चन्द्रमौलि
‘शुभा का चन्द्रमौलि'
सुमन शर्मा
© COPYRIGHTS
This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.
Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.
Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.
Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.
अध्याय — 4
मैं फोन के सिलसिले में फोन के दफ्रतर चली गई। वापिस आते—आते दोपहर ढल चुकी थी। कमला मुझे खाना परोसकर बगीचे में झूला झूलने चली गई। जब वह वापिस आई तो मुझसे बोली ‘‘दीदी आप ट्यूशन पढ़ा सकती हो?''मेैंने पूछा, ‘‘किसे पढ़ाना है?'' ‘‘सामने नये किरायेदार आए हैं उनके लड़के को पढ़ाना है।'' कमला ने जवाब दिया। मैं थोड़ी देर सोच में पड़ गई फिर चन्द्रमौलि से मिलने का ख्याल आया। मैंने सोचा न तो मेरे पास अल्लादीन का चिराग है, न ही कोई जादू की छड़ी। रूपये तो मुझे अपनी मेहनत से इकट्ठे करने पडं़ेगे सो कमला को मैंने कह दिया, ‘‘हाँ उन्हें यहाँ आने के लिए कह देना।''
अगले दिन सांवला सा 8—9 साल का बच्चा अपनी माता जी का हाथ पकड़े हमारे घर दाखिल हुआ। मैंने पूछा, ‘‘क्या नाम है आपका?'' वह तपाक से बोला ‘‘सुबोध'' ‘‘कौन सी कक्षा में हो? सुबोध'' वह बोला, ‘‘पाँचवी'' लेकिन मुझे ठीक से समझ नहीं आया। मैंने अपना प्रश्न दोहराया तो उसने अपनी आवाज पर जोर देते हुए तीन बार बोला‘‘ पाँंचवी, पांँचवी, पाँचवी।'' मैं मन ही मन काँप गई ये मुझे पढ़ाने आया है या मुझसे पढ़ने? मैंने पूछा ‘‘कौन—कौन से विषय पढ़ने हैं?'' उसका उत्तर था ‘‘सारे'' ‘‘ठीक है कल से स्कूल से आने के बाद तीन बजे आ जाना।'' मैंने कहा। अब बारी थी उसकी माताजी के बोलने की उनकी भाषा से ऐसा लगा कि वह दिल्ली में आने से पहले किसी छोटे शहर में रहती थीं। वह बोलीं, ‘‘डेढ़ सौ रूपये देवेंगे महीने के।'' मैंने कहा, ‘‘मात्र डेढ़ सौ?'' वो अपने इरादे पर अटल थीं बोली, ‘‘हाँ इससे ज्यादा नहीं दे सकते हम!'' रूपये कमाने की शुरूवात तो करनी थी मैंने डेढ़ सौ रूपये लेना भी स्वीकार कर लिया।
अगले दिन तीन बजे घर की घंटी बजी कमला ने दरवाजा खोला सुबोध अपने हम उम्र के एक बच्चे के साथ अन्दर घुसता चला गया मैंने बीच रास्ते में रोक कर पूछा, ‘‘ये कौन है?'' वह बोला, ‘‘मेरा दोस्त समीर, ये भी पढ़ेगा।'' मैंने कहा, ‘‘इसके पैसे अलग से लगेेगें।'' समीर ने हामी में सिर हिलाया। मैंने पूछा, ‘‘समीर तुम अपनी मम्मी से पूछ कर यहाँ आये हो वो बोला, ‘‘हाँ'' मैंने कहा ‘‘अच्छा मैं पाँच मिनट में आती हूँ तुम अपनी गणित के किताब निकालो।'' मैं उन्हें बैठक में बैठा कर अन्दर चली गईं पाँच मिनट बाद लौटी तो उनकी गणित की किताबें तो बस्तों में आराम कर रही थीं और सुबोध चन्द्रमौलि की साईकिल को ताबड़तोड़ चला रहा था समीर एक सोफे से दूसरे सोफे पर बन्दरों की तरह छलांगें लगा रहा था। ‘‘अरे इस साईकिल से उतरो'' मैंने सुबोध से कहा वह बोला, ‘‘ये किसकी साईकिल है?'' मैंने कहा ‘‘एक छोटे बच्चे की है अगर ये साईकिल टूट गई तो वह बहुत रोएगा।'' समीर ने भी उछल कूद मचाना बन्द कर दिया। मैंने कहा ‘‘अपनी किताबें निकालों और बताओ स्कूल में क्या पढ़ रहे हो।'' उन्होंने अनमने मन से किताबें निकालीं लेकिन उनकी निगाहें बार—बार घर के सामान पर घूम रही थी। वह इधर—उधर के सवाल ज्यादा कर रहे थे ‘‘ये चीज किस काम आती?'' ये खिलौने किसके हैं? ये कहानी की किताब क्या हम अपने घर ले जाए ँ? आदि—आदि। एक घंटा उन्हें पढ़ाने के बाद मेरा सिर चकराने लगा।
कुछ दिन बाद आठवीं कक्षा की दो छात्रएं सुप्रिया और श्रवणी भी पढ़ने के लिए आने लगी। वे दोनों ही अनुशासन प्रिय थीं उन्हें पढ़ाना अच्छा लगता था उन दोनों की मित्रता को देखकर मुझे भी अपनी स्कूल की सहेलियों की याद आने लगी थी।
एक महीना सिर खपाई करने के बाद केवल 800 रूपये मेरे हाथ आये। धीरे—धीरे छात्रें की संख्या बढ़ती गई और मेरे पास रूपये भी बढ़ते गये, लेकिन अभी तो बहुत बड़ी रकम चाहिये थी मुझे जोहन्सबर्ग जाने के लिए।
एक के बाद एक महीने बीतते गये और चन्द्रमौलि से मिलने की मेरी इच्छा बढ़ती गई। ये बात अब से कुछ ग्यारह वर्ष पहले की है। आजकल तो बहुत से माध्यम हैं जिनसे हम कम खर्च में भी विदेश में रहने वाले मित्र व रिश्तेदारों से संपर्क स्थापित कर सकते हैं मगर तब ये सब बहुत मुश्किल था। टेलिफोन पर ट्रंककॉल बुक करवा कर भाई साहब से संपर्क हो पाता था, चन्द्रमौलि की तो फोन पर कभी आवाज भी नहीं सुन सकी।
नवम्बर पर महीना था बाजार दिवाली के त्यौहार के लिए सज गये थे। कमला और मैं भी दिवाली की खरीदारी करने बाजार गये। बाजार में बच्चे बड़ी उमंग से बम्ब, पटाखे, फूलझड़ियाँ, चक्री और हवाई खरीद रहे थे। मुझे हर बच्चे में चन्द्रमौलि दिखाई दे रहा था, कितना शौक था उसे आतिशबाजियों का। दिवाली से एक सप्ताह पहले और दिवाली के एक सप्ताह बाद तक हमारे घर प्रदर्शन होता था आतिशबाजियों का। अब ये सब किसके लिए खरीदते? कमला के लिए तो कुछ खरीद लेना चाहिए, मेरी दुःख की अग्नि में उसकी खुशियों तो नहीं झुलसनी चाहिए! ये सोच कर मैंने कुछ आतिशाबाजियाँ खरीद लीं। पूजा का सामान और घर की सजावट का भी कुछ सामान खरीदा। आखिर दिवाली का दिन भी आ ही गया। कमला सुबह से घर की सफाई में लगी हुई थी। मैं सजावट के काम में लगी थी। दिवाली के दिन हमारे घर बरसों से मूँग की दाल की कचौड़ी, मैथी की चटनी और आलू की सब्जी बनती है। उस दिन में हमने मिलकर वही बनाया। मैथी की चटनी की भीनी—भीनी खुशबू जब रसोईघर से बाहर फैल रही थी तो मुझे पिछली दिवाली की याद आ गई मैथी की चटनी की सुगंध से चंद्रमौलि रसोईघर में आ गया था और पूछ रहा था, ‘‘बुआ आज क्या बन रहा है?'' जब मैंने उसे बताया तो कहने लगा ‘‘मुझे अभी खाना खाना है।'' भाई साहब के घर में न जाने क्या बन रहा होगा? खाने की तैयारी करवाने के बाद में गुप्ता आंटी के घर मिठाई देने चली गई, वहाँ से लौट कर महालक्ष्मी के पूजन की तैयारी में जूट गई। यह मेरी जिन्दगी की पहली दिवाली थी, जब मैंने परिवार के किसी भी सदस्य के बिना पूजन किया मेरी मनोदशा क्या होगी शायद मुझे बताने की जरूरत नहीं।
भाई साहब के नम्बर पर ट्रंककॉल बुक करवाने के लिए टेलिफोन एक्सचेंज में फोन किया आपरेटर ने कहा ‘‘आप लाईन पर बने रहें मैं आपका संपर्क जॉहन्सबर्ग से करवा रही हूँ।'' फोन का संपर्क स्थापित होते—होते ही दूसरी ओर कुछ देर घण्टी बजी फिर भाई साहिब ने फोन उठाया आपरेटर ने उन्हें बताया कि उनके लिए दिल्ली से कॉल है। भाई साहब और मेरे बीच दिवाली की बधाई का आदान—प्रदान हुआ मैंने चन्द्रमौलि से बात करे की अच्छा जताई साहब ने बताया कि यहाँ तो अभी शाम के चार बजे हैं, विभूति और चन्द्रमौलि बाजार गये हैं।
कमला मुंडेर पर दिये सजा रही थी वह अपने लिए बाजार से लाल रंग का सलवार कुरता लाई थी। दीये और मोमबत्तियों की कतारें दीवारों के ऊपर सजा कर वह आजिशबाजी चलाने लग गई सब तरफ बम्ब पटाखे फूटने की धड़ा—धड़ आवाजें आ रही थी लेकिन मेरे दिल का सन्नाटा अमावस्या की रात के साथ गहराता जा रहा था।
त्योहारों की रौनक के बाद जिन्दगी की गाड़ी वापिस अपनी पटरी पर चलने लगी। सब कुछ समान्य चल रहा था कि एक दिन सुबोध की माताजी सुबोध के अर्धवार्षिक परीक्षा का नतीजा हाथ में लिए हुए घर में दाखिल हुई। मेरे सामने आते ही वह जोर—जोर से बोलने लगीं सुबोध तीन विषयों में फेल हो गया था जिसकी सारी जिम्मेदारी वह मेरे ऊपर डाल रहीं थीं। उन्होेंने कुछ अपशब्दों का प्रयोग किया वह अब तक दी हुई ट्यूशन फीस वापिस माँग रही थीं। मैंने उनसे उलझना उचित नहीं समझा और तब तक का हिसाब लगाकर उनके सारे रूपये लौटा दिये। उनके जाने के बाद मैं ठगी हुई सी सोफे पर बैठ गई । कमला मेरे लिए पानी का गिलास ले आई वह मुझे ढांढस बँधा रही थी और सुबोध की माताजी को बुरा—भला कह रही थी। उस उस दिन मेरा किसी को भी पढ़ाने का मन नहीं था सब को घर वापिस भेज दिया। सोच रही थी कि यह काम मुझसे नहीं किया जाएगा लेकिन फिर हरिवंशराय बच्चन की यह पंक्ति याद आयी ‘‘जब तक जीवन है संघर्ष है।'' और चन्द्रमौलि से मिलने का ख्याल तो मेरे दिल से जाता ही नहीं था। अगले दिन से फिर इस काम में जुट गई बस अन्तर यह था कि अब मैंने अपना बच्चों के प्रति जो नरम रूख था उसे थोड़ा कड़ा कर लिया था।
दिसम्बर का महीना था भाई साहब ने बताया कि वह कुछ दिन के भारत आ रहे हैं। मैं खुशी से झूम उठी लेकिन मेरे मन में ये जानकर बहुत उदासी छा गई कि चन्द्रमौलि नहीं आ रहा। चन्द्रमौलि के नाना नानी लंदन में रहते थे। भाई साहब ने बताया चन्द्रमौलि और विभूति क्रिसमिस की छुट्टियों में लंदन जा रहे है।
भाई साहब को मुख्य रूप से बम्बई में काम था, वह दिल्ली में केवल तीन—चार घण्टे के लिए लिए रूके थे।
नये साल की धूमधाम के साथ जनवरी का महीना शुरू हो गया था, कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। एक दिन दरवाज्ो पर दस्तक हुई, मैंने दरवाजा खोला बाहर कमला की माताजी खड़ी हुईं थीं, वह उदास दिखाई दे रहीं थीं मैंने उन्हें अन्दर बुलाया वह अन्दर आ कर कालीन पर बैठ गईं और अपनी राजस्थानी भाषा मैं कमला से बोलीं कि वह अपना सामान बाँध ले। मैंने पूछा क्यों? वह बोलीं ‘‘इसके पिताजी जिस कारखाने में काम करते थे वह बन्द हो गया है, हम गाँव जा रहें हैं, आज शाम की गाड़ी से जाना है।'' मैं स्तब्ध रह गयी मैंने कमला की माताजी से हाथ जोड़कर विनती की कि कमला को यहीं छोड़ जाओ। उन्होंने साड़ी के पले से अपनी आँखों को पोंछते हुए कहा ‘‘गाँव जाकर इसकी शादी करनी हैं।'' मेरा गला रूँध गया था कमला भी चली जाएगी तो मैं अकेले कैसे रहूँगी? कमला भी उदास मन से अपना सामान जुटाने में लग गई। मैंने अलमारी में से रूपये निकाल कर गिने वह 2000 रूपये थे, मैंने कमला को वह रूपये दे दिये कमला बोली ‘‘रहने दो दीदी आपको चन्द्रमौलि से मिलना है।'' मैंने कहा ‘‘अरे पगली! ये तो फिर जुड़ जाए ँगें।'' वह सामान की पोटली बाँध चुकी थी। वह मेरे पास आकर बोली ‘‘दीदी जा रही हूँ पता नहीं अब कब मिलना होगा?'' विजया पहले ही चप्पलें पहन कर बाहर जा चुकी थी। कमला धीरे—धीरे अपनी माताजी के साथ मुख्य द्वार से बाहर आ गई थी। कमला अपनी माताजी के साथ हमारे घर के सामने बनी लम्बी सड़क पर पोटली संभाले धीरे—धीरे चल रही थी, मैं भी उसे हाथ हिला रही थी। कुछ देर बाद पेड़ के छुरमुट में वे दोनों ओझल हो गईं। मैं अन्दर आ गयी। मेरे घर की दीवारें गवाह है कि मैं उस दिन कितना फूट—फूट कर रोयी थी। घनी आबादी वाली दिल्ली में स्वयं को एकदम अकेला महसूस कर रही थी। क्यों एक इन्सान का दूसरे इन्सान से इतना गहरा रिश्ता जुड़ जाता है और क्यों वह एक ही झटके में टूट जाता है।
सर्दी के दिन थे शाम जल्दी ही घिर आई और फिर गहरा अंधेरा छा गया। घर के भीतर की खामोशी बहुत भयंकर लग रही थी। अपने ही कदमों की आहट विचित्र लग रही थी। कमला कितने सालों से हमारे घर काम कर रही थी कभी सोचा ही ना था कमला ये घर छोड़कर चली जाएगी। घर की हर खुशी और हर गम में हिस्सेदार रही थी कमला। अपने हृदय से उसकी यादें जल्दी नहीं मिटा सकूँगी। साये की तरह हमेशा मेरे साथ रहती थी। आँसू रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे, ठिठुरती ठंड में ना जाने कितनी बार अपना मुँह धोया था मैंने।
रात का खाना खाने और बनाने की इच्छा बिल्कुल नहीं थी। चाय के साथ केवल कुछ बिस्किट खाये थे मैंने। मैं अपने बिस्तरों पर चली गई कुछ देर बेमन से एक पत्रिका पढ़ी। सोने के लिए बत्ती बन्द की तो भयानक अँधेरे में न जाने कैसे—कैसे साये नजर आने लगे, मैंने बत्ती वापिस जला दी कड़कती ठंड में भी मैं पसीने से भीग गई थी। रजाई लेकर आँखे बन्द की तो रसोईघर से बर्तन गिरने की आवाज आई मैं बुरी तरह काँप रही थी बड़ी हिम्मत जुटा कर रसोईघर की तरफ गई वहाँ से एक मोटा सा चूहा भागा तब मेरी जान में जान आई। मैंने रसोईघर की बत्ती भी जला दी कमरे की ओर जा रही थी कि बिजली गुल हो गई अंधेरे में टटोलते—टटोलते रसोईघर पहुँची बड़ी मुश्किल से माचिस हाथ आई मोमबत्ती नहीं मिली। तीली जला कर बिस्तर तक पहुँची वहाँ रखी पत्रिका का एक—एक पृष्ठ जला कर कमरे को रोशन करती रही, रात भर बत्ती नहीं आई। बाहर चिड़ियों की चहचाहट से पता चला कि, सुबह हो गई है। कमरे में पत्रिका जलाने से धुँएं की गंध भर चुकी थी।
रजाई लेकर बैठक में चली गई वहाँ सोफे पर लेटी तो कुछ देर के लिए नींद आ गई।
उठकर चाय बनाई। अपने साथ कमला की भी चाय बनाती थी, उस दिन भी मैंने गलती से दो कप चाय बना दी, चाय छानने के बाद अपनी गलती का अहसास हुआ। मुझे हिचकियाँ आने लगी शायद कमला याद कर रही थी अब तो अपने गाँव पहुँच गई होगी कमला मैं सोच रही थी। शायद अब तक तो इस जन्म में कमला से मिलना न हो पायेगा। न तो उसके गाँव का कोई अता—पता है मुझे और ना ही उसका कोई दिल्ली में ठिकाना है, वह भी तो यहाँ का पता नहीं लिख कर ले गई उसकी तो किसी चिट्ठी की भी मैं प्रतीक्षा नहीं कर सकती। ऐसा लग रहा था कि पेड़ों के उस झुरमुट से निकल कर आएगी और कहेगी ‘‘दीदी मैं गाँव नहीं गई।'' मगर मेरा ये केवल एक सुनहरा सपना भर था। जब चार पाँच दिन निकल गये तब मैंने स्वयं को समझाया कि मेरी जिन्दगी से कमला का अध्याय समाप्त हो गया है।