अध्याय - १ - चंद्रमौली - शुभा का चंद्रमौली Jahnavi Suman द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अध्याय - १ - चंद्रमौली - शुभा का चंद्रमौली

चन्द्रमौलि

‘शुभा का चन्द्रमौलि'

सुमन शर्मा



© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.
Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.
Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.
Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

अध्याय — 1

मार्च का महीना था। शीत ऋतु अपना पड़ाव समेट चुकी थी। ग्रीष्म ऋतु के कदमों की आहट अभी कुछ दूर थी। पवन की शीतलता मन को गुदगुदाने लगी थी। चारों ओर हरियाली ही हरियाली छाई हुई थी। पेड़ पौधे रंग बिरंगे फूलों से लदे हुए थे। फलों के बोझ से पेड़ों की डालियाँ झुकी जाती थीं। पक्षी डाल—डाल पर फुदक रहे थे। भॅंँवरे और तितलियाँ फूलों पर मंडरा रहे थे। नीला आकाश मानों अपना अाँचल पसारे पक्षियों को पुकार रहा हों ‘आओ! अपने पंख फैलाओ और मेरी सीमा को छू लो' और जैसे पक्षी भी उसकी चुनौती स्वीकार कर दूर नील गगन में उड़ने लगते हैं। जहाँ चारों ओर प्रकृति उल्लास में डूबी हुई थी, वहीं मेरा घर भी खुशियों से अछूता न था।

दिल्ली शहर की एक शांत बस्ती में है मेरा छोटा सा घर। मेहमानों का आना लगातार बना हुआ था। इसका कारण था, आज हमारे घर ‘नामकरण' हो रहा था, मेरे नन्हें से भतीजे का, जो दो महीने पहले ही, इस धरती पर आया था।

दिल्ली के बाहर से मेहमान तो पहले दिन ही आ गये थे। दिल्ली में रहने वाले मेहमान लगातार आ रहे थे।

कमला चाय के प्यालों की टे्र लेकर पूरे घर में घूम रही थी। अरे! मैं कमला का परिचय तो आप से करवाना भूल ही गई, कमला सोलह सत्तरह साल की दुबली पतली लड़की थी, जो हमारे घर काम करती थी, रंग थोड़ा सांवला था, लेकिन चेहरा आकर्षक था, थोड़ी—सी शर्मीली थी, अपने बालों का बहुत ध्यान रखती थी, उसके बाल काले और घने थे, एक मोटी—सी चोटी कमर तक झूलती रहती थी। मेहमानों की देखभाल करने में वह बहुत खुश थी।

‘‘हवन सामग्री कहाँ है शुभा?'' ये आवाज हमारे बड़े भाई साहब की थी, बड़ी कड़क आवाज है, भाई साहब की, शरीर से लंबे चोड़े हैं, और रंग गोरा है, एक प्राईवेट कम्पनी में उच्च पद पर कार्यरत हैं।

‘‘हवन सामग्री ऊपर सुखाने रखी है, भाई साहब!'' मैंने उत्तर दिया। कमला बड़े उत्साह से बोली ‘‘क्या मैं हवन सामग्री छत से ले आऊँ दीदी?''

‘अरे जल्दी लाओ' हवन में विलम्ब हो रहा है, पंडित जी बोले। पंडित जी हवन की पूरी तैयारी कर चूके थे और लाल रंग के आसन पर बैठे झूम रहे थे, साथ ही गुनगुना रहे थे ‘‘हरे रामा हरे रामा रामा रामा हरे हरे। हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे।''

मैंने रसोईघर की तरफ रूख किया, वहाँ बड़ी मामीजी चाय बनाने का कार्य भार संभाले हुए थीं। मेरे वहाँ पहुंचते ही वह तपाक से बोलीं ‘‘अभी तुम्हारी छोटी बुआ जी नहीं आई?'' ‘‘हाँ आ तो जाना चाहिए था,'' कहते हुए मेरे माथे पर चिंता की लकीर खिच गई।

कमला छत से हवन सामग्री लेकर हाँफती हुई आ रही थी। मेरे पास आकर बोली, ‘‘दीदी, बाहर टैक्सी में आपकी छोटी बुआ जी आई हैं! मैं खुशी से सड़क की तरफ दौड़ी। मेरे पीछे—पीछे कमला भी आ गई। कमला टैक्सी से सामान उतारने लगी। साथ ही बुआ जी की बेटी, हेमा और बेटा कपिल भी उसकी मदद करने लगे। मैं बुआ जी से गले मिली, बुआ जी की आँखे खुशी से चमक रही थीं, मैं बुआ जी को लेकर अंदर आ गई। फूफाजी टैक्सी चालक को किराया देकर पीछे—पीछे आ रहे थे।

पंडित जी बोले, ‘र् सब जजमान व मेहमानए हाथ धोकर हवन के लिए आ जाईए हमें दूसरी ओर भी जाना है।''

‘‘चलिए चलिए सब हवन के लिए चलिए।'' चाचा जी पूरे घर ंमें घूम—घूम कर सबको हवन के लिए एकत्र कर रहे थे। हवन कुंड के पास दो विशेष गद्देदार स्थान भाई साहब और भाभी जी को लिए बनाये गये थे। बाकी सभी मेहमान दरी पर बैठ गये।

पंडित जी ने मन्त्रे—चारण प्रारम्भ कर दिया। सारा घर हवन की खुशबू से भर गया। लगभग आधे घण्टे तक पंडित जी के मंत्रें के पीछे सब ‘स्वाहा' शब्द का उच्चारण करते रहे, फिर पंडित जी ने सबको ‘सम्पूर्ण आहुति' के लिए खड़ा किया। सभी ने बड़े उत्साह के साथ सम्पूर्ण आहुति में भाग लिया।

पंडित जी ने सबको बैठने का इशारा किया और अपने थैले से एक मोटी—सी किताब निकाली आँखों पर चश्मा चढ़ाया और गर्दन झुका कर उँगलियों पर जाने क्या हिसाब—किताब कर रहे थे, बुआ जी का बेटा कपिल उनकी नकल कर रहा था। जिसे देखकर सब अपनी हँसी दबाये बैठे थे। शीघ्र ही पंडित जी ने चश्मा आँखो से उतार कर जेब में डाला, किताब बन्द कर, थैले में ठूँसी और गर्दन ऊपर उठाकर बोले ‘‘बच्चे का नाम ‘च' से निकला है।'' ‘‘च से?'' कई स्वर एक साथ गूँंजे। फिर क्या था सब लगे अपने—अपने सुझाव देने। बच्चे का नाम ‘ये' रख लो। बच्चे का नाम 'वो' रख लो।

लेकिन पंडित जी को कोई नाम अच्छा नहीं लग रहा था। हर नाम पर मुँह सिकोड़ लेते ‘‘ऊहूँ, ये नहीं, यह भी कोई नाम हुआ भला? कोई और अच्छा सा नाम बताइए।''

‘चन्द्रमौलि' नाम कैसा है?'' पंडित जी।' मैंने, सकुचाते हुए कहा।

‘‘उत्तम अति उत्तम।'' पंडित जी के चेहरे पर हल्की से मुस्कुराहट थी।

सभी मेहमानों ने ताली बजा कर नाम का समर्थन किया। बस मेरे भतीजे का नाम ‘चन्द्रमौलि' रख दिया गया।

चाचा जी जो कि बड़ी देर से हलवाईयों का काम काज देख रहे थे, उठकर आये और बोले ‘‘खाना तैयार है, सब लोग हॉल में आ जाइये।'' बस फिर क्या था, देखते ही देखते खाने की मेज के पास भीड़ जुट गई। चूहे तो सभी के पेट में दौड़ रहे थे भला ऐसे में सभ्यता दिखाकर खाने से दूर कौन खड़ा रहता? गाजर का हलवा, गुलाब—जामुन, पूरी—छोले, बूंदी का रायता, चावल, आलू की सब्जी और ना जाने क्या—क्या बना था। खाने की खुशबू भूख को और भी बढ़ा रही थी।

‘‘अच्छा शुभा हम जा रहे हैं।'' रूमाल से मुँह पोंछते हुए गुप्ता आंटी ने कहा, मैंने उन्हें एक मिठाई का डिब्बा थमा दिया ‘‘अरे अभी इसकी कसर बाकी थी?'' गुप्ता अंकल ने कहा। मैंने ओठों पर हल्की से मुस्कुराहट बिखेर कर उन्हें विदा किया। एक के बाद एक करके पड़ौसियों ने विदा ली।

मैंने एक थाली में सभी व्यंजन सजाए और भाभीजी के कमरे में चली गई नन्हा चन्द्रमौलि, भाभीजी की गोद में सिमटा हुआ सब को टुकुर—टुकुर देख रहा था, ‘‘ओह! तुम कितने प्यारे हो चन्द्रमौलि'' अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया। कमला मेरे साथ—साथ ही घूम रही थी।

‘‘तू भी खाना खा ले कमला'' बड़ी मामीजी ने कमला का हाथ पकड़ा और उसे खाने की मेज तक ले गई। कमला थोड़ी सकुचा रही थी, ‘‘मैं शुभा दीदी के साथ खा लूँगी।'' कमला ने कहा और वापिस मेरे पास आ गई।

बैठक में बच्चों का अच्छा खासा समूह बन गया था, जो अंताक्षरी खेलने में व्यस्त था। ‘‘शुभा दीदी ‘र' अक्षर से कोई अच्छा सा गाना बताइये।'' मौसी जी की छोटी बेटी नीलू बड़े प्यार से मेरे पास आकर बोली। ‘‘कमला से पूछ लो कमला को बहुत सारे हिन्दी गाने आते है।'' मैं कमला को वहाँ फँसा कर खुद वहाँ से बच निकली, मैं वहाॅँ से दूसरे कमरे में आ गई जहाँ महिला मंडली बैठी हुई थी।

‘‘चाय बन रही है क्या?'' फरीदाबाद वाली चाचीजी ने चेहरे पर कुछ थकावट सी दिखाते हुए पूछा। ‘‘चाय बनाने के लिए कोई मन्त्र थोड़े ही पढ़ने हैं?'' मौसीजी ने चुटकी ली। ‘‘चाय तो हम भी पीयेंगे'' वॉशबेसिन में पान की पीक थूकने के बाद मौसाजी बोले। मैं चाय की व्यवस्था करने रसोईघर में जा रही थी, बीच में मुझे मौसा जी ने रोक लिया और बोले ‘‘हमारी कानपुर की गाड़ी छः बजे की ह,ै पाँच बजे टैक्सी बुला देना।'' ‘‘जी बहुत अच्छा'' मैंने कहा और रसोईघर में चली गई। पीछे—पीछे मौसी जी भी आ गई और बोली ‘‘थोड़ा—सा खाना डिब्बे में भर लेती हूँ, रास्ते में काम आएगा।'' और वह खाना बाँधने में जुट गईं। मौसा जी रसोईघर में आए और चुटकी लेते हुए बोले ‘‘अरे सारा खाना तुम ही ले जाओगी? यहाँ कुछ छोड़ोगी या नहीं।'' मौसी जी तुनक कर बोली ‘‘इतना—सा तो बॉंँधा है।''

दिन बीता और शाम के पाँच बज गये टैक्सी घर के बाहर खड़ी थी और मौसाजी उसमें सामान रख रहे थे। नीलू और मौसाजी की बड़ी बेटी, निशी सामने बगीचे में झूला झूल रही थी। टैक्सी देखते ही झूलना छोड़ कर टैक्सी के पास आकर खड़ी हो गई। मौसाीजी अपने भारी भरकम शरीर को संभालते हुए, सब से मिल रहीं थीं। मेरे पास आईं और मेरे माथे पर आये हुए बालों को अपने हाथों से पीछे करते हुए बोलीं ‘‘शुभा एक बात तो बता।'' मैंने प्रश्न भरी दृष्टि से उन्हें देखा।

वह बोलीं, ‘‘तेरे ससुराल वालों ने तुझे क्यों छोड़ दिया?'' इतना सुनते ही वह मुस्कान जो सुबह से मेरे चेहरे पर थी, होंठो में सिमट गई। मेरी पलकों को अश्रु भिगो चुके थे, न चाहते हुए भी वह सब लम्हें जिन्हें मैं भूलाने की कौशिश कर रही थी, मेरी आँखों में तैरने लगे। इससे पहले की मैं कुछ बोलती मौसाजी ने आवाज लगाई, ‘‘अरे भई! जल्दी आ जाओ गाड़ी छूट जायेगी।'' मौसी का परिवार टैक्सी में बैठ गया। टैक्सी देखते ही देखते आँखो से ओझल हो गई। मेरी आँखों से आँसू लुढ़क कर गालों तक आ गये थे। पता नहीं इसलिए कि मुझसे किसी की विदाई सहन नहीं की जाती या फिर इसलिए कि जाते—जाते मौसी जी मेरे जख्मों को कुरेद गईं थीं।

बहुत मुश्किल से आँसुओं को रोक कर गालों को अपने दुपट्टे से पोंछ कर मैं घर के अन्दर गई। अन्दर जाते ही मेरी नजर चन्द्रमौलि पर पड़ गई। वह बहुत प्यारा लग रहा था। मैं उसे देखते ही अपना दुःख भूल गई और उसे गोद में उठा लिया।

हलवाई अपना सामान समेट रहे थे और बचा हुआ सामान चाचाजी के हवाले कर रहे थे, ‘‘ लो बाबूजी छोटी इलायची सम्भाल कर रख लो बहुत सारी बच गईं हैं। मीठी चटनी फ्रिज में रख लो एक महीना भी खराब नहीं होगी।'' ‘‘अरे इनसे रात का खाना तो बनवा लेते'' चाचीजी ने अपनी राय दी। ‘‘इनका हिसाब तो मैंने कर दिया है। अब रात का खाना तुम लोग ही मिलकर बनाना'' चाचा जी बोले।

‘‘सब तो थक कर चूर—चूर हो रहे हैं'' बड़ी बुआ जी लेटे—लेटे बड़बड़ाई। ‘‘तुम ने कौन से पहाड़ खोद दिये?'' फूफाजी ने आँखों के सामने से अखबार हटाकर बुआ जी की तरफ देखा। ‘‘चावल और साबूत मूँग बना लेंगे बाकी दोपहर का खाना बचा हुआ है।'' बड़ी मामीजी ने अपनी राय दी। मैंने कमला से कहा एक बार और चाय पिला दे सबको, फिर रात के खाने की तैयारियाँ करेंगे।

चाय पीने के बाद महिलाओं का मोर्चा खाना बनाने में जुट गया। चाचाजी के दोनों बेटे राजीव और सांची गाजर के टुकड़ों और मटर के दानों से लूडो खेल रहे थे। कपिल अकेला ही कपड़े कूटने वाले डंडे से क्रिकेट खेल रहा था और गेंद बना रखा था एक आलू को।

भाई साहब अच्छा गिटार बजा लेते हैं। भला वह अपनी कला का प्रदर्शन करने का यह मौका कैसे चूक जाते? वह गिटार पर हिन्दी फिल्मों के गानों की धुने निकाल रहे थे और सबकी वाह वाही लूट रहे थे।

मामीजी ने मॅँूंग में जीरा और हींग का बघार लगाकर कमला को आवाज दी, ‘‘कमला खाने के बर्तन तैयार करो, खाना बन गया है।'' कमला सलाद काटने का काम बीच में ही छोड़ कर, रसोईघर में चली गई। उसका छोड़ा हुआ अधूरा काम चाचीजी पूरा करने बैठ गइंर् और बोली, ‘‘देवेश! अब ये टेैं टेैं बन्द कर आकर खाना खा ले।'' देवेश हमारे भाई साहब का नाम है और वह उन्हें गिटार बजाना बन्द करने के लिए कह रही थीं। भाई साहब का नाम तो आपने जान लिया अब मैं आपको अपनी भाभीजी के नाम से भी अवगत करा देती हूँ उनका नाम है ‘विभूति'।

सब लोगों ने साथ बैठकर भोजन किया आज भोजन बहुत ही स्वादिष्ट लग रहा था। सब ने थोड़ी—सी गप्प—शप्प की और अपने—अपने बिस्तरों की ओर चल दिए। मैं भी थक कर चूर हो चूकी थी। बिस्तर पर लेटी, कुछ देर तो आँखों के सामने दिन भर के खूबसूरत लम्हें घुमते रहे, फिर पलके उन्हें आँखों में कैद करके कब बन्द हो गई पता ही नहीं चला।

सुबह दूध वाले की घण्टी ने निंद्रा को तोड़ा। तब तक सूरज अपनी सुनहरी किरणें धरती पर बिखेर चुका था। धरती भी अलसाई हुई सी जाग रही थी और हमारे घर के मेहमान भी। चाचाजी और बुआ जी का परिवार तो आज दिल्ली भ्रमण के मूड में था। मामीजी का परिवार आज दोपहर अपने घर वापिस जाना चाहता था।

एक—एक करके मेहमान विदा लेते रहे।

दो तीन दिन बाद ही घर सूना—सूना सा हो गया लेकिन जल्द ही चन्द्रमौलि की किलकारियों ने घर का सूनापन हर लिया। उसकी प्यारी सी सूरत के सामने दुनिया का कोई दुःख दर्द नहीं टिक पाता था।

भाभीजी पास के स्कूल में नौकरी करती थीं। वह वापिस नौकरी पर जाने लगीं। चन्द्रमौलि का अधिकांश समय मेरे साथ व्यतीत होने लगा। चन्द्रमौलि के साथ कब सुबह से शाम हो जाती थी, पता ही नहीं चलता था। समय को तो जैसे पंख लग गये हो। दो वर्ष कैसे बीत गये पता ही नहीं चला।

चन्द्रमौलि अपनी तोतली भाषा में मुझे ‘तुभा' कहता सारे दिन पूरे घर में घूमता रहता था और मुझसे बहुत प्यारी—प्यारी बातें करता रहता था। मेरे दिल के जख्म लगभग भर चुके थे। मैं ‘चन्द्रमौलि' की नजर से दुनिया देखने लगी थी।