चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 40 Jayshankar Prasad द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 40

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(युद्ध-क्षेत्र के समीप चाणक्य और सिंहरण)

चाणक्यः तो युद्ध आरम्भ हो गया?

सिंहरणः हाँ आर्य! प्रचण्डविक्रम से सम्राट ने आक्रमण किया है।यवन-सेना थर्रा उठी है। आज के युद्‌ में प्राणों को तुच्छ गिन कर वेभीम पराक्रम का परिचय दे रहे हैं। गुरुदेव! यदि कोई दुर्घटना हुई तो?आज्ञा दीजिए, अब मैं अपने को नहीं रोक सकता। तक्षशिला और मालवोंकी चुनी हुई सेना प्रस्तुत है, किस समय काम आवेगी?

चाणक्यः जब चन्द्रगुप्त की नासीर सेना का बल क्षय होने लगे औरसिन्धु के इस पार की यवनों की समस्त सेना युद्ध में सम्मिलत हो जाय,उस समय आम्भीक आक्रमण करे। और तुम चन्द्रगुप्त का स्थान ग्रहण करो।दुर्ग की सेना सेतु की रक्षा करेगी, साथ ही चन्द्रगुप्त को सिन्धु के उस पारजाना होगा - यवन-स्कन्धावार पर आक्रमण करने! समझे?

(सिंहरण का प्रस्थान)

(चर का प्रवेश)

चरः क्या आज्ञा है?

चाणक्यः जब चन्द्रगुप्त की सेना सिन्धु के उस पार पहुँच जाय,तब तुम्हें ग्रीकों के प्रधान-शिविर की ओर उस आक्रमण को प्रेरित करनाहोगा। चन्द्रगुप्त के पराक्रम की अग्नि में घी डालने का काम तुम्हारा है।

चरः जैसी आज्ञा (प्रस्थान)

(दूसरे चर का प्रवेश)

चरः देव! राक्षस प्रधान-शिविर में है।

चाणक्यः जाओ, ठीक है। सुवासिनी से मिलते रहो।

(दोनों का प्रस्थान)

(एक ओर से सिल्यूकस, दूसरी ओर से चन्द्रगुप्त)

सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त, तुम्हें राजपद की बधाई देता हूँ।

चन्द्रगुप्तः स्वागत सिल्यूकस! अतिथि की-सी तुम्हारी अभ्यर्थनाकरने में हम विशेष सुखी होते, परन्तु क्षात्र-धर्म बड़ा कठोर है। आर्यकृतघ्न नहीं होते। प्रमाण यही है कि मैं अनुरोध करता हूँ, यवन-सेना बिनायुद्ध के लौट जाय।

सिल्यूकसः वाह! तुम वीर हो, परन्तु मुझे भारत-विजय करनाही होगा। फिर चाहे तुम्हीं को क्षत्रप बना दूँ।

चन्द्रगुप्तः यही तो असम्भव है। तो फिर युद्ध हो।

(रण-वाद्य, युद्ध, लड़ते हुए उन लोगों का प्रस्थान, आम्भीक केसैन्य का प्रवेश)

आम्भीकः मगध-सेना प्रत्यावर्तन करती है। ओह, कैसा भीषणयुद्ध है। अभी ठहरें? अरे, देखो कैसा परिवर्तन! यवन सेना हट रही है,लो, वह भागी।

(चर का प्रवेश)

चरः आक्रमण कीजिए, जिसमें सिन्धु तक यह सेना लौट नसके। आर्य चाणक्य ने कहा है, युद्ध अवरोधात्मक होना चाहिए।

(प्रस्थान)

(रण-वाद्य बजता है। लौटती हुई यवन-सेना का दूसरी ओर सेप्रवेश)

सिल्यूकसः कौन? प्रपंचक आम्भीक! कायर!

आम्भीकः हाँ सिल्यूकस! आम्भीक सदा प्रपंचक रहा, परंतु यहप्रवंचना कुछ महत्व रखती है। सावधान!

(युद्ध - सिल्यूकस को घायल करते हुए आम्भीक की मृत्यु।यवन-सेना का प्रस्थान। सैनिकों के साथ सिंहरण का प्रवेश।)

“सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त की जय!”

(चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः भाई सिंहरण, बड़े अवसर पर आये!

सिंहरणः हाँ सम्राट्‌! और समय चाहे मालव न मिलें, पर प्राणदेने का महोत्सव-पर्व वे नहीं छोड़ सकते। आर्य चाणक्य ने कहा किमालव और तक्षशिला की सेना प्रस्तुत मिलेगी। आप ग्रीकों के प्रधानशिविर का अवरोध कीजिए।

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव ने यहाँ भी मेरा ध्यान नहीं छोड़ा! मैं उनकाअपराधी हूँ सिंहरण!

सिंहरणः मैं देख लूँगा, आप शीघ्र जाइए; समय नहीं है! मैं भीआता हूँ।

सेनाः महाबलाधिकृत सिंहरण की जय!

(चन्द्रगुप्त का प्रस्थान, दूसरी ओर से सिंहरण आदि का प्रस्थान)