अध्याय - ३ - चंद्रमौली - शुभा का चंद्रमौली Jahnavi Suman द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अध्याय - ३ - चंद्रमौली - शुभा का चंद्रमौली

चन्द्रमौलि

‘शुभा का चन्द्रमौलि'

सुमन शर्मा



© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.
Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.
Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.
Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

अध्याय — 3

हर रोज का तरह चाय की चुस्कियों के साथ सुबह का अखबार पढ़ रही थी, तभी भाई साहब भी पास आकर बैठे गये उन्होंने कहना शुरू किया ‘‘कुछ दिल पहलने मैंने विदेशी कम्पनी में पत्र भेजा था वह स्वीकार हो गया है, मुझे जोहन्सबर्ग में नौकरी मिल गई है। कम्पनी ने हम तीनों के हवाई टिकट का प्रबन्ध कर दिया है हमें पन्द्रह दिन बाद ही जोहन्सबर्ग जाना होगा।'' मेरे पाँव के नीचे से जमीन खिसक गई भाई साहिब का परिवार विदेश जा रहा है। क्या पन्द्रह दिन बाद चन्द्रमौलि विदेश चला जाएगा? उसके यहाँ से चले जाने की मात्र कल्पना ही इतनी भयानक है तो वास्तविकता कैसी होगी? अब चाय नीरस और अखबार में छपी खबरें फीकी लग रहीं थीं। अपना दुःख बाँटने के लिए में कमला के पास पहुँची कमला पेड़—पौधेों को पानी दे रही थी, मैं वहाँ से वापिस आ गई चन्द्रमौलि अपनी छोटी—सी साईकिल चला रहा था, मैंने उसे गोद में उठा लिया। मेरी आँंखों से आंँसू बह रहे थे वह हैरानी से मेरी और देख रहा था मैंने बिना कुछ बोले उसे वापिस साईकिल पर बैठा दिया। मैं वापिस अपने कमरे में आ गई

आज अम्मा और बाबूजी बहुत याद आ रहे थे। लगभग चार वर्ष पहले एक रेल हादसे में हमने उन्हें खो दिया था। उनकी आत्मा भी ये सब देख कर कितना तड़पती होगी कि उनकी बेटी के ससुराल वालों को रेल हादसे के मुआवज्‌ो से मिली पूरी रकम चाहिए थी,और उनकी ये इच्छा पूरी ना होने पर नहीं इसके आगे मैं कुछ भी नहीं सोचना चाहती, मैं उन लम्हों को दूबारा नहीं जीना चाहती ।

पन्द्रह दिन भाई साहब और भाभीजी के लिए बड़े दौड़ धूप वाले थे। बाजार से तरह—तरह का सामान व कपड़े खरीदे सामान रखने के लिए बड़ी—बड़ी अटैचियां खरीदी गई और 11 जून आ गया, शाम को 8 बजे भाई साहब के परिवार को घर से निकलना था।

सुबह से भाई साहब और भाभीजी सामान अटैचियों में लगा रह थे। चन्द्रमौलि भी छोटे से अपने बैग में सामान ठूंँस रहा था। मेरे पास आया और बोला ‘‘बुआ आप अपना सामान क्यों नहीं लगा रहीं?'' मैंने कहा मैं यहीं रहूंँगी आप अब नये घर में रहोगे आपका नया स्कूल होगा और आपके नये दोस्त होंगे। उसने अपना सामान बैग से वापिस निकाला लिया और बोला ‘‘मैं भी यहीं रहूंँगा मुझे नये स्कूल में नहीं जाना, मुझे यह ही घर अच्छा लगता है। मुझे दूसरे घर में नहीं रहना। '' भाभी जी चन्द्रमौलि से बोलीं ‘‘वहांँ बहुत बड़ी रेलगाड़ी होगी'' वह बोला ‘‘नहीं मुझे कुछ नहीं देखना'' भाई साहिब बोले ‘‘वहाँं अच्छे अच्छे खिलौने मिलेंगे। लेकिन किसी के बहलाने से नहीं बहल रहा था। उसने रट लगा रखी थी, ‘‘मैं बुआ के साथ यहीं रहूँंगा।'' भाभाजी के चेहरे पर क्रोध बढ़ता जा रहा थ उन्होंने कमला के साथ उसे बगीचे में खेलने के लिए भेज दिया। वह एक घण्टे बाद बगीचे से वापिस आया लेकिन वापिस आकर भी उसका रवैया पूर्ववत था। वह मुझे कह रहा था, ‘‘बुआ आप भी चलों।'' मैंने उसे कहा, ‘‘आप अभी मम्मी—पापा के साथ जाओ मैं दूसरे हवाई जहाज से आपके पास आ जाऊँगी।'' शायद उसे मेरे ऊपर बहुत भरोसा था वह मेरी बात झट से मान गया ओैर अपना गुड्डा ‘पिना' लाकर मुझे दे दिया बड़े प्यार से बोला, ‘‘बुआ इसे आप अपने साथ ले आना।'' मैंने नम आँखों से झूठी मुस्कुराहट होंठों पर लाते हुए कहा ‘‘अच्छा।'' वह अपने बैग में सामान लगाने लगा। मुड़ कर वह मेरे पास आया और बोला, ‘‘हमारे वाले हवाई जहाज में ही चलिए ना।'' मुझे ना चाहते हुए भी झूठ बोलना पड़ा मैंने कहा, ‘‘आपके हवाई जहाज की सारी सीटें भर चुकी हैं इसलिए मुझे दूसरे हवाई जहाज से आना पड़ेगा।'' उस मासूम बच्चे ने मेरे इतने बड़े झूठ पर भी विश्वास कर लिया और वह खुशी—खुशी जाने के लिए तैयार हो गया। उस दिन तो समय को जैसे पंख लग गये थे दिन कब बीत गया पता ही नहीं चला रात के आठ बज गये थे और टैक्सी घर के बाहर खड़ी थी। भाई साहिब और कमला टैक्सी में सामान रख रहे थे भाभाजी अपनी अल्मारियाँ टटोल रही थी कि कोई जरूरी सामान तो नहीं रह गया। चन्द्रमौलि अभी तो मेरे साथ में खड़ा था, मगर कुछ ही क्षणों में उसके कोमल हाथों का अहसास मात्र मेरे हाथ में रह गया था। वह तीनों टैक्सी मे बैठ चुके थे। कमला और मैं टैक्सी से बाहर खड़े हाथ हिला रहे थे भाई साहब और भाभीजी ने जवाब में हाथ हिलाया लेकिन चन्द्रमौलि ने अपना मुँंह दूसरी ओर मोड़ लिया था। टैक्सी अपने पीछे काला धुँआ छोड़ती हुई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की ओर चल पड़ी, धुँए के गुबार में ही धूमिल हो गये थे मेरे जिन्दगी के सबसे अच्छे दिन। मैं ओर कमला थोड़ी देर तक बाहर ही खड़े रह गये घर के अन्दर घुसने का मन ही नहीं कर रहा था फिर भी सुस्त कदमों से घर के भीतर आये। घर में कितना सन्नाटा लग रहा था। हर चीज बहुत खामोश लग रही थी। दीवारें काटने को दौड़ रहीं थीं। इस खामोशी में चन्द्रमौलि की आवाज कानो में गूंँज रही थी, उसकी साईकिल कैसे चुपचाप खड़ी थी, कुछ देर पहले तो चन्द्रमौलि इस पर बैठकर घर में घूम रहा था। उसकी कहानियों की किताबें यहाँ—वहाँ बैठक में बिखरी हुई थीं। कुछ देर के लिए मैं मूर्ति बनी सोफे पर ही बैठी रह गई। कमला घर के बिखरे सामान को ठीक कर रही थी। ‘‘दीदी जॉहन्सबर्ग अजमेर से कितना दूर पड़ता है?'' कमला के इस सवाल ने मेरी उदासी को कुछ क्षण के लिए हर लिया। मुझे हल्की सी हँसी आ गई, कमला के लिए तो सारी दुनिया अजमेर के आस—पास ही थी। मेरे पास एक ग्लोब था उस पर साऊथ अफ्रीका दिखाकर मैंने उसे समझाया कि जॉहन्सबर्ग कितना दूर है।

रात का खाना खाने की इच्छा नहीं थी मैं जल्दी ही सोने चली गई रात भी करवटें बदल ही बीती सुबह दूध वाले ने घण्टी बजाई वह रोज की तरह तीन किलो दूध ही लाया था मैंने उससे दूध लेते हुए कहा कि कल से एक किलो दूध ही लाना। चाय बना कर अखबार वाले की प्रतीक्षा कर रही थी उसे भी कहना था कि वह कल से चार अखबार न डाले केवल एक हिन्दी का अखबार डाले।

बार—बार ऐसा धोखा हो रहा था, जैसे अन्दर से चन्द्रमौलि की आवाज आ रही हो, ‘‘बुआ मेरे साथ बॉल खेलो!'' ‘‘बुआ मेरी साईकिल को पीछे से धक्का मारो।'' ‘‘बुआ मेरे साथ बगीचे में चलो।'' चाय का प्याला खत्म करते ही मुझे रफलाई आ गई। समय काटे नहीं कट रहा था। उदासी कमला के चेहरे पर भी दिखाई दे रही थी। रोज की तरह काम करते हुए गुनगुना नहीं रही थी। घर की सफाई करने के बाद वह तरकारी खरीदने के लिए बाजार चली गई। घ मैं एकदम खामोश थी, इस खामोशी को तोड़ा फोन की घंटी ने, ट्रिन—ट्रिन—————— पूरे घर में गूँज रही थी पफोन की आवाज। मैंने जल्दी से फोन उठाया दूसरी ओर से भाई साहब की आवाज आई ‘‘शुभा हम जॉहन्सबर्ग पहुँच गये हैं।'' मैंने जल्दी से पूछा ‘‘चन्द्रमौलि कैसा है?'' उन्होंने कहा ‘‘ठीक है। अभी होटल में हैं हम लोग घर का प्रबन्ध होते ही घर का फोन नम्बर लिखवा दूँगा।'' मैंने ‘‘ठीक है।'' कहा। ‘‘अच्छा अब फौन रख रहा हूँ।'' उनके कहते ही फाने का संपर्क टूट गया। कुछ देर फोन के पास ही खड़ी रह गई सोच रही थी ‘काश चन्द्रमौलि की आवाज सुन लेती। बाहर बरामदे में आकर बैठ गई, आकाश में पक्षी उड़ रहे थे उन्हें देखकर लग रहा था काश मेरे भी पंख होते तो उड़कर चन्द्रमौलि के पास पहुंच जाती। सड़क पर गुब्बारे वाला जा रहा था चन्द्रमौलि अकसर उससे गुब्बारा लेता था वह कुछ देर हमारे घर के बाहर खड़ा रहा फिर आगे बढ़ गया। कमला बाजार से वापिस आई तो उसके साथ पड़ोस की गुप्ता आंटी भी थीं। मैं उनके साथ अंदर आई वह बोली ‘‘मुझे कमला से पता चला कि देवेश विदेश चला गया है। कभी भी कोई काम हो तो मुझे बता देना, खुद को अकेला मत समझना।'' मैंने हामी में सिर हिला दिया। थोड़ी देर इधर—उधर की बातें करने के बाद वह वापिस चली गईं।

मैं दोपहर के खाने के लिए बैंगन भून रही थी तभी मुझे हिचकियाँ आने लगीं कमला बोली ‘‘दीदी आपको चन्द्रमौलि शायद याद कर रहा है।'' मैंने खुशी से पूछा ‘‘सच'' वह बोली ‘‘हांँ देखना आप चन्द्रमौलि का नाम लोगी हिचकियाँ बन्द हो जाएगीं'' और सममुच वैसा ही हुआ। मुझे चन्द्रमौलि की याद सताने लगी मैं मन ही मन सोचने लगी मुझे जोहन्सबर्ग जाना ही होगा वहाँ जाने का किाराया कितना होगा? एयर इंडिया में फोन करके पता करती हूँ कि कितना होता है हवाई किराया वहाँ जाने और वापिस आने का। मैंने एयर इंडिया में फोन किया दूसरी ओर से एक महिला की आवाज आई जिसने पहले स्वागत में कुछ शब्द बोले और फिर पूछा ‘‘मैं आपकी क्या सहायता कर सकती हूँ।'' मैंने कहा, ‘‘मुझे दिल्ली से जोहन्सबर्ग का किराया पता करना है।'' महिला ने कहा ‘‘अवश्य'' उसके बाद वहाँ जो रकम बताई उसे सुनकर मेरे पाँंव तले से जमीन खिसक गई। इतनी बड़ी रकम! कैसे जुटा पाऊँगी इतने सारे रूपये चन्द्रमौलि से मिलने के लिए।

मेरे सपने चूर—चूर हो चूके थे, फिर भी मन में आशा की हल्की सी किरण जगमगा रही थी। अक्ल के घोड़े दौड़ा रही थी कि कैसे रकम इकट्ठी की जाए? बैंक में कुछ रूपये पड़े थे लेकिन उनका ब्याज तो घर खर्च के लिए चाहिये होगा यदि वह रूपये किराये पर खर्च कर दूंँगी तो घर का खर्च कैसे चलेगा? घर से बाहर नौकरी करने जाऊँ तो कहाँ? वह मेरे स्वभाव में नहीं था कभी नौकरी करने के बारे नहीं सोचा था। मैंने दुखी होकर कमला से कहा ‘‘कमला तू ही कोई रास्ता बता चन्द्रमौलि से मिलने का।''कमला भी सोच में पड़ गई।

आज पहली जुलाई थी सुबह से ही सड़कों पर चहल पहल शुरू हो गई थी, उस की वजह थी कि आज से ग्रीष्मावकाश के बाद स्कूल खुल रहे थे। विभिन्न वर्दियों में बच्चे सड़क पर पैदल चलते हुए या फिर साईकिल रिक्शा पर बैठे दिखाई दे रहे थे। 7 बजे चन्द्रमौलि का भी रिक्शा वाला आकर गेट पर पौं—पौं हार्न बजाने लगा मैं बाहर निकली और उसे बताया कि चन्द्रमौलि तो विदेश चला गया है। रिक्शे वाले ने पूछा,, ‘‘कितने दिनों में वापिस आयेगा?'' मैंने कहा,‘‘अब तो वह वहीं के स्कूल में पढे़गा।'' रिक्शे वाला कुछ सोचता हुआ सड़क पर आगे बढ़ गया। मुझे फिर से यादों ने घेर लिया कैसी भाग दौड़ रहती थी, जब चन्द्रमौलि स्कूल जाता था, सबसे ज्यादा मुश्किल था उसे स्नान करवाना कितना जोर—जोर से रोता था और बाप रे दूध का गिलास देखते ही मेज के नीचे छुप जाता था। बालों में जितनी बार भी कँघा फेरो अपने हाथों से उन्हें फिर से बिगाड़ लेता था। और अगर अपनी साईकिल पर बैठ जाए तो उसे वहाँ से उठाने में सबको अपनी नानी याद आ जाती थी। उसको स्कूल के रिक्शे में बैठाने के बाद ऐसा लगता था मानों कोई मोर्चा जीत लिया हो। कमलाा भी स्कूल जाते हुए बच्चों को देखकर उदास खड़ी थी उसके साथ भी तो कितना हिल मिल गया था चन्द्रमौलि।

सोच रही थी भाई साहब ने अभी तक अपने घर का फोन नम्बर लिखवाने के लिए फोन नहीं किया जाकर फोन को देखती हूंँ कहीं खराब तो नहीं पड़ा रिसीवर उठाया तोे फोन सचमुच काम नहीं कर रहा था फिर याद आया कलकता से वापिस आने पर भाई साहब की नौकरी वाले पत्र के साथ टेलिफोन बिल भी था वो तो जमा करवाया ही नहीं,कहीं फोन कट तो नहीं गया?