अध्याय - २ - चंद्रमौली - शुभा का चंद्रमौली Jahnavi Suman द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अध्याय - २ - चंद्रमौली - शुभा का चंद्रमौली

चन्द्रमौलि

‘शुभा का चन्द्रमौलि'

सुमन शर्मा



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अध्याय — 2

चन्द्रमौलि ढाई वर्ष का होने वाला था। उसे अच्छे स्कूल में दाखिला दिलवाने के लिए घर में जोर शोर से तैयारियाँ चल रही थी। घर में तरह—तरह की किताबों का ढेर लग चुका था। मुझे सबसे ज्यादा पसंद था, उसे ए—बी—सी— पढ़ाना। क्योंकि वह ए फॉर एप्पल बी फॉर बॉल के बाद पुस्तक में बने चित्र पर हाथ रख कर कहता था, सी फॉर ‘माऊँ बिल्ली।' मैं अपनी हँसी रोक नहीं पाती थी और उसे कहती थी सी फॉर बिल्ली नहीं सी फॉर कैट होता है। अंग्रेजी में बिल्ली को कैट कहते हैं। पर वह कहाँ मानने वाला था। कमला को आवाज लगाकर पूछता, ‘‘कमला ये माऊँ बिल्ली है ना?'' कमला भी उसकी हाँ में हाँं मिला देती थी। उसे पढ़ाते—पढ़ाते मेरा सिर घूम जाता था। हर बात पर सवाल पूछता था।

मैंने उसे कविता सिखाई, ‘‘ऊपर पंखा चलता है नीचे बेबी सोता है———'' बस लग गया सवाल पर सवाल पूछने ‘‘बुआ बेबी के ऊपर पंखा क्यों चल रहा है? बेबी पंखे से डरता नहीं?'' ‘‘चलो दूसरी कविता सीखते हैं'', कहकर जब मैं दूसरी कविता शुरू करती, ‘‘चुन्नू—मुन्नू थे दो भाई, रसगुल्ले पर हुई लड़ाई———'' तो वह पूछता, ‘‘ बुआ उनके लिए रसगुल्ले कौन लाया था?'' उफ्‌ उसको कुछ भी सीखाना बहुत मुश्किल था।

आखिर हमारी मेहनत सफल हुई और चन्द्रमौलि को दिल्ली के एक प्रसिद्ध स्कूल में दाखिला मिल गया। उसके स्कूल में जाने का पहला दिन मैं कैसे भूल सकती हूँ। सुबह से ही घर में ऐसे भाग दोड़ हो रही थी जैसे चन्द्रमौलि नर्सरी स्कूल में नहीं बल्कि किसी मोर्चे पर लड़ने जा रहा हो। चन्द्रमौलि तो बस अपने ‘मिक्की माऊस' वाले बस्ते को देखकर फूला नहीं समाता था। पहले दिन तो भाई साहिब छोड़ने गए थे उसे।

पाँच घण्टे बाद जब वह स्कूल से वापिस आया तो स्कूल की थकान साफ नजर आ रही थी। भाभीजी तो घर पर नहीं थीं चन्द्रमौलि ने सारी स्कूल की बातें मुझे बताईं। पहला सारा दिन खेल—खेल में और अध्यापिका द्वारा बच्चों का परिचय लेने में बीत गया। असली समस्या तो तब पैदा हुई जब स्कूल में पढ़ाई होने लगी और गृहकार्य मिलने लगा। स्कूल से आते ही मेरे पीछे लग जाता, ‘‘पहले मेरा गृहकार्य करवाओ बाद में खाना खाऊँगा।'' एक पृष्ठ पूरा करने में दो घण्टे लगा देता था। खैर जैसे तैसे स्कूल का एक वर्ष पूरा हुआ और चन्द्रमौलि अगली कक्षा में आ गया।

मई महीने की 10 तारीख थी, रोज की तरह चन्द्रमौलि कमला के साथ स्कूल से घर आया और सीधा मेरे पास भागकर आ गया और बोला, ‘‘बुआ कल मुझे स्कूल नहीं जाना।'' मैं जानती थी कि, उसकी ग्रीष्म की छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं, फिर भी मैंने अनजान बनते हुए पूछा, ‘‘क्यों?'' वह बोला, ‘‘मेरी बहुत सारे दिन की छुट्टियाँ हो गई है और बहुत सारा गृहकार्य भी मिला है।'' वह मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगा बोला, ‘‘पहले मेरा गृहकार्य करवा दो।'' ‘‘अरे अभी तो बहुत सारी छुट्टियाँ हैं, आराम से कर लेंगे।'' मैंने जवाब दिया। लेकिन वह अपनीि जद्द पर अड़ा रहा। मैंने उसे समझाया कि आपको जो छुट्टियों का कार्य मिला है, उसके लिए बहुत सारे चित्र इकट्ठे करने हैं। थोड़ी देर बाद जब मैं सूखे कपड़े छत से उतार कर नीचे आई तो देखा चन्द्रमौलि ने अखबार फाड़—फाड़ कर कागज का बड़ा—सा ढेर इकट्ठा किया हुआ था, वह बोला ‘‘लो बुआ इकट्ठे हो गये चित्र अब गृहकार्य करवाओ।''

शाम को भाई साहब जब दफ्रतर से घर वापिस आये तो, उन्होंने बताया कि अगले हफ्रते दफ्रतर के काम से कोलकाता जाना है और वह हम सब को भी अपने साथ ले जा रहे थे।

हवाई जहाज में सफर करने की बात सुन कर चन्द्रमौलि बहुत खुश हुआ। कमला का परिवार पास ही की एक बस्ती में रहता था। मैंने कमला से कहा कि जब हम कोलकाता जायें तो वह दस दिन के लिए अपनी माताजी को यहाँ बुला ले। 17 मई की शाम छः बजे की उड़ान थी। सुबह से ही हम सब अपना सामान जुटाने में लगे हुए थे। चन्द्रमौलि ने भी अपना एक छोटा—सा थैला लिया और उसमें सामान ठूंसने लगा कहानियों की किताबें,पेंसिल, रबर और न जाने क्या—क्या। एक गुड्डा था उसके पास जिसे वह ‘पिना' कहता था, उसे अपने थैले में ररवने की कोशिश कर रहा था। उसके थैले में गुड्डा नहीं आया तो मेरे पास आकर बोला, ‘‘बुआ पिना को आप अपने बैग में रख लो।'' ‘‘अरे! इसे साथ ले जाने की क्या जरूरत है?'' मैंने पूछा तो वह बोला, ‘‘यह यहाँ पर अकेला रह जाएगा तो यह रोएगा।'' ‘‘अच्छा बाबा इसे भी ले चलते

हैं।'' कहकर मैंने ‘पिना' को अपने बैग में रख लिया।

तीन बजे घर के बाहर टैक्सी आ कर खड़ी हो गई। कमला की माता जी विजया बोली, ‘‘रास्ते के लिए खाना बाँध दूँ?'' भाभीजी हँसकर बोली, ‘‘दो घंटे में तो विमान कोलकाता पहंुँच जाएगा।'' कमला और विजया टैक्सी में सामान रखने लगीं। चन्द्रमौलि अपना छोटा—सा बैग घसीटते हुए बोला ‘‘अपना बैग मैं खुद रखूँगा।''

हम लोग टैक्सी में बैठ रहे थे तभी मेरी नजर कमला पर पड़ी वह सुबक—सुबक कर रो रही थी। मैं टैक्सी से नीचे उतरी और मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘अरे कमला रो मत सिर्फ दस दिन की तो बात है। दस दिन तो चुटकियों में निकल जाएँगे। मैं वापिस टैक्सी में बैठ गई औैर टैक्सी एअरपोर्ट की और चल दी।

टैक्सी चलते ही चन्द्रमौलि ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी, ‘‘बुआ हम हवाई जहाज से क्यों कोलकाता जा रहे हैं? हम टैक्सी से कोलकाता क्यों नहीं जा सकते?'' मैंने कहा, ‘‘हम टैक्सी में बैठे—बैठे थक जाएँगे। टैक्सी बहुत देर में कोलकाता पहुँचती और हवाई जहाज बहुत जल्दी पहुंँच जाएगा।''

वह बोला, ‘‘हवाई जहाज जल्दी क्यों पहुंँच जाएगा?'' ‘‘वह बहुत तेज चलता है।'' भाई साहब ने जवाब दिया। ‘‘टैक्सी भी तो इतनी तेज चल रही है।'' चन्द्रमौलि का जवाब था। उसके सवालों के जवाब मे घर से एअरपोर्ट की दूरी कब तय हो गई पता ही नहीं चला। सामान की जाँच करवाने के लिए कतार में लगे हुए थे हमारी कतार में एक बच्चे के पास मिक्की माऊस का बैग था। जिसे देखकर चन्द्रमौलि ने चिलाना शुरू कर दिया, ‘‘यह मेरा बैग है, मुझें अपना बैग चाहिए।'' हम सब ने बहुत समझाया कि ये बैग तुम्हारा नहीं है लेकिन वह तब शान्त हुआ जब भाई जब साहब ने गुस्से से आँखे तरेर कर उसकी ओर देखा।

अभी तक चन्द्रमौलि ने आकाश में उड़ता हुआ छोटा—सा हवाई जहाज देखा था। यहाँ चारों तरफ बडे़—बड़े हवाई जहाज देखकर वह हक्का—बक्का रह गया था। हवाई जहाज के उड़ान भरते समय उसने अपने कानों पर हाथ रख लिया था। बाद में तो उसने न केवल सफर का आनन्द लिया अपितु लोगों के आकर्षण का केन्द्र भी बन गया। देखते ही देखते कोलकाता का नेताजी सुभाषचन्द्र बोस हवाई अड्डा आ गया और हवाई जहाज जमीन पर नीचे उतर रहा था। कुछ देर हवाई पट्टी पर दौड़ने के बाद हवाई जहाज रूक गया। यात्रियों में जो हलचल पैदा हुई उसे देखकर चन्द्रमौलि समझ गया कि हमें अब उतरना है। वह भी अपनी सीट बैल्ट उतार कर खड़ा हो गया।

हवाई अड्डे से टैक्सी लेकर सीधे होटल के लिए रवाना हो गये। होटल पहुँचते ही चन्द्रमौलि के सवाल फिर से शुरू हो गये ‘‘यह इतना बड़ा घर किसका है? हम यहाँ पर क्यों हैं?'' वगैरह—वगैरह उसके सवालों के जवाब देते—देते कभी—कभी मैं स्वयं ही सवालों के जाल में उलझ जाती थी। होटल पहुंँचते—पहुँंचते रात के ग्यारह बज गये थे, खाना खा कर हम होटल के सुन्दर सुसज्जित कमरों के आराम दायक बिस्तरों पर चले गए और जल्दी ही नींद की पालकी में सवार होकर सपनों की दुनिया में पहुँंच गये।

सुबह छः बजे के अलार्म ने वास्तविक दुनिया में फिर से ला कर खड़ा कर दिया। भाई साहब दफ्रतर के काम के लिए चले गये और हमारे लिए टैक्सी का प्रबन्ध कर गये। सुबह के नौ बजे थे होटल के रूम की घण्टी बजी, दरवाजा खोलने पर सामने सांवले रंग का लम्बा युवक खड़ा था जिसने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह टैक्सी ड्राईवर है और उसका नाम ‘जॉय' है। ‘जॉय' को हमने बताया कि हम दिल्ली से हैं और हमें कोलकाता के विषय में कुछ भी नहीं मालूम जब उसने कोलकाता के विषय में बताना शुरू किया तो वह बंगाली ज्यादा और हिन्दी कम बोल रहा था इसलिए कुछ बातें हमारे कानों तक तो गई लेकिन दिमाग तक नहीं पहुंँच पाईं। उसने चन्द्रमौलि की तरफ बड़े प्यार से कुछ पूछा तो हमने अन्दाज लगाया कि वह कह रहा है, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है बाबू?'' भाभीजी ने कहा, ‘‘चन्द्रमौलि'' और जॉय को केवल ‘मौलि' ही समझ आया। वह अपने पूरे बत्तीस दाँत दिखाकर हँसा और बोला, ‘‘मौलि? अच्छा नाम है।''

कोलकाता का पहला दिन हमनें वहांँ के प्रसिद्ध मंदिर ‘दक्षिणेश्वर' और ‘कालीघाट' स्थित शक्तिपीठ देखने में बिताया। होटलॅ लोटते हुए ‘बड़ा बाजार' में ‘पुचके' भी खाये। जॉय से हमने कहा कि जितने दिन भी हम कलकता में घूमेंगे वह ही टैक्सी लेकर आये हमें काई दूसरा ड्राईवर नहीं चाहिए। जॉय ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा'' खुशी से उसकी आंखे चमक रही थी। हर दिन जॉय ठीक नौ बजे होटल आ जाता हमने उसके साथ ‘साईंस सिटी' देखी। बड़ी अद्‌भुत जगह है, वैज्ञानिक सिद्धांतों पर बनी ऐसी अद्‌भुत चीजें की आप दांतों तले उँगलियाँ दबाये बिना नहीं रह पायेंगे।

चन्द्रमौलि को वैज्ञानिक सिद्धांत तो नहीं समझ आ रहे थे उसे तो वह कोई परीलोक जैसा लग रहा था। इस जगह को और भी आकर्षक बना दिया था कोलकाता के लोगों का अनुशासन। यहाँ के लोगों की अनुशासन प्रियता और महिलाओं के प्रति सम्मान जैसी भावनाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया। सोने पर सुहागा था वहाँ का मौसम जहाँ मई—जून में दिल्ली में सूरज आग बरसा रहा होता है, यहाँ मौसम बहुत ही सुहावना था। यहाँ पर हमने चाय और सिंघाड़ा लिया। यहाँ समौसे को सिंघाड़ा कहते है।

एक दिन ‘निको पार्क' में बिताया। यह स्थान तो चन्द्रमौलि को बहुत ही पसंद आया। तरह—तरह के झूले और और बच्चों की ‘नन्ही ट्रेन' भला बच्चों को और क्या चाहिए?

बॉटनिकल गार्डन को देखकर आँखे फटी की फटी रह गई कितने तरह के पेड़ थे यहाँ पर। एक बरगद का पेड़ तो इतना पुराना और घना है कि उसकी मूल जड़ कहाँ है? पता ही नहीं चलता। यह कैसे हो सकता था कि यहाँ घूमने जाएँ और यहाँ की प्रसिद्ध ‘झाल मूड़ी' न खायें। यह गार्डन बहुत दूर तक फैला हुआ है इसे पूरा देखने के लिए बीच—बीच में रूक कर ‘झालमूड़ी' खाने का जॉय का सुझाव अच्छा रहा।

जॉय ने हमें वहाँ का ‘चिड़िया खाना' (चिड़िया घर) और ‘बिड़ला तारामंडल' देखने की भी सलाह दी। खरीदारी के लिए भी अच्छे—अच्छे बाजार ले गया। उसने कहा यहाँ कि मिठाई ‘शान्देश' भी अवश्य लेना।

यहाँ के संग्रहालयों में भी विचरण किया। सब एक से बढ़कर एक थे। यहाँ की कचौड़ियों और रस—गुल्लों का तो जवाब ही नहीं।

कुछ ही दिनों में कोलकाता से भावनात्मक रिश्ता जुड़ गया था। मगर दिल्ली जाने का दिन पास आ गया था। आज भी जॉय का चेहरा मेरी नजरों के सामने आ जाता है, जब हमने उससे कहा था कि कल हमे दिल्ली जाना है और वह सुबह छः बजे होटल पहुँंच जाये, कैसे उसकी आँंखे नम हो गईं थीं। और उदास चेहरे पर नकली मुस्कुराहट बिखेर कर उसने चन्द्रमौलि को गोद में उठा लिया था।

‘‘मौलि हमें दिल्ली जाकर भूल तो नहीं जाओगे।'' वह बंगाली भाषा में बोलकर उसका टूटी फूटी हिन्दी में मतलब बता रहा था।

24 मई का दिन था सुबह नौ बजे की उड़ान से दिल्ली वापिस आ रहे थे हम लोग। जॉय सुबह छः बजे टैक्सी लेकर आ गया था ,होटल तक सामान रखते रखते साढ़े छः बज गये थे। होटल के कर्मचारी चन्द्रमौलि से काफी घुलमिल गये थे वह हमें टैक्सी तक छोड़ने आये। हम हवाई अड्डे की ओर रवाना हो गये। कोलकाता को छोड़ने का दुख हो रहा था। कोलकाता में बिताएंँ सारे क्षण आंँखों में तैर रहे थे। चन्द्रमौलि को तो हवाई जहाज में बैठने का उत्साह हो रहा था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हवाई अड्डे पर हमारा सामान उतार कर जॉय अपनी टैक्सी के पास उदास खड़ा हो गया। उड़ान सही समय पर थी, हमने हवाई अड्डे के भीतर जाने से पहले मुड़कर जॉय की ओर देखा उसने हाथ हिलाया और अपनी टैक्सी में बैठ गया।

हम सामान जमा करवाने के बाद विमान की प्रतीक्षा में बैठ गये। कुछ ही देर में उद्‌घोषणा हुई कि दिल्ली जाने वाला विमान उड़ान भरने के लिए तैयार है। हम विमान में बैठ गये और विमान धरती को छोड़ आकाश की ओर चल पड़ा दो घंटे के आनन्दपूर्ण सफर के बाद पालम हवाई अड्डे पर विमान उतरने की घोषणा हुई विमान दिल्ली पहुंँच गया है यह बात चन्द्रमौलि को भी समझ आ गई वह पूछने लगा ‘‘बुआ यहाँ से हमारा घर दिखाई देगा?'' मैंने कहा ऊपर से बहुत सारे छोटे—छोटे घर दिखाई देंगे हमें पता नहीं चलेगा कौन—सा घर हमारा है। वह खिड़की से नीचे देखने के लिए बहुत उत्साहित था।

हवाई जहाज सुरक्षित हवाई अड्डे पर उतर गया। हम अपना सामान लेकर टैक्सी की प्रतीक्षा में खड़े हो गये। चन्द्रमौलि बड़े भोलेपन से बोला जॉय अंकल को बुला लो वह टैक्सी लेकर आ जायेगें।'' भाभीजी बोलीं ‘‘वह यहाँ थोड़ी टैक्सी चलाते हैं वह तो कोलकाता में टैक्सी चलाते हैं। ‘‘नहीं वो यहाँ भी आ सकते हैं। उन्होंने मुझे कहा था, मैं दिल्ली आऊँगा।'' चन्द्रमौलि ने जवाब में कहा।

हमें टैक्सी मिल गई और अब हम अपने घर की ओर जा रहे थे। लगभग दोपहर के एक बजे का समय था, जब टैक्सी घर के सामने रूकी। सड़के सुनसान पड़ी थीं और हमारे घर पर भी चहल पहल नहीं थी। तीन चार बार घण्टी बजाने के बाद कमला आँंखे मलते हुए बाहर आई शायद वह सारा काम करने के बाद सो गई थी। जिन सुस्त कदमों से वह घर के बाहर आई थी उनमें अब तेजी आ गई थी। उसके पीछे—पीछे ही उसकी माताजी विजया आ गईं वह दोनों मिलकर सामान उतारने लगी चन्द्रमौलि ने अन्दर आते ही अपने जूते उतारे और धम से बिस्तर पर लेट गया ,भाभीजी कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में चली गईं। भाई साहब सबसे भारी वाली अटैची को घसीटते हुए बैठक में पहुंचे। विजया चाय बनाने चली गई। मैंने अपना सामान खोलकर कमला को उसकी पंसद की लाल हरी चूड़ियाँ दीं वह उन्हें लेकर बहुत खुश हुई। विजया के लिए मेैें लाल बॉडर की साड़ी लाई थी वह भी मैंने कमला को दे दी। विजया चाय बनाकर हमारे पास बैठ गई और पूछने लगी ‘‘क्या—क्या देखा कलकता में?'' मैंने कहा ‘‘सब जगह की फोटो खींची है जब बनकर आ जाएगीं देख लेना।'' वह बोली ‘‘मैं तो बस अजमेर में घुमी हूँ।''

चाय पीकर हम सब गप्प—शप्प मार रहे थे तभी कमला ने दो पत्र लाकर मुझे दिए बोली ‘‘आपके पीछे से यह डाकिया दे गया थ।'' उनमें से एक तो टेलिफोन का बिल था और दूसरा पत्र भाई साहब का बिल था और दूसरा पत्र भाई साहब के नाम था। मैंने वह पत्र भाई साहब को दे दिया, वह पत्र देखते ही भाई साहिब खुशी से उछल पड़े और तेज कदमों से अपने कमरे की ओर बढ़ गये उनके पीछे भाभीजी भी चली गई। आखिर उस पत्र में ऐसा क्या था जिसे देखकर भाई साहब इतना खुश हो गये? वह पत्र पढ़ने के बाद फोन करने में व्यस्त हो गये ना जाने कितनी बार उन्होंने फोन किया।

कमला की माताजी अपने घर वापिस चली गईं। मेरे लिए अभी भी पहेली बना हुआ था वह खत। भोजन के बाद मैं अपने शयन कक्ष में चली गई खत के बारे में सोचते—सोचते स्वप्न लोक में चली गई।