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चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 33

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(परिषद्‌-गृह)

राक्षसः (प्रवेश करके) तो आप लोगों की सम्मति है किविजयोत्सव न मनाया जाय? मगध का उत्कर्ष, उसके गर्व का दिन, योंही फीका रह जाय!

शकटारः मैं तो चाहता हूँ, परन्तु आर्य चाणक्य की सम्मति इसमेंनहीं है।

कात्यायनः जो कार्य बिना किसी आडम्बर के हो जाय, वही तोअच्छा है।

(मौर्य सेनापति और उसकी स्त्री का प्रवेश)

मौर्यः विजयी होकर चन्द्रगुप्त लौट रहा है, हम लोग आज भीउत्सव न मनाने पावेंगे? राजकीय आवरण में यह कैसी दासता है?

मौर्य-पत्नीः तब यही स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कौन इस साम्राज्यका अधीश्वर है! विजयी चन्द्रगुप्त अथवा यह ब्राह्मण या परिषद्‌?

चाणक्यः (राक्षस की ओर देखकर) राक्षस, तुम्हारे मन में क्या है?

राक्षसः मैं क्या जानूँ, जैसी सब लोगों की इच्छा।

चाणक्यः मैं अपने अधिकार और दायित्व को समझ कर कहताहूँ कि यह उत्सव न होगा।

मौर्य-पत्नीः तो मैं ऐसी पराधीनता में नहीं रहना चाहती (मौर्यसे) समझा न! हम लोग आज भी बन्दी हैं।

मौर्यः (क्रोध से) क्या कहा, बन्दी? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता?हम लोग चलते हैं। देखूँ किसी सामर्थ्य है जो रोके! अपमान से जीवितरहना मौर्य नहीं जानता है। चलो -

(दोनों का प्रस्थान)

(चाणक्य और कात्यायन को छोड़कर सब जाते हैं।)

कात्यायनः विष्णुगुप्त, तुमने समझकर ही तो ऐसा किया होगा।फिर भी मौर्य का इस तरह चले जाना चन्द्रगुप्त को...

चाणक्यः बुरा लगेगा! क्यों? भला लगने के लिए मैं कोई कामनहीं करता कात्यायन! परिणाम में भलाई ही मेरे कामों की कसौटी है।तुम्हारी इच्छा हो, तो तुम भी चले जाओ, बको मत

(कात्यायन का प्रस्थान)

चाणक्यः कारण समझ में नहीं आता - यह वात्याचक्र क्यों?(विचारता हुआ) क्या कोई नवीन अध्याय खुलने वाला है? अपनी विजयोंपर मुझे विश्वास है, फिर यह क्या? (सोचता है।)

(सुवासिनी का प्रवेश)

सुवासिनीः विष्णुगुप्त!

चाणक्यः कहो सुहासिनी!

सुवासिनीः अभी परिषद्‌-गृह से जाते हुए पिताजी बहुत दुःखी

दिखाई दिये, तुमने अपमान किया क्या?

चाणक्यः यह तुमसे किसने कहा? इस उत्सव को रोक देने सेसाम्राज्य का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। मौर्यों का जो कुछ है, वह मेरेदायित्व पर है। अपमान हो या मान, मैं उसका उपरदायी हूँ। और,पितृत्व-तुल्य शकटार को मैं अपमानित करूँगा, यह तुम्हें कैसे विश्वासहुआ?

सुवासिनीः तो राक्षस ने ऐसा क्यों...?

चाणक्यः कहा? ऐं? सो तो कहना ही चाहिए। और तुहारा भी

उस पर विश्वास होना आवश्यक है, क्यों न सुवासिनी?

सुवासिनीः विष्णुगुप्त! मैं एक समस्या में ड़ाल दी गयी हूँ।

चाणक्यः तुम स्वयं पड़ना चाहती हो, कदाचित्‌ यह ठीक भी है।

सुवासिनीः व्यंग्य न करो, तुम्हारी कृपा मुझ पर होगी ही, मुझेइसका विश्वास है।

चाणक्यः मैं तुमसे बाल्य-काल से परिचित हूँ, सुवासिनी! तुमखेल में भी हारने कम समय रोते हुए हँस दिया करतीं और तब मैं हारस्वीकार कर लेता। इधर तो तुम्हारा अभिनय का अभ्यास भी बढ़ गयाहै! तब तो... (देखने लगता है।)

सुवासिनीः यह क्या, विष्णुगुप्त, तुम संसार को अपने वश मेंकरने का संकल्प रखते हो। फिर अपने को नहीं? देखो दर्पण लेकर -तुम्हारी आँखों में तुम्हारा यह कौन-सा नवीन चित्र है।

(प्रस्थान)

चाणक्यः क्या? मेरी दुर्बलता? नहीं! कौन है?

दौवारिकः (प्रवेश करके) जय हो आर्य, रथ पर मालविका आयी है।

चाणक्यः उसे सीधे मेरे पास लिवा लाओ!

(दौवारिक का प्रस्थान - एक चर का प्रवेश)

चरः आर्य सम्राट्‌ के पिता और माता दोनों व्यक्ति रथ पर अभीबाहर गये हैं (जाता है।)

चाणक्यः जाने दो! इनके रहने से चन्द्रगुप्त के एकाधिपत्य मेंबाधा होती। स्नेहातिरेक से वह कुछ-का-कुछ कर बैठता।

(दूसरे चर का प्रवेश)

दूसराः (प्रणाम करके) जय हो आर्य, वाल्हीक में नयी हलचलहै। विजेता सिल्यूकस अपनी पश्चिमी राजनीति से स्वतंत्र हो गया है, अबवह सिकन्दर के पूर्वी प्रान्तों की ओर दपचिप है। वाल्हीक सी सीमापर नवीन यवन-सेना के शस्त्र चमकने लगे हैं।

चाणक्यः (चौंककर) और गांधार का समाचार?

दूसराः अभी कोई नवीनता नहीं है।

चाणक्यः जाओ। (चर का प्रस्थान) क्या उसका भी समय आगया? तो ठीक है। ब्राह्मण! अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रह! कुछ चिन्तानहीं, सब सुयोग आप ही चले आ रहे हैं।

(ऊपर देखकर हँसता है, मालविका का प्रवेश)

मालविकाः आर्य, प्रणाम करती हूँ। सम्राट ने श्रीचरणों में सविनयप्रणाम करके निवेदन किया है कि आपके आशीर्वाद से दक्षिणापथ में अपूर्वसफलता मिली, किन्तु सुदूर दक्षिण जाने के लिए आपका निषेध सुनकरलौटा आ रहा हूँ। सीामन्त के राष्ट्रों ने भी मित्रता स्वीकार कर ली है।

चाणक्यः मालविका, विश्राम करो। सब बातों का विवरण एक-साथ ही लूँगा।

मालविकाः परन्तु आर्य, स्वागत का कोई उत्साह राजधानी मेंनहीं।

चाणक्यः मालविका, पाटलिपुत्र षड्‌यन्त्रों का केन्द्र हो रहा है।सावधान! चन्द्रगुप्त के प्राणों की रक्षा तुम्हीं को करनी होगी।

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