मत पड़ी है, उन्हें नहीं मालूम कि वही खुद जेल में पड़ा चक्की पीस रहा है। इनको तो मैं देखते-देखते ठिकाने लगा दूँगा!'

रमा शांत रही। वह काम करने बाहर निकल आई, चुपचाप करती रही और फिर उसी तरह चुपचाप वहाँ से चली भी गई।

डेढ़ महीने से रमेश भैरव के घर में घुस कर उसे मार डालने के अपराध में जेल काट रहा था। नए मजिस्ट्रेट को पहले कूट-कूट कर भर दिया गया था कि रमेश के लिए ऐसे काम करना रोज की आदत है। उनको यह भी संदेह करा दिया गया था कि उनका हाथ इन डकैतियों में भी रहा है। इस तरह की जो झूठी रिपोर्टें पहले से थाने के रोजनामचे में दर्ज करा दी गई थीं, उन्होंने तो उनके संदेह को और भी पुष्ट करा दिया था, और उन्हें मुकदमे के फैसले में फिर किसी अन्य प्रमाण की जरूरत न रही। सिर्फ रमा को जरूरी गवाही देनी पड़ी थी कि रमेश आया था - भैरव के मकान में घुस कर उसे मारने! पर उसे यह नहीं याद कि उसने छुरी मारी या नहीं, या उसके पास छूरी थी भी या नहीं?

रमा के अदालत के सामने तो हलफ उठा कर यह बात कही थी, पर वास्तविकता क्या थी? परमेश्‍वर की अदालत में तो वह एक हलफ उठा कर सच पर परदा नहीं डाल सकती! वे तो स्वयं एक -एक बात जानते है। वहाँ क्या जवाब देगी? वह यह अच्छी तरह तरह जानती थी कि रमेश के हाथ में छुरी तो क्या, एक तिनका भी नहीं था! मगर वह झूठ बोलने के लिए विवश कर दी गई थी। वेणी जैसे व्यक्ति जिस समाज के अधिष्ठाता हों, वह सत्य के बल पर नहीं चलता। उसका तो झूठ, दगा, बेईमानी ही एकमात्र आसरा है - उसे यह धमकी दे कर गवाही के लिए विवश किया गया था कि उसे बदनाम कर समाज में मुँह दिखाने लायक न रखा जाएगा जैसे और भी पहले बहुतों के साथ किया जा चुका है! रमा को यह न मालूम था कि रमेश को इस अपराध में इतनी लंबी और कठिन सजा हो सकती है। उसने तो सोचा था कि ज्यादा से ज्यादा सौ-दो सौ रुपए का जुर्माना हो जाएगा। जुर्माने की तो उसने मन से चाह की थी। जब वह उसके बार -बार हठ करने और समझाने पर भी, अपना काम छोड़ अन्यत्र भागने को राजी न हुआ था तब खीझ कर उसने सोचा था कि इस तरह उसे एक सबक मिल जाएगा। पर उसने कभी यह न सोचा था कि अदालत उसके बीमारी से पीत चेहरे को देख कर भी न पसीजेगी और सीधे छह महीने की सजा बोल देगी। उसकी तो हिम्मत ही न पड़ी थी, अदालत में रमेश की तरफ आँख उठा कर देखने की, पर औरों के मुँह से सुन कर उसे मालूम पड़ा था कि वह लगातार उसी के चेहरे की तरफ टकटकी लगाए देखते रहे थे। उसे याद था कि सजा सुन चुकने के बाद, जब गोपाल सरकार ने उनसे आगे अपील करने की बात कही थी तो उसने दृढ़ स्वर में कहा था कि नहीं! अपील करने की कोई जरूरत नहीं, मैं इस तरह छूटना नहीं चाहता! अगर उसे जीवन पर्यन्त कैद की सजा दी जाती, तो भी वह अपील न करता, क्योंकि जेल इस गाँव से कहीं अच्छी होगी!

जिस संसार में इतना फरेब हो कि भैरव ने अपनी सहायता का बदला उन्हें धोखा दे कर दिया और रमा ने भी अदालत के सामने खड़े हो कर झूठी गवाही देने में हिचक न की, तो वे किसलिए छुटकारा चाहें? नि:संदेह जेल इसके अच्छी होगी!

उस समय की उनकी घृणा भरी वाणी रमा के हृदय पर हथौड़े की तरह चोट कर रही थी। रह-रह कर उसका आहत हृदय कराह उठता। उसने झूठी गवाही नहीं दी थी, फिर भी सच बात तो उसने छिपा ही दी! काश, उस समय यह ज्ञात होता कि सच बात न कहने पर उसे रात-दिन इस तरह ग्लानि में जलते रहना होगा। तुरंत उसके सामने भैरव का अपराध इतना गहनतम हो उठा, जिसके कारण रमेश ने उसे वह दण्ड देना चाहा था कि उसे सोचते ही उसके समस्त हृत्तंतु मूक वेदना से झंकृत हो उठे। रमेश ने उसके सिर्फ एक बार के कहने पर ही उसे माफ कर दिया था। उसे खयाल आया कि जितना रमेश ने उसकी बात को इस तरह मान कर उसका सम्मान किया है, उतना आज तक इस जीवन में कभी किसी ने नहीं दिया।

रात-दिन की इस जलन में एक सत्य उसके सामने निखर कर चमक उठा था। एक अमूल्य हस्ती को इस तरह, जिस समाज के भय से उसने गँवा दिया, वह समाज है क्या? क्या उसकी बिसात है? और क्या उसकी कसौटी? उसके ठेकेदार हैं वेणी और गांगुली जैसे लोग, जिनके पल्लों में झूठ और फरेब बँधे रहते हैं। जिसकी बिसात में है धनिकों, समर्थों के हाथों में नाचना, और जिसकी कसौटी है झूठ, फरेब, दगाबाजी! जो जितना बड़ा झूठा है, जितना बड़ा फरेबी है, वह उतना ही बड़ा समाज का ठेकेदार है।

सभी जानते हैं कि गोविंद की विधवा भौजाई का वेणी के साथ नाजायज संबंध है। पर उसका प्रेमी भी समाज का ठेकेदार है और उसका देवर भी! 'सैंया भए कोतवाल तो अब डर काहे का' - आज भी उनके बीच नीच कर्म, समाज की छाती को रौंदकर अपना ठेकेदारी की दुंदुभि बजा रहे हैं; ओर उनकी चहेती, समाज की छाती पर बैठी मूँग दल रही है।

इस समाज की चक्की ने नीचे अनेक निरपराध बे-मौत पिस कर चटनी बन गए, इन समाजपतियों के स्वार्थ के शिकार हो गए।

वही तस्वीर है, हमारे आज के समाज की और हिंदुत्व की!

रमा ने जब अपने कृत्य पर दृष्टिपात किया, तो भैरव के ऊपर गुस्से के बजाय अपने ऊपर ही उसे ग्लानि बढ़ गई। भैरव की लड़की की उम्र बारह वर्ष की होने को आई। यही है शादी की उमर! अगर उसकी शादी न हो सकी, इसी उमर में, तो फिर समाज के कुदाल से उसका बचना मुश्किल ही है!

समाज का यह विकराल रूप मनुष्य को क्या-क्या नहीं करने पर मजबूर कर डालता! नारी को समाज में अपने को असली कहने की वेदना से बचने के लिए समाजपतियों के हाथ अपनी लाज गिरवी रखनी पड़ती है; नर को न जाने कितने फरेब और धोखे का जीवन बिताना पड़ता है। जिस समाज के डर ने उसे झूठ बोलने पर विवश कर दिया, उसी के डर से यदि भैरव ने भी रमेश के साथ धोखा किया तो इसमें उनका दोष कैसे कहा जा सकता है?

उसी समय घर के सामने से एक वृद्ध सनातन हाजरा कहीं जा रहा था। गोविंद गांगुली ने बढ़ कर उसे पुकारा, मगर वह न आया, उसने उसकी खुशामद की और अंत में एक तरह से जबरदस्ती हाथ पकड़ कर, वेणी के सामने ला कर उसे खड़ा कर दिया।

उसे देखते ही वेणी ने गुस्से में लाल-पीला हो कर कहा - 'आजकल तो तुम लोगों का दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच गया है। क्यों सनातन, तुम्हारे कंधों पर जान पड़ता है, एक सिर और कुलबुला उठा।'

'जब आप सबके दो सिर नहीं, तो भला और फिर किसके होंगे, बड़े बाबू? हम गरीबों के? कभी नहीं!'

'क्या बक-बक करता है?' मारे क्रोध के वेणी काँप उठे। वेणी के यहाँ सनातन ने सारा मालमत्ता थोड़ा पहले गिरवी रखा था। तब यही सनातन दोनों जून आ कर उनकी चिरौरी करता था। आज उनके मुँह से इतनी बात!

'दो सिर किसी के भी नहीं होते - मैंने तो यही कहा है, बड़े बाबू!'

गोविंद ने बात को बढ़ा कर कहा - 'तुम्हारी छाती में कितना दम-खम है, हम तो यही देख रहे हैं! भला यह भी कोई बात है कि तुम माता का प्रसाद तक लेने नहीं आए?'

सनातन ने हँसते हुए कहा - 'हमारे सीने का दम-खम! कर तो चुके - आपके हाथ में जो कुछ भी था! जाने भी दीजिए उन सब बातों को, पर यह जान लीजिए कि चाहे वह माता का प्रसाद हो और चाहे कुछ भी हो, कोई भी कायस्थ ब्राह्मण के घर नहीं आएगा। भला धरती माता कैसे सहन कर सकती है, इतना बड़ा पाप!'

एक दीर्घनिःश्‍वास रमा की तरफ देख कर वह बोला - 'बहन, आपको मैं चेताए जाता हूँ, रमेश बाबू को सजा हो जाने के कारण पीरपुर के मुसलमान लड़के खार खाए बैठे हैं। कह नहीं सकता कि जब वे छूट कर आएँगे, तब क्या होगा! पर अभी ही दो-तीन बार वे सब बड़े बाबू के घर चक्कर लगा गए हैं, बस खैरियत ही समझो कि बड़े बाबू उस समय उनकी निगाह में नहीं पड़े!' कह कर उसने वेणी पर एक नजर डाली।

सुनते ही वेणी का सारा गुस्सा काफूर हो गया और मारे भय के पीला पड़ गया उनका चेहरा।

'आप जरा होशियारी से रहें, बड़े बाबू! मैं झूठ नहीं कहता, दुर्गा माई के सामने बैठा हूँ। कहीं रात-बिरात बाहर न निकलिएगा! कहाँ कब कौन बैठा हो, कहा नहीं जा सकता!'

वेणी ने कुछ कहना चाहा, पर जुबान न खुली मारे भय के।

अब रमा बोली - 'सनातन, तुम लोगों की नाराजगी शायद छोटे बाबू के ही कारण है?'

दुर्गा की मूर्ति की तरफ देख कर सनातन ने कहा - 'बात तो ऐसी ही है! झूठ बोल कर नरक का भागी नहीं बनूँगा। मुसलमान तो छोटे बाबू को हिंदुओं का देवता मानते हैं। बास पूछिए मत, उनको गुस्सा बहुत ज्यादा है, प्रमाण भी मौजूद है आपने सामने। जफर अली से भला कभी किसी को आशा थी, एक पैसे की? लेकिन उसी ने - जिस दिन छोटे बाबू को सजा सुनाई गई - स्कूल को एक हजार रुपए दान दिए हैं। मैंने तो यहाँ तक भी सुना है कि मस्जिद में छोटे बाबू के लिए नमाज पढ़ कर दुआ माँगी जाती है!'

सनातन की बात सुन कर रमा का दिल खिल उठा और आनंद से चमकती आँखों से वह समातन की तरफ देखती रही।

सहसा सनातन का हाथ पकड़ कर वेणी ने कहा -'तुम जरा थाने चल कर दारोगा जी के सामने यह बात कह दो, सनातन! मैं तुम्हें मुँह-माँगा इनाम दूँगा! दो बीघे जमीन माँगोगे, तो वह भी तुम्हें दूँगा, देवता के सामने कसम खा कर यह वचन देता हूँ।'

सनातन चकित दृष्टि से वेणी के मुँह की तरफ देखता रहा, बोला - 'अब मैं बुढ़ापे में, लालच में आ कर यह नीच काम करूँ, बड़े बाबू? मरने पर मेरा मुरदा उठाना तो अलग रहा, ठोकर मारने भी कोई पास न फटकेगा! छोटे बाबू ने तो जमाना ही उलट दिया है, अब पहले दिनों के सपने मत देखो, बड़े बाबू!'

'तो तू एक ब्राह्मण की बात टालेगा, क्यों?'

'अगर मैंने कुछ कहा तो आप बिगड़ खड़े होंगे, गांगुली जी। उस दिन पीरपुर के स्कूल में छोटे बाबू ने कहा था - सिर्फ जनेऊ पहन लेने भर से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता! आपकी नस-नस से जानकार हूँ मैं! जिंदगी देखते ही देखते कट गई है, आपकी करतूतें!! आपकी करनी क्या ब्राह्मणों को शोभा देती है! तुम्हीं कहो बहन! मैं झूठ कह रहा हूँ?'

रमा निरुत्तर रही। उसका सिर झुक गया। सनातन बोला - 'छोटे बाबू जब से जेल गए हैं, तभी से जफर अली की चौपाल पर, रोज शाम को दोनों गाँवों के नौजवान लड़के जमा होते हैं, खुलेआम वे कहते-फिरते हैं कि असली जमींदार तो छोटे बाबू ही हैं - बाकी तो सब उचक्के हैं! डरना किस बात का? ब्राह्मण का-सा आचरण करें, तो हम उन्हें ब्राह्मण भी मान सकते हैं। नहीं तो हममें और उनमें अंतर ही क्या है?'

वेणी ने उदास मुँह से कहा - 'वे हम पर इतने नाराज क्यों हैं, सनातन, इसका कारण बता सकते हो?'

'माफ कीजिए, बड़े बाबू! अब उनसे यह बात छिपी नहीं रही है कि इन सब खुराफातों की जड़ में आप ही हैं!!'

वेणी की सारी नसें मारे भय के नीली पड़ गई थीं। नीच कौम के सनातन से यह वाक्य सुन कर भी उनकी नसों में जोश न आया।

'तो जाफर का घर है, उनका अड्डा! बता सकते हो, क्या करते हैं वे सब वहाँ?'

गोविंद के चेहरे की तरफ देखता हुआ, थोड़ी देर तक तो सनातन मौन रहा, मानो कुछ सोच रहा हो। फिर कहा उसने - 'यह तो मैं नहीं जानता कि वे सब वहाँ क्या करते हैं। पर इतना आपको बता दूँ कि अपना भला चाहते हो, तो अब उधर आँखें मत उठाना। सारे हिंदू-मुसलमान नौजवान एकमत हो गए हैं! जब से छोटे बाबू जेल गए हैं, बस नारद ही बने बैठे हैं। तुमने उन्हें छेड़ा कि शिकार बने!'

कह कर सनातन तो चला गया। उसके जाने के बाद, किसी के मुँह से थोड़ी देर तो कोई बात ही न निकली। सभी के चेहरों पर, भय के मारे मुर्दनी छाई थी। रमा को उठ कर जाते देख वेणी ने कहा - 'सुन लिया न सब हाल, रमा?'

रमा के होंठों को मुस्कान की रेखा छू गई। शब्द उसके मुँह से एक भी न निकला। उसकी मुस्कान ने वेणी के शरीर को तीखे तीर की तरह वेध दिया। बोले - 'रमा, तुम तो हँसोगी ही! औरत हो न! तुम्हें तो घर में ही रहना है, हमको तो बाहर सब कुछ भुगतना होगा। न जाने कब कौन सिर फोड़ कर रख दे। उसी भैरव के कारण यह दिन देखना पड़ रहा है। तुमने जा कर बचा दिया उसे, नहीं तो यह सब बखेड़ा क्यों तैयार होता? यही दिन देखने होते हैं, औरतों के साथ काम करने में!'

मारे भय के वेणी का मुँह अजीब हो रहा था। रमा वेणी की नस-नस से परिचित थी, पर उसे यह आशंका न थी कि वे निर्लज्जता से अपना सारा दोष उनके माथे मढ़ देंगे। और थोड़ी देर तक स्तब्ध खड़ी रह कर वहाँ से वह चली गई।

वेणी भी दो लालटेन ले, पाँच-छह आदमियों की चौकसी में, चौकन्ने हो कर अपने घर चल दिए।

***