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मैं बपुरा बुडन डरा

मैं बपुरा बुडन डरा.....

डूबने का डर किसे नहीं सताता ....? अथाह समुद्र देख लो तो रूह काँप जाती है .....| जलमग्न होने का खतरा जब संभावित होता है तो जहाज का कप्तान भी जहाज छोड़ने को विवश हो जाता है|

ऐसा नहीं कि मुझे तैरने के बारे में जानकारी नहीं थी| मिडिल स्कूल के सिलेबस में, तैरने के सिद्धांत, मार्फत आर्कमिडीज, बच्चो-बच्चो को पढ़ाते-पढाते हमे भी समझ में आ गया था, कि जो वस्तु अपने वजन के वराबर पानी हटालेती है, वो तैर जाती है |

हमने रिटायरमेंट के बाद के शुरुआती दिनों में, टाइम-पास के नाम पर, तैरने की, छोटी-मोटी प्लानिग किये, कोशिशे भी हुई | चलो ! अपने वजन के बराबर पानी हटा के देखें……., मगर हमारा मिला जुला वजन, मसलन एक तो फिजीकल दूसरा पानी से बैर रखने की सोच का और तीसरा साहित्य बिरादरी में स्थापित किया हुआ वजन. पानी पर भरी पड़ा | इन तीनो के बराबर की वजन का पानी हम हटा न सके लिहाजा, डूबते-डूबते बचे | तैरने से तत्क्षण तौबा कर ली और किनारे बैठने वालों में हो लिए |

हम लगभग हांफते हुए सोच रहे थे, जब जनाब आर्कमिडीज का सिद्धांत कायम नहीं हुआ था तो लोग या वस्तुएं किसके दम पे तेरा करती थी ?

इस तौबा-ऐ-तैराकी के बाद, कई अवसर अन्य फील्ड में, तैरने-उतराने के पैदा हुए , परन्तु एक बार, बाहर बैठने की आदत जो हो गई सो हो गई|

हमारे ‘किनारे बैठने’ की आदत की पैदाइशी आप समझते हैं तात्कालिक है.... ? नहीं ऐसा कदापि नहीं है | ये लक्षण अपने स्वभाव में शुरू से मिला हुआ है | स्कूल के दिनों में, सर जी हमसे स्टाफ-रूम से चाक-डस्टर मंगवाते, हम फक्र से ला देते, वे हमारी काबलियत पर विश्वास करके क्लास-मानिटर के ओहदे से हमे नवाज दिए | हमे बिना किसी तामझाम के कोने में दुबके रहने में जो अच्छा लगता था, मास्टर जी की निगाह ने, जाने हममे क्या देखा कि,, किनारे बैठने की आजादी हमसे छिन गई | पीछा छुडाने की गुजाइश नही दिख रही थी| या यूँ समझो, उस उम्र के लिहाज से, वही पद भी सम्मानित जाना जाता था, यूँ जान के हम, पीछे की सीट पर, बैठ के क्लास में हल्ला करने वाले सहपाठियों की निगरानी में लग गए | इस बिना फायदे के काम में फायदे की जुगत बस इतनी होती कि मास्टर जी के लिए, स्टाफ रम से ‘चाक’ उठा के लाने में हमें कमीशन लेने में कोई बुराई नहीं दिखी | आठ लाते, छ: देते |’मानिटर ओहदे’ की इस कमाई से, मोहल्ले के बच्चों में चाक बांटने वाले ‘कप्तान’ के रूप में वाह-वाही पाने लगे | क्लास में रुतबा-दबदबा कायम होते दिखा | शायद यहीं से हमारी संगठन क्षमता का भी धीमे-धीमे विकास हुआ होगा | हम पर कभी किसी को कोई आर्टिकल वगैरा लिखना हो तो वे निशंकोच इस खुलासे को उदाहरण स्वरूप इस्तेमाल कर सकते हैं | यहीं से, हमें लगा कि ‘कुछ’ को देकर, ’कुछ’ को धौस से या ‘कुछ’ को लालच दिखा के अपनी ओर हिलगाया जा सकता है|

आत्म विशवास में ये छोट मोटे इजाफे बरकरार रहने के बावजूद, डूबने का डर हम पर समय-समय पर काबिज रहा | ये डर हमें बीए के आगे पढने न दिया, लगता था हम इक्जाम हाल में पेपर देते-देते अपनी नैय्या डूबा लेगे ....| रही-सही इज्जत फेल होने में चली जायेगी|

हमें पकड़-पकड़ के लोग समझाते, देखो लोग कैसे शेयर मार्केट मेनेज करते हैं | भाव बढ़ने और कम होने में कितना रिस्क रहता है, मगर वे अनवरत उसी में लगे रहते हैं | मेरी थ्योरी यूँ है कि, आप खरीदो तो शेयर सालो नहीं बढ़ता दूसरा खरीदे तो दो दिनों में लाखों कमा ले ...... | ये लोग किस वजन का पैसा लगाते हैं जो इनका सिक्का हरदम तैरते रहता है ....मुझे आज तक पता नहीं चला ?

तुमने बंजी जम्पिंग देखी है ......? कभी रोलर-कोस्टर में बिठा दिया जाए तो प्राण ही निकल जाए | मेले में हवाई-झूले के नाम से जिसकी रूह कांपती हो, उसके सामने तो बाक़ी का जिक्र ही बेकार है |

हमें हर ‘रिस्क’ को शक की निगाह से देखने की मानो आदत सी पड गई है | सभी ‘रिस्क’ में डूबने वाला पहलू पहले दिखता है....|

पानी में तैरते जहाज को समुंदर में देखना, लोगों को कितना सुकून देता है | यही जहाज प्रायोजित तरीके से आजकल समुंदर के किनारे की तरफ लाकर डुबाये जा रहे हैं | करोड़ों का क्लेम बूढ़े जहाजों पर बन आता है | प्राम्प्ट-डिस्पोजल की ये स्कीम अपने तरफ सालों से लागू है, आपको ‘अलंग’ तक अपने जहाज ले जाने की जरूरत नहीं, जिसे जो कमाना है वो कमा ले |

मैं कुछ राजनीति के लंगर डाले हुए, बड़े –बड़े जहाज को, महाभारत के संजय भाव से, जब किनारों पर देखता हूँ, तो बहुत ताजुब होता है, वे बहुत निश्चिन्त होते हैं| शांत होते हैं | उन्हें आने वाले किसी तूफान की कोई फिकर नहीं होती | वे तूफान को महज ‘तूफान-एक्सप्रेस’ माफिक समझ के सोच लेते हैं, ये आयेगा,स्टेशन में रुकेगा फिर ... सिग्नल मिलते ही आगे चल देगा |

समुद्री तूफान क्या उखाड़ लेगा हमारा.....? कितना डूबायेगा देखें ....., जैसे परोक्ष भाव उनके देदीप्यमान मुखड़ों पर विराजे रहते हैं | उनके पाल-तिरपाल हवा में जरा से भी नहीं उड़ते-उड़ाते|, पता नहीं किस किस्म के ताने-बानों से बुने होते हैं | इनमे अपनी हैसियत से ज्यादा वजन के ख़्वाब लादे रहते हैं |

  • ये लोग राजनीति में, आज से बरस –दो बरस पहले मात्र ‘विपक्षी –जीव’ कहलाते थे......| इनका एजेंडा बहुत साफ रहता था,सत्ता काबिजों को बस उखाड़ो, किसी सुरत में उखाड़ो....|. अब इनके नाम से ब्रेकिंग न्यूज चलते हैं. चिकी घोटाला,व्यापम घोटाला और न जाने क्या क्या .....हर घोटाले में अलग-अलग सौ, दो सौ, हजार करोड़ से कम के आकडे नहीं होते......| दिन भर टेलीकास्ट होने वाले इन आंकड़ों का अगर जोड़ लगा ले, तो हाल-फिलहाल , बाहर के काले धन को लाने की जरूरत न हो ?
  • हमने दिमाग दौडाया तो पाया कि, ये वे लोग हैं जिन्होंने मौसम अनुकूल पाते ही अपने लंगर हटाये | ’जोर लगा के हय्या’ वाले नारो में, इन लोगों ने गंगा मइय्या, धरती मइय्या, सफाई, अच्छे दिन वाले, नारे घुसा दिए वादों के सौदागर ये लोग देखते-देखते नय्या के खिवय्या बन गए, इन्हें ड्राइविंग सीट मिल गई | ये बेखौफ तैर रहे हैं |
  • अब इनके आर्कमिडीज तेल लेने भी जाए, तो इन्हें बिलकुल फर्क नहीं पड़ता|
  • काश ड्राई पोर्ट वाली तैराकी के कुछ गुण हममे आ जाते......? काश कभी न डूबने जैसा ‘अभयदान’ हमे भी हासिल होता .....?
  • सुशील यादव

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