चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 43 Jayshankar Prasad द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 43

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(दाण्ड्यायन का तपोवन, ध्यानस्थ चाणक्य)

(भयभीत भाव से राक्षस और सुवासिनी का प्रवेश)

राक्षसः चारों ओर आर्य-सेना! कहीं से निकलने का उपाय नहीं।क्या किया जाय सुवासिनी!

सुवासिनीः यह तपोवन है, यहीं कहीं हम लोग छिप रहेंगे।

राक्षसः मैं देशद्रोही, ब्राह्मण-द्रोही बौद्ध! हृदय काँप रहा है! क्याहोगा?

सुवासिनीः आर्यों का तपोवन इन राग-द्वेषों से पर है।

राक्षसः तो चलो कहीं। (सामने देखकर) सुवासिनी! वह देखो- वह कौन?

सुवासनीः (देखकर) आर्य चाणक्य।

राक्षसः आर्य साम्राज्य का महामन्त्री इस तपोवन में!

सुवासिनीः यही तो ब्राह्मण की महपा है राक्षस! यों तो मूर्खोंकी निवृपि भी प्रवृपिमूलक होती है। देखो, यह सूर्य-रश्मियों का-सा रस-ग्रहण कितना निष्काम, कितना निवृपिपूर्ण है!

राक्षसः सचमुच मेरा भ्रम था सुवासिनी! मेरी इच्छा होती है किचल कर इस महात्मा के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लूँ और क्षमामाँग लूँ!

सुवासिनीः बड़ी अच्छी बात सोची तुमने। देखो -

(दोनों छिप जाते हैं।)

चाणक्यः (आँख खोलता हुआ) कितना गौरवमय आज काअरुणोदय है! भगवान्‌ सविता, तुम्हारा आलोक, जगत्‌ का मंगल करे। मैंआज जैसे निष्काम हो रहा हूँ। विदित होता है कि आज तक जो कुछकिया, वह सब भ्रम था, मुख्य वस्तु आज सामने आयी। आज मुझे अपनेअन्तर्निहित ब्राह्मणत्व की उपलब्धि हो रही है। चैतन्य-सागर निस्तरंग हैऔर ज्ञान-ज्योति निर्मल है। तो क्या मेरा कर्म कुलाल-चक्र अपना निर्मितभाण्ड उतारकर धर चुका? ठीक तो, प्रभात-पवन के साथ सब की सुख-कामना शान्ति का आलिंगन कर रही है। देव! आज मैं धन्य हूँ।

(दूसरी ओर झाड़ी में मौर्य)

मौर्यः ढोंग है! रक्त और प्रतिशोध, क्रूरता और मृत्यु का खेलदेखते ही जीवन बीता, अब क्या मैं इस सरल पथ पर चल सकूँगा?यह ब्राह्मण आँख मूँदने-खोलने का अभिनय भले ही करे, पर मैं! असम्भवहै। अरे, जैसे मेरा रक्त खौलने लगा। हृदय में एक भयानक चेतना, एकअवज्ञा का अट्टहास, प्रतिहिंसा जैसे नाचने लगी! यह एक साधारण मनुष्य,दुर्बल कंकाल, विश्व के समूचे शस्त्रबल को तिरस्कृत किये बैठा है! रखदूँ गले पर खड्‌ग, फिर देखूँ तो यह प्राण-भिक्षा माँगता है या नहीं। सम्राट्‌चन्द्रगुप्त के पिता की अवज्ञा! नहीं-नहीं, ब्राह्महत्या होगी, हो, मेराप्रतिशोध और चन्द्रगुप्त का निष्कंटक राज्य!-

(छुरी निकाल कर चाणक्य को मारना चाहता है, सुवासिनीदौड़कर उसका हाथ पकड़ लेती है। दूसरी ओर से अलका, सिंहरण,अपनी माता के साथ चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः (आश्चर्य और क्रोध से) यह क्या पिताजी! सुवासिनी!बोलो, बात क्या है?

सुवासिनीः मैंने देखा कि सेनापति, आर्य चाणक्य को मारना हीचाहते हैं, इसलिए मैंने इन्हें रोका।

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव, प्रणाम! चन्द्रगुप्त क्षमा का भइखारी नहीं, न्यायकरना चाहता है। बतलाइए, पूरा विवरण सुनना चाहता हूँ, और पिताजी,आप शस्त्र रख दीजिए। सिंहरण! (सिंहरण आगे बढ़ता है।)

चाणक्यः (हँसकर) सम्राट्‌! न्याय करना तो राजा का कर्तव्य है,परन्तु यहाँ पिता और गुरु का सम्बन्ध है, कर सकोगे?

चन्द्रगुप्तः पिताजी!

मौर्यः हाँ चन्द्रगुप्त, मैं इस उद्धत ब्राह्मण का - सब की अवज्ञाकरने वाले महप्वाकांक्षी का - वध करना चाहता था। कर न सका, इसकादुःख है। इस कुचक्रपूर्ण रहस्य का अन्त न कर सका।

चन्द्रगुप्तः पिताजी, राज्य-व्यस्था आप जानते होंगे - वध केलिए प्राणदण्ड होता है, और आपने गुरुदेव का - इस आर्य-साम्राज्य केनिर्माणकर्ता ब्राह्मण का - वध करने जाकर कितना गुरुतर अपराध कियाहै!

चाणक्यः किन्तु सम्राट्‌, वह वध हुआ नहीं, ब्राह्मण जीवित है।अब यह उसकी इच्छा पर है कि वह व्यवहार के लिए न्यायाधिकरण सेप्रार्थना करे या नहीं।

चन्द्रगुप्त-जननीः आर्य चाणक्य!

चाणक्यः ठहरो देवी! (चन्द्रगुप्त से) मैं प्रसन्न हूँ वत्स! यह मेरेअभिनय का दण्ड था। मैंने आज तक जो किया, वह न करना चाहिएथा, उसी का महाशक्ति-केन्द्र ने प्रायश्चित करना चाहा। मैं विश्वस्त हूँकि तुम अपना कर्तव्य कर लोगे। राजा न्याय कर सकता है, परन्तु ब्राह्मणक्षमा कर सकता है।

राक्षसः (प्रवेश करके) आर्य चाणक्य! आप महान्‌ हैं, मैं आपकाअभिनन्दन करता हूँ। अब न्यायाधिकरण से, अपने अपराध-विद्रोह कादण्ड पाकर सुखी रह सकूँगा। सम्राट्‌ आपकी जय हो!

चाणक्यः सम्राट्‌, मुझे आज का अधिकार मिलेगा?

चन्द्रगुप्तः आज वही होगा, गुरुदेव, जो आज्ञा होगी।

चाणक्यः मेरा किसी से द्वेष नहीं, केवल राक्षस के सम्बन्ध मेंअपने पर सन्देह कर सकता था, आज उसका भी अन्त हो। सम्राट्‌सिल्यूकस आते ही होंगे, उसके पहले ही हमें अपना सब विवाद मिटादेना चाहिए।

चन्द्रगुप्तः जैसी आज्ञा।

चाणक्यः आर्य शकार के भावी जामाता अमात्य राक्षस के लिएमैं अपना मन्त्रित्व छोड़ता हूँ। राक्षस! सुवासिनी को सुखी रखना।

(सुवासिनी और राक्षस चाणक्य को प्रणाम करते हैं)

मौर्यः और मेरा दण्ड? आर्य चाणक्य, मैं क्षमा ग्रहण न करूँ,तब? आत्महत्या करूँगा!

चाणक्यः मौर्य! तुम्हारा पुत्र आज आर्यावर्त का सम्राट्‌ है - अबऔर कौन-सा सुख तुम देखना चाहते हो? काषाय ग्रहण कर लो, इसमेंअपने अभिमान को मारने का तुम्हें अवसर मिलेगा। वत्स चन्द्रगुप्त! शस्त्रदो आमात्य राक्षस को!

(मौर्य शस्त्र फेंक देता है। चन्द्रगुप्त शस्त्र देता है। राक्षस सविनयग्रहण करता है।)

सबः सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त मौर्य की जय!

(प्रतिहारी का प्रवेश)

प्रतिहारीः सम्राट्‌ सिल्यूकस शिविर से निकल चुके हैं।

चाणक्यः उनकी अभ्यर्थना राज-मन्दिर में होनी चाहिए, तपोवनमें नहीं।

चन्द्रगुप्तः आर्य, आप उस समय न उपस्थित रहेंगे!

चाणक्यः देखा जायगा।

(सबका प्रस्थान)