सड़कों पे सांप
प्रेम जनमेजय
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सड़कों पे सांप
मुझे अपने मामा जी से ज्ञान मिला है कि दिल्ली की सड़कों पर सांप रेंगते हैं और इन पर दुर्योधन के वंशजों का शासन है।
वो कैसे, आप भी जानिए।
मेरे एक मामा जी हैं। ये वैसे वाले मामा नही हैं जो आपको मामू बना दें और ये ऐसे वाले मामा भी नहीं हैं जो मामू बन जाएं। वैसे तो मेरे पांच मामा हैं पर ये उन सबसे अलग हैं इसलिए उनका परिचय मैं आपसे ‘मेरे एक मामा' जी के रूप में करा रहा हूं। ऐसे मामा आपके चाचा जी भी हो सकते हैं, जीजाजी हो सकते हैं, भाई—भतीजा आदि रिश्ते में कुछ भी हो सकते हैं। मेरे एक मामा जी जैसा आपका दोस्त भी हो सकता है, आपकी पत्नी हो सकती है एवं पति भी हो सकता है। जैसे सत्ता मिलते ही हर दल सरकार जैसा हो जाता है एवं चुनाव—युद्ध के समय चुनाव लड़ने वाला हर योद्धा हाईकमांड एवं मतदाता के सामने भिखारी हो जाता है वैसे ही रिश्ता कोई भी हो वो मेरे एक मामा जी जैसा हो जाता है।
कौरवों और पांडवों के भी एक मामाश्री थे, शकुनि मामा जो पासों के खेल में माहिर थे और दूसरे मेरे मामा जी हैं जो पास से गुजरने वाले को कोंचने में माहिर। उन्हें दूसरे के फटे में टांग घुसेड़ने में आनंद आता है। वे हर उस चीज पर बिन मांगे सलाह देते हैं, टिप्पणी करते है, टोकते हैं— जो उनकी दृष्टि में गलत है। कोई ऐसे क्यों खड़ा है, कोई वैसे क्यों खड़ा है। किसी ने कार इधर क्यों पार्क की है, किसी ने कार उधर क्यों पार्क की है। उसकी लड़की ऐसे कपड़े क्यों पहनती है, उसकी लड़की वैसे कपड़े क्यों पहनती है।
कौरवों और पांडवों के भी एक मामाश्री थे, शकुनि मामा जो पासों के खेल में माहिर थे और दूसरे मेरे मामा जी हैं जो पास से गुजरने वाले को कोंचने में माहिर।
आपने गुलेरी जी की ‘उसने कहा था' कहानी पढ़ी है ? इस कहानी के आरंभ में , अमृतसर की गलियों में टांगा चलाने वाला, की हर आने—जाने पर, चाहे वो सुने न सुने, नॉन स्टॉप टिप्पणियां करता है। मेरे ये एक मामा जी भी वैसा ही करते हैं । उन्हें दूसरे के फटे में टांग घुसेड़ने में आनंद आता है। वे हर उस चीज पर बिन मांगे सलाह देते हैं, टिप्पणी करते है, टोकते हैं— जो उनकी दृष्टि में गलत है। कोई ऐसे क्यों खड़ा है, कोई वैसे क्यों खड़ा है। किसी ने कार इधर क्यों पार्क की है, किसी ने कार उधर क्यों पार्क की है। उसकी लड़की ऐसे कपड़े क्यों पहनती है, उसकी लड़की वैसे कपड़े क्यों पहनती है। न न न इसे आप भारतीय प्रजातंत्र के ‘महत्वपूर्ण' हिस्से ,विरोधी दल , की दृष्टि जैसा न समझें, वे तो अधिकांशतः आंख मूद विरोध के लिए विरोध करते हैं पर हमारे मामा जी खुली आंखों का विरोध करते हैं। अवसर मिलते ही उनकी कोंच —दृष्टि सजग हो जाती है और इस दृष्टि पथ पर जो भी आता है , कोंचा जाता है। उनके कोंच— बाण अधिकांशतः अलक्षित होते हैं। वे तो लगातार बाण छोड़ते जाते हैं। ये दीगर बात है कि जिसे वो अपनी कोंच—वाणी से कोंचते है, वो कम कुंचता है, सुनने वाला अधिक।
मेरे मामा जी मध्य प्रदेश के अति पिछड़े गांव, पिछाड़ा ,में रहते हैं पर आप उन्हें गंवार भी कहने की गलती न करें। वे कभी— कभी मेरे पास शहर में ऐसे ही आ जाते हैं जैसे प्रजातंत्र में चुनाव आते हैं और जैसे चुनाव अच्छे से अच्छे गंवार को उसके मूल्य का अहसास करा उसे चतुर—सुजान कर देता है वैसे ही मेरे एक मामा जी भी हो गए हैं। भारतीय प्रजातंत्र की यह खूबी है कि उसने सत्ताधारियों को इस देश की भाषाओं और संस्कृति का कम से कम चुनाव के समय सम्मान करना सिखा दिया है। किसी धार्मिक की निगाह में चाहे सब बराबर हों या न हों, उसके सतसंग में वी आई पी दर्शन के अलग मानदंड चाहे हों या न हों पर प्रजातंत्र में सभी के मत का एक ही मूल्य है। यहां हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख इसाई आदि सब बराबर हैं। गांव के गंवार के मत का भी वही मूल्य है जो शहर के अमीरजादे का। बल्कि कहूं तो अधिक मूल्य है। अमीरजादे के चंदे के आगे आप बिकते हैं पर गंवार की झोपड़ी में सर झुकाए घुंसने को विवश होते हैं।
मैं भी किस पचड़े में पड़ गया। व्यंग्य लेखक में खराबी यही है, बात हिंदुस्तान की अर्थ व्यवस्था की करता है और पहुंच अमेरिका के द्वार जाता है। रक्षक पुलिस की बात करते हुए भक्षक पुलिस की बात करने लगता है, देशसेवक नेता की बात करते हुए किसी ‘स्वयंसेवक' भ्रष्टाचारी की बात करने लगता है। और तो और, जब जब धर्म की हानि होने पर अवतरित होने वाले प्रभुओं की बात करते हुए उनके आश्रम के शयनकक्ष की चर्चा करने लगता है। बहुत बहकता है व्यंग्यकार। हे व्यंग्यकार भैया ! तुम तो कोल्हू के बैल की तरह उस मार्ग पर चलो जो तुम्हे दिखाया जा रहा है, काहे इधर—उधर तांक झांक करते हो। ज्यादा तांका झांकी करोगे तो लेखकीय बिरादरी से बाहर कर दिए जाओगे, हुक्का—पानी बंद हो जाएगा।
तो मित्रों !
मामा जी को पता चला कि मैंने नई कार ली है तो आ गए दिल्ली मुझे बधाई देने। मेरे पड़ोसी ने कार देखी तो बधाई नहीं दी अपितु बहुमूल्य सुझाव दे डाले —— आपने ये कार क्यों ली वो ले लेते , थोड़ी मंहगी ही तो थी... आपने सी एन जी क्यों नहीं ली... आपने इसका हायर मॉडल क्यों नहीं लिया... आपने उस बैक से कार लोन क्यों नही लिया... आदि आदि। यानि उन्होंने बधाई के स्थान पर सलाह दी और मुझे मूर्ख सिद्ध किया जबकि मेरे मूर्ख मामा जी गांव से बिना अपने बजट की चिंता किए बधाई देने दिल्ली के लिए रवाना हो गए।
मेरे एक मामा जी , मेरी इकलौती कार में दिल्ली की सैर करने को बहुत उत्सुक थे। वे वैसे उत्सुक नहीं थे जैसे साहित्यकार पुरस्कार पाने को, देवता स्वर्ग से फूल बरसाने को, आधुनिक बाबा आपकी माया को अपनी बनाने को, बाजार आपकी जेब हल्की करने आदि को उत्सुक होते हैं अपितु वे वैसे उत्सुक थे जैसे गरीब अपनी गरीबी मिटाने को, बच्चा नया खिलौना पाने को, बुजुर्ग नैतिकता का पाठ पढ़ाने को होते हैं। कार में बैठने से पहले मामा जी ने कार का नख शिख सौंदर्य पान किया और एक स्वाभाविक प्रसन्नता उनके चेहरे पर खेल रही थी।
मैंनें मामा जी को जैसे ही अपने साथ वाली सीट पर बैठाया और कार स्टार्ट की , उनकी कोंच —दृष्टि सजग हो गई एवं कोंच —वाणी सक्रिय। हर आने —जाने वाले को वे अपने कोंच—बाणों का निशाना बनाने लगे। दिल्ली की सड़कों पर ड्राईव करते समय अच्छे—अच्छे की कोंच वाणी सक्रिय हो जाती है, फिर वो तो मेरे मामा जी थे।
—— अरे मरेगा क्या ... बाप ने पैदा कर मरने के लिए छोड़ दिया है क्या ....सड़क तेरे बाप की है क्या ...अरे अंधा है क्या...अरे बहरा है क्या...? ' कोई कार तेजी से , बाईं ओर से गुजरती या फिर मुझे अचानक ब्रेक मारनी पड़ती तो उनके मुंह से निकलता — हरि ओम !
मामा जी औरों को ही अपनी वाणी से कृतार्थ नहीं कर रहे थे अपितु मुझे भी बीच—बीच में कृतार्थ करते जा रहे थे—— अरे मुन्ना संभल के... अरे देख लाल बत्ती आने वाली है... अरे साईकिल वाले को बचा कर चल... ब्रेक मार।' मैं तो जब आवश्यक्ता हो रही थी तब ब्रेक लगा रहा था पर मामा जी मेरे साथ वाली सीट पर बैठे बिना ब्रेक के पैरो से हवा में ब्रेक लगा रहे थे।
एक ट्रेफिक लाईट पर रुका तो, कभी दाएं से और कभी बाएं से जिक —जैक करते हुए मोटर साईकलों और स्कूटरों ने मेरी कार के आस—पास जैसे झुंड—सा बना लिया।
— सब साले दुर्योधन के वंशज हैं...
— दुर्योधन के वंशज, कौन ? मैं समझा नहीं मामा जी !
— ये मोटर बाईक और स्कूटर वाले।
— वो कैसे ?
— अरे, तुझे याद है न— महाभारत युद्ध से पहले कृष्ण, दुर्योधन के पास, शांति प्रस्ताव लेकर गए थे कि वह पांडवों को पांच गांव ही दे दे । तब दुर्योधन ने कहा था कि मैं एक इंच जमीन भी न दूंगा। ये मोटर बाईक और स्कूटर वालों को तूने देखा... एक इंच जमीन भी नहीं छोड़ते हैं। जहां खाली स्थान देखा वहां अपना वाहन घुसेड़ दिया। और देख अभी लाल बत्ती होने में 20 सैकेंड है पर सभी धीरे—धीरे घूं घूं करते आगे बढ़ रहे हैं कि यह जगह दूसरे को न मिल जाए।''
तभी किसी ने लाल बत्ती के बावजूद पीछे से ही हॉर्न दे दिया तो मामा जी उच्चारे— अरे तूं क्यों शंखनाद कर रहा है, अभी युद्ध होने में 10 सैकेंड का समय शेष है।
— मामा जी, बड़े शहरों में दूरियां बहुत होती हैं, सबको पहुचंने की जल्दी होती है।'' यह कहकर मैंने कार आगे को बढ़ाई। इतने में बाएं से एक बाईक वाले ने लगभग मेरी कार को छूते हुए तेजी से निकलने के लिए मेरी कार के आगे से आया तो लगा जैसे आत्महत्या के मूड में है। मैंने जोर से ब्रेक लगाई और उसने एक्सलेटर पर पांव दबाया। मामा जी बोले — हरि ओम!' मैं इस होने वाले हादसे से स्वयं को बचा अनुभव कर संतोष की सांस लेता कि इतने में एक और बाईक सरसराता हुआ मेरे आगे से निकल गया। और दुर्घटना बचाने को रुकी मेरी कार को मेरे पीछे के वाहनो ने पौं पौं कर सड़क—पथ पर चलने को धकेलित किया।
— ये बाईक वाले तो नाग हैं। कैसे सरसराते हुए ,बलखाते हुए निकल जाते हैं। इनके लिए तो कोई जनमेजय पैदा होना चाहिए। ''
—— मामा जी, आपने तो दिल्ली की सड़कों को कुरुक्षेत्र का मैदान जैसा बयान कर दिया है। महाभारत के सारे पात्र आपने...
— मैंने क्या बनाया, तुम्हारे दिल्ली जैसे शहर की हर सड़क कुरुक्षेत्र का मैदान है। रोज पढ़ते—सुनते हैं कि सड़कों पर कभी हथियारों से और कभी वाणी से युद्ध लडे जाते हैं।
सही ही कहा मामा जी ने कि दिल्ली जैसे महानगरों की सड़कें दुर्योधन के वंशजों से पटी पड़ी हैं । प्रतिदिन कहीं न कहीं महाभारत के लघु संस्करण खेले जाते हैं।
दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफिक नियमों का पालन करना भी खतरनाक है।कई बार हॉरर फिल्म के दृश्य उपस्थित हो जाते हैं।
दो दृश्य देखिए।
आप अपनी गति से चल रहे हैं। अचानक हरी से पीली बत्ती होती है जो संकेत है कि लाल बत्ती होने वाली है। आप धीर—धीरे अपना वाहन रोकते हैं। पर आपके पीछे, जो तीव्र गति से आ रहा है, उसके लिए तो पीली बत्ती जल्दी से निकल जा का संकेत है। वो नहीं रुकता और आपके वाहन को ठोक देता है। वो अपने वाहन से निकलता है और आपका कॉलर पकड़ता है, दहाड़ता है— साले, ब्रेक क्यों मार दी।' आप कुछ बोलते हैं तो वह आपको ठोक देता है। आप ठुक जातें हैं क्योंकि वह शराब पिये है, या किसी मंत्री का बेटा है।
पुलिस वाला ड्यूटी पर है। वह यातायात के नियम तोड़ने वालों की लीला में विघ्न पैदा करने के लिए टृेफिक लाईट के बाद, पकड़म— पकड़ाई खेल खेलने के लिए खड़ा है। एक बहुत तेज गति से कार आ रही है। वह लाल बत्ती की परवाह नहीं करती है। पुलिस वाला उसे पकड़ने को मार्ग में खड़ा हो जाता है। तेज गति की कार उसकी भी परवाह नहीं करती है। पकड़म पकड़ाई का खेल समाप्त होता है। पुलिस वाले की जीवन लीला समाप्त होती है। मुआवजा देकर सरकार की लीला समाप्त होती है।
इस अव्यवस्थित व्यवस्था में हम रोज जी रहे हैं और रोज ही मर रहे हैं।
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