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तेरे प्यार में

तेरे प्यार में

आशीष कुमार त्रिवेदी

गिरीश होश में आया तो चारों ओर घुप्प अंधेरा था। कुछ देर में जब आँखें कुछ अभ्यस्त हुईं तो उसे हल्का हल्का नज़र आया। आस पास पुराना सामान, कार्ड बोर्ड के बक्से रखे थे। शायद स्टोर रूम था।

उसके हाथ पीछे बंधे थे। उसने उठने का प्रयास किया तो सर के पीछे तेज़ दर्द महसूस हुआ। यहीं पर किसी ने डंडा मारा था। उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया था। चेतना लुप्त हो गई। अब जाकर उसे होश आया था। न जाने कितनी देर से वह यहाँ था।

वह एक कार्ड बोर्ड के बक्से से पीठ लगा कर बैठ गए। जगह का अंदाज़ लगाने के लिए वह बाहर की आवाज़ों को ध्यान से सुनने की कोशिश करने लगा।

बैंड बाजे बजने की आवाज़ आ रही थी। वह समझ गया। उसे हंसराज जी के फॉर्म हॉउस में बंद करके रखा गया है। आज उसकी पत्नी की शादी हो रही है। बारात दरवाज़े पर आ चुकी है।

वह दुल्हन बनी राखी की कल्पना करने लगा। कितनी सुंदर लग रही होगी वह। पिछली बार साधारण से जोड़े में ही किसी महारानी की तरह लग रही थी। अब तो सब कुछ उसके पिता की मर्ज़ी से हो रहा है। कोई कसर नहीं छोड़ी होगी। किसी बड़े डिज़ाइनर का लहंगा पहना होगा। गहनों से लदी अप्सरा सी लग रही होगी।

गिरीश अतीत की गलियों में भटकने लगा। एल.एल.एम करने के बाद वह मशहूर वकील रौशन हंसराज के यहाँ काम करने लगा था। वैसे तो वह कॉलेज का टॉपर था लेकिन हंसराज जी के दफ्तर में उसे अभी केवल छोटे मोटे क्लर्क वाले काम ही दिए जाते थे। वहाँ उससे भी बड़े दिग्गज़ थे। पर उसे तसल्ली थी कि इन बड़े लोगों से उसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। एक दिन वह इनसे भी बड़ा वकील बनेगा।

एक दिन उसे किसी ज़रूरी काम से हंसराज जी के बंगले पर जाना पड़ा। बंगले के लॉन में बैठे हुए वह उन्हें कुछ बता रहा था कि तभी हंसराज जी की बेटी राखी वहाँ आ गई।

"पापा यह क्या बात हुई। आप बाहर जा रहे हैं। आपने प्रॉमिस किया था कि मेरे साथ बैडमिंटन खेलेंगे। दिस इज़ नॉट फेयर पापा।"

राखी अपने पिता से नाराज़ हो रही थी। वह अपनी बड़ी बड़ी आँखें मटका रही थी। पहली नज़र पड़ते ही गिरीश की आँखें जैसे उसके चेहरे पर चिपक गई थीं। वह जानता था कि इस तरह किसी लड़की को घूरना ठीक नहीं है। वह भी बॉस की बेटी को। लेकिन सारे तर्क को अनसुना कर आँखें पूरी ढिटाई पर आमादा थीं।

"क्यों भाई गिरीश तुम भी तो बैडमिंटन खेल लेते हो।" हंसराज जी की आवाज़ सुन उसने अपनी आँखें जबरदस्ती राखी के चेहरे से हटा कर उन्हें देखा। अचानक इस सवाल से वह हड़बड़ा गया। हकलाते हुए बोला।

"जी वो कॉलेज में खेलता था।"

"तो फिर आज मेरी बेटी के साथ खेलो।"

हंसराज जी चले गए। गिरीश राखी के साथ बैडमिंटन खेलने लगा। वह अभी तक राखी के रूप की चकाचौंध से बौराया हुआ था। बहुत गलतियां कर रहा था। लेकिन राखी को तो बैडमिंटन खेलना बिल्कुल ही नहीं आता था। इसलिए उसके खेल की बहुत तारीफ कर रही थी।

"गिरीश जी आप तो बहुत अच्छा खेलते हैं। मुझे भी सिखाइए। मैं पापा से कहूँगी कि आपसे इस बारे में बात करें।"

उसके बाद गिरीश हर संडे हंसराज जी के बंगले पर जाने लगा। राखी अब उससे खुलने लगी थी। गिरीश जी का 'जी' हट चुका था। अब केवल गिरीश ही बचा था। बैडमिंटन तो बस एक बहाना बन गया था। दोनों एक दूसरे के अच्छे दोस्त बन गए थे।

एक दिन हंसराज जी ने गिरीश से कहा "तुम तो बहुत योग्य हो। कॉलेज के टॉपर हो। राखी को भी कैरियर के बारे में गाइड किया करो।"

अब गिरीश के पास उनके घर आने का एक और कारण हो गया था। वह राखी को कैरियर के बारे में सलाह देता था। लेकिन राखी को उसकी सलाह में कोई दिलचस्पी नहीं रहती थी। गिरीश भी समझता था। अपने पिता की इकलौती संतान होने के नाते सारा कुछ उसी का तो था। इसलिए वह कैरियर को लेकर बिल्कुल भी गंभीर नहीं थी।

राखी अब उससे बहुत ज्यादा खुल चुकी थी। उसके नज़दीक बैठने में उसे कोई संकोच नहीं होता था। अक्सर बात करते हुए उसे छू लेती थी। गिरीश समझ रहा था कि उसकी तरह ही राखी भी उसके प्रति आकर्षण महसूस करती है।

वह जानता था कि यदि समय पर न रोका गया तो यह आकर्षण प्यार में तब्दील हो जाएगा। वह अजीब कश्मकश में था। एक तरफ तो उसे राखी का अपने प्रति खिंचाव बहुत अच्छा लगता था। वह उसके साथ रहने के बहाने ढूंढ़ता रहता था। दूसरी तरफ उसका मन चेतावनी देता रहता था कि इस राह पर आगे बढ़ने में बहुत मुश्किल है। उसके और राखी के स्तर में बहुत अंतर है। वह उसके पिता का एक मुलाज़िम है। हंसराज जी कभी भी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगे। भला इसी में है कि वक्त रहते चेत लिया जाए।

उसके मन में रस्साकशी का खेल चल रहा था। कभी वह तय कर लेता कि अब वह राखी से दूर रहेगा। लेकिन कुछ ही समय में मन उसके पास जाने को छटपटाने लगता। वह इस खींचतान से बहुत परेशान था।

राखी के बीसवें जन्मदिन की पार्टी में उसे यह बात समझ आ गई कि उन दोनों का रिश्ता नहीं हो सकता। पार्टी की व्यवस्था हंसराज जी के फॉर्म हाउस में की गई थी। शहर के सभी नामी गिरामी लोग आए थे। सारे इंतज़ाम पर खूब पैसा बहाया गया था। राखी अपनी सहेलियों तथा मेहमानों से घिरी थी। गिरीश पर अधिक ध्यान नहीं दे पा रही थी। वह उस जगह अपने आप को फिट नहीं पा रहा था। उसका मन कर रहा था कि पार्टी छोड़ कर चला जाए।

वह इजाज़त मांगने हंसराज जी के पास गया। उस वक्त वह मशहूर उद्योगपति लाजपत पोद्दार से बात कर रहे थे। पोद्दार ने तारीफ करते हुए कहा "भाई रौशन जैसा इंतज़ाम किया है तुमने लगता है आज बिटिया का जन्मदिन नहीं ब्याह है।"

हंसराज जी ने बड़े गर्व से कहा "यह तो कुछ भी नहीं है। राखी के ब्याह पर तो वो इंतज़ाम करूँगा कि लोग सालों तक याद रखेंगे। मैंने राखी को राजकुमारी की तरह पाला है। ऐसी जगह शादी करूँगा जहाँ वह महारानी बन कर रहे।"

यह सुनकर गिरीश का मन बेचैन हो गया। वह किसी से बिना कुछ कहे ही पार्टी से लौट गया।

गिरीश सारी रात अपने और राखी के रिश्ते के बारे में सोंचता रहा। सचमुच उन दोनों का कोई मोल नहीं था। राखी अपने पिता की राजकुमारी थी। ऐशो आराम में पली थी। वह एक साधारण परिवार में पैदा हुआ था। बचपन आभावों में ही बीता था। कई मुश्किलें झेल कर यहाँ तक पहुँचा था। उसके माता पिता की मृत्यु हो चुकी थी। कोई नाते रिश्तेदार भी नहीं था।

गिरीश ने सोंचा अच्छा हुआ कि समय रहते वह यह बात समझ गया। राखी के व्यक्तित्व में अभी भी एक बचपना था। वह किसी भी मामले को गंभीरता से नहीं लेती थी। गिरीश नहीं जानता था कि उनके रिश्ते को लेकर वह कितनी गंभीर है। ऐसे में यही ठीक था कि वह मामले को आगे न बढ़ाए। उसने तय कर लिया कि अब वह राखी से नहीं मिलेगा।

गिरीश का राखी के प्रति केवल आकर्षण ही नहीं था। वह उससे प्रेम करने लगा था। अपने निर्णय पर टिके रहना उसके लिए कठिन था। लेकिन वह जानता था कि इस रिश्ते को आगे बढ़ा कर वह दुख के अलावा कुछ भी नहीं पाएगा।

गिरीश अपने ऊपर नियंत्रण रखने में सफल रहा था। कई दिन गुज़र गए न तो वह राखी से मिलने गया और न ही उसके किसी मैसेज या कॉल का जवाब दिया।

धीरे धीरे उसका मन स्थिर होने लगा था। अब वह अपना सारा ध्यान काम पर लगाता था। वह चाहता था कि अपनी मेहनत से वह उस मुकाम को हासिल कर ले जहाँ वह पहुँचना चाहता है।

पर एक दिन उसके शांत मन में राखी ने कंकड़ी मार कर हलचल पैदा कर दी। संडे था अतः आज वह घर के काम निपटा रहा था। दरवाज़े की घंटी बजी तो उसने सोंचा शायद प्रेस वाला कपड़े लेने आया होगा। उसने दरवाज़ा खोला तो राखी को सामने देख कर सकपका गया।

राखी उसके कुछ कहने से पहले ही भीतर आ गई।

"क्या बात है? ना घर आते हो ना मेरी कॉल का जवाब देते हो? मुझसे दूर क्यों भाग रहे हो?" राखी ने बिना किसी भूमिका के अपने सवाल दाग दिए।

गिरीश अजीब सी उलझन में था। राखी के इस तरह अपने घर आने की उसने कल्पना भी नहीं की थी। ऊपर से उसके इन सवालों के लिए भी वह तैयार नहीं था। वह सर झुकाए बैठा रहा।

"कुछ बोलोगे या ऐसे ही चुप बैठे रहोगे।" राखी ने उसे कुरेदा।

"तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था।" गिरीश शांत किंतु दृढ़ स्वर में बोला।

राखी ने अपनी नज़र उसके चेहरे पर टिका दी।

गिरीश आगे बोला "हमें अब मिलना नहीं चाहिए। हमारे इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है।"

"अच्छा.. वो कैसे?"

"तुम्हारी और मेरी हैसियत में बहुत फर्क है। तुम्हारे पापा इस रिश्ते को कभी स्वीकार नहीं करेंगे।"

"मैं इस बात को नहीं मानती हूँ। मैं सिर्फ यह जानती हूँ कि तुमको चाहती हूँ। तुम्हें पाने के लिए कुछ भी कर सकती हूँ।" राखी ने अपना फैसला सुना दिया।

गिरीश कुछ देर उसके चेहरे को ताकता रहा। राखी ने पहली बार इतनी स्पष्टता से उन दोनों के रिश्ते को स्वीकार किया था। उसे अच्छा लगा। फिर भी वह पूरी तरह से आश्वस्त होना चाहता था।

"देखो राखी, ज़िंदगी कोई फिल्म नहीं होती है कि अंत में सब कुछ अच्छा हो जाए। अभी मेरी केवल यही पहचान है कि मैं तुम्हारे पापा जैसे बड़े वकील का एक कर्मचारी हूँ। अनाथ हूँ। किराए के इस छोटे से मकान में रहता हूँ। बैंक में भी कोई खास रकम नहीं है।"

कुछ देर के लिए वह फिर रुका। राखी ध्यान से उसकी बात सुन रही थी।

"अगर तुम्हारे पापा राज़ी नहीं होते हैं, जिसका मुझे पूरा यकीन है तो उन्हें नाराज़ करने का मतलब है नौकरी से छुट्टी। उनके रहते इस शहर में तो कोई वकील मुझे काम नहीं देगा। मुझे दूसरे शहर में नौकरी ढूंढ़नी पड़ेगी। सार यह है कि मेरे साथ तुम्हें बहुत कष्ट उठाने पड़ेंगे।"

गिरीश ने राखी की आँखों में झांक कर पूँछा "अपने पापा के घर एक शहज़ादी की तरह रहती हो। मेरे साथ तकलीफें झेल सकोगी।"

राखी कुछ सोंच कर बोली "गिरीश मैं कोई बच्ची नहीं हूँ। मैं तुम्हें यकीन दिलाती हूँ कि तुम मुझे जिस हाल में रखोगी रह लूँगी। तुम्हें एक बार मेरे पापा से बात ज़रूर करनी चाहिए।"

राखी के जाने के बाद गिरीश बहुत देर तक इस बारे में सोंचता रहा। वह भी राखी को बहुत चाहता था। उसे हिचक सिर्फ इस बात की थी कि वह राखी का रुख नहीं समझ पा रहा था। किंतु अब तो कोई दुविधा नहीं रही थी। राखी ने स्पष्टता से अपने प्रेम को स्वीकार कर लिया था। इस बात से उसे बहुत बल मिला था। अब वह अपने प्यार को पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार था।

अगले रविवार को वह बात करने के लिए हंसराज जी के बंगले पर पहुँचा। हंसराज जी कहीं जाने के लिए तैयार हो रहे थे। उसे देख कर बोले "बहुत दिनों बाद आए। राखी तो तुम्हारा इंतज़ार करती रहती है।" कह कर उन्होंने राखी को आवाज़ दी।

"आज मैं आप से कुछ कहना चाहता हूँ।"

"काम की बात मैं घर पर नहीं करता हूँ।"

"यह व्यक्तिगत बात है।" गिरीश ने हिम्मत कर कहा।

हंसराज जी ने कुछ अचरज से उसे देखा।

"मैं तो कहीं जा रहा था। फिर भी कहो क्या कहना है?"

गिरीश ने बात कहने के लिए स्वयं को नियंत्रित किया। फिर गंभीर स्वर में बोला "मैं और राखी एक दूसरे को प्रेम करते हैं। हम शादी करना चाहते हैं।"

राखी भी वहीं खड़ी थी। उसने भी मौन समर्थन देते हुए अपने पापा को देखा। हंसराज जी अचानक यह बात सुन कर स्तब्ध रह गए। पर स्वयं को संतुलित करने में उन्हें अधिक समय नहीं लगा। उन्होंने राखी को अपने कमरे में जाने को कहा। उनके स्वर की दृढ़ता देख राखी अपने कमरे में चली गई। उसके चले जाने के बाद वह गंभीर और सधी हुई आवाज़ में बोले।

"राखी की माँ बचपन में ही गुज़र गई थी। मैंने उसे बड़े लाड़ प्यार से पाला है। वह जिस चीज़ के लिए कहती उसके लिए मैंने कभी ना नहीं की। लेकिन यह उसकी ज़िंदगी का सवाल है। मैं जानता हूँ कि वह नादान है। लेकिन मैं नहीं। यह खयाल हमेशा के लिए अपने मन से निकाल दो।"

गिरीश भी बहुत शांति से उनकी बात सुन रहा था।

"तुम मेरे मुलाज़िम हो। मेरे दफ्तर में तुम अभी भी काम कर सकते हो। लेकिन मेरा दामाद बनने की बात भूल जाओ।"

आखिरी बात पर हंसराज जी की आवाज़ में एक सख्ती थी। अपनी बात समाप्त कर वह उठ कर खड़े हो गए। गिरीश बिना कुछ कहे लौट गया।

गिरीश पहले से ही जानता था कि हंसराज जी का फैसला उनके विरुद्ध होगा। अतः उनसे बात करने के बाद वह खामोशी से हंसराज जी के दफ्तर में काम करता रहा। लेकिन आगे की तैयारी में जुट गया। उसने दूसरे शहर में नौकरी के लिए अपने एक दोस्त से बात भी कर ली। कुछ दिनों तक काम चलाया जा सके इसके लिए उसने अपनी बचत को भी सही तरह से व्यवस्थित कर लिया। उसने राखी को भी मानसिक रूप से तैयार रहने को कहा। दोनों सही समय की प्रतीक्षा करने लगे।

उस दिन हंसराज जी ने राखी को उसके कमरे में जाने को कहा तो था लेकिन वहाँ से हट कर वह आड़ से सारी बातें सुन रही थी। जब उसके पापा लौट कर आए तो उसने उन्हें मनाने की कोशिश की।

"पापा आपने मेरी खुशी के लिए इतना कुछ किया है। फिर इतनी बड़ी खुशी मुझसे क्यों छीन रहे हैं?"

"क्योंकी उसकी हैसियत हमारे बराबर की नहीं है।"

"पापा गिरीश काबिल और मेहनती है। आप ही तो कहते हैं जो कुछ आपका है वह मेरा है।"

"गिरीश काबिल और मेहनती है लेकिन वह कभी हमारी बराबरी नहीं कर सकता है। हैसियत खानदान से होती है। मिली हुई जायदाद से नहीं।"

उसके बाद राखी ने उनसे कोई बहस नहीं की। वह गिरीश के इशारे का इंतज़ार करने लगी।

दो महीने बीत गए। गिरीश चुपचाप अपने काम पर जाता रहा। राखी ने भी कोई ज़िद नहीं की। हंसराज जी को लगने लगा कि दोनों उनकी बात समझ गए हैं।

गिरीश के दोस्त ने नौकरी का इंतज़ाम कर दिया था। वह रहने की व्यवस्था भी कर आया था। हंसराज जी किसी सेमीनार में शामिल होने के लिए विदेश गए हुए थे। इस अवसर का लाभ उठा कर गिरीश राखी को लेकर भाग गया। दोनों ने एक मंदिर में शादी कर ली।

विवाह के बाद कुछ दिन किसी सपने की तरह बीते। काम से वापस आकर गिरीश राखी को घुमाने ले जाता। कभी दोनों फिल्म देखने चले जाते तो कभी मॉल में शॉपिंग करते। खाना या तो बाहर से खाकर आते या फिर ऑर्डर कर मंगा लेते। लेकिन सपने को हकीकत बनाए रखने की कीमत थी। कब तक इस शाहखर्ची से काम चल सकता था। अपनी नई नौकरी में गिरीश के लिए अपनी पोजीशन बनाए रखना आवश्यक था। इसके लिए कभी कभी देर तक काम करना पड़ता था। अतः मजबूरी में उन्हें हकीकत की दुनिया में आना पड़ा।

गिरीश के लिए हकीकत की यह दुनिया नई नहीं थी। उसे अभ्यस्त होने में समय नहीं लगा। पर राखी जिस दुनिया से आई थी वह तो इस सपने से भी बहुत बेहतर थी। उसके लिए तो यह ऐसा था जैसे नर्म कालीन पर चलते हुए कोई पथरीली ज़मीन पर आ जाए।

कुछ दिनों तक तो राखी ने सब्र किया। फिर सब्र का बांध टूट गया। वह शिकायत करने लगी।

गिरीश अपनी क्षमता के हिसाब से उसे खुश रखने की पूरी कोशिश करता था। घर के काम के लिए एक नौकरानी भी रखी थी। लेकिन राखी को हर काम नौकरों से करवाने की आदत थी। अतः रोज़ नौकरानी से झगड़ा होता था। नौकरानी कहती थी कि काम बहुत है पर तनख्वाह कम। मेरी पगार बढ़ाओ। इसके अलावा और बहुत से खर्चे थे। अपनी तनख्वाह में इन सब को पूरा कर पाना गिरीश के लिए कठिन हो रहा था।

वह राखी को समझाने की कोशिश करता तो झगड़ा होने लगता। एक दिन इसी बहस में गिरीश ने राखी से कहा "मैंने तो पहले ही कहा था कि मेरे साथ तकलीफ होगी। तब तो तुमने सब कुछ सह लेने की बात की थी।"

राखी भी तुनक कर बोली "सह तो रही हूँ इतना कुछ। तुम क्या चाहते हो कि मैं भिखारियों की ज़िंदगी जिऊं।"

यह बात को गिरीश को चुभ गई। वह खुद स्थिति को संभालने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहा था। वह चाहता था कि अपने काम से सबको प्रभावित कर प्रमोशन ले सके। लेकिन दिन पर दिन बढ़ते झगड़ों के कारण उसका मन अशांत रहता था। जिसका काम पर भी बुरा असर पड़ रहा था।

राखी अब इस रिश्ते से ऊबने लगी थी। वह गिरीश के प्रति आकर्षित तो थी किंतु वैसे ही जैसे वह अन्य चीज़ों की तरफ होती थी। जो भी उसे पसंद आता था उसे पाने के लिए मचल उठती थी। जब गिरीश ने उससे दूरी बढ़ाई तो उसे पाने की एक ज़िद उसमें आ गई। उसे यकीन था कि उसके पापा उसकी यह ज़िद भी पूरी कर देंगे। किंतु उनके मना करने पर उसकी ज़िद और भड़क उठी। उसे लगा कि यदि वह गिरीश से शादी कर लेगी तो पापा को उसे अपनाना ही पड़ेगा। लेकिन इस बार वह गलत साबित हुई।

अब गिरीश और राखी दोनों की ज़िंदगी उलझ कर रह गई थी। गिरीश इस उलझन को सुलझाने की कोशिश कर रहा था। पर राखी अब इस रिश्ते से निकलना चाहती थी।

हंसराज जी को जब दोनों के भागने की खबर मिली तो वह बहुत क्रोधित हुए। परंतु उन्होंने किया कुछ नहीं। वह चाहते तो उसी समय अपनी पहुँच का प्रयोग कर गिरीश को अपने कदमों में गिरने को मजबूर कर सकते थे। वह अपनी बेटी के ज़िद्दी स्वभाव से वाकिफ थे। इसलिए उन्होंने भावुक होकर नहीं बल्कि व्यवहारिक होकर सोंचा।

हंसराज जी जानते थे कि ज़िद पूरी करने के बाद राखी को जब वास्तविक तकलीफों का पता चलेगा तो वह खुद इस रिश्ते को तोड़ देगी। धैर्यपूर्वक वह उस समय की प्रतीक्षा करने लगे।

हंसराज जी की प्रतीक्षा केवल छह माह में समाप्त हो गई। कुछ महीनों तक राखी प्रतीक्षा करती रही कि उसके पापा उससे संपर्क करेंगे। लेकिन जब उन्होंने उसकी कोई खबर नहीं ली तो वह निराश होने लगी। सीधी सादी ज़िंदगी जीते हुए वह तंग आ गई थी। वह अपने को उस पंछी की तरह महसूस करती थी जो खुले आसमान में उड़ते उड़ते अचानक छोटे से तंग पिंजड़े में फंस गया हो। यह स्थिति अब उससे सही नहीं जा रही थी। आखिर हार कर उसने ही हंसराज जी को फोन कर दिया।

पहले कुछ देर तक तो हंसराज जी इस तरह पेश आए जैसे उन्हें उसके चले जाने से कोई फर्क नहीं पड़ा। फिर शांत होकर उसकी बातें सुनने लगे। राखी बहुत देर तक उन्हें अपना दुख सुनाती रही। उसने कहा कि उनकी इच्छा के विरुद्ध जाना उसकी बहुत बड़ी गलती थी। जिसके लिए वह पछता रही है। अंत में उसने अपने पिता से कहा कि वह आकर उसे ले जाएं।

एक दिन गिरीश जब दफ्तर से घर लैटा तो हंसराज जी को बैठे पाया। राखी कमरे में पैकिंग कर रही थी। गिरीश ने पूँछा "कहाँ जा रही हो?"

"अपने पापा के घर।"

"कब आओगी?"

"अब कभी नहीं लौटूँगी।"

राखी का यह उत्तर सुन गिरीश दंग रह गया।

"ऐसा कैसे कर सकती हो तुम? हमारी शादी हुई है।"

"वह मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी।"

गिरीश सन्न रह गया। उसे किसी भी चीज़ का होश नहीं रहा। राखी के शब्द कान में गूंज रहे थे। वह बौखलाया सा बैठा रहा। जब कुछ होश संभला तो राखी अपने पिता के साथ जा चुकी थी।

राखी का इस तरह चला जाना गिरीश के लिए बहुत तकलीफ देय था। घर काटने को दौड़ता था। उसे लगता था कि यह उसकी असफलता थी कि वह राखी को उसकी मनपसंद ज़िंदगी नहीं दे सका।

कुछ दिन तक तो वह सोंचता रहा कि राखी उसके बिना नहीं रह पाएगी। गुस्सा ठंडा होते ही लौट आएगी। किंतु दो महीने बीत गए वह नहीं आई। ना ही उसने कोई मैसेज या कॉल किया।

हर बीतते दिन के साथ गिरीश टूटता जा रहा था। उसे लग रहा था कि वह राखी के बिना नहीं रह पाएगा। उसकी प्रतीक्षा करना व्यर्थ था। अतः उसने स्वयं जाकर राखी को वापस लाने का निश्चय किया। जब वह राखी के घर पहुँचा तो राखी अपने पिता के साथ किसी पार्टी में जाने के लिए तैयार हो रही थी। उसका सामना पहले हंसराज जी से हुआ। उन्होंने बड़ी रुखाई से पूँछा "यहाँ क्यों आए हो?"

"मैं राखी को लेने आया हूँ।"

"वह अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ चुकी है। तुमसे कोई संबंध नहीं रखना चाहती है।"

"वह मेरी पत्नी है।" गिरीश ने कड़ाई से कहा।

"मंदिर में बिना किसी गवाह के शादी के को मैं नहीं मानता।"

"यह सब मैं राखी के मुंह से सुनना चाहता हूँ।"

तभी राखी वहाँ आ गई। उसके चेहरे पर किसी प्रकार का दुख नहीं था।

"मैंने तुमसे रिश्ता तोड़ दिया है। तुम चले जाओ।"

गिरीश कुछ कहता उससे पहले ही हंसराज जी बोले "सुन लिया। अब चले जाओ। नहीं तो तुम मेरी ताकत को अच्छी तरह जानते हो।"

उन्होंने गार्ड को बुला कर गिरीश को बाहर फिकवा दिया। उसके सामने से ही बाप बेटी कार में बैठ कर निकल गए।

इस अपमान से गिरीश का रोम रोम जल उठा। वह तो अपनी स्थिति समझ कर पहले ही इस रिश्ते को आगे नहीं बढ़ाना चाहता था। राखी ने ही उसे रिश्ता आगे बढ़ाने को प्रेरित किया। इतने दिनों तक वह अकेले ही अपने और राखी के संबंध को बचाने का प्रयास करता रहा। कितनी आसानी से वह अपना पल्ला झाड़ कर निकल गई। उसे अपने पिता की दौलत का इतना गुरूर है। मैं उसे इतनी आसानी से अपने जीवन से जाने नहीं दूँगा। वह मेरे प्रेम का इस तरह अपमान नहीं कर सकती है। ऐसी ही बातें उसके मन में उमड़ती घुमड़ती रहीं।

गिरीश ने दफ्तर से छुट्टी ले ली। वह राखी को सबक सिखाने का तरीका ढूंढ़ने लगा। राखी की हर हरकत पर नज़र रखने लगा। उसे पता चला कि अगले हफ्ते राखी की शादी लंदन में रहने वाले किसी व्यापारी से होने वाली है। पहले तो उसने कानूनी रास्ते से शादी रोकने का विचार किया। लेकिन वह जानता था कि कानून की पढ़ाई करने के बावजूद भी उसने बहुत बड़ी गलती की थी। उसने एक छोटे से मंदिर में बिना किसी गवाह के शादी की थी। उसके लिए शादी को साबित करना कठिन था। क्योंकी राखी भी रिश्ता तोड़ चुकी थी। अतः उसने तय किया कि शादी के दिन वह मंडप में पहुँच कर अपनी बात सबके सामने रखेगा। इतने लोगों के सामने हंसराज जी कुछ नहीं कर पाएंगे।

गिरीश की तरह हंसराज जी भी उस पर नज़र रखे हुए थे। शादी वाले दिन जब वह फॉर्म हाउस की तरफ जा रहा था कुछ लोगों ने उस पर हमला किया। सर पर लगी चोट के कारण वह बेहोश हो गया। अब कुछ देर पहले ही उसे होश आया।

गिरीश अपने खयालों से बाहर आया तो आवाज़ें शांत हो चुकी थीं। शादी समाप्त हो चुकी थी। राखी किसी और की हो चुकी थी। उसकी पलकें भारी होने लगीं। वह सो गया।

सुबह दो लोग आए। वो उसे हंसराज जी के पास ले गए। हंसराज जी के चेहरे पर विजेता का भाव था।

"राखी शादी कर हमेशा के लिए लंदन चली गई है। तुम्हारे लिए अच्छा है कि उसे भूल जाओ। जा कर नई ज़िंदगी शुरू करो।"

हंसराज जी की कैद से छूट कर गिरीश वापस जाने के लिए बस स्टैंड पर आ गया। वह बहुत हल्का महसूस कर रहा था। एक ऐसे रिश्ते से मुक्त हुआ था जिसका कोई वजूद नहीं था।

वैसे बहुत से लोग गिरीश को हारा हुआ कह सकते हैं। लेकिन ऐसे रिश्ते को कैसे बचाया जा सकता था जिसकी डोर केवल एक छोर पर बंधी थी।

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