चन्द्रगुप्त
जयशंकर प्रसाद
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(ग्रीक-शिविर)
कार्नेलियाः एलिस! यहाँ आने पर जैसे मन उदास हो गया है।इस संध्या के दृश्य ने मेरी तन्मयता में एक स्मृति की सूचना दी है।सरला संध्या, पक्षियों के नाद से शान्ति को बुलाने लगी है। देखते-देखते,एक-एक करके दो-चार नक्षत्र उदय होने लगे। जैसे प्रकृति, अपनी सृष्टिकी रक्षा, हीरों की कील से जड़ी हुई काली ढाल लेकर कर रही है औरपवन किसी मधुर कथा का भार लेकर मचलता हुआ जा रहा है। यहकहाँ जाएगा एलिस?
एलिसः अपने प्रिय के पास!
कार्नेलियाः दुर! तुझे तो प्रेम-ही-प्रेम सूझता है।
(दासी का प्रवेश)
दासीः राजकुमारी! एक स्त्री बन्दी होकर आयी है।
कार्नेलियाः (आश्चर्य से) तो उसे पिताजी ने मेरे पास भेजा होगा,उसे शीघ्र ले आओ।
(दासी का प्रस्थान, सुवासिनी का प्रवेश)
कार्नेलियाः तुम्हारा नाम क्या है?
सुवासिनीः मेरा नाम सुवासिनी है। मैं किसी को खोजने जा रहीथी, सहसा बन्दी कर ली गयी। वह भी कदाचित् आपके यहाँ बन्दी हो!
कार्नेलियाः उसका नाम?
सुवासिनीः राक्षस।
कार्नेलियाः ओहो, तुमने उससे ब्याह कर लिया है क्या? तब तोतुम सचमुच अभागिनी हो!
सुवासिनीः (चौंककर) ऐसा क्यों? अभी तो ब्याह होने वाला है,क्या आप उसके सम्बन्ध में कुछ जानती हैं?
कार्नेलियाः बैठो, बताओ, तुम बन्दी बनकर रहना चाहती हो यामेरी सखी? झटपट बोलो!
सुवासिनीः बन्दी बनकर तो आयी हूँ, सखी हो जाऊँ तोअहोभाग्य!
कार्नेलियाः प्रतिज्ञा करनी होगी कि मेरी अनुमति के बिना तुमब्याह न करोगी!
सुवासिनीः स्वीकार है।
कार्नेलियाः अच्छा, अपनी परीक्षा दो, बताओ, तुम विवाहितास्त्रियों को क्या समझती हो?
सुवासिनीः धनियों के प्रमोद का कटा-छँटा हुआ शोभा-वृक्ष। कोईडाली उल्लास से आगे बढ़ी, कुतर दी गयी। माली के मन से सँवरे हुएगोल-मटोल खड़े रहो।
कार्नेलियाः वाह, ठीक कहा। यही तो मैं भी सोचती थी। क्योंएलिस! अच्छा, यौवन और प्रेम को क्या समझती हो?
सुवासिनीः अकस्मात् जीवन-कानन में, एक राका-रजनी की छायामें छिप कर मधुर वसन्त घुस आता है। शरीर की सब क्यारियाँ हरी-भरी हो जाती हैं। सौन्दर्य का कोकिल ‘कौन?’ कहकर सब को रोकनेटोकने लगता है, पुकारने लगता है। राजकुमारी! फिर उसी में प्रेम कामुकुल लग जाता है, आँसू-भरी स्मृतियाँ मकरंद-सी उसमें छिपी रहती हैं।
कार्नेलियाः (उसे गले लगाकर) आह सखी! तुम तो कवि हो।तुम प्रेम करना जानती हो और जानती हो उसका रहस्य। तुमसे हमारीपटेगी। एलिस! जा, पिताजी से कह दे, कि मैंने उस स्त्री को अपनीसखी बना लिया।
(एलिस का प्रस्थान)
सुवासिनीः राजकुमारी! प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीसउठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। आश्चर्य तो यह है कि प्रत्येक कुमारीके हृदय में वह निवास करती है। पर, उसे सब प्रत्यक्ष नहीं कर सकतीं,सबको उसका मार्मिक अनुभव नहीं होता।
कार्नेलियाः तुम क्या कहती हो?
सुवासिनीः वही स्त्री-जीवन का सत्य है। जो कहती है कि मैंनहीं जानती- वह दूसरे को धोखा देती ही है, अपने को भी प्रवंचित करतीहै। धधकते हुए रमणी-वक्ष पर हाथ रख कर उसी कम्पन में स्वरमिलाकर कामदेव गाता है। और राजकुमारी! वही काम-संगीत की तानसौन्दर्य की रंगीन लहर बन कर, युवतियों के मुख में लज्जा और स्वास्थ्यकी लाली चढ़ाया करती है।
कार्नेलियाः सखी! मदिरा की प्याली में तू स्वप्न-सी लहरों कोमत आन्दोलित कर। स्मृति बड़ी निष्ठुर है। यदि प्रेम ही जीवन का सत्यहै, तो संसार ज्वालामुखी है।
(सिल्यूकस का प्रवेश)
सिल्यूकसः तो बेटी, तुमने इसे अपने पास रख ही लिया। मनबहलेगा, अच्छा तो है। मैं भी इसी समय जा रहा हूँ, कल ही आक्रमणहोगा। देखो, सावधान रहना।
कार्नेलियाः किस पर आक्रमण होगा पिताजी?
सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त की सेना पर। वितस्ता के इश पार सेना आपहुँची है, अब युद्ध में विलम्ब नहीं।
कार्नेलियाः पिताजी, उसी चन्द्रगुप्त से युद्ध होगा, जिसके लिएउस साधु ने भविष्यवाणी की थी? वही तो भारत का राजा हुआ न?
सिल्यूकसः हाँ बेटी, वही चन्द्रगुप्त।
कार्नेलियाः पिताजी, आप ही ने मृत्यु-मुख से उसका उद्धार कियाथा और उसी ने आपके प्राणों की रक्षा की थी?
सिल्यूकसः हाँ, वही तो।
कार्नेलियाः और उसी ने आपकी कन्या के सम्मान की रक्षा कीथी? फिलिप्स का वह अशिष्ट आचरण पिताजी!
सिल्यूकसः तभी तो बेटी, मैंने साइवर्टियस को दूत बनाकरसमझाने के लिए भेजा था। किन्तु उसने उपर दिया कि मैं सिल्यूकस काकृतज्ञ हूँ, तो भी क्षत्रिय हूँ, रणदान जो भी माँगेगा, उसे दूँगा। युद्ध होनाअनिवार्य है।
कार्नेलियाः तब मैं कुछ नहीं कहती।
सिल्यूकसः (प्यार से) तू रूठ गयी बेटी। भला अपनी कन्या केसम्मान की रक्षा करने वाले का मैं वध करूँगा?
सुवासिनीः फिलिप्स को द्वंद्व-युद्ध में सम्राट् चन्द्रगुप्त ने मारडाला। सुना था, इन लोगों का कोई व्यक्तिगत विरोध...
सिल्यूकसः चुप रहो, तुम! (कार्नेलिया से) बेटी, मैं चन्द्रगुप्त कोक्षत्रप बना दूँगा, बदला चुक जायगा। मैं हत्यारा नहीं, विजेता सिल्यूकसहूँ।
(प्रस्थान)
कार्नेलियाः (दीर्घ निःश्वास लेकर) रात अधिक हो गयी, चलोसो रहें! सुवासिनी, तुम कुछ गाना जानती हो?
सुवासिनीः जानती थी, भूल गयी हूँ। कोई वाद्य-यन्त्र तो आपन बजाती होंगी? (आकाश की ओर देखकर) रजनी कितने रहस्यों कीरानी है - राजकुमारी!
कार्नेलियाः रजनी! मेरी स्वप्न-सहचरी!
सुवासिनीः (गाने लगती है) -
सखे! वह प्रेममयी रजनी।
आँखों में स्वप्न बनी,
सखे! वह प्रेममयी रजनी।
कोमल द्रुमदल निष्कम्प रहे,
ठिठका-सा चन्द्र खड़ा।
माधव सुमनों में गूँथ रहा,
तारों की किरन-अनी।
सखे! वह प्रेममयी रजनी।
नयनों में मदिर विलास लिये,
उज्ज्वल आलोक खिला।
हँसती-सी सुरभि सुधार रही,
अलकों की मृदुल अनी।
सखे! वह प्रेममयी रजनी।
मधु-मन्दिर-सा यह विश्व बना,
मीठी झनकार उठी।
केवल तुमको थी देख रही-
स्मृतियों की भीड़ घनी।
सखे! वह प्रेममयी रजनी।