चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 44 Jayshankar Prasad द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 44

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(राज-सभा)

(एक ओर से सपरिवार चन्द्रगुप्त, और दूसरी ओर सेसाइवर्टियस, मेगास्थनीज, एलिस और कार्नेलिया के साथसिल्यूकस का प्रवेश, सब बैठते हैं।)

चन्द्रगुप्तः विजेता सिल्यूकस का मैं अभिनन्दन करता हूँ -स्वागत!

सिल्यूकसः सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त! आज मैं विजेता नहीं, विजित सेअधिक भी नहीं! मैं सन्धि और सहायता के लिए आया हूँ।चन्द्रगुप्तः कुछ चिन्ता नहीं सम्राट्‌, हम लोग शस्त्र-विराम करचुके, अब हृदय का विनिमय...

सिल्यूकसः हाँ, हाँ, कहिए!

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी, स्वागत! मैं उस कृपा को नहीं भूल गया,जो ग्रीक-शिविर में रहने के समय मुझे आप से प्राप्त हुई थी।

सिल्यूकसः हाँ कार्नी! चन्द्रगुप्त उसके लिए कृतज्ञता प्रगट कररहे हैं।

कार्नेलियाः मैं आपको भारतवर्ष का सम्राट्‌ देखकर कितनी प्रसन्नहूँ।

चन्द्रगुप्तः अनुगृहीत हुआ (सिल्यूकस से) औंटिगोनस से युद्धहोगा। सम्राट्‌ सिल्यूकस, गज-सेना आपकी सहायता के लिए जायगी।

हिरात में आपके जो प्रतिनिधि रहेंगे, उनसे समाचार मिलने पर और भीसहायता के लिए आर्यावर्त प्रस्तुत है।

सिल्यूकसः इसके लिए धन्यवाद देता हूँ। सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त, आजसे हम लोग दृढ़ मैत्री के बन्धन में बँधे! प्रत्येक का दुःख-सुख, दोनोंका होगा, किन्तु अभिलाषा मन में रह जायगी।

चन्द्रगुप्तः वह क्या?

सिल्यूकसः उस बुद्धिसागर, आर्य-साम्राज्य के महामंत्री, चाणक्यको देखने की बड़ी अभिलाषा थी।

चन्द्रगुप्तः उन्होंने विरक्त होकर, शान्तिमय जीवन बिताने कानिश्चय किया है।

(सहसा चाणक्य का प्रवेश, अभ्युत्थान देखकर प्रणाम करते हैं।)

सिल्यूकसः आर्य चाणक्य, मैं आपका अभिनन्दन करता हूँ।

चाणक्यः सुखी रहो सिल्यूकस, हम भारतीय ब्राह्मणों के पाससबकी कल्याण-कामना के अतिरिक्त और क्या है, जिससे अभ्यर्थना करूँ?

मैं आज का दृश्य देखकर चिर-विश्राम के लिए संसार से अलग होनाचाहता हूँ।

सिल्यूकसः और मैं सन्धि करके स्वदेश लौटना चाहता हूँ। आपकेआशीर्वाद की बड़ी अभिलाषा थी। सन्धि-पत्र...

चाणक्यः किन्तु संधि-पत्र स्वार्थों से प्रबल नहीं होते, हस्ताक्षरतलवारों को रोकने में असमर्थ प्रमाणित होंगे। तुम दोनों ही सम्राट्‌ हो,शस्त्र-व्यवसायी हो, फिर भी संघर्ष हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहोगी। अतएव, दो बालुका-पूर्ण कगारों के बीच में एक निर्मल-स्रोतस्विनीका रहना आवश्यक है।

सिल्यूकसः सो कैसे?

चाणक्यः ग्रीस की गौरव-लक्ष्मी कार्नेलिया को मैं भारत कीकल्याणी बनाना चाहता हूँ। यही ब्राह्मण की प्रार्थना है।

सिल्यूकसः मैं तो इससे प्रसन्न ही हूँगा, यदि...

चाणक्यः यदि का काम नहीं, मैं जानता हूँ, इसमें दोनों प्रसन्नऔर सुखी होंगे।

सिल्यूकसः (कार्नेलिया की ओर देखता है, वह सलज्ज सिर झुकालेती है।) तब आओ बेटी... आओ चन्द्रगुप्त!

(दोनों ही सिल्यूकस के पास जाते हैं, सिल्यूकस उनका हाथमिलाता है। फूलों की वर्षा और जय-ध्वनि)

चाणक्यः (मौर्य का हाथ पकड़कर) चलो, अब हम लोग चलें!यवनिका