Jati hi Puchho Sadhu ki Prem Janmejay द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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Jati hi Puchho Sadhu ki

जाति ही पूछो साधु की

0प्रेम जनमेजय

आजकल संत और सीकरी का चोली दमन का साथ है। संतों ने ऐसे ‘पद' त्राण का अविष्कार कर लिया है जिनके प्रयोग से सीकरी के जितने भी चक्कर लगें पईयां घिसती नहीं हैं। जैसे जब—जब धर्म की ग्लानि होती है और प्रभु जन्म लेते हैं वैसे ही जब—जब ‘धर्म' की तथा ‘अधर्म' की हानि होती है, संत और सीकरी एक दूसरे के स्थल पर अवतरित होते हैं। संतों की कुटिया सीकरी का भ्रम देने लगी है तथा सीकरी जनसेवक की कुटिया का भ्रम देने लगी है।

ऐसे ही एक जनसेवक, एक साधु की, कुटिया पर पधारे और भिक्षाम्‌ देहि की पुकार लगाने लगे। वो साधु ही क्या जो जनसेवक की पुकार न सुने। इस साधु ने भी सुनी और जनसेवक को अपने कक्ष में बुला लिया। अनेक अंगरक्षकों/ अंगरक्षिकाओं से सुशोभित साधु का तेज जनसेवक की आंखों में चौंध उत्पन्न कर रहा था। साधु का चेहरा अस्पष्ट था। जनसेवक ने सत्ता के गलियारों में अनेक साधु देखे थे, अतः मान लिया कि इनका चेहरा कुछ वैसा ही होगा। जो समझ नहीं आए उसे मान ही उत्तम विचार है जैसे ईश्वर को न समझ आने पर समझा हुआ मान लेना।

जनसेवक ने प्रणाम किया और बोला— प्रभु मैं...

— हम जानते हैं कि तुम कौन हो, अपना अभिप्राय कहो।

— प्रभु मैं जानता हूं कि आपके आश्रम की पहचान, जाति,धर्म आदि आदि आप से उत्पन्न होता है और आप में ही समा जाता है। आप कीचड़ में कमल की तरह हैं या फिर हम जैसे नेताओं की तरह भ्रष्टाचार के कीचड़ में कमल की तरह हैं। फिर भी, मैं आपसे आपकी जाति जानना चाहता हूं। आपके नाम से तो क्या किसी भी संत के नाम से उसकी जाति का पता नहीं चलता है अपितु भ्रम ही होता है। प्रेमानंद, साधनांनद, तपस्यानंद, सहजानंद, प्रेम स्वामी आदि आदि नामों से जाना नहीं जा सकता कि साधु किस धर्म—जाति का है।

— बालक तुमने कबीर का दोहा सुना नहीं है कि— जाति न पूछो साधु कि पूछ लीजो ज्ञान।'

— सुना है प्रभु और कक्षा छह में पढ़ा भी है। पर प्रभु कबीर के समय में चुनाव नहीं होते थे और साधु से जाति न पूछकर ज्ञान न पूछना चल जाता था। उस समय के साधु सीकरी से ही दूर रहते थे इसलिए कुछ भी चल जाता था। पर प्रभु आजकल तो बिना साधु और जाति के चुनाव लड़ना सरल तो है पर जीतना असंभव है। जाति के विरोध में प्रगतिशील विचारधारा चुनाव के क्षेत्र में गायब हो जाती है। पार्टी ने मुझे आपके चुनाव क्षेत्र से लड़ने का टिकट दिया है, मैं समाज के जातिगत समीकरण को तो समझ गया हूं परंतु आपके जातिगत समीकरण को नहीं जान पाया हूं।'

— तुम मेरी जाति को क्यों जानना चाहते हो बालक?

— प्रभु आप तो सर्वज्ञानी हैं, जानते ही हैं कि जाति का बंधन मां—बेटे, पिता—पुत्र आदि के बंधन से भी सशक्त होता है। इस बंधन के न होने से द्रोणाचार्य ने एकलव्य को ज्ञान नहीं दिया था तथा इसके कारण ही पांडवों ने कर्ण को नहीं पहचाना था। सत्ता के गलियारों में इससे चिपकाउ बंधन और कोई नहीं है। ऐसा चिपकाउ बंधन चुनाव जीतने की गारंटी होता है।

— पर मेरी जाति जानने से तुम्हेें क्या लाभ होगा?

— प्रभु आप इस क्षेत्र की शक्ति हैं। आपके अनुयायी, जो हैं तो विभिन्न जातियों के पर वो सब जातियां आप में समाकर समुद्र की तरह विशाल हो जाती हैं, एकाकार हो जाती हैं। चारों ओर आपके अनुयायी फैले हुए हैं। ये आपके हजारों मुख हैं। आप जो बोलते हैं, जो चाहते हैं, वही इन मुखों से उच्चरित होता है। जो आपकी जाति है वही इनकी जाति है। यदि आपकी जाति और मेरी जाति एक हुई तो मुझ घूरे के दिन बदल जाएंगें। आपकी जाति का हूं, ऐसा जानकर मेरा मन मयूर नाचने लगेगा, आपमें मेरी श्रद्धा और भक्ति बढ़ जाएगी। उसी अनुपात में आपका मेरे प्रति प्रेम भी बढ़ेगा। आपका प्रेम बढ़ेगा तो आपके भक्तों का भी प्रेम बढ़ेगा। और प्रेम उधार की कैंची चाहे हो जाए पर जाति का फेविकोल होता है।'

— बालक हम प्रसन्न हुए। तुम बहुत ही समझदार हो और मुझे गर्व है कि मेरी जाति में तुम जैसा रत्न उत्पन्न हुआ है। तुम जाति के महात्मय को अच्छी प्रकार से जानते हो और मुझे विश्वास है कि किसी भी अवसर पर तुम मुझे धोखा नहीं दोगे। मैं तुम्हारे बारे में सब जानता था और तुम्हे चुनाव का टिकट देने की सिफारिश भी मैंने इसी आधार पर की थी,पर जानता नहीं था कि जाति— पुराण का तुमने इतना व्यापक अध्ययन किया हुआ है। जान लो वत्स कि राजनीतिक जाति, जिसे सांसारिक राजनैतिक दल के नाम से जानते हैं, से भी इस जाति की ताकत बड़ी है। मैं जान गया हूं कि चंद टरे, सूरज टरे पर तुम नहीं टर सकते हो। तुम मेरी कृपा को अवश्य पहचानोगे और उस कृपा से मुक्त होने के उपाय भी करते रहोगे। जाओ वत्स निर्भय होकर चुनाव रणक्ष्ेात्र में कूद जाओ।'

साधु ने अपनी जात बता दी।

जनसेवक चुनाव जीतकर जनता को अपनी जात बताने लगा।

जाति ज्ञान बड़े—बड़े असमंजस को पल में टाल देता है। साक्षात्कार में आए हजारों प्रत्याशियों में से नौकरी किसे देनी है, मान—सम्मान/ पुरस्कार किसे बांटने हैं, किस लेखक को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करना है, वोट किसे देना है, किससे शादी—विवाह रचाना है, किसके साथ दोस्ती करनी है, जैसे अनेक हजारों असमंजसों का रामबाण समाधन है जाति —ज्ञान।

वे मूर्ख और अज्ञानी हैं जो जाति —मुक्त भारत की कल्पना करते हैं। बरसों से भारत में मुक्ति नामक वस्तु की तलाश जारी है। इसके लिए भयंकर तपस्याएं की जाती रही हैं और माना गया कि मुक्ति मिल गई। मुक्ति मिली तो सही पर स्थायी मुक्ति कभी नहीं मिली। व्यक्ति को तो मुक्ति मिल गई पर समाज को मुक्ति कभी नहीं मिली। राम ने अपने समय के रावण से स्वयं तो मुक्ति पा ली पर बाद में अनेक रावण पैदा हुए और राम पैदा नहीं हुए। कबीर ने अपने समय में बहुत कोशिश की कि साधु का ज्ञान पूछा जाए, उसकी जाति न पूछी जाए पर उसे मुक्त रखा जाए। पर मुक्ति कहां मिली?

यह देश जाति मुक्त हो गया तो हमारी परंपराओं, हमारी अस्मिता का क्या होगा? वसुधैव कुटुंबकम वाले देश के दूसरे, हथिया, दांत कैसे प्रकट होंगे?

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नाई नाई कितने बाल

0 प्रेम जनमेजय

इन दिनों चुनाव हो रहे हैं। वैसे भारत में चुनाव ऐसा मौसम है जो किसी भी समय अपनी अनुभूति करा सकता है। आप बिना छाते के है। तो यह बरस जाएगा और छाताधारी हैं तो आप इसे लादे—लादे फिरेंगें और यह छाते को निरर्थक सिद्ध करता फिरेगा। चुनाव भारतीय राजनीति की सामूहिक मुंडन ऋतु है। इस ऋतु में जिसे देखो , वह अपने उस्तरे से मूंडने में लगा होता है । जिसे मूंडने का अवसर नहीं मिल रहा है , वह किसी मूंडने वाले का दामन थामे चुनाव —सागर पार करने का जुगाड बिछा रहा है । चुनाव का यह सागर अत्यधिक बहुमूल्य है , अनेक रत्न जो इसमें छिपे हुए है । इन रत्नों को पाने के लिए ज्ञानीजन चुल्लु भर सागर में भी गोते लगाने को तत्पर हैं । अनेक विष्णु मनमोहिनी रूप धारण किए अमृत हड़पने की शतरंज बिछाए विराजमान है ।

पूरी भारतीय राजनीति की व्याख्या दो शब्दों में की जा सकती है —— नाई और जजमान । नाई उसें कहते हैं जो मूंडने में जन्मजात सिद्धहस्त होता है और जजमान उसे कहते हैं जो यह जानते हुए भी कि वह मुंडा जा रहा है , मुंडता रहे । वैसे नाई की हैसियत जजमान से कम आंकी जाती है , पर वह इतनी चतुराई से मूंडता है कि दिनों दिन उसकी हैसियत बढती जाती है । नाई का दावा होता है कि वह अपने जजमान की खूबसूरती को बढाने वाला सेवक है । ऐसे सेवक को बाबू गुलाबराय ने नापिताचार्य भी कहा है । हमारे ऐसे सेवक हर पांच साल बाद , और आजकल सुना है , इनके मन में इतना सेवा भाव भर गया है कि कुछ महीने बाद ही सेवार्थ उपस्थित हो जाते हैं । आप को जरूरत हो न हो , यह आपकी सेवा में हाज़िर होकर , करबद्ध होकर प्रार्थना गीत गाते हैं ——

ऐ मालिक तेरे बंदे हम

ऐसे हों हमारे सुकर्म

नेकी से हटें और बदी पर चलें

ताकी घोटाले हों भारी भरकम ।

ये चुनाव घना आ रहा

मेरा मतदाता घबरा रहा

दे इसको अकल

वोट दे बस हमें

ताकि हंसते हुए देश लूटे हम ।

ऐ मालिक तेरे बंदे हम....

और बेचारा मालिक इतना दयालू है कि अपने ही हत्यारों को ताज पहनाता है । अपना खून चूसने के लिए प्याला पेश करता है । तो हे देश के संतों , इस महान देश के मालिको , हे जजमानों तुम्हारे नाई अपने हथियारों से लैस आ गए है। इनकी आरती उतारो , इन बैलोंं को निमंत्रण दो कि वह तुम्हें मारें ।

लोग सावन के अंधे होते हैं , मैं इन दिनो चुनाव का अंधा हूं , मुझे चारों ओर चुनाव ही चुनाव नजर आ रहा है । मैं सब्जी वालें से पूछ बैठा ——— और भाई क्या चल रहा है , इस बार क्या लगता है ? ''

वह बोला —— ‘‘ बाबू जी इस समय तो महंगाई चल रही है । टमाटर बीस रुपए पाव हैं , प्याज तीस का पाव हैं और भिंडी दस रुपए पाव है । लगता है यह है कि महंगाई और बढेगी । सब्जी के बाद दालें बढ़ेंगी और इंसान सस्ता होगा। ''

पहले सब्जी वाला किलो का भाव बताता था आजकल पाव का बताता है , जानता है कि किलो की औकात बाबू की नहीं है । पर विश्व के सबसे बडे प्रजातंत्र की आम जनता से मैं सब्जी का नहीं देश की राजनीति का भाव पूछ रहा था , और उस अज्ञानी को सब्जी और राजनीति में फर्क पता नहीं था । शायद ऐसे ही अज्ञानियों के समूह को जनतंत्र कहते हैं ।

मैंनें कहा —— भई , मैं सब्जी की नहीं देश की राजनीति की बात कर रहा हूं । और तुम हो कि सब्जी के भाव बता रहे हो । ''

—— एक ही बात है बाबू जी । आजकल किस नेता का भाव नहीं लगा हुआ है । कुछ के अभी लगे हुए हैं कुछ के चुनाव के बाद लग जाएंगें । कुछ अभी किलो के भाव बिक रहे हैं , कुछ बाद में पाव के भाव बिकेंगें । अभी होलसेल की मंडी लगी हुई है कुछ दिनों बाद खुरदरी हो जाएगी । ''जिसे मैं अज्ञानी समझ रहा था , वह तो महाज्ञानी निकला । प्रजातंत्र की ऐसी सब्जी की आत्मापूर्ण व्याख्या तो अच्छे से अच्छा अचार्य नहीं कर सकता है ।

——— तो इस बार वोट किसे दे रहे हो ? ''

——— जो कुछ दे देगा उसे हम भी दे देंगें ।

——— और नहीं देगा तो ? ''

——— अपनी सब्जी बेचेंगें । ''

——— तो अपना बहुमूल्य वोट ऐसे ही बेकार कर दोगे ? ''

——— बहुमूल्य है इसलिए तो बिना लिए कुछ वोट नहीं देंगें । बाबूजी आप ही सोचो कि यह कहां का इंसाफ है कि वे तो हमारे वोट के बल पर जीतकर करोडों साफ करें और उसका हमें झूंगा भी देने को तैयार न हों । हम दस रुपए की चोरी करें तो पुलिस वाले के डंडे खाएं , जेल जाएं और वे करोडो़ं का घोटाला करें तो जे0पी0सी के चोर रास्ते से निकल जाएं और जेल भी जाएं तो चुनाव जीत और खाने की जुगत भिड़ाएं ।

——— पर भई तुम्हारे वोट न देने से क्या होगा । संसद में तो वह अपने वोट के बल से भी पहुंच सकते हैं । यही तो हमारे जनतंत्र की खूबी है कि सिंगल हड्‌डी की पार्टी वाला भी दावा करता है कि उसे मंत्री बनने का जनादेश मिला है । ऐसे में तुम्हारे वोट की औकात ही क्या है ? ''

——— बाबू बूंद बूंद से घडा भरता है और हो सकता है कि एक दिन यह घडा भी भर ही जाए ।'' इस बीच उसका ग्राहक आ गया और मुझे फालतू समझ उसने उधर ध्यान दिया ।

यह चुनाव का मसला भी कितना भटकाता है । मैं बात कर रहा था नाई की और बीच में आ गया सब्जी वाला । मैं जानना चाहता हूं कि इस चुनाव के नतीजे क्या होंगें और वह कह रहे हैं कि जजमान बाल सामने आ जाएंगें ।

और यदि जजमान गंजा हो चुका हो तो ?

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दुष्टों के भगवान्‌, हे रावण!

0प्रेम जनमेजय

आजकल मेरा मन त्यौहारों के कारण घबराने लगा है। त्यौहार खुशियों को कम, आशंकाओं को अधिक जन्म देने लगे हैं।

दशहरे का दिन करीब था और मेरा मन घबरा रहा था। मेरा मन यह सोचकर नहीं घबरा रहा था कि रावण मारा जाएगा कि नहीं, रावण—दहन होगा कि नहीं या फिर दशहरे के दिन रावण का दहन तो न हो पाए उसके स्थान पर कोई आतंकवादी अनेक मासूमों को बम से ही उड़ा दे। मेरी चिंता सार्वजनिक नहीं, व्यक्तिगत थी। आजकल वैसे भी सामूहिक सोच का नहीं व्यक्तिगत सोच का समय है। दूसरा जाए भाड़ में, तूं तो मॉल—संस्कृति में मस्त रह।

मेरा मन हर दशहरे पर घबराता है क्योंकि इसके बाद करवा चौथ, दीपावली और भाई दूज जैसे त्योहार आते है। आप न मानाएं तो समाज में आपकी नाक कटती है और मनाएं तो जेब कटती है।

पर इस बार दशहरे पर मन अधिक घबरा रहा था।

मेरी बिटिया का पिछले दिनों विवाह हुआ है। आने वाला दशहरा इस बात की सूचना दे रहा था कि विवाह के बाद बिटिया का पहला करवा चौथ, पहली दीपावली और पहला भाई दूज का त्यौहार आने वाला है। हम जानते ही हैं कि जीवन में पहले प्रेम, पहली कमाई, पहले भ्रष्टाचार, पहली संतान आदि का कितना महत्व है।

पर हमारे जीवन में ये जो पहला आ रहा था वो मुझे ऐसे ही भयभीत कर रहा था जैसे अंधेरे में डायन भयभीत करती है। महंगाई डायन मेरे सामने मुंह बाए खड़ी थी और अनिश्चितिता का अंधेरा ऐसे घेर रहा था जैसे आजकल न्यायालयों में मुकदमों को अनिश्चितताओं ने घेरा हुआ है।

महंगाई बढ़ गई है यह तो सभी जानते हैं पर उसके साथ—साथ लोगों की अपेक्षाएं कितनी बढ़ गई हैं इसे तो वो तन ही जानता है जिस तन लगती है। हमारे तन लगी थी इसलिए हम जान रहे थे। आजकल ब्रैंडेड का जमाना है— बैं्रडेड शर्ट, होटेल, रेस्तरां, जूते, चप्पले, डिजाईनर साड़ी—सूट आदि आदि। ब्रैंडेड अथवा डिजाईनर का अर्थ होता है— जो वस्तु पांच रुपए कि मिल सकती हो उसे पचास में बेचा—या खरीदा जाए। ब्रेंडेड वस्तु हमारे सामाजिक स्तर का निर्धारण करती है और इसे पाने के बाद मध्यवर्गीय जीव स्वयं को उच्चवर्गीय आत्मा समझने लगता है। उसके पांव जमीन पर नहीं पड़ते हैं और हाथ क्रेडिट कार्ड से सुशांभित होते हैं। इन दिनों ऐसे ही बें्रडेड आईटम की खरीददारी की सूची घर में बन रही थी। आखिर अपनी इज्जत का सवाल था और लड़के वालों ने भी बता दिया था कि उनकी इज्जत का सवाल भी है।

मेरी समधन ने बड़े प्यार से मुझे कांता सम्मित उपदेश देते हुए कहा था— भाई साहेब पिछला जमाना तो है कि नहीं आठ दस बच्चे होते हों। एक दो ही होते हैं। जो देना है इन्हीं को देना है। समय पर दे ंतो शोभा बढ़ती है।'

भाई साहब समझ गए क्योंकि वे अक्लमंद हैं और सुंदरियों के इशारों को समझते हैं। हम चाहे मॉल — संस्कृति का लिबास ओढ़े हुए हैं पर हमारी सोच परचूनिए की दूकान की है। हम पहनावे में गतिशील हैं पर अपनी सोच में पत्थर।

तो घर में अपनी शोभा बढ़ाने की योजना चल रही थी अतः मैं घर से बाहर चला गया।

घर से कुछ देर भक्तों की भीड़ दिखाई दी। एक व्यक्ति प्रवचन—सा कर रहा था, परंतु पहनावे से कोई महात्मा, बाबा या बापू जैसा ‘सादगी' भरा नहीं लग रहा था। उसने अमूल्य आभूषणों से युक्त चमकीले वस्त्र धारण किए हुए, अंगुलियां रत्न जड़ित अंगूठियों से सुसज्जित थीं। कानों में कुंडल और गले में वैजयंति माल थी। यानि जैसा वह अंदर से था वेसा ही बाहर से था, उसने सादगी का आवरण नहीं ओढ़ा हुआ था।

वह कह रहा था— हे दुष्ट भक्तों ! बहुत हो चुकी हम दुष्टों की उपेक्षा, बहुत मूर्ख बन चुके हम। हमारा दुष्ट— समुदाय इतनी बड़ी संख्या में विश्व के कोने — कोने में फैला हुआ है। कुछ ोग कहते हैं कि सतयुग और त्रेता में हमारी संख्या कम थी, जो गलत बयानी है। चलो माना, पर कलयुग में तो हमारी जनसंख्या संतों से कहीं अधिक है। इतनी अधिक है कि संतों में भी दुष्ट समुदाय ने अपनी जड़ें जमा ली हैं। ऐसे में कलयुग को हमारा युग है। हमारे युग में, हमारे राज में यदि हमारी ही निंदा हो, हमें लताड़ा जाए और ‘सत्यमेव जयते' जेसे नारे लगाए जाएं तो समझ लो कि हम नपुंसक हैं। यह युग हमारा युग है और इस युग में राज करने का अधिकार हमारा है।

कभी आपने सोचा कि हम कलयुग में भी इतने क्यों दलित हैं, दबे हुए और निरीह क्यों है। क्यों मुट्‌ठी भर लोग न्याय और ईमानदारी के नाम पर हमारा शोषण कर रहे हैं? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हम दुष्टों का कोई भगवान नहीं है और इस कारण कोई मंदिर—मस्जिद या गिरजा नहीं है। आज हालात यह हैं कि ‘सज्जनों' के करोड़ों देवी—देवता ओर ईश्वर हैं और अनेक मंदिर है। ये मंदिर अपार संपदा का साधन हैं। हमें धन प्राप्त करने के लिए कई पापड़ बेलने पड़ते हैं जबकि संतों को बिना पापड़ बेले धन मिल जाता है। जब भी हमपर कोई कष्ट आता है तो हमें सज्जनों द्वारा निर्मित मंदिरों में, उनके भगवानों के समक्ष माथा झुकाना पड़ता है, चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है। हमारे खून पसीने की कमाई और लाभ उठाएं सज्जनों के भगवान, ये हमारी नपुसंकता का प्रतीक है कि नहीं। दुष्टों ! हम पर धिक्कार है कि इतने युग बीत गए और हम अपने लिए एक भी ईश्वर नहीं गढ़ सके, उसका एक भी मंदिर नहीं बना पाए।

यदि हम अभी नहीं जागे तो ये मुट्‌ठीभर सज्जन हमारा शोषण इसी प्रकार करते रहेंगे। यह बड़े हर्ष का विषय है कि इस समय भारत में ही नहीं पूरे विश्व में लूटपाट, हत्या, सांप्रदायिक दंगों, आतंकवाद आदि का बाजार गर्म है। और आप तो जानते ही हैं कि जब लोहा गर्म हो तो उसपर चोट कर देनी चाहिए। ठंडे लोहे पर तो कविता ही लिखी जा सकती है। जो बाजार गर्म है, उसे हमें और गर्म करना है। आप सब तो जानते ही हो कि यह बाजार युग है। इस युग में बाजार ने हमारी ताकत बड़ा दी है। कभी होता था पानी बिन सून, आजकल पूंजी बिन सब सून है। बिना धन के सच्चा न्याय नहीं मिलता, पत्नी सच्चा प्रेम नहीं करती, बच्चे मा—बाप की कद्र नहीं करते और विद्यार्थी को विद्या तक नही मिलती। कभी होती होगी विद्या धन जिसे चोर चुरा नहीं सकती पर आजकल बिना धन के विद्या कहां? लोहा गर्म है। हर क्षेत्र में हमारे भक्तों की संख्या बढ़ रही है। हमें इस लोहे को निरंतर गर्म रखना है। हमें देखना है कि भ्रष्ट नेताओं की संख्या में निरंतर वृद्धि हो। हमें अच्छे और भद्र लोगों का मनोबल निंरतर तोड़ना हैं । हमें उनके सामने ऐसी व्यवस्था पैदा करनी है जो अच्छे—अच्छे सज्जनों को अवसाद में डाल दे और वो विवश होकर कहे कि अब कुछ नहीं हो सकता। एक अवसाद भरा वातावरण तैयार करना है , हमें। हमें देखना है कोई भला आदमी अपना सर उठाकर न चल सके। सच्चा कलयुग तभी आ सकता है, जब किसी को किसी पर विश्वास न रहे। हमें उन शक्तियों से सावधान रहना है, उनका मनोबल तोड़ना है जो धरती पर सच्चाई स्िाापित कर इस स्वर्ग बनाना चाहते हैं। हमें स्वयं तो दुष्ट—संहिता का पालन करना ही है, ये भी देखना हे कि सज्जन भी इसका पालन करें।सज्जनों को दुष्ट बनाने के लिए यदि हमें सज्जनता का लबादा भी ओढ़ना पड़े तो घबराना नहीं चाहिए । हमें नहीं भूलना चाहिए कि सज्जनों ने किस किस तरह के लबादे ओढ़कर हम दुष्टों को अनेक बार छला है।

आइए, आज के इस शुभ अवसर पर हम दुष्टों के भगवान का निर्माण करें। वैसे तो दुष्टों के भगवान बनने की हमारे अनेक पूर्वजों में ताकत है। कंस, भस्मासुर, अहि रावण, बालि , रावण जैसे अनेक दुष्टभाावों ने सज्जनों के भगवानों को समय समय पर चुनौतियां दी हैं और धोखे के कारण शहीद हुए। परंतु दुष्टों का भगवान बनने के जो गुण रावण में हैं , वे किसी में नहीं। रावण ने न केवल अपहरण जैसी सुदृढ़ परंपरा को चुनौती का आधार बनाया अपितु अपने जीते जी अपने अधिकार को नहीं छोड़ा। रावण ने संसार की अपार धन संपत्ति को अपने कदमों में बिछाया और सज्जनों को विवश किया कि वे उसकी जय जयकार करें। रावण उस शक्ति का नाम है जिसको सच्चाई नहीं मार सकी अपितु भाई के धोखे ने उसे मारा। रावण मरा नहीं शहीद हुआ है। उसने अंत समय तक दुष्टता के ध्वज को लहराए रखा है।

हमें एक दुष्टालाय का निर्माण करना होगा। इस दुष्टालय के मुख्य भाग में रावण की रतनजटित, सोने की मूर्ति स्थापित की जाएगी जिसके समाने सज्जनों के भगवानों की मूर्तियां फीकी लगेंगी। मूर्ति बनाने के लिए हमें धन की आवश्यक्ता होगी और जो निश्चित ही भ्रष्ट मंत्रियों, पुलसियों, ठेकेदारों, उद्योगपतियों, सरकारी कर्मचारियों आदि से प्राप्त होगा । हमारे दुष्टालयों में वे सब होगा जो सज्जनों के मंदिर में उपलब्ध नहीं है। हमारे यहां दूध—घी की नहीं सुरा—सुंदरी की नदियां बहेंगी। ऐश के सभी सामाना होंगें।हमारा भगवान किसी दुष्ट की परीक्षा नहीं लेगा अपितु सज्जनों की लेगा। जो दुष्ट —प्रभु की शरण में आएगा उसका कल्याण होगा।

इस बार दशहरे पर रावण की हत्या नहीं होगी, उसका दहन नहीं होगा, अपितु उसका अवतार होगा।

इस घोषणा ने मेरा सर चकरा दिया। वैसे ही सज्जनों के वेश में दुष्टों की कमी नहीं है, यदि दुष्ट साक्षात हो गए तो क्या होगा ? अभी तो दुष्ट सज्जनता के वेश में शालीनता से पेश आते हैं, यदि ये वेश उतर गया तो ?

मैं वहां से चल दिया। कुछ देर गया ही था कि देखा एक फेरी वाला आवाज लगा रहा था— उजाला ले लो, उजाला ले लो, बहुत सस्ता और उजला उजाला ले लो। पचास परसेंट डिस्काउंट पर उजाला ले लो।'

डिस्काउंट सेल तो बड़े—बड़े मॉल पर लगती है या उनकी देखा—देखी किसी छोटी दुकान पर। किसी फेरीवाले को मैंनें डिस्काउंट सेल लगाते हुए नहीं देखा। हां मोल—भाव करते जरूर देखा है। मोल—भाव तो हम भारतीयों की पहचान और आवश्यक्ता है। बिना मोलभाव किए माल खरीद लो तो लगता है कि लुट गए और मोलभाव करके खरीद तो लगता है कि लूट लिया।

मैंनें फेरी को बुलाया और कहा— तुम्हें मैंनें पहले कभी इस मोहल्ले में नहीं देखा, तुम कौन हो और कहां से आए हो?

उसने कहा— मैं उजाला हूं और स्वर्ग से आया हूं।

— तुम तो सोने के भाव बिका करते थे, तुम्हारी तो पूछ ही पूछ थी, ये क्या हाल बना लिया है तुमने? तुम स्वर्ग में थे तो फिर धरती पर क्या लेने आ गए?

— मैं आया नहीं, प्रभु के द्वारा धकियाया गया हूं।

— क्या स्वर्ग में भी प्रजातंत्र के कारण चुनाव होने लगे हैंं जो उजाले को धकियाया जा रहा है। तुम तो प्रभु के बहुत ही करीबी हुआ करते थे। साधक तो अंधेरे से लड़ने के लिए प्रभु की तपस्या करते हैं और प्रभु अंध्ेारे से लड़ने के लिए तुम्हारा वरदान देते हैं। तुम तो इतने ताकतवर हो कि एक दिए को तूफान से लड़वा दो, जितवा दो ं पर इस समय तो ऐसे लग रहे हो जैसे प्रेमचंद की कहानियों का किसी सूदखोर बनिए के सामने खड़ा निरीह किसान या पिफर आज के भारत का आत्महत्या करने वाला सरकारी आंकड़ों में चित्रित ‘खुशहाल' किसान।

— मेरी हालत तो किसान से भी बदतर है, किसान तो आत्महत्या कर सकता है, मैं तो वो भी नहीं कर सकता। मैं सभी जगह से इसी तरह से ठुकराया गया हूं। मेरे किसी टुकड़े को किसी ने शरण नहीं दी है। पुलिसवाले, वकील, नेता आदि सबने यही चाहा कि मैं अपने होने का भ्रम तो पैदा करूं पर खड़ा अांध्ेरे के पक्ष में रहूं। मेरी भूमिका अंधेरे के गवाह के रूप में रह गई है। मैं क्या करूं?

' यह कहकर वह रोने लगा।

मैं पहले से ही अवसाद में था, रोते हुए उजाले को देखकर मैं और अवसाद में आ गया और अवसाद से बचने के लिए मैंनें लक्ष्मी मैया की अराधना आरंभ की।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि सब दर्दों की एक दवा, सब तालों की एक चाबी— लक्ष्मी मैया की कृपा मुझे अवश्य प्राप्त होगी ओर मेरा अवसाद धुल जाएग। लोग बुद्धं शरणम्‌ गच्छामी का नारा लगाते हैं और मैं लक्ष्मी शरणम्‌ गच्छामी का नारा लगा रहा हूं। आप भी लगाएं।

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जाति ही पूछो साधु की

0प्रेम जनमेजय

आजकल संत और सीकरी का चोली दमन का साथ है। संतों ने ऐसे ‘पद' त्राण का अविष्कार कर लिया है जिनके प्रयोग से सीकरी के जितने भी चक्कर लगें पईयां घिसती नहीं हैं। जैसे जब—जब धर्म की ग्लानि होती है और प्रभु जन्म लेते हैं वैसे ही जब—जब ‘धर्म' की तथा ‘अधर्म' की हानि होती है, संत और सीकरी एक दूसरे के स्थल पर अवतरित होते हैं। संतों की कुटिया सीकरी का भ्रम देने लगी है तथा सीकरी जनसेवक की कुटिया का भ्रम देने लगी है।

ऐसे ही एक जनसेवक, एक साधु की, कुटिया पर पधारे और भिक्षाम्‌ देहि की पुकार लगाने लगे। वो साधु ही क्या जो जनसेवक की पुकार न सुने। इस साधु ने भी सुनी और जनसेवक को अपने कक्ष में बुला लिया। अनेक अंगरक्षकों/ अंगरक्षिकाओं से सुशोभित साधु का तेज जनसेवक की आंखों में चौंध उत्पन्न कर रहा था। साधु का चेहरा अस्पष्ट था। जनसेवक ने सत्ता के गलियारों में अनेक साधु देखे थे, अतः मान लिया कि इनका चेहरा कुछ वैसा ही होगा। जो समझ नहीं आए उसे मान ही उत्तम विचार है जैसे ईश्वर को न समझ आने पर समझा हुआ मान लेना।

जनसेवक ने प्रणाम किया और बोला— प्रभु मैं...

— हम जानते हैं कि तुम कौन हो, अपना अभिप्राय कहो।

— प्रभु मैं जानता हूं कि आपके आश्रम की पहचान, जाति,धर्म आदि आदि आप से उत्पन्न होता है और आप में ही समा जाता है। आप कीचड़ में कमल की तरह हैं या फिर हम जैसे नेताओं की तरह भ्रष्टाचार के कीचड़ में कमल की तरह हैं। फिर भी, मैं आपसे आपकी जाति जानना चाहता हूं। आपके नाम से तो क्या किसी भी संत के नाम से उसकी जाति का पता नहीं चलता है अपितु भ्रम ही होता है। प्रेमानंद, साधनांनद, तपस्यानंद, सहजानंद, प्रेम स्वामी आदि आदि नामों से जाना नहीं जा सकता कि साधु किस धर्म—जाति का है।

— बालक तुमने कबीर का दोहा सुना नहीं है कि— जाति न पूछो साधु कि पूछ लीजो ज्ञान।'

— सुना है प्रभु और कक्षा छह में पढ़ा भी है। पर प्रभु कबीर के समय में चुनाव नहीं होते थे और साधु से जाति न पूछकर ज्ञान न पूछना चल जाता था। उस समय के साधु सीकरी से ही दूर रहते थे इसलिए कुछ भी चल जाता था। पर प्रभु आजकल तो बिना साधु और जाति के चुनाव लड़ना सरल तो है पर जीतना असंभव है। जाति के विरोध में प्रगतिशील विचारधारा चुनाव के क्षेत्र में गायब हो जाती है। पार्टी ने मुझे आपके चुनाव क्षेत्र से लड़ने का टिकट दिया है, मैं समाज के जातिगत समीकरण को तो समझ गया हूं परंतु आपके जातिगत समीकरण को नहीं जान पाया हूं।'

— तुम मेरी जाति को क्यों जानना चाहते हो बालक?

— प्रभु आप तो सर्वज्ञानी हैं, जानते ही हैं कि जाति का बंधन मां—बेटे, पिता—पुत्र आदि के बंधन से भी सशक्त होता है। इस बंधन के न होने से द्रोणाचार्य ने एकलव्य को ज्ञान नहीं दिया था तथा इसके कारण ही पांडवों ने कर्ण को नहीं पहचाना था। सत्ता के गलियारों में इससे चिपकाउ बंधन और कोई नहीं है। ऐसा चिपकाउ बंधन चुनाव जीतने की गारंटी होता है।

— पर मेरी जाति जानने से तुम्हेें क्या लाभ होगा?

— प्रभु आप इस क्षेत्र की शक्ति हैं। आपके अनुयायी, जो हैं तो विभिन्न जातियों के पर वो सब जातियां आप में समाकर समुद्र की तरह विशाल हो जाती हैं, एकाकार हो जाती हैं। चारों ओर आपके अनुयायी फैले हुए हैं। ये आपके हजारों मुख हैं। आप जो बोलते हैं, जो चाहते हैं, वही इन मुखों से उच्चरित होता है। जो आपकी जाति है वही इनकी जाति है। यदि आपकी जाति और मेरी जाति एक हुई तो मुझ घूरे के दिन बदल जाएंगें। आपकी जाति का हूं, ऐसा जानकर मेरा मन मयूर नाचने लगेगा, आपमें मेरी श्रद्धा और भक्ति बढ़ जाएगी। उसी अनुपात में आपका मेरे प्रति प्रेम भी बढ़ेगा। आपका प्रेम बढ़ेगा तो आपके भक्तों का भी प्रेम बढ़ेगा। और प्रेम उधार की कैंची चाहे हो जाए पर जाति का फेविकोल होता है।'

— बालक हम प्रसन्न हुए। तुम बहुत ही समझदार हो और मुझे गर्व है कि मेरी जाति में तुम जैसा रत्न उत्पन्न हुआ है। तुम जाति के महात्मय को अच्छी प्रकार से जानते हो और मुझे विश्वास है कि किसी भी अवसर पर तुम मुझे धोखा नहीं दोगे। मैं तुम्हारे बारे में सब जानता था और तुम्हे चुनाव का टिकट देने की सिफारिश भी मैंने इसी आधार पर की थी,पर जानता नहीं था कि जाति— पुराण का तुमने इतना व्यापक अध्ययन किया हुआ है। जान लो वत्स कि राजनीतिक जाति, जिसे सांसारिक राजनैतिक दल के नाम से जानते हैं, से भी इस जाति की ताकत बड़ी है। मैं जान गया हूं कि चंद टरे, सूरज टरे पर तुम नहीं टर सकते हो। तुम मेरी कृपा को अवश्य पहचानोगे और उस कृपा से मुक्त होने के उपाय भी करते रहोगे। जाओ वत्स निर्भय होकर चुनाव रणक्ष्ेात्र में कूद जाओ।'

साधु ने अपनी जात बता दी।

जनसेवक चुनाव जीतकर जनता को अपनी जात बताने लगा।

जाति ज्ञान बड़े—बड़े असमंजस को पल में टाल देता है। साक्षात्कार में आए हजारों प्रत्याशियों में से नौकरी किसे देनी है, मान—सम्मान/ पुरस्कार किसे बांटने हैं, किस लेखक को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करना है, वोट किसे देना है, किससे शादी—विवाह रचाना है, किसके साथ दोस्ती करनी है, जैसे अनेक हजारों असमंजसों का रामबाण समाधन है जाति —ज्ञान।

वे मूर्ख और अज्ञानी हैं जो जाति —मुक्त भारत की कल्पना करते हैं। बरसों से भारत में मुक्ति नामक वस्तु की तलाश जारी है। इसके लिए भयंकर तपस्याएं की जाती रही हैं और माना गया कि मुक्ति मिल गई। मुक्ति मिली तो सही पर स्थायी मुक्ति कभी नहीं मिली। व्यक्ति को तो मुक्ति मिल गई पर समाज को मुक्ति कभी नहीं मिली। राम ने अपने समय के रावण से स्वयं तो मुक्ति पा ली पर बाद में अनेक रावण पैदा हुए और राम पैदा नहीं हुए। कबीर ने अपने समय में बहुत कोशिश की कि साधु का ज्ञान पूछा जाए, उसकी जाति न पूछी जाए पर उसे मुक्त रखा जाए। पर मुक्ति कहां मिली?

यह देश जाति मुक्त हो गया तो हमारी परंपराओं, हमारी अस्मिता का क्या होगा? वसुधैव कुटुंबकम वाले देश के दूसरे, हथिया, दांत कैसे प्रकट होंगे?

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नाई नाई कितने बाल

0 प्रेम जनमेजय

इन दिनों चुनाव हो रहे हैं। वैसे भारत में चुनाव ऐसा मौसम है जो किसी भी समय अपनी अनुभूति करा सकता है। आप बिना छाते के है। तो यह बरस जाएगा और छाताधारी हैं तो आप इसे लादे—लादे फिरेंगें और यह छाते को निरर्थक सिद्ध करता फिरेगा। चुनाव भारतीय राजनीति की सामूहिक मुंडन ऋतु है। इस ऋतु में जिसे देखो , वह अपने उस्तरे से मूंडने में लगा होता है । जिसे मूंडने का अवसर नहीं मिल रहा है , वह किसी मूंडने वाले का दामन थामे चुनाव —सागर पार करने का जुगाड बिछा रहा है । चुनाव का यह सागर अत्यधिक बहुमूल्य है , अनेक रत्न जो इसमें छिपे हुए है । इन रत्नों को पाने के लिए ज्ञानीजन चुल्लु भर सागर में भी गोते लगाने को तत्पर हैं । अनेक विष्णु मनमोहिनी रूप धारण किए अमृत हड़पने की शतरंज बिछाए विराजमान है ।

पूरी भारतीय राजनीति की व्याख्या दो शब्दों में की जा सकती है —— नाई और जजमान । नाई उसें कहते हैं जो मूंडने में जन्मजात सिद्धहस्त होता है और जजमान उसे कहते हैं जो यह जानते हुए भी कि वह मुंडा जा रहा है , मुंडता रहे । वैसे नाई की हैसियत जजमान से कम आंकी जाती है , पर वह इतनी चतुराई से मूंडता है कि दिनों दिन उसकी हैसियत बढती जाती है । नाई का दावा होता है कि वह अपने जजमान की खूबसूरती को बढाने वाला सेवक है । ऐसे सेवक को बाबू गुलाबराय ने नापिताचार्य भी कहा है । हमारे ऐसे सेवक हर पांच साल बाद , और आजकल सुना है , इनके मन में इतना सेवा भाव भर गया है कि कुछ महीने बाद ही सेवार्थ उपस्थित हो जाते हैं । आप को जरूरत हो न हो , यह आपकी सेवा में हाज़िर होकर , करबद्ध होकर प्रार्थना गीत गाते हैं ——

ऐ मालिक तेरे बंदे हम

ऐसे हों हमारे सुकर्म

नेकी से हटें और बदी पर चलें

ताकी घोटाले हों भारी भरकम ।

ये चुनाव घना आ रहा

मेरा मतदाता घबरा रहा

दे इसको अकल

वोट दे बस हमें

ताकि हंसते हुए देश लूटे हम ।

ऐ मालिक तेरे बंदे हम....

और बेचारा मालिक इतना दयालू है कि अपने ही हत्यारों को ताज पहनाता है । अपना खून चूसने के लिए प्याला पेश करता है । तो हे देश के संतों , इस महान देश के मालिको , हे जजमानों तुम्हारे नाई अपने हथियारों से लैस आ गए है। इनकी आरती उतारो , इन बैलोंं को निमंत्रण दो कि वह तुम्हें मारें ।

लोग सावन के अंधे होते हैं , मैं इन दिनो चुनाव का अंधा हूं , मुझे चारों ओर चुनाव ही चुनाव नजर आ रहा है । मैं सब्जी वालें से पूछ बैठा ——— और भाई क्या चल रहा है , इस बार क्या लगता है ? ''

वह बोला —— ‘‘ बाबू जी इस समय तो महंगाई चल रही है । टमाटर बीस रुपए पाव हैं , प्याज तीस का पाव हैं और भिंडी दस रुपए पाव है । लगता है यह है कि महंगाई और बढेगी । सब्जी के बाद दालें बढ़ेंगी और इंसान सस्ता होगा। ''

पहले सब्जी वाला किलो का भाव बताता था आजकल पाव का बताता है , जानता है कि किलो की औकात बाबू की नहीं है । पर विश्व के सबसे बडे प्रजातंत्र की आम जनता से मैं सब्जी का नहीं देश की राजनीति का भाव पूछ रहा था , और उस अज्ञानी को सब्जी और राजनीति में फर्क पता नहीं था । शायद ऐसे ही अज्ञानियों के समूह को जनतंत्र कहते हैं ।

मैंनें कहा —— भई , मैं सब्जी की नहीं देश की राजनीति की बात कर रहा हूं । और तुम हो कि सब्जी के भाव बता रहे हो । ''

—— एक ही बात है बाबू जी । आजकल किस नेता का भाव नहीं लगा हुआ है । कुछ के अभी लगे हुए हैं कुछ के चुनाव के बाद लग जाएंगें । कुछ अभी किलो के भाव बिक रहे हैं , कुछ बाद में पाव के भाव बिकेंगें । अभी होलसेल की मंडी लगी हुई है कुछ दिनों बाद खुरदरी हो जाएगी । ''जिसे मैं अज्ञानी समझ रहा था , वह तो महाज्ञानी निकला । प्रजातंत्र की ऐसी सब्जी की आत्मापूर्ण व्याख्या तो अच्छे से अच्छा अचार्य नहीं कर सकता है ।

——— तो इस बार वोट किसे दे रहे हो ? ''

——— जो कुछ दे देगा उसे हम भी दे देंगें ।

——— और नहीं देगा तो ? ''

——— अपनी सब्जी बेचेंगें । ''

——— तो अपना बहुमूल्य वोट ऐसे ही बेकार कर दोगे ? ''

——— बहुमूल्य है इसलिए तो बिना लिए कुछ वोट नहीं देंगें । बाबूजी आप ही सोचो कि यह कहां का इंसाफ है कि वे तो हमारे वोट के बल पर जीतकर करोडों साफ करें और उसका हमें झूंगा भी देने को तैयार न हों । हम दस रुपए की चोरी करें तो पुलिस वाले के डंडे खाएं , जेल जाएं और वे करोडो़ं का घोटाला करें तो जे0पी0सी के चोर रास्ते से निकल जाएं और जेल भी जाएं तो चुनाव जीत और खाने की जुगत भिड़ाएं ।

——— पर भई तुम्हारे वोट न देने से क्या होगा । संसद में तो वह अपने वोट के बल से भी पहुंच सकते हैं । यही तो हमारे जनतंत्र की खूबी है कि सिंगल हड्‌डी की पार्टी वाला भी दावा करता है कि उसे मंत्री बनने का जनादेश मिला है । ऐसे में तुम्हारे वोट की औकात ही क्या है ? ''

——— बाबू बूंद बूंद से घडा भरता है और हो सकता है कि एक दिन यह घडा भी भर ही जाए ।'' इस बीच उसका ग्राहक आ गया और मुझे फालतू समझ उसने उधर ध्यान दिया ।

यह चुनाव का मसला भी कितना भटकाता है । मैं बात कर रहा था नाई की और बीच में आ गया सब्जी वाला । मैं जानना चाहता हूं कि इस चुनाव के नतीजे क्या होंगें और वह कह रहे हैं कि जजमान बाल सामने आ जाएंगें ।

और यदि जजमान गंजा हो चुका हो तो ?

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दुष्टों के भगवान्‌, हे रावण!

0प्रेम जनमेजय

आजकल मेरा मन त्यौहारों के कारण घबराने लगा है। त्यौहार खुशियों को कम, आशंकाओं को अधिक जन्म देने लगे हैं।

दशहरे का दिन करीब था और मेरा मन घबरा रहा था। मेरा मन यह सोचकर नहीं घबरा रहा था कि रावण मारा जाएगा कि नहीं, रावण—दहन होगा कि नहीं या फिर दशहरे के दिन रावण का दहन तो न हो पाए उसके स्थान पर कोई आतंकवादी अनेक मासूमों को बम से ही उड़ा दे। मेरी चिंता सार्वजनिक नहीं, व्यक्तिगत थी। आजकल वैसे भी सामूहिक सोच का नहीं व्यक्तिगत सोच का समय है। दूसरा जाए भाड़ में, तूं तो मॉल—संस्कृति में मस्त रह।

मेरा मन हर दशहरे पर घबराता है क्योंकि इसके बाद करवा चौथ, दीपावली और भाई दूज जैसे त्योहार आते है। आप न मानाएं तो समाज में आपकी नाक कटती है और मनाएं तो जेब कटती है।

पर इस बार दशहरे पर मन अधिक घबरा रहा था।

मेरी बिटिया का पिछले दिनों विवाह हुआ है। आने वाला दशहरा इस बात की सूचना दे रहा था कि विवाह के बाद बिटिया का पहला करवा चौथ, पहली दीपावली और पहला भाई दूज का त्यौहार आने वाला है। हम जानते ही हैं कि जीवन में पहले प्रेम, पहली कमाई, पहले भ्रष्टाचार, पहली संतान आदि का कितना महत्व है।

पर हमारे जीवन में ये जो पहला आ रहा था वो मुझे ऐसे ही भयभीत कर रहा था जैसे अंधेरे में डायन भयभीत करती है। महंगाई डायन मेरे सामने मुंह बाए खड़ी थी और अनिश्चितिता का अंधेरा ऐसे घेर रहा था जैसे आजकल न्यायालयों में मुकदमों को अनिश्चितताओं ने घेरा हुआ है।

महंगाई बढ़ गई है यह तो सभी जानते हैं पर उसके साथ—साथ लोगों की अपेक्षाएं कितनी बढ़ गई हैं इसे तो वो तन ही जानता है जिस तन लगती है। हमारे तन लगी थी इसलिए हम जान रहे थे। आजकल ब्रैंडेड का जमाना है— बैं्रडेड शर्ट, होटेल, रेस्तरां, जूते, चप्पले, डिजाईनर साड़ी—सूट आदि आदि। ब्रैंडेड अथवा डिजाईनर का अर्थ होता है— जो वस्तु पांच रुपए कि मिल सकती हो उसे पचास में बेचा—या खरीदा जाए। ब्रेंडेड वस्तु हमारे सामाजिक स्तर का निर्धारण करती है और इसे पाने के बाद मध्यवर्गीय जीव स्वयं को उच्चवर्गीय आत्मा समझने लगता है। उसके पांव जमीन पर नहीं पड़ते हैं और हाथ क्रेडिट कार्ड से सुशांभित होते हैं। इन दिनों ऐसे ही बें्रडेड आईटम की खरीददारी की सूची घर में बन रही थी। आखिर अपनी इज्जत का सवाल था और लड़के वालों ने भी बता दिया था कि उनकी इज्जत का सवाल भी है।

मेरी समधन ने बड़े प्यार से मुझे कांता सम्मित उपदेश देते हुए कहा था— भाई साहेब पिछला जमाना तो है कि नहीं आठ दस बच्चे होते हों। एक दो ही होते हैं। जो देना है इन्हीं को देना है। समय पर दे ंतो शोभा बढ़ती है।'

भाई साहब समझ गए क्योंकि वे अक्लमंद हैं और सुंदरियों के इशारों को समझते हैं। हम चाहे मॉल — संस्कृति का लिबास ओढ़े हुए हैं पर हमारी सोच परचूनिए की दूकान की है। हम पहनावे में गतिशील हैं पर अपनी सोच में पत्थर।

तो घर में अपनी शोभा बढ़ाने की योजना चल रही थी अतः मैं घर से बाहर चला गया।

घर से कुछ देर भक्तों की भीड़ दिखाई दी। एक व्यक्ति प्रवचन—सा कर रहा था, परंतु पहनावे से कोई महात्मा, बाबा या बापू जैसा ‘सादगी' भरा नहीं लग रहा था। उसने अमूल्य आभूषणों से युक्त चमकीले वस्त्र धारण किए हुए, अंगुलियां रत्न जड़ित अंगूठियों से सुसज्जित थीं। कानों में कुंडल और गले में वैजयंति माल थी। यानि जैसा वह अंदर से था वेसा ही बाहर से था, उसने सादगी का आवरण नहीं ओढ़ा हुआ था।

वह कह रहा था— हे दुष्ट भक्तों ! बहुत हो चुकी हम दुष्टों की उपेक्षा, बहुत मूर्ख बन चुके हम। हमारा दुष्ट— समुदाय इतनी बड़ी संख्या में विश्व के कोने — कोने में फैला हुआ है। कुछ ोग कहते हैं कि सतयुग और त्रेता में हमारी संख्या कम थी, जो गलत बयानी है। चलो माना, पर कलयुग में तो हमारी जनसंख्या संतों से कहीं अधिक है। इतनी अधिक है कि संतों में भी दुष्ट समुदाय ने अपनी जड़ें जमा ली हैं। ऐसे में कलयुग को हमारा युग है। हमारे युग में, हमारे राज में यदि हमारी ही निंदा हो, हमें लताड़ा जाए और ‘सत्यमेव जयते' जेसे नारे लगाए जाएं तो समझ लो कि हम नपुंसक हैं। यह युग हमारा युग है और इस युग में राज करने का अधिकार हमारा है।

कभी आपने सोचा कि हम कलयुग में भी इतने क्यों दलित हैं, दबे हुए और निरीह क्यों है। क्यों मुट्‌ठी भर लोग न्याय और ईमानदारी के नाम पर हमारा शोषण कर रहे हैं? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हम दुष्टों का कोई भगवान नहीं है और इस कारण कोई मंदिर—मस्जिद या गिरजा नहीं है। आज हालात यह हैं कि ‘सज्जनों' के करोड़ों देवी—देवता ओर ईश्वर हैं और अनेक मंदिर है। ये मंदिर अपार संपदा का साधन हैं। हमें धन प्राप्त करने के लिए कई पापड़ बेलने पड़ते हैं जबकि संतों को बिना पापड़ बेले धन मिल जाता है। जब भी हमपर कोई कष्ट आता है तो हमें सज्जनों द्वारा निर्मित मंदिरों में, उनके भगवानों के समक्ष माथा झुकाना पड़ता है, चढ़ावा चढ़ाना पड़ता है। हमारे खून पसीने की कमाई और लाभ उठाएं सज्जनों के भगवान, ये हमारी नपुसंकता का प्रतीक है कि नहीं। दुष्टों ! हम पर धिक्कार है कि इतने युग बीत गए और हम अपने लिए एक भी ईश्वर नहीं गढ़ सके, उसका एक भी मंदिर नहीं बना पाए।

यदि हम अभी नहीं जागे तो ये मुट्‌ठीभर सज्जन हमारा शोषण इसी प्रकार करते रहेंगे। यह बड़े हर्ष का विषय है कि इस समय भारत में ही नहीं पूरे विश्व में लूटपाट, हत्या, सांप्रदायिक दंगों, आतंकवाद आदि का बाजार गर्म है। और आप तो जानते ही हैं कि जब लोहा गर्म हो तो उसपर चोट कर देनी चाहिए। ठंडे लोहे पर तो कविता ही लिखी जा सकती है। जो बाजार गर्म है, उसे हमें और गर्म करना है। आप सब तो जानते ही हो कि यह बाजार युग है। इस युग में बाजार ने हमारी ताकत बड़ा दी है। कभी होता था पानी बिन सून, आजकल पूंजी बिन सब सून है। बिना धन के सच्चा न्याय नहीं मिलता, पत्नी सच्चा प्रेम नहीं करती, बच्चे मा—बाप की कद्र नहीं करते और विद्यार्थी को विद्या तक नही मिलती। कभी होती होगी विद्या धन जिसे चोर चुरा नहीं सकती पर आजकल बिना धन के विद्या कहां? लोहा गर्म है। हर क्षेत्र में हमारे भक्तों की संख्या बढ़ रही है। हमें इस लोहे को निरंतर गर्म रखना है। हमें देखना है कि भ्रष्ट नेताओं की संख्या में निरंतर वृद्धि हो। हमें अच्छे और भद्र लोगों का मनोबल निंरतर तोड़ना हैं । हमें उनके सामने ऐसी व्यवस्था पैदा करनी है जो अच्छे—अच्छे सज्जनों को अवसाद में डाल दे और वो विवश होकर कहे कि अब कुछ नहीं हो सकता। एक अवसाद भरा वातावरण तैयार करना है , हमें। हमें देखना है कोई भला आदमी अपना सर उठाकर न चल सके। सच्चा कलयुग तभी आ सकता है, जब किसी को किसी पर विश्वास न रहे। हमें उन शक्तियों से सावधान रहना है, उनका मनोबल तोड़ना है जो धरती पर सच्चाई स्िाापित कर इस स्वर्ग बनाना चाहते हैं। हमें स्वयं तो दुष्ट—संहिता का पालन करना ही है, ये भी देखना हे कि सज्जन भी इसका पालन करें।सज्जनों को दुष्ट बनाने के लिए यदि हमें सज्जनता का लबादा भी ओढ़ना पड़े तो घबराना नहीं चाहिए । हमें नहीं भूलना चाहिए कि सज्जनों ने किस किस तरह के लबादे ओढ़कर हम दुष्टों को अनेक बार छला है।

आइए, आज के इस शुभ अवसर पर हम दुष्टों के भगवान का निर्माण करें। वैसे तो दुष्टों के भगवान बनने की हमारे अनेक पूर्वजों में ताकत है। कंस, भस्मासुर, अहि रावण, बालि , रावण जैसे अनेक दुष्टभाावों ने सज्जनों के भगवानों को समय समय पर चुनौतियां दी हैं और धोखे के कारण शहीद हुए। परंतु दुष्टों का भगवान बनने के जो गुण रावण में हैं , वे किसी में नहीं। रावण ने न केवल अपहरण जैसी सुदृढ़ परंपरा को चुनौती का आधार बनाया अपितु अपने जीते जी अपने अधिकार को नहीं छोड़ा। रावण ने संसार की अपार धन संपत्ति को अपने कदमों में बिछाया और सज्जनों को विवश किया कि वे उसकी जय जयकार करें। रावण उस शक्ति का नाम है जिसको सच्चाई नहीं मार सकी अपितु भाई के धोखे ने उसे मारा। रावण मरा नहीं शहीद हुआ है। उसने अंत समय तक दुष्टता के ध्वज को लहराए रखा है।

हमें एक दुष्टालाय का निर्माण करना होगा। इस दुष्टालय के मुख्य भाग में रावण की रतनजटित, सोने की मूर्ति स्थापित की जाएगी जिसके समाने सज्जनों के भगवानों की मूर्तियां फीकी लगेंगी। मूर्ति बनाने के लिए हमें धन की आवश्यक्ता होगी और जो निश्चित ही भ्रष्ट मंत्रियों, पुलसियों, ठेकेदारों, उद्योगपतियों, सरकारी कर्मचारियों आदि से प्राप्त होगा । हमारे दुष्टालयों में वे सब होगा जो सज्जनों के मंदिर में उपलब्ध नहीं है। हमारे यहां दूध—घी की नहीं सुरा—सुंदरी की नदियां बहेंगी। ऐश के सभी सामाना होंगें।हमारा भगवान किसी दुष्ट की परीक्षा नहीं लेगा अपितु सज्जनों की लेगा। जो दुष्ट —प्रभु की शरण में आएगा उसका कल्याण होगा।

इस बार दशहरे पर रावण की हत्या नहीं होगी, उसका दहन नहीं होगा, अपितु उसका अवतार होगा।

इस घोषणा ने मेरा सर चकरा दिया। वैसे ही सज्जनों के वेश में दुष्टों की कमी नहीं है, यदि दुष्ट साक्षात हो गए तो क्या होगा ? अभी तो दुष्ट सज्जनता के वेश में शालीनता से पेश आते हैं, यदि ये वेश उतर गया तो ?

मैं वहां से चल दिया। कुछ देर गया ही था कि देखा एक फेरी वाला आवाज लगा रहा था— उजाला ले लो, उजाला ले लो, बहुत सस्ता और उजला उजाला ले लो। पचास परसेंट डिस्काउंट पर उजाला ले लो।'

डिस्काउंट सेल तो बड़े—बड़े मॉल पर लगती है या उनकी देखा—देखी किसी छोटी दुकान पर। किसी फेरीवाले को मैंनें डिस्काउंट सेल लगाते हुए नहीं देखा। हां मोल—भाव करते जरूर देखा है। मोल—भाव तो हम भारतीयों की पहचान और आवश्यक्ता है। बिना मोलभाव किए माल खरीद लो तो लगता है कि लुट गए और मोलभाव करके खरीद तो लगता है कि लूट लिया।

मैंनें फेरी को बुलाया और कहा— तुम्हें मैंनें पहले कभी इस मोहल्ले में नहीं देखा, तुम कौन हो और कहां से आए हो?

उसने कहा— मैं उजाला हूं और स्वर्ग से आया हूं।

— तुम तो सोने के भाव बिका करते थे, तुम्हारी तो पूछ ही पूछ थी, ये क्या हाल बना लिया है तुमने? तुम स्वर्ग में थे तो फिर धरती पर क्या लेने आ गए?

— मैं आया नहीं, प्रभु के द्वारा धकियाया गया हूं।

— क्या स्वर्ग में भी प्रजातंत्र के कारण चुनाव होने लगे हैंं जो उजाले को धकियाया जा रहा है। तुम तो प्रभु के बहुत ही करीबी हुआ करते थे। साधक तो अंधेरे से लड़ने के लिए प्रभु की तपस्या करते हैं और प्रभु अंध्ेारे से लड़ने के लिए तुम्हारा वरदान देते हैं। तुम तो इतने ताकतवर हो कि एक दिए को तूफान से लड़वा दो, जितवा दो ं पर इस समय तो ऐसे लग रहे हो जैसे प्रेमचंद की कहानियों का किसी सूदखोर बनिए के सामने खड़ा निरीह किसान या पिफर आज के भारत का आत्महत्या करने वाला सरकारी आंकड़ों में चित्रित ‘खुशहाल' किसान।

— मेरी हालत तो किसान से भी बदतर है, किसान तो आत्महत्या कर सकता है, मैं तो वो भी नहीं कर सकता। मैं सभी जगह से इसी तरह से ठुकराया गया हूं। मेरे किसी टुकड़े को किसी ने शरण नहीं दी है। पुलिसवाले, वकील, नेता आदि सबने यही चाहा कि मैं अपने होने का भ्रम तो पैदा करूं पर खड़ा अांध्ेरे के पक्ष में रहूं। मेरी भूमिका अंधेरे के गवाह के रूप में रह गई है। मैं क्या करूं?

' यह कहकर वह रोने लगा।

मैं पहले से ही अवसाद में था, रोते हुए उजाले को देखकर मैं और अवसाद में आ गया और अवसाद से बचने के लिए मैंनें लक्ष्मी मैया की अराधना आरंभ की।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि सब दर्दों की एक दवा, सब तालों की एक चाबी— लक्ष्मी मैया की कृपा मुझे अवश्य प्राप्त होगी ओर मेरा अवसाद धुल जाएग। लोग बुद्धं शरणम्‌ गच्छामी का नारा लगाते हैं और मैं लक्ष्मी शरणम्‌ गच्छामी का नारा लगा रहा हूं। आप भी लगाएं।

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