देहाती समाज - 12 Sarat Chandra Chattopadhyay द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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देहाती समाज - 12

देहाती समाज

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

अध्याय 12

हालाँकि उस प्यार में कोई गंभीरता न थी - लड़कपन था, पर रमेश को रमा से अपने बचपन में अत्यंत गहरा प्रेम था, जिसकी गहराई का अनुभव सर्वप्रथम उन्होंने तारकेश्‍वर में किया था। पर उस शाम को रमेश अपने सारे लगाव तोड़कर रमा के घर से चला आया था, और तब से रमा के घर की दिशा भी उनको बालू की तरह नीरस और दहकती माया-सी जान पड़ने लगी। लेकिन उनकी आशा के विपरीत उनका सोना-जगना, खाना-पीना, उठना-बैठना, पढ़ना, काम-धंधा, सारा-का-सारा जीवन ही नीरस हो उठा था। तब उन्होंने अनुभव किया कि रमा ने उनके हृदय के कितने गहरे में स्थान बना लिया था। उसका मन अब गाँव से ही उचाट हो गया और वे गाँव छोड़ कर कहीं अन्यत्र जाने का विचार फिर करने लगे। लेकिन सहसा एक घटना हो गई, जिसने उनके उखड़े पैर फिर एक बार को जमा दिए।

ताल के उस पार, वीरपुर गाँव उसी परिवार की जमींदारी में है। अधिकांश आबादी मुसलमान किसानों की है। एक दिन वहाँ के कुछ लोग गुट बाँध कर, रमेश के पास अपनी एक अरज लेकर आए और बोले - 'हम आपकी रिआया है, पर हमारे बच्चों को स्कूल में पढ़ने की इजाजत नहीं, सिर्फ इसलिए कि हम मुसलमान है! हमने कई बार अरज करके देख लिया, पर हमारी कोई नहीं सुनता। मास्टर भरती ही नहीं करते हमारे बच्चों को!'

रमेश को इस पर विस्मय भी हुआ और गुस्सा भी, बोले - 'मेरे तो देखने-सुनने में भी कभी ऐसा अन्याय नहीं आया! मैं चलूँगा, तुम सबके साथ! आज ही अपने लड़कों को ला कर, मेरे सामने स्कूल में भरती करवा दो!'

किसानों ने कहा - 'वैसे तो हम डरनेवाले नहीं! लगान देते हैं, तब खेत जोतते हैं - किसी के एहसान में नहीं रहते! फिर भी यह नहीं चाहते कि नाहक में बात बतंगड़ बने, इससे न हमारा ही फायदा होगा, न और किसी का। हमारी तो मंशा है कि एक स्कूल हमारा भी अलग खुल जाता, तो हम बेखौफ अपने बच्चों को वहाँ तालीम दिला सकते। उसमें हमें आपकी मदद की दरकार है। अगर आपकी मेहरबानी हो जाए तो…।

रमेश भी बेकार की लड़ाई-झगड़ा नहीं चाहते थे। वैसे ही वे इससे आजिज आ गए थे। अतः उनकी राय ही उन्होंने मान ली। जोर-शोर के साथ एक नए स्कूल की नींव पड़ने की तैयारी होने लगी। इन किसानों की संगति और साथ से, रमेश के नीरस जीवन में फिर ताजगी आ गई और उनका हौसला दूना हो गया। उन्हें अपनी शक्ति भी अब बढ़ती मालूम हुई। उन्होंने अनुभव किया कि ये लोग उनके गाँववालों की तरह, बात-बात के लिए झगड़ा नहीं करते। और अगर खुदा न खास्ता झगड़ा हो भी जाता है तो फिर दवा-दरपन अदालत-साखी तक की नौबत नहीं आती, और गाँव के चौधरी की अदालत में ही फैसला हो जाता है। इस गाँव के मुसलमान किसानों के आपसी संबधों से रमेश को जो अनुभव हुआ, वह अपने गाँव के लोगों के अनुभव से विपरीत था। अगर एक पर कोई मुसीबत आ कर पड़ती, तो सारा गाँव, पास-पड़ोस एक हो, मिल कर उसका साथ देता था।

रमेश स्वयं भी जात-पाँत का भेदभाव नहीं मानता था; और जब इन्हें आस -पास के गाँव में ही जात-पाँत के भेद और अभेद की विषमता का अनुभव और जात-पाँत के प्रति उनकी घृणा और भी तीव्र हो उठी। उन्होंने समझा कि आपसी भेदभाव, धर्म-विभेद और जात-पाँत की छुआछूत के आधार पर पैदा हुआ द्वेष भाव हिंदुओं के पतन का मुख्य ही नहीं, बल्कि एकमात्र कारण है! और इसके विपरीत मुसलमानों में जात-पाँत, धर्म आदि का भेदभाव नहीं होता; अभी उनमें भाईचारा, एकता, आपकी सौहार्द् हिंदुओं से कहीं अधिक पाया जाता है। अपने गाँव में आपसी भेदभाव को मिटाना असंभव है। इसी कारण जब तक उनके जात-पाँति के भेदभाव नहीं मिट सकते, तब तक आपस में भाईचारा, आपसी प्रेम और सौहार्द भी पैदा नहीं हो सकता। अतः इस ओर प्रयास करना भी अपनी शक्ति को व्यर्थ खर्च करना है! पिछले वर्षों के अनुभव से रमेश ने यही निष्कर्ष निकाला था और अपने इन वर्षों के व्यर्थ जाने का विचार कर उन्हें बड़ा पछतावा होने लगा था। वैसे उन्हें यह विश्‍वास भी हो चला था, कि इस गाँव के लोगों के जीवन में तो इसी तरह आपसी ईष्या-द्वेष की चक्की में पिसते हुए दिन बिताना लिखा है। इसी तरह इनके दिन कटते आए हैं, कटने जाएँगे। अतः अब अपनी शक्ति दूसरी ओर लगानी ही उचित है। पर ताई जी से इस संबंध में बात कर लेना जरूरी था, और काफी दिन से उनके दर्शन भी करने का अवसर नहीं मिला था - इसी बहाने दर्शन भी हो जाएँगे।

और सबेरे-ही-सबेरे रमेश उनके दरवाजे पर जा पहुँचा। वह ताई जी की बुद्धि पर कितना विश्‍वास करता है, इसका स्वयं भी उसे ज्ञान नहीं था। जब वह वहाँ पहुँचा, तो ताई जी सबेरे के सब जरूरी कार्यों से निवृत्त हो, स्नान-ध्यान कर, अपनी कोठरी में बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थीं। उनकी आँखों पर चश्मा था। रमेश को आया देख कर ताई जी को भी विस्मय हुआ। किताब बंद कर, उसे अंदर बुला कर बैठाया और कौतूहलपूर्ण आँखों से उनकी तरफ देखती रहीं। फिर बोलीं - 'कैसे भूल पड़े आज इधर सबेरे ही?'

'आपके दर्शन को! कई दिनों से नहीं आ पाया था न! ताई जी, मैंने वीरपुर गाँव में एक नया स्कूल खोलने का निश्‍चय किया है।'

'सुना तो मैंने भी है; पर आजकल तुम अपने स्कूल में पढ़ाने भी नहीं जाते, सो क्यों?'

'ताई जी! इन लोगों की भलाई के लिए कुछ करना नेकी कर कुएँ में डालना है! ये लोग नहीं बर्दाश्त कर सकते कि किसी की भलाई हो, मदद हो! अहंकार ने इन्हें नितांत अंधा बना दिया है। ऐसे लोगों के लिए मेहनत करना बेकार में अपनी जान खपाना है! ताई जी! और तो और, जो इनकी भलाई करे - उसी से शत्रुता निभाने लग जाते हैं। मैं तो अब उनकी भलाई करूँगा, जिनकी भलाई करने से वास्तव में कुछ लाभ भी हो!'

'रमेश! यह तो संसार का आदि नियम-सा चला आ रहा है। जिसने भलाई करने का बीड़ा उठाया, उसी के शत्रुओं की संख्या का पार नहीं रहा। अगर भलाई करने का बीड़ा उठानेवाला ही इसी डर से अपना रास्ता छोड़ कर हट जाए, तो फिर उसमें और अन्य प्राणियों में अंतर ही क्या रह जाए! और न फिर संसार की गति ही चल सकती है। भगवान ने जिनको जीवन में जो भार सौंपा है, उसे तो हर हालत में उठाना ही होगा! उसी तरह यह भार तुम्हारे उठाने का है। इससे तुम मुँह नहीं मोड़ सकते! अच्छा, यह तो बता बेटा! क्या तू उनके हाथ का छुआ पानी भी पीता है?'

रमेश ने मुस्करा कर कहा - 'बस यही बात है? तुम्हारे पास शिकायत आ ही गई न! अभी तो पिया नहीं है उनके हाथ का पानी, पर पीने में भी कोई एतराज नहीं है मुझे! मेरे नजदीक जात-पाँत के भेद-भाव कोई मानी नहीं रखते!!'

विश्‍वेश्‍वरी आश्‍चर्यान्वित हो कर बोलीं - 'नहीं मानते जात-पाँत, क्यों? क्या जाति का कोई अस्तित्व ही नहीं?'

'मानता हूँ, जाति का अस्तित्व है - आज के समाज में! पर यह भी मानता हूँ - पूरे विश्‍वास के साथ कि यह अच्छा नहीं है! और इस पर तुम्हारी राय पूछने आया हूँ।'

'क्यों?'

रमेश ने आवेश में कहा - 'क्या यह भी तुम्हें बतलाना होगा ताई जी! क्या समाज में द्वेष-भाव, आपसी फूट, मन-मुटाव और तमाम लड़ाई -झगड़ों की जड़ केवल यह जाति भेद ही नहीं है? छोटी-बड़ी जाति और खानदान सारी र्ईष्या की जड़ है! छोटी जाति के कहे जानेवालों के लिए यह नितांत स्वाभाविक है कि वे ऊँची जातिवालों से द्वेष रखें, उनसे बैर करें और अवसर की ताक में रहें उन्हें नीचा दिखानें के लिए। उनके दिल में नीचेपन से निकलने के विद्रोह की भावना हर समय काम करती रहती है। और यही कारण है कि हिंदू जाति दिन-पर-दिन पतन की ओर गिरती जा रही है। उसके माननेवाले, उसे छोड़ कर दूसरे धर्मों को अपनाते जा रहे हैं। अगर ताई जी, तुम्हें जनसंख्या के आँकड़े पढ़ने को मिलते, तो तुम्हारी आँखें खुल जातीं कि कितने हिंदू इसी विषमता के कारण दूसरे धर्मों में चले गए हैं। फिर भी हिंदू जाति के ठेकेदारों को होश नहीं आ रहा है!'

'सच ही तो है! तुमने इतना सारा व्याख्यान दे डाला, पर मुझे ही होश नहीं आया! गणना करनेवाले अगर यह बता सकते कि कितने हिंदू केवल इसी कारण धर्म परिवर्तन के लिए विवश हुए, क्योंकि उन्हें नीच जाति का समझा जा है, तो शायद उन आँकड़ों पर विश्‍वास कर मुझे भी होश आता। बेटा, इसका कारण तो कुछ दूसरा ही है! माना कि यह भी समाज का दोष है, पर यह कारण तो निश्‍चय ही नहीं है कि उसे छोटी जाति का समझा जाता है!'

'ताई जी, यह मेरा ही कहना नहीं है, हमारे पण्डित लोगों का भी यही विश्‍वास है।'

'तो फिर विश्‍वास के विरुद्ध तो कुछ कहा नहीं जा सकता! लेकिन इन पण्डितों में से ही कोई यदि यह बताए कि फलाँ गाँव के इतने हिंदू जाति परिवर्तन कर गए, क्योंकि उन्हें छोटी जाति का समझा जाता था, तो मैं समझूँ! मेरा तो विश्‍वास है कि कोई पण्डित इसे नहीं बता सकता!'

'पर यह बात तो निश्‍चय ही सोची जा सकती है कि जो लोग छोटी जाति के माने जाते हैं, वे बड़ी जातिवालों के साथ वैमनस्य रखते हैं।'

विश्‍वेश्‍वरी को रमेश की इस आवेगपूर्ण बात पर फिर हँसी आ गई। बोली -'गलत! सरासर गलत बात है तुम्हारा तर्क! गाँव के किसी को इसकी चिंता नहीं कि अमुक ऊँची जाति का है और अमुक नीची जाति का! जिस प्रकार छोटे भाई के मन में यह द्वेष नहीं होता कि वह क्यों बड़े भाई के बाद पैदा हुआ - पहले क्यों नहीं पैदा हुआ, उसी तरह छोटी जाति के लोगों में भी यह द्वेष नहीं होता कि वे क्यों छोटी जाति में पैदा हुए! कायस्थ कभी यह ईर्ष्या नहीं करता कि मैं ब्राह्मण क्यों न पैदा हुआ और न कहार ही यह क्षोभ करता है कि वह कायस्थ घर में क्यों न जन्मा! और बेटा, जिस प्रकार बड़े भाई की चरण-रज में कोई संकोच नहीं होता, ठीक उसी प्रकार ब्राह्मणों की चरण-रज लेने में, कायस्थों को भी लज्जा आने का कोई कारण नहीं! यह जात-पाँत किसी भी तरह आपस के मनोमालिन्य, वैमनस्य तथा ईर्ष्या-द्वेष का कारण नहीं है। और कम-से-कम बंगाली देहाती समाज में हर्गिज ही नहीं!'

रमेश मन-ही-मन चकित रह गया। बोला - 'ताई जी, फिर इसका कारण क्या है? वीरपुर के किसी मुसलमान के घर में तो इस तरह इतने लड़ाई -झगड़े होते नहीं! उलटे एक-दूसरे की मुसीबत में सभी मिल कर मदद करते हैं। यहाँ की तरह कोई उन पर अत्याचार नहीं करता। तुम्हें मालूम तो है ही कि उस दिन बेचारे द्वारिका पण्डित की अर्थी पड़ी रही, क्योंकि उसका प्रायश्‍चित नहीं हुआ!'

'मालूम है! लेकिन इसकी जड़ में जाति नहीं है। मुसलमान आज भी अपने धर्म को सच्चे रूप में मानते हैं और हम लोग नहीं! सच्चा धर्म आज हमारे देहातों से प्राय: खो गया है; अब उसकी जगह रह गया है थोथा आचार -विचार और कुसंस्कार, जिनको लेकर आज हमारे बीच में गुट बने हुए हैं।'

रमेश ने दीर्घ निःश्‍वास लेते हुए कहा - 'क्या इससे छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं?'

'है, इसका उपाय है ज्ञान, जिसे तुमने अपनाया है! तभी तो तुमसे बार -बार कहती हूँ कि अपनी मातृभूमि को छोड़ कर कहीं भी न जाना!'

रमेश ने इसके उत्तर में कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि विश्‍वेश्‍वरी ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा - 'शायद तुम यही कहना चाहते हो कि अज्ञानता तो मुसलमानों में भी पाई जाती है! हाँ, पाई जरूर जाती है, लेकिन उनमें धर्म के प्रति अब भी जागरूकता है, वह हर तरह से उनकी रक्षा करते हैं और साथ ही उनका धर्म भी सजीव है! वीरपुर गाँव में जाफर नाम का एक धनी -मानी आदमी है, जिसने अपनी सौतेली माँ को खाने-पीने से तंग कर दिया था, तो उनके समाज में इसी कारण उसे बिरादरी से निकाल दिया। तुम यह बात वहाँ पूछ कर पता कर सकते हो। और हमारे यहाँ इन्हीं गोविंद गांगुली ने अपनी विधवा बड़ी भौजाई को इतना मारा कि बेचारी अधमरी हो गई। पर हमारे समाज की तरफ से क्या मजाल कि उन्हें कोई दण्ड दिया जा सके! वह खुद ही उसके कर्ता-धर्ता बने बैठे हैं। हमारे यहाँ इन सारे कर्मों को व्यक्तिगत माना गया है, जिसका दण्ड भगवान की अदालत में उसे मिलता है, और दूसरे जन्म में कहीं उसका फल भोगना पड़ता है। हमारे देहाती समाज को उन पर कुछ कहने-सुनने का कोई अधिकार नहीं!'

रमेश चित्र-लिखित-सा यह सब सुन रहा था। उसका मन ताई जी के इस तर्क को अंतिम सत्य मान कर स्वीकार नहीं कर पा रहा था। विश्‍वेश्‍वरी ने यह बात तोड़ते हुए कहा - 'बेटा, कहीं भूल मत कर बैठना! फल को ही उपाय समझने की वजह से, तुम जाति की ऊँच-नीच को ही इसका प्रधान कारण मानते हो, और यह सोचते हो कि जब तक इसमें कोई सुधार नहीं किया जाएगा, तब तक कोई सुधार होना संभव नहीं! लेकिन उससे दोनों ही पक्षों की हानि होगी। मगर यदि तुम मेरे कथन की सत्यता की परख करना चाहो, तो जरा शहर के आस-पास कुछ गाँवों में जा कर घूम आओ, और फिर कुआँपुर गाँव की स्थिति से उसकी तुलना कर देखो, तब आप ही सब बातें साफ हो जाएँगी।'

रमेश को कलकत्ता के पास के कुछ गाँवों का अनुभव था। उसने मन-ही-मन उनकी कल्पना की, और सहसा उनकी आँखों के सामने से पर्दा-सा हट गया, और वे विस्मयान्वित नेत्रों से विश्‍वेश्‍वरी के चेहरे की तरफ एकटक देखने लगे।

रमेश के इस परिवर्तन की ओर ध्यान न देते हुए विश्‍वेश्‍वरी बोलीं - 'मैं तुमसे अपनी जन्मभूमि को छोड़ कर कहीं न जाने के लिए बार-बार जो कहती हूँ, सो इसीलिए! जो लोग अपने गाँव के बाहर जा कर अनुभव प्राप्त करते हैं, अगर वे ही लोग अपने गाँव में लौट आएँ, उनसे अपना संबंध-विच्छेद न कर, तुम्हारी ही तरह उनके सुधार में लग जाएँ, तो हमारे देहाती समाज की यह बुरी हालत न रहे, जो आज है - और न फिर ये लोग तुम जैसों को ठुकरा कर, गोविंद गांगुली जैसों को सिर पर चढ़ाते।'

रमेश को उसी समय रमा का स्मरण हो आया और फिर अनमने से स्वर में उसने कहा - 'यहाँ से दूर जाने में मुझे कोई दुख नहीं होगा!'

विश्‍वेश्‍वरी उसके इस वाक्य का कारण तो न समझ पाईं, लेकिन स्वर का उन्होंने पूरी तरह अनुभव किया। बोलीं - 'यह कभी नहीं हो सकता, रमेश! अगर तुम अपना काम बीच ही में छोड़ कर चले जाओगे, तो तुम्हारी मातृभूमि तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगी!'

'मातृभूमि अकेले मेरी ही तो है नहीं, ताई जी!'

विश्‍वेश्‍वरी ने कुछ नाराज होते हुए कहा - 'वह तुम्हारी ही माता है, तुमने आते ही उसके दुख को पहचाना! माँ कभी अपने मुँह से अपने बेटों से कुछ नहीं माँगती। आज तक उसकी व्यथा किसी ने भी नहीं समझी सिवा तुम्हारे!'

उसके बाद रमेश ने बात और आगे न चलाई। थोड़ी देर तक चुपचाप बैठे रहने के बाद, अत्यंत आदर और भक्ति से विश्‍वेश्‍वरी की चरण-रज उन्होंने माथे पर लगा ली, और फिर धीरे -धीरे वहाँ से चले गए।

रमेश के हृदय में कर्तव्य, करुणा, दया और भक्ति की भावनाएँ उमड़ रही थीं।

भगवान भास्कर प्रात:काल की अँगड़ाई लेते हुए, अलसाई मुद्रा में मंथर गति से आकाश मार्ग पर बढ़ रहे थे। रमेश अपने कमरे की पूरब तरफ की खिड़की के पास खड़े, शून्य की तरफ एकटक देख रहे थे। सहसा किसी बालक की पुकार से चौंक कर पीछे मुड़ कर देखा, तो रमा के छोटे भाई यतींद्र को खड़े पाया। वह पुकार रहा था -'छोटे भैया! छोटे भैया!'

रमेश उसे बड़े प्यार से, हाथ पकड़ कर अंदर ले आए और बोले - 'किसे पुकार रहे थे, यतींद्र?'

'आपको ही?'

'मुझे? और छोटे भैया कह कर?' किसने बताया कि मुझे छोटे भैया कह कर पुकारा करो?'

'दीदी ने!'

'दीदी ने? क्या कुछ कहलाया है उन्होंने मेरे लिए?'

'वे मेरे साथ यहाँ आई हैं। वहाँ खड़ी हैं!' और उसने दरवाजे की तरफ इशारा कर दिया।

रमेश ने आश्‍चर्यान्वित हो कर देखा कि रमा एक खंभे की आड़ में खड़ी है। उसके पास पहुँच कर रमेश ने बड़े विनम्र और स्नेहसिक्त स्वर में कहा - 'आओ, अंदर आओ! मेरे अहोभाग्य कि तुम मेरे यहाँ आईं। पर मुझे ही बुला लिया होता। तुमने नाहक तकलीफ की!'

रमा ने इधर -उधर देखा कि यतींद्र का हाथ पकड़ रमेश के पीछे-पीछे चल दी, और उसके कमरे की चौखट के पास आ कर बैठ गई। बोली - 'मैं एक भीख माँगने आई हूँ आपके पास? कहिए, दीजिएगा?' और रमेश के चेहरे की तरफ एकटक देखने लगी। उस दृष्टि ने रमेश के सुप्त हृतस्वरों को झंकृत कर दिया, और दूसरे क्षण ही उनके समस्त तार झनझना कर एकबारगी टूट गए। थोड़ी देर पहले उनके मन में जो निश्‍चय आया और मनोकामनाएँ हिलोरें मार रही थीं, वे प्राय: लुप्त-सी हो गईं। उन्होंने पूछा - 'बोलो, तुम क्या चाहती हो?'

रमेश के स्वर में अन्यमनस्कता और उदासी थी। रमा ने भली प्रकार उसका अनुभव किया। बोली - 'वायदा कीजिए कि देंगे!'

कुछ देर तक मौन रह कर रमेश ने कहा - 'वचन तो नहीं दे सकता! बिना किसी हिचक के, तुम्हारी हर बात मान लेने की जो शक्ति थी, उसे तुमने अपने ही हाथों तोड़ -फोड़ डाला।'

रमा ने स्तब्ध हो कर कहा -'मैंने भला कैसे?'

'रमा, मैं आज तुमसे एक बात कहूँगा कि इस संसार में वह शक्ति, जिस पर मैं सम्पूर्ण विश्‍वास कर सकूँ, जिसकी कोई बात न टाल सकूँ, वह केवल तुम्हीं में थी! अब तुम्हें चाहे इस पर विश्‍वास हो या न हो और यदि वह शक्ति नियति के थपेड़े से नष्ट न हो गई होती, तो मैं यह बात कहता भी नहीं!' और थोड़ी देर तक मौन रह कर फिर उन्होंने कहा - 'आज इस बात को कहने में न मेरा ही नुकसान है, न तुम्हारा ही! उस दिन तक ऐसी कोई चीज न थी, जिसे तुम माँगो और मैं तुम्हें न दूँ! जानती हो, ऐसा क्यों था?'

रमा ने सिर हिला कर ही संकेत किया -'नहीं।' रमा का चेहरा किसी अव्यक्त लज्जा से आरक्त हो उठा।

'सुन कर लजाना भी मत, और न मेरे ऊपर नाराज होना! सोच लेना कि बीते जमाने की एक कहानी सुन रही हूँ।'

रमा के मन में हुआ भी कि उसे रोक दे, पर रोक न सकी और उसका सिर झुका ही रहा गया।

रमेश ने शांत-सुकोमल स्वर में कहा - 'मैं तुम्हें प्यार करता था और ऐसा करता था, जैसा मानो कभी किसी ने किसी को भी न किया होगा! जब मैं बच्चा था, तब मेरी माँ कहा करती थी कि हम दोनों का ब्याह होगा; और जब मुझे उससे निराश होना पड़ा, उस दिन मैं ऐसा रोया कि इसकी याद आज भी ताजा है।'

रमा का हृदय इन सब बातों को सुन कर बिलख उठा। उसका सारा अंतर विदीर्ण हो कर टुकड़े -टुकड़े हो रहा था। पर वह रमेश को न रोक सकी; मूर्तिवत शांत बैठी रही। रमेश ने आगे कहा - 'तुम सोचती होगी कि तुमसे यह बातें कहना तुम पर अन्याय करना है! सोचता मैं भी पहले ऐसा ही था, और तभी तारकेश्‍वर में, जब तुम्हारे सामीप्य ने मेरे समस्त जीवन को एक नवीनता प्रदान कर दी, उस समय मैं यह सब न कह सका। मैंने बड़े कष्ट से, अपने दिल में इस बात को दबा रखा था।'

रमा से अब चुप न रहा गया। बोली - 'आज फिर क्यों, अपने मकान में अकेला पा कर लज्जित कर रहे हैं?'

'नहीं, बिलकुल नहीं! मैं कोई ऐसी बात नहीं कहना चाहता, जिससे तुम्हें अपमान का अनुभव हो। न तुम वह पहले की रमा रही, और न मैं पहले का वह रमेश ही! फिर भी सुनो! मुझे उस दिन यह पूर्ण विश्‍वास हो गया था कि तुम सब सह सकती हो, सब कुछ कर सकती हो, लेकिन मेरा अहित नहीं सह सकती; और इसीलिए मुझे यह विश्‍वास हो चला था कि तुम्हारे ऊपर अपने हृदय के समस्त विश्‍वास को आधारित कर, शांति के साथ इस जीवन के सारे कामों को पूरा कराता चला जाऊँगा! लेकिन, जब उस रोज रात को मैंने अपने कानों से अकबर को यह कहते सुना कि तुमने स्वयं...! अरे कोई है! बाहर इतना हल्ला किसलिए मच रहा है?'

तभी गोपाल सरकार ने हाँफते हुए आ कर कहा - 'छोटे बाबू!' सुनते ही रमेश बाहर निकला। गोपाल सरकार ने उससे कहा - 'छोटे बाबू, पुलिसवालों ने भजुआ को पकड़ लिया।' कहते हुए उनके होंठ काँप उठे और जैसे-तैसे उन्होंने बात पूरी की - 'परसों रात को राधानगर में तो डकैती हुई, उसी में उसे शामिल बताया जाता है।'

कमरे की तरफ देखते हुए रमेश ने कहा - 'रमा, अब एक क्षण भी तुम्हारा यहाँ ठहरना ठीक नहीं! खिड़की के रास्ते तुरंत बाहर चली जाओ! पुलिस जरूर ही मकान की तलाशी लेगी।'

रमा का चेहरा एकदम सुस्त हो गया, खड़े होते हुए उसने कहा - 'तुम्हारे लिए तो कोई डर नहीं है न?'

'कहा नहीं जा सकता! मुझ तो यह भी नहीं मालूम कि मामला क्या है और किस हद तक पहुँच गया है।'

रमा के होंठ काँप उठे। उसे याद हो आया कि उस दिन थाने में रिपोर्ट उसी ने कराई थी। याद आते ही वह रोने लगी और बोली - 'मैं नहीं जाने की!'

रमेश चकित-से थोड़ी देर को देखता रहा, फिर व्यग्र हो कर बोले - 'नहीं रमा, तुम्हारा एक क्षण भी यहाँ ठहरना ठीक नहीं! फौरन चली जाओ!' और रमा को कहने का अवसर दिए बिना ही, यतींद्र का हाथ पकड़ कर, जबरदस्ती भाई -बहन को खिड़की के रास्ते बाहर कर उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया।

***