अपनी तो ये आदत है sushil yadav द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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अपनी तो ये आदत है

अपनी तो ये आदत है...

हम बचपन से, चुप रहने का ख़ासा तजुर्बा रखते आये हैं |

बी पी एल, ओ बी सी, वालो को, वैसे भी स्कूल, हास्टल, गेम्स या पालिटिक्स में कुछ ज्यादा कहने या करने का ‘हक़’ उन दिनों नहीं मिला करता था|

विरोध के स्वर मुखर हुए नहीं कि स्कूल-कालिज, निकाला होने का खतरा मंडरा जाता था|

किसी आन्दोलन में हिस्सा लेने पर पुलिसिया सुताई, इतनी होती थी, कि विकलांग होने का भय सताता था |

हम लोगो की जुबान, उन दिनों बाजार में मिलने वाले ‘चपकन्हा ताले’ माफिक था | ये वो ताला होता है, जिसे बंद करने के लिए चाबी की जरूरत नहीं पड़ती, बस कुण्डी में लगा के दबा दो, बंद हो जाता है |

हमारी जुबान को एक धमकी में कोई भी, किसी भी वक्त बंद करवा सकता था |

एक बार बंद हो जाने के बाद हमारी जुबान, बंद करने वाले ‘आका’ की हो जाती थी | आका जब तक न चाहे नही खुलती थी |

सैकड़ो राज को दफन करके रखने का उस जमाने जैसा प्रचलित ‘आर्ट.’ आज के लोगों को आता कहाँ है ?

ये वो जमाना था कि किसी को जुबान दे दी का मतलब, मरते दम तक किसी से कुछ नहीं कहेंगे, टाइप का होता था |

’क्षत्रिय’ धर्म पालन करने वालों की देखा-सीखी, करीब-करीब दूसरे लोगो में “प्राण जाय पर वचन न जाए” स्टाइल का कर्म योग आ जाया करता था | गफलत की गुंजाइश नहीं के अनुपात में हुआ करती थी |

जहाँ एक ओर वचन लेने-देने की परंपरा का निर्वाह होता था वहीं दूसरी ओर लोगों की आवाज दबाने या नही उभरने देने का रिवाज भी होता था |

उसी रिवाज की आखिरी पीढ़ी के बचे हुए हम लोग हैं |

हमारी जुबान को बंद करने वाले समाज के सभ्रांत ठेकेदारों के बाद, दूसरे कारको में, पेरेंट, उसके बाद मास्टर-गुरूजी-सर, फिर उसके बाद दबंग अफसर और अंत में पुलिसिया रॉब –दाब हुआ करते थे |

ये सब के सब, हमारे अन्दर के बोलने वाले यंत्र के स्क्रू को ढीले किये रहते थे |

आजकल के लोगों को सरेआम, आम चौराहे मंच पर बकबकाते सुनते हैं तो मजा आ जाता है |

कोई तो माई का लाल है जो सरे आम ललकार लेता है |

बड़ी-बड़ी गालियाँ अभी भी, कहीं भी, किसी के लिए भी निकाल लेता है |

अपनी उर्जावान वाणी से अपने प्रतिद्वंदी के पूरे खानदान की मट्टी पलीद किये रहता है | दहाड़ मार-मार के पुरखो तक को घसीट लेता है |

आंकड़ो पे आंकड़े देकर बता देता है कि किससे कब कहाँ कितना लिया –दिया| कब स्विस बैंक का खता खोला कितना जमा किया, खातों के क्या अकाउंट नबर हैं, पासवर्ड में अपने कुत्ते का नाम किस प्री-फिक्स-सफिक्स के साथ लगा रखा है |

बोलने वालों को जब बोलते सुनते हैं तो लगता है वे जनता की नजर में अपनी बेगुनाही का सबूत दे रहे हैं | दूसरों को चोर, उचक्का, उठाइगीर, मवाली. किडनेपर, हत्यारा जाने क्या-क्या कह डालते है ?

इनकी जुबान को किसी की, कभी नजर कैसे नहीं लगती ताज्जुब होता है ?

सी इ सी(आयोग) वालो को आचार संहिता की तर्ज में, हर उम्मीदवार के कंठ में ‘व्होकल मीटर’ फिट करवा देना चाहिए, चुनाव में खर्च की सीमा की तरह बोलने की सीमा तय हो कि, ज्यादा बकवास करके मतदाताओं की ‘सुनने की स्वछंदता’ का हनन न करें |

बोलने के नाम पर इन दिनों ‘मीडिया वाले ’ भी बहुत कूद लेते हैं | ये इतना उछलते हैं कि इनकी टी आर पी इंडेक्स रोज नया रिकार्ड बनाता है | इनके खोजी पत्रकारों की फौज एक-एक नेता के ‘छीकने –पादने’ की पड़ताल करते नजर आते हैं | दावे के साथ ये कहते हैं कि हमारे चेनल ने सबसे पहले ये बताया कि बिना ब्रश किये नाश्ता ले कर हमारे नेता ने कहाँ –कहाँ रैली को संबोधित किया|

पत्रकारों को पुचकारते हैं, दुलराते हैं इन्हें डाटते –फटकारते भी हैं, इंहे अपना हर रोल मन्जुर है| सहनशीलता की सदैव गुंजाइश बनी रहती है |

नेताओं को घेरने में उस्ताद पत्रकार, पेनल को संचालित करने वाला धाकड एंकर वही बात उगलवा लेता है जो इनके चेनल मालिक के हित का होता है |

मुझे लगता है इनके खोजी पत्रकार बने हुए लोगो में ज्यादातर लोग, कभी बड़ी घुटन-तडफ-संत्रास के मारे-सताए हुए रहे होगे | मेरी इस सोच के पीछे का तर्क ये है कि, ये जनता की जुबान बनने की जुगत में, जिनकी जुबान बरसों बंद रहती है, ज्यादा आक्रमक हो जाते हैं | वे पूछते हैं, कितना कुचलोगे, कितना दबाओगे ?

लगता है दबी जुबानो के तह में कहीं ज्वालामुखी है, जो फट के बाहर आना चाहती है|

असंतोष की सुनामी है, जो अपनी जद में आई हुई हर नाकामी में, कहर बन के टूटना चाहती है |

कलम और तलवार के बीच श्रेष्ठता साबित करने के लिए किये गए किसी वाद-विवाद में सुना था, कि तलवार से ज्यादा धार कलम की होती है |

तर्क देने वाले ने कहा था कि “तलवार अपने सामने आये दुश्मन को सौ-पचास –हजार की तादात में मारती है| इसमे सिर्फ मारक क्षमता है, जिलाने के लिए मरीज अस्पताल के रहमो-करम पर रहता है | मगर कलम की धार, एक पीढ़ी को, एक युग को ‘मार-जिला’ सकती है| परसाई जी की पिटाई से पैरो की हडडी का टूटना, जनाब सफदर हाशमी का सरे-आम, आम चौराहे पर दर्दनाक रूप से मारा जाना, कलम की धार से हुए वार के परिणामों में से कुछ एक उदाहरण मात्र हैं, पर ऐसी अनेको कई घटनाए है, जो कलम के पैनेपन को अहसास कराने में अहम् कारण बनती हैं | ”

‘कलम के धनी’ लोग जब मीडिया में, ’पहूँचे हुए लोगों’ के बीच जब पहुचते हैं तब बात ही दूसरी हो जाती है | ये लोग देश को एक नये अंजाम तक ले जाने की क्षमता रखने लगे हैं |

ये लोग, ’हवा का रुख’ बदलने में ये माहिर से हो गए हैं ?

इनके दिमाग में, स्टिंग केमरा की जगह, दूरदृष्टी वाला दूरबीन फिट हो जाता है| वो दूर-दूर की खबर लाते हैं कि शांत माहौल में गर्मी पैदा हो जाती है |

खोजी पत्रकारिता के थोड़े से जोखिम उठा के ये लोग राजा को रंक, रंक को राजा बनाने का खेल खेलने लगे है |

“ओपिनियन पोल की आस्था” को ज्योतिष-शास्त्र के समतुल्य बिठा के, लोगों की नजरों में, दिमाग में, दिन-रात, यही काबिज करवाया जा रहा है कि जो हम बता रहे हैं वही ‘कल का भविष्य’ है|

अगर कायदे से ये “पोल की खोल”, किसी दल के पक्ष में न चढे अथवा न चढाई जाए तो परिणाम ठीक उलटे भी आ सकते हैं |

“लहर –हवा” ये दो ऐसे शब्द हैं जो चुनाव के संदर्भ में बहुत मायने रखते हैं |

जिसकी ‘लहर’ उसकी सरकार, जिसकी ‘हवा’ उसकी जीत| ये नये पर्याय मीडिया ने दिये हैं | अब क्या करें ! जनता नादान बेचारी, दिशाहीन, बह जाती है लहरों में, हवाओ में.... |

बस; अपनी तो ये आदत है.., अब कुछ नहीं कहते ?

सुशील यादव