जमूरा
प्रदीप कुमार साह
चलकर मदारी अगला पड़ाव तक पहुँचा. जमूरा के साथ गाँव में प्रवेश करते ही मदारी बच्चों की नजर में आ गया. "जमूरा का खेल दिखाने मदारी आया.… मदारी आया."वैसा कहते हुये बच्चे शोर मचाते हुये अपने बाल सखाओं को एकत्रित करने लगा. किंतु मदारी के गाँव पहुँचने से पहले ही उसके जमूरा के खेल का सिद्धि-प्रमाणक वहाँ पहुँच चूका था. अतः वहाँ न केवल मन के सच्चे बच्चे और उसके मान्य अभिभावक अर्थात चाचा-ताऊ या बूढ़े दादा-दादी अपितु कुछेक असमय ही बड़े-बुजुर्ग की गिनती में आ जानेवाले लोग भी अपने-अपने घर से निकल कर आ गए.
आचरण-व्यवहार से वह मुट्ठी भर मान्य बड़े लोग ठीक वैसा ही प्रतीत होते थे जिससे उन्हें स-भेद जमूरा के समकक्ष समझा जा सकता था. प्रथमदृष्टया जो स्पष्ट अंतर था, वह पूँछ, उम्र और आयु से संबंधित था. कर्मबद्ध जमूरा के अनुभव-रूपी एक लंबी पूँछ थी. यह वही पूँछ था जो अहंकार के सिंहासन पर बैठे प्रत्येक रावण को निरंतर चुनौती देता. जबकि वह सब पूँछ रहित थे. अर्थात स्वभाव से संभवतः जन्मजात निठ्ठला होने से किसी भी काम को सही रीती से पूरा कर पाने में सर्वदा अयोग्य थे. अतः अनुभव नामक वास्तविक चीज उनके लिये दूर की कौड़ी थी.
यद्यपि उनके पास कथित परालौकिक या आसमानी अनुभव बहुत था, जिसके पाँव जमीन पर ठहरता ही न था. अतः वर्तमान में उन्हें न्यूनतम काम का मनोनुकूल प्रतिफल मिलना दुर्लभ था. तभी उनके समक्ष अपना व्यर्थ समय व्यतीत करने की चिंता भी बराबर बनी रहती. परंतु उनकी चिंता वास्तविक था, क्योंकि कर्म प्रधान विश्व करि राखा सरीखे नियम का अनुपालन करने वाला लौकिक संसार में वर्तमान में अधिकांश उपेक्षा के शिकार थे. अकर्मण्यता में पलकर उत्तम प्रतिफल प्राप्ति हेतु पूर्ववत लोलुपता और वर्तमान में उपेक्षित होने की परिस्थिति बारंबार उनकी मति फेर देता.
उस परिस्थिति में उनके मान्य सु-स्वभाव और साहस में बदलाव हो जाना लाजिमी था. किंतु वह थे तो बड़े लोग और स्वभाव से बेहद बुद्धिमान भी? अतः निज सुस्वभाव में हुये घनघोर कुपरिवर्तन और उसके कारण को अतिशय बुद्धिमानी से छुपाने का भरसक प्रयत्न करते और सामने वाले पर धौल-पट्टी जताते कि तुम्हें देश-काल और समय संबंधित तनिक भी ज्ञान नहीं. तुम तो मेरा देखा-देखी मेरे सुर से अपनी सुर-ताल मिलाओ और मेरी ही तरह भोथड़े पंचों की पंचावलियाँ गाओ. फिर लकीर का फकीर बनना भी कम महिमामय थोड़े न है. पुनः वह सबके वश की बात भी नहीं हैं.
वास्तव में वह वैसा कथन संभाषण हेतु मजबूर थे. क्योंकि वह हृदय से वैसे कथा-पात्र के अनुनायी थे, जो संभवत: आजीवन पूर्वाग्रह से ग्रसित रहे. पुनः आराध्य तो वही हो सकते हैं जिसमें परिकल्पित इच्छित गुण सर्वाधिक हों. संभवत: तब उनका आदर्श एक कथा में परम वीर ज्येष्ठ पुत्र अथवा महान गुरु की भूमिका निभानेवाले पात्र हो सकते हैं. एक तो वह हैं जो उल्लू की सवारी करनेवाली कथित भगवती के अतिशय कृपा पात्र दृष्टिहीन शासक भक्त के संरक्षक और ताऊ श्री थे. वैसे तो वह अत्यंत धीर-वीर थे, किंतु निरंतर कटु वचन सहना और राजवंश का संरक्षण करना उनकी मजबूरी थी.
किंतु कथा में सबसे मजबूर चरित्र में वह नहीं थे. उनसे अधिक मजबूर चरित्र तो श्री गुरु को निभाना पड़ा. वह उक्त वंश के राजकुमारों के हित-संरक्षण हेतु किसी भी हद तक जाने हेतु मजबूर थे. एकमात्र वही कारण था कि सशरीर शिक्षा दान किये बगैर ही परम वीर शिष्य एकलव्य से गुरु दक्षिणा स्वरूप उसका अंगूठा स्वयं उससे अंगुष्ठ रहित करवाकर अपना गुरु दक्षिणा प्राप्त करने हेतु सशरीर उन्हें आतुर होना पड़ा. यह सचमुच विधि का विधान ही है कि उन्हीं राजकुमारों में कुछेक के उपाय से उन्हें अपना शरीर खोकर उक्त वंश के राजकुमारों के संरक्षण का प्रतिफल प्राप्त हुआ.
तथापि पूर्वाग्रह से मुक्त होना आसान तो नहीं? पूर्वाग्रह नामक चीज-वस्तु की कुछ तो अहमियत है? यद्यपि पूर्वाग्रह का अर्थ उन्हें अच्छी तरह पता है, तथापि पूर्वाग्रह से ग्रसित रहना उनकी वास्तविक मजबूरी है. कारण कि उन्हें यह भी पता है कि भूल-चूक और लेनी-देनी नामक सहायक सिर्फ और सिर्फ जीवन में कर्म को प्राथमिकता देने वाले लोग हेतु हैं. तथापि पूर्वाग्रह उन्हें इसलिये प्यारा है कि उनके समक्ष कर्म प्रधान विश्व करि राखा सरीखे नियम का अनुपालन करने से पूर्णतः सहमत मदारी स्वरूप सृष्टि-अधिष्ठाता देवाधिदेव महादेव साक्षात स्थापित न हो जाये.
पुनः पूर्वाग्रह में पड़े रहने का यह भी एक बड़ा फायदा है कि किसी भी तरह उन्हें प्रचुर मात्रा में मुफ़्त लाभ मिलता रहे इसलिये कुछ धोखात्मक शब्द इह लोक में प्रचलित-प्रतिष्ठीत रहे और समाज से अंधविश्वास कभी खत्म न हो. कहते हैं कि वैसे ही भ्रमात्मक शब्द-प्रयोग की शक्ति से एक युद्धरत समय में एक रियासत की सेना युद्ध जीतने की स्थिति में होकर भी अपने अंधविश्वास के कारण युद्ध हार गई. क्योंकि उन्हें यह समाचार प्राप्त हो चूका था कि रियासत के एक अति विश्वस्त भवन के ऊपर लहराता झंडा टूटकर नीचे गिर गया, अतः युद्ध में हार सुनिश्चित है.
खैर, तत्समय गाँव में मौजूद सभी लोग तमाशबीन के रूप में मदारी के पास आये. इतने अधिक संख्या में तमाशबीन को इकट्ठा हुआ देख मदारी भी खुश हुआ और जोर-शोर से अपना डमरू बजाने लगा. तभी तमाशबीन में शामिल एक बड़े आदमी ने मदारी से कहा,"मदारी, हमने तुम्हारा नाम बहुत सुना है. अब जल्दी से जमूरा का अच्छा-सा खेल दिखा भी दो. किंतु तुम धरातल पर बैठकर जमूरा का तमाशा क्यों दिखाते हो? हमारे गाँव में तो कितने चबूतरा हैं, किसी चबूतरा पर बैठ जाओ. क्या तुम्हें ऊँचे पर बैठना अच्छा नहीं लगता, जिससे सब तुम्हें आसानी से देख सके?"
मदारी बोला,"मेहरवान-कद्रदान भाईयो, आपने जो मुझसे चबूतरा पर बैठने से संबंधित आग्रह किया उसके लिए आपका तहे दिल बहुत-बहुत शुक्रगुजार हूँ. किंतु मैं आपका आग्रह स्वीकार नहीं कर पाउँगा, उसके लिए क्षमाप्रार्थी भी हूँ. चबूतरा पर मैं इसलिए नहीं बैठ सकता कि उसकी परिकल्पना और निर्माण वैसे जन द्वारा होता है जिसके उद्देश्य ही मेरे उद्देश्य के विपरीत हैं. उनका उद्देश्य होता है अल्प कर्म का आशातीत लाभ प्राप्त करना और मेरा स्वकर्म के अनुरूप. उनमें दूसरों को समझाने की अभिलाषा होता है और मुझमें समझने की जिज्ञासा. अतः चबूतरा देव मुझे क्षमा करें."
वैसा कहते हुए मदारी अपने हाथ जोड़ लिये. इससे वह व्यक्ति क्रुद्ध हो गया और कहने लगा,"यह मदारी तो बड़ा बद्तमीज है. अरे, तुम्हारा जमूरा भी खेल अच्छा दिखता है क्या?"
मदारी हाथ जोड़कर बोला,"साहब लोगों, जमूरा तो अपना खेल दिखाने कब से तैयार बैठा है. अब खुद ही देखकर तय कीजिये कि खेल अच्छा है या नहीं?"
वैसा कहते हुये मदारी ने जमूरा को प्यार से दुलारा-पुचकारा और जमूरा खुश होते हुए अपना करतब दिखाने लगा. जमूरा का करतब बेहतरीन था, किंतु कहते हैं न कि पूर्वाग्रह भी कुछ चीज होती है. अतः पूर्वाग्रह से ग्रसित वह व्यक्ति मदारी को डाँटते हुये कहने लगा,"यह भी कुछ करतब था? तुमने जमूरा को क्या कुछ राख सिखाया है. बंदर तो वैसा-वैसा करतब करते हैं कि हाथ में पर्वत उठा लाते हैं, छलांग लगाकर समुंदर लाँघ जाते हैं और उस पर पुल भी बांध देते हैं. बस उसे ढंग से अभ्यास कराने वाला एक चाहिये और यही तुम्हारा इतना नाम है!"
"साहब, वह कथाओं का बंदर है और जमूरा कोई कल्पना नहीं है. फिर मेरे जमूरा की तुलना कथा-पात्र बंदर से क्यों करते हो साहब?" मदारी हाथ जोड़कर बोला.
"सचमुच, तुम बद्तमीज ही नहीं बल्कि काफी ढीठ भी हो. अपनी कमजोरी इस तरह छुपाते हुये तुम्हें शर्म नहीं आती? भली-भाँति अभ्यासित उस बंदर को कथा-पात्र कहते हो? खबरदार जो आगे उसे फिर से बंदर कहा अथवा दुबारा अपमानित किया! वह हनुमान जी थे महाबली हनुमान जी."
परिस्थितिवश मदारी अब चुप रह जाना ही अधिक श्रेयस्कर समझा कि बड़े लोग की बातें बड़ी-बड़ी. पुनः बड़े और छोटे के संबंध में तो क्रमशः यह सर्वविदित ही है कि आपु कहे कछु लेखा नहीं, तोहि कछु कहे क्यों बिसराओ रे? किंतु मदारी से प्रतिरोध न पाकर उसका मनोबल बढ़ गया. तब उसने अन्य तमाशबीन की तरफ देखा. किंतु कहीं से कुछ भी प्रतिरोध न देख उसका मनोबल अत्यधिक बढ़ गया. अब उसने मदारी को डाँटते हुये कहा,"लाओ, जमूरा का रास मुझे पकड़ा दो. फिर उसका करतब देखो."
"साहब, रहने भी दीजिये. जमूरा के पीछे अपना समय बर्बाद क्यों करना? फिर वह इंसान थोड़े न है." मदारी उस मूढ़ पर भावी खतरा को समझते हुये अनुनय-विनय किया. किंतु वहाँ-मूढ़ मोहवश होयहिं जनाही और जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली बात थी.
स्वामी बदलने के साथ जमूरा का स्वभाव भी बदल जाता है, इस तथ्य से अनभिज्ञ पूर्वाग्रही मदारी के हाथ से जमूरा का रास छीन लिया. फिर क्या था, मदारी और जमूरा के प्रति पूर्वाग्रह में पड़ा तो था ही, जमूरा को करतब सिखाने निमित्त दनादन दो-चार छड़ी जमा दिये. छड़ी के दो-चार से स्वागत होते ही जमूरा ने अपना स्वरूप संभाला और भाई लक्ष्मण के रूप में प्रगट हुआ. लक्ष्मण रूप धरते ही उसे सामने पूर्वाग्रही सूर्पनखा नजर आया और उसने न्यायोचित कार्य किया. अब सूर्पनखा के हाथ से बाजी खिसकी और उधर जमूरा भी अपने वास्तविक स्वरूप में आकर पेड़ के एक डाली पर कूद कर चढ़ गया.
जमूरा द्वारा नासिका-हरण होते ही पूर्वाग्रही व्यक्ति गश खाकर गिर पड़ा. उसके परिजन चिल्ला पड़े,"अरे, यह कैसा जमूरा था?" किंतु अब पछताये क्या होत जब चिड़ियाँ चुग गई खेत? तमाशबीन उसके परिजन को समझाने लगे कि जैसी करनी वैसी भरनी, अतः अब उसे उठा कर ले जाओ. अंततः जब परिजन उसे उठाकर ले गये. तब उस दृश्य का स्मरण करते हुये सभी तमाशबीन यह सोचने लगे कि जिसका जमूरा वही नचावे और उस पूर्वाग्रही के कृत्य हेतु वह सब मदारी से माफ़ी मांगा. अब सभी तमाशबीन जा चुके थे. तब जमूरा भी मदारी के पास वापस आया और अब दोनों अगले गंतव्य के लिये चल पड़े.
(सर्वाधिकार लेखकाधीन)