खून के घूट sushil yadav द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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खून के घूट

1. जो मेरा पता जानते .....सुशील यादव

२१२ २१२ २१२ २१२ २१२ २१२

खून के घूट पीते ! नहीं जहर का, जायका जानते

भटकते क्यूँ भला शहर में, जो कि मेरा पता जानते

लोग हाथो उठाए फिरते हैं, मुझे रात दिन जान लो

न 'फतवे' वो दिल उतारते, महज वे मशवरा जानते

फूल की महक होती, बगीचे खुशगवार होते यहाँ

कीट-परिंदों के तुम रहनुमा, तितलियां पालना जानते

कौन ये रात दिन फूकता है, बिगुल आशनाई का यहाँ

चोट जो खाए होते इधर, तो सही रास्ता जानते

ता-कयामत तेरा इंतिजार, हम को भी वजन सा लगे

हम 'सुशील' हर वो 'पाप' धोते, चुनाचे खता जानते

२१-७-१५

२५.७.१५

२११२ २११२ १२२२

2. हिल गई दीवार ....... सुशील यादव .....

तंग गली दिल की कभी सजा देते

मुड़ के ज़रा सा तुम मुस्कुरा देते

कुछ तसल्ली हो रहती सुकून होता

अगर खताओ की मुझे सजा देते

दिन गिन के काट रहे यहाँ खौफ में

आहट या आने की इत्तिला देते

हिल गई दीवार पुराने रिश्तों की

नीव को फिर से अब हौसला देते

तेरे शहर घूम रहा हूँ आवारा

काश ठिकाना, अपना पता देते

पास बचे हैं बस मंजिलो के निशा

मंजिल तक पहुचने रास्ता देते

सीख नहीं पाए हमी हुनर कसम से

चाहत के दांव तुझे सिखा देते

***

3. हो सके तो जिन्दगी ले के आओ .....

हर निगाह चमक, हरेक होठ, हंसी ले के आओ

हो सके, कम्जर्फों के लिए, जिन्दगी ले के आओ

इस अँधेरे में, दो कदम, न तुम चल पाओ, न हम

धुधली सही, समझौते की, रौशनी लेके आओ

कुछ अपनी हम चला सके, कुछ दूर तुम्ही चला लो

सोच है, कागजी कश्ती है, नदी ले के आओ

चाह के पढ़ नहीं पाते, खुदगर्जों का चेहरा

पेश्तर नतीजे आयें,रोशनी ले के आओ

सिमट गए सभी के, अपने- अपने दायरे नसीब

पारस की जाओ ढूढ कहीं, 'कनी' ले के आओ

खुदा तेरे मयखाने, कब से प्यासा है रिंद

किसी बोतल गर बची हो, 'वो', बची ले के आओ

सुशील यादव

२७.७.१५

4. हमारी मुखबरी पे ....

२१२२ २१२२ 2१२२ १२२

कौन ये मेरी तन्हाई को, सदा दे रहा है

मुहब्बत का,बेपनाह मुआवजा दे रहा है

भूलना मै चाहता हूँ, तंग गलियां सितमगर

वो बुला के बारहा मुझको, पता दे रहा है

दाग-ए- दामन,हर किसी से रखते आये छुपाये

दिल कहीं अब टूटने की, इत्तिला दे . रहा है

बंद कर दो, काल- कोठरियों में, ऐ नामुरादों

देने वाला झिर्रियों से,ताजी सबा दे रहा है

ये इनाम - इज्जत का अब, क्या करेगा 'सुशील'

अब खुद्दारी के खिलाफ ये, फैसला दे रहा है

हैसियत उसकी कहाँ, कातिल तलाशा करे वो

बस हमारी मुखबरी, 'दुनिया', हिला दे रहा है

सुशील यादव ४.११.१५

5. घनाक्षरी/ गजल .....सुशील यादव .....

कभी खुद को खुद से,रूबरू हो कर देखो

मिट्टी में बारिश की,खुश्बू हो कर देखो

रिश्ते टूटे - बिखरे,दिखते हैं आसपास

जोड़ने की नीयत हो,शुरू हो कर देखो

बंद कमरा, तल्खी,घुटता हुआ सा दम

खुली हवा में सर्द आरजू हो कर देखो

जो चल जाए गहरे,वो आसान तिलस्म

जग जो छा जाए सही,जादू हो कर देखो

कहाँ से कहाँ दुनिया,देखते- देखते चली

किसी कोने में खड़े हो, बाजू हो कर देखो

सुशील यादव

२१२२१ २१२२१

6.गर्व की पतंग ....

गौर से देख, चेहरा समझ

आइने को, न आइना समझ

सीख लेना, सियासत का खेल

सादगी- संयम, अपना समझ

गर्व की, कब उडी कोई पतंग

बेरहम बहुत, आसमा समझ

शोर गलियों में,नाम दीवार

चार दिन खुद को,फरिश्ता समझ

चाहतों को लुटा खुले हाथ

नेमत खुदा यही, अता समझ

स्याह अँधेरा रौशन करे जो

ज्ञान को सर झुका 'दिया' समझ

रात हो, जुल्म, खत्म होती है

घूमता पास, सिरफिरा समझ

लूटने वाले चल दिए लूट

शोर करना, कहाँ-कहाँ समझ

पेड़ की छाँव,बैठ तो 'सुशील'

सोच 'माजी', उसे तन्हा समझ

२२१२२ २२१२ २

7.

ये जख्म मेरा, भरने लगा है

शह्र, लो नाम से,डरने लगा है

विष के प्याले, हाथो नहीं थे

देह में जहर सा,उतरने लगा है

हाथ किस के आया,बीता जमाना

'पर' समय कोई, कुतरने लगा है

भूल रहने की, टूटी कवायद

अनजान अक्स उभरने लगा है

***

8.

२ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २

मै सपनो का ताना बाना यूँ अकेले बुना करता हूँ

मंदिर का करता सजदा,मस्जिद भी पूजा करता हूँ

मिलती फुरसत मुझको,जिस दिन दुनिया के कोलाहल से

राम रहीम की बस्ती, अलगू -जुम्मन ढूढा करता हूँ

जब- जब बादल और धुए, बारूदी खुशबू मिल जाती

उस दिन घर आँगन छुप-छुप,पहरों मै रोया करता हूँ

मजहब धर्म के रखवाले, इतने गहरे उतर न पाते

जिस सुलह की गहराई, मै मोती साफ चुना करता हूँ

हम सब ले चलते हैं, तर्कों के अपने-अपने मुखड़े

मेरी शक्ल से तुम हो वाकिफ, किस दिन मै छुपा करता हूँ

सुशील यादव

9.

मन तपा हर पल यादों में

छू कर देखो अंगारों को

हरा भरा है बाग़ बगीचा

अंतस की सूखी खेती है

हाथो से लो उम्र फिसलती

मुट्ठी भर सांस की रेती है

दर्प चुभा हो जिसे सुई सा

क्या उडाए इन गुब्बारों को

कितने ढोल- धमाके पीटें,

उड़ा ले कितने रंग-गुलाल

मन का परहेज मन ही जाने

कितना अधीर कहाँ मलाल

अमन धरती, अम्ल की बारिश

सोच उलीचो अब, क्षारों को

लिख के कोई क्या समझाये

मन की बात अधूरी लगती

सुख पहिया जो घूम गया था

टूटी उसी की धूरी लगती

विश्वासो का फल मिल जाए

संयम के पहरेदारों को

10.

हर निगाह चमक, होठ, हंसी ले के आओ

हो सके, कमजर्फों को, जिन्दगी ले के आओ

इस अँधेरे में दो कदम, न तुम चल सकोगे न हम

धुधली सही, समझौते की, रोशनी ले के आओ

कुछ तो, खुदगरजों का, चेहरा पढ़ा जाए

खुदा के वास्ते और, तीरगी ले के आओ

कब तक सिमटे- दायरे, रहेंगे नसीब

कहीं से पारस की, 'कनी' ले के आओ

तेरी महफिल में कब से, प्यासा है रिंद

किसी बोतल, कहीं हो, बची ले के आओ

11

हम सब लेकर चलते हैं तर्कों के बेसबब मुखौटे

मन तपा हर पल यादों में

छू कर देखो अंगारों को

हरा भरा है बाग़ बगीचा

अंतस की सूखी खेती है

हाथो से लो उम्र फिसलती

मुट्ठी भर सांस की रेती है

दर्प चुभा हो जिसे सुई सा

क्या उडाए इन गुब्बारों को

कितने ढोल धमाके पीटें,

उड़ा ले कितने रंग गुलाल

मन का परहेज मन ही जाने

कितना अधीर कहाँ मलाल

अमन धरती, अम्ल की बारिश

ज़रा सोच में,रख क्षारों को

लिख के कोई क्या समझाये

मन की बात अधूरी लगती

सुख पहिया जो घूम गया था

टूटी वही अब धूरी लगती

विश्वास में अब भी लिए रखा

संयम के पहरेदारों को

12

हर निगाह चमक, होठ हंसी ले के आओ

हो सके कमजर्फों को जिन्दगी ले के आओ

इस अँधेरे में दो कदम न तुम चल सकोगे न हम

धुधली सही समझौते की रोशनी ले के आओ

कुछ तो खुदगरजों का चेहरा पढ़ा जाए

खुदा के वास्ते और तीरगी ले के आओ

कब तक सिमटे दायरे रहेंगे नसीब

कहीं से पारस की कनी ले के आओ

तेरी महफिल में कब से प्यासा है रिंद

किसी बोतल कहीं जो बची ले के आओ

13

गजल घनाक्षरी.,,,,,,,,

'पर' जिनके कटे थे,वो परिंदे कहाँ गए

हाँ,सीधे सादे गाँव के, बाशिंदे कहाँ गए

जमीन खा गई उसे,कि निगला आसमान

निगरानी शुदा थे वो, दरिन्दे कहाँ गए

हाँ यही है वो जगह,कल्पना का लोक था

सब चीजें मिल रही,घरौंदे कहाँ गये

मजहब की जमीनो में,ये बारूद और धुँआ

ढेर लगी लाशो फिर,जिन्दे कहाँ गये

तेरे होने का सुकून,रहता कहीं भीतर

सर रखे जहाँ रोते,वो कंधे कहाँ गए .,,,, सुशील यादव

14

घनाक्षरी ६

सहूलियत की खबर.....

तेरी उचाई देख के, कांपने लगे हम

अपना कद फिर से, नापने लगे हम

हम थे बेबस यही, हमको रहा मलाल

आइने को बेवजह, ढांपने लगे हम

बाजार है तो बिकेगा,ईमान हो या वजूद

सहूलियत की खबर,छापने लगे हम

दे कोई किसी को,मंजिल का क्यूँ पता

थोडा सा अलाव वही, तापने लगे हम

वो अच्छे दिनों की,माला सा जपा करता

आसन्न खतरों को,भांपने लगे हम

15

गजल -घनाक्षरी

बस ख्याले बुनता रहूँ.....

अँधेरे में दुआ करू,ऐ खुदा परछाई दे

बेख्याली में निकले,जो नाम सुनाई दे

करवट न बदलू,कोई ख़्वाब न देखूं

नीद से उठते तेरी,याद जुम्हाई दे

कसमो का कसीदा हो,कहीं वादों का हो ताना

ख्याले बुनता रहूँ,बस यूँ तन्हाई दे

उजड़े गुलशन में,सब्ज-शजर देखूं

हो तब्दील किस्मत,जन्नत खुदाई दे

रिश्तों की अदालत,बेजान हलफनामे

या मुझे ज़िंदा रख,या मेरी रिहाई दे

सुशील यादव

16

गजल जुर्म की यूँ दास्ता लिखना

खंजर अपना पता लिखना

मिले जो हम किसी मोड़ पे

गली की बस खता लिखना

इनायत करम, तुम पे करे

उसे तो खुदा,खुदा लिखना

लकीरें कब मिटा करती

जुदा हों तो,जुदा लिखना

कहीं तू जिक्र में आये

कहे दिल कुछ, भला लिखना

सुशील यादव

17

उतनी लाशें .......सुशील यादव

जितना जैसा मै खोया हूँ, उतना वैसा तुम खो न सकोगे \

बंजर- उसर धरती पर उम्मीद की फसले, उगो न सकोगे

चाहो तो लिख कर ले लो

कडुवी है मन की बातें

हमने काटी है अंधियारी

विरहा की कितनी रातें

भीतर भीगे-अंतर्मन को,सहज-आंच से सुखो न सकोगे

घेरे रहती है जिसको

सुबहो-शाम असफलताएं

तम के आँगन में बोलो

दीप ख़ुशी कौन जलाए

समय ने छिद्र किये लाखों,तुम सुई कहीं चुभो न सकोगे

याचक बन कर जो निकला

तुम कभी द्वार न आये

खाली हाथो ने अनगिन

संदेशे संशय के उपजाए

मैल जमी जो मन के तह में, साबुन से केवल धो न सकोगे

अपनी कश्ती आप लिए

अनजान लहर निकल जाता

कभी किनारे,मझधार कभी

गोते जैसा मै लगाता

ख्यालो में इतना रहता डूबा, और अधिक डुबो न सकोगे

एक- एक तारे को नभ में

मैंने सिसकते देखा है

विश्वास-धरा को भूतल में

रोज खिसकते देखा है

नफरत - शर्म जितने दफनाये, उतनी लाशें ढो न सकोगे

17

नसीब में कहाँ था, सुर्खाब का ‘पर’ कभी

जिसे समझते, खुशनुमा मंजर कभी

गुनाह को रहमदिल मेंरे माफ कर देना

मकतल गिर छूटा कहीं, खंजर कभी

हमें हैरत हुई इन ‘शीशो’ को देख के

तराशा हुआ मिल गया, पत्थर कभी

नहीं खेल! किस्मत.; जहाँ में है आसा

लकीर खिच, कब रुका है समुंदर कभी

तुझे टूट कर चाहने का इनाम ये

तलाश करते हैं, खुद को अन्दर कभी

शहंशाह मिटते हैं बस आन पे साहब

झुका के सर, जिया है क्या, अकबर कभी ?

सुशील यादव

18

Sisss isss isss

बेवफा तुझको कहूँ

मै रुठ गया अगर ,सूना घर न रह जाये

ढूढने मशगूल मुझको,शहर न रह जाये ....

तुम न चाहो,हसी ख़्वाब की,तरह मुझको

टूटने का फिर, कहीं अब डर न रह जाये

एक सवाल अजीब, मेरे सामने यूँ आया

बेवफा तुझको कहूँ तो कसर न रह जाये

वो निभाने चार दिन वादा कुछ अगर कर ले

जनम –जनम ‘सुशील’ बंन्ध कर न रह जाये ..?

19

पर कटे से कबूतर ये पाले नहीं जाते

जर्द से खत तुम्हारे सम्हाले नहीं जाते

देख लो साब,यादो में रख लो बसा के अब

सोए बाजार में जागते लोग ढाले नहीं जाते

कर नहीं पाए समझौते हम, आदतों अपनी

कोशिशे,बंदिशे कल पे ताले नहीं जाते

जिस्म का जख्म तो भर जाता कभी शायद

ये जो शामिल,तहे दिल है,छाले नहीं जाते

20

दोस्ती का यूँ हक वो अदा कर चला गया

मुझको बेसबब मुझ से जुदा कर चला गया

कुछ दिनों से रूठा था, न जाने कही कश्ती

याद के गहरे समुंदर, डुबा कर चला गया

चाहत ये उसकी, सुकरात सा जहर वो पिये

मयकदे, आब-दाना, उठा कर चला गया

तोड़ लिए थे चमन के उसने फूल, सब खुदा

पतझड को आँख अपनी,दिखा कर चला गया

उंगली थाम चलता इशारो मेरे कभी

आज मुझको नसीहत थमा कर चला गया

कर कहाँ पाए खुद की तलाश गज दो जमी

नाखुदा ये हकीकत,बता कर चला गया

21

धूप में निकले हो साये की फिकर रखना

मोम सा मन पिघले तो मन पे नजर रखना

मंजिल जानिब दो चार कदम और चलो

फिर पलट कर कहीं,मील का पत्थर रखना

जो लोगो हाथ मिले, इल्जाम के पत्थर

तुम सब्र नुमाइश, शीशे का घर रखना

मन भीतर मिल जाए गर ‘यकीन’ उजाला

फिर दिए उम्मीद के, क्या इधर-उधर रखना

22

महानगर मेरे अनुभव

महानगर मेरे अनुभव खुशियों को मैंने हाशिए पर छोड़ दिया है, बचे पृष्ठों पर तुमसे केवल पीड़ा की बात कहता हूँ*** दोस्त,इस भीड़ भरे,रिश्तों के अपरिचित…अनजान नगर में, जब से आया,कटा –कटा,टूटा,मुरझाया-साअकेला रहता हूँ ***यन्त्रणाये सुबहो-शाम मुझे रौदती हैं, कल-कारखानो की आवाज,बिजलियाँ बन,मन कौंधती हैं ....यह महानगर नर्क है, ऊपरी दिखावे, चमक –धमक ऊपरी और बेडा सभी का गर्क है ...महज… अपने –अपनों में सब, घिरे लगते हैं, जिंदगी के, कठिन भिन्न को करते सरल, सिरफिरे लगते हैं ...यहाँ, आदमी, आदमी को नहीं पहचानते इंसानियत को कोई एवज नहीं मानते ...इसीलिए, भूखो बिलखती यहाँ सलमा और सीता कोरे उपदेश देने लगे यहाँ के, कुरान व् गीता इसी नगर के चौराहे पर, खून पसीना, निर्धन बिकता हैइमान –मजहब, मन बिकता है जिन्दा –जिस्म, कफन बिकता है...इसी नगर की गलियों से,उठती लहरें बगावत की तूफां यही होता है पैदा,झगड़े –झंझट, झंझावत भी |इस महानगर के नर्क को झेलते- झेलतेमै.. तंग आ गया हूँ, फिर भी सब सहता हूँ बस दोस्त, इसीलिए,कुछ जी हल्का करने तुमसे,पीड़ा की बात पृष्ठों पर कहता हूँ ....***वैसे तो सभ्यता के नाम पर,मैंने भी चाहा...मेरे नगर का नित, नव –निर्माण हो,यहाँ रहने –बसने वालो का अनवरत कल्याण हो,पर कोई साक्ष्य नहीं..जो उंगली पकड़ेइस बीमार नगर की पीडाओं को बांटे,अपरचित, सुनसान डगर की हर चेहरा यहाँ,बेबस है,लाचार है ....हमारा साहस बौना,सामने...., विवशताओ की लंबी –उची दीवार है .... तो दोस्त इतने बड़े, शहर में तुम,मेरा पता –ठिकाना जान सकोगे ? रिश्तों के अपरिचित –अंजान नगर में, मुझे अकेले ढूँढ, पहचान सकोगे ?वैसे तो मै ...,‘खुद’ से गुम गया हूँ, मुझे ही नहीं मालूम मै कहाँ हूँ पर कभी कभी अब भी लगता है मै गंदी- नालियों में दिन-रात यहाँ बहता हूँ,बस दोस्त,इसीलिए कुछ जी हल्का करने तुमसे, पीड़ा की बात मै पृष्ठों पर कहता हूँ,खुशियों को अलग मैंने.... हाशिए पर छोड़ दिया है |सुशील यादव ०९४२६७६४५५२

जिन्दगी-भर को ......भीड़ में, कोई किसी को, रास्ता नहीं देता जैसे तिनका, डूबते को, आसरा नहीं देता कहाँ ले जाओगे, अपनी उखड़ी-उखड़ी सासें कोई बीमार को,तसल्ली- भर हवा नहीं देता पल दो पल को, मिल जाए, शायद तुम्हे हंसीजिन्दगी-भर को,मुस्कान, मसखरा नहीं देता मै चाहता हूँ,उतार दूँ सब, गुनाहों के नकाब ऊपर-वाला, मुनासिब मगर, चेहरा नहीं देता कुरेद कर चल देते,ये जख्म शहर के लोग चारागर बन के, मुफीद, कोई दवा नहीं देता कल की कुछ, धुंधली, तस्वीर बनी रहती है आज का अक्स संवार के आईना नहीं देता उससे मिल कर, जुदा हुए, बरसो बीत गए मेरे सुकून का, कोई ठिकाना, पता नहीँ देतासुशील यादव .....०९४२६७६४५५२

१२२ १२२ १२२ २२ .......सुशील यादव....

सब्र का कहीं, मीठा फल ला के दो

इंसानियत खिलता, कमल ला के दो

सबेरे के भटके, ऐ मेरे भाई

नई राहतों की फसल ला के दो

ये तमगे लुटाना, सियासत कैसा

कलम-शेर को फिर,जंगल ला के दो

नहीं और चुप, बैठ सकती जनता

उम्मीदों का सुरमा, काजल ला के दो

सन्नाटा सा रहता है, जो चार- तरफ

उदासी में कोई, हलचल ला के दो

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२२१ २१२१ १ २२१ २१२

यूँ आप नेक-नीयत, सुलतान हो गए

सारे हर्फ किताब के, आसान हो गए

समझे नहीं जिसे हम, गुमनाम लोग वो

हक़ छीन के हमी से, परेशान हो गए

कुनबा नहीं सिखा सकता बैर- दुश्मनी

नाहक ही लोग हिंदु-मुसलमान हो गए

सहमे हुए जिसे समझा करते बारहा

बेशर्म- लोग जाहिल - बदजुबान हो गए

एक हूक सी उठी रहती,सीने में हरदम

बाजार में पटक दिए, सामान हो गए

एक पुल मिला देता हमको, आप टूटकर

रिश्तों की ओट आप दरमियान हो गए

सुशील यादव

०९४०८८०७४२०

susyadav7@gmail.com

२१२२ १२१२ २२ सुशील यादव

तेरी दुनिया नई नई है क्या

रात रोके कभी, रुकी है क्या

बदलते रहते हो,मिजाज अपने

सुधर जाने से, दुश्मनी है क्या

जादु-टोना कभी-कभी चलता

सोच हरदम,यों चौकती है क्या

तीरगी, तीर ही चला लेते

पास कहने को, रौशनी है क्या

सर्द मौसम, अभी-अभी गुजरा

बर्फ दुरुस्त कहीं जमी है क्या

सुशील यादव

४.१२.१५

Sis sis sis sis ss

नीद में,ख्वाब में जो समाया रहा बरसो

एक अजनबी, दिल- दिमाग छाया रहा बरसो

लोग घर को सजाने नही क्या-क्या करते

वो मुस्कान लिए घर को सजाया रहा बरसो

खामुशी का सबब था यकीनन यही इतना

एक मर्ज समझ उसको, छुपाया रहा बरसों

लिख के रखता, किसी नाम को, हर घड़ी सीने

दाग वो ‘दामन’ लगा, मिटाया रहा बरसो

देख उन्हें, सब्ज शजर,चन्दन गुमा होता

खुश्बुओ से, फक्र से,नहाया रहा बरसों

जिनको दहलीज पे तवज्जो न दिए हों लेकिन

यूँ ही ताबीज सा हरदम उसे, लगाया रहा बरसो

मोड वो जिस जगह हुए, जंग, आपसी शिकवे

मोड वो ‘नफरतों’ का मिलाया रहा बरसों

कायदे का कभी, तू निशाना इस तरह बन

नाम उसके खत लिखे, छुपाया रहा बरसो

थी तम्मना हमें,जो कभी खुल के हंसे

बात-बात हंस लिए,जो रुलाया रहा बरसो

अब नही निकलते, बेवजह हद से बाहर हम

जिस तडफ को तहेदिल, लगाया रहा बरसों

जले जंगल में

sis sis sis sis sis

होठ सीकर चुप्पियों में जीता रहा आदमी

दर्द आंसू, जहर खून पीता रहा आदमी

तुम ज़रा दाग पर दामन बदलने की सोचते

दाग-वाली, कमीजो को सीता रहा आदमी

जल उठे जंगलो में उम्मीदों के परिंदे कहाँ

सावन दहाड़ता खूब चीता रहा आदमी

काट ले बेसबब, बेमतलब उनको, बारहा

महज उदघाटनों का ये, फीता रहा आदमी

साफ नीयत, पढ़ो तो, किताबे कभी,संयम की

हर सफा के तह कुरान- गीता रहा आदमी

@22@

२२१२ २२१२ २२२

दिल का कोना, साफ सुथरा रखता हूँ

अब भी, तेरे वास्ते, वफा रखता हूँ l

तुम कब, अचानक, मिल कहीं जाओगी

इस सोच में, खुद को तनहा रखता हूँ

मेरी खुद्दारी, के सिवा मुझमे क्या

इस आग में, जीवन तपा रखता हूँ

जो थे बुरे,छुटते रहे वो पीछे

हर माल उम्मीद का, खरा रखता हूँ

ढूढा नही करता, कुरान व् गीता

अक्सर तहे दिल, हर ‘सफा’ रखता हूँ

CHHATTISGAHDHI ME

सिरा जाही माटी म....

चार दिन के जिनगी चहक लेते तै

चारों खुंट बन- ठन चमक लेते तैं

बोई डारे बारी, तैं संसो पताल

गोदा ल बोतेस. महक लेते तै

करम के, बोरे- बासी हे सिठठा

नुन्छुर करे बर, नमक लेते तैं

कोठी के बिजहा, किरहा- घुनहा

निमारे बर, सुपा- फटक लेते तै

दुब्बर के घर परिस दू-दू अकाल

'करम' के मेचका छपक लेते तैं

तइहा के बेरा जम्मो बईहा लेगे

सुरता के अंगना, फफक लेते तै

सिरा जाही माटी म माटी सियान

धोरकिन थिरा के भभक लेते तै,,,,,,सुशील यादव

@@@

फूलत नइए मन के मोंगरा

बिन तोरे फुलवारी

तोर बिन सुन्ना सुन्ना लागे

घर अंगना दुआरी

आजा आजा मोर संगी आजा संगवारी ......

##

दादा बरजे भईया बरजे

अऊ बरजे महतारी

तोर खातिर सहिथंव कतकोन

झगरा झन्झट गारी

आजा आजा मोर संगीं आजा संगवारी

##

दया मया ला अचरा बांधव

नाम के तोर बनवारी

सुरता के तोर संसो जस

टुकनी बोहंव भारी

आजा आजा मोर संगीं आजा संगवारी ##

तोर बिन जुन्ना जुन्ना लागे

करम के पोलका सारी बिन तोरे गड़थे संगी

करधन सूंता बारी

आजा आजा मोर संगीं आजा संगवारी ##

उत्ती देखंव बुडती देखंव

अऊ देखंव बियारी

बाट ल जोहव् हाट म देखंव

तोर खातिर कुआरी

आजा आजा मोर संगीं आजा संगवारी

##

कहाँ बिलम गिस .....सुशील यादव

पीरा ला अंगना सुताय होही ना

आँखी ल कोन्टा, लुकाय होही ना

कहाँ बिलम गिस, तोर सुघ्घर परेवा

जाते- जावत कछु, बताय होही ना

​तोला नइ भावे,परसाए जेवना

सोहारी खवय्या, अघाय होही ना

अक्केल्ला बोहेस,संसों के टुकनी

दुआरी म देख, कोनो आय होही ना

ये बच्छर देवारी, 'टिकली फटाका'

महंगाई प्रेतिन,बग्बगाय होही ना

@@@१५.११.१५

मोर नोनी खेलते-खेलत रिसा गे

जब ले ये सावन भादों सुखागे

नागर अउ बइला खार ढिलागे

अऊ जब ले भुइय्या एखर परियागे

मोर नोनी खेलते-खेलत रिसा गे ..ंमोर नोनी

बिन जामे बीजा जब ले भथागे

बिन पानी तरिया- तरुवा जुडागे

गोठे-गोठ के तैं गारा मतागे

मोर नोनी .....

महंगाई टोनही आँखी गडागे

मयना-कस बेटी मोर टोनहागे

नस-नस म पीरा गजबे छन्डागे

मोर नोनी .....

करम के ठेठरी -खुर्मी सितागे

आँखी के जम्मो काजर पोछागे

तईहा के बेरा देखत लुकागे

मोर नोनी ....

१२२ १२२ १२२ २२ .......सुशील यादव....

सब्र का कहीं, मीठा फल ला के दो

इंसानियत खिलता, कमल ला के दो

सबेरे के भटके, ऐ मेरे भाई

नई राहतों की फसल ला के दो

ये तमगे लुटाना, सियासत कैसा

कलम-शेर को फिर,जंगल ला के दो

नहीं और चुप, बैठ सकती जनता

उम्मीदों का सुरमा, काजल ला के दो

सन्नाटा सा रहता है, जो चार- तरफ

उदासी में कोई, हलचल ला के दो

सिरा जाही माटी म....

चार दिन के जिनगी चहक लेते तै

चारों खुंट बन- ठन चमक लेते तैं

बोई डारे बारी, तैं संसो पताल

गोदा ल बोतेस. महक लेते तै

करम के, बोरे- बासी हे सिठठा

नुन्छुर करे बर, नमक लेते तैं

कोठी के बिजहा, किरहा- घुनहा

निमारे बर, सुपा- फटक लेते तै

दुब्बर के घर परिस दू-दू अकाल

'करम' के मेचका छपक लेते तैं

तइहा के बेरा जम्मो बईहा लेगे

सुरता के अंगना, फफक लेते तै

सिरा जाही माटी म माटी सियान

धोरकिन थिरा के भभक लेते तै ,,,,,,सुशील यादव