चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 19 Jayshankar Prasad द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 19

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.

Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.


(रावी के तट पर सैनिकों के साथ मालविका और चन्द्रगुप्त, नदी मं दूर पर कुछ नावें)

मालविकाः मुझे शीघ्र उपर दीजिए।

चन्द्रगुप्तः जैसा उचित समझो, तुम्हारी आवश्यक सामग्री तुम्हारेअधीन रहेगी। सिंहरण को कहाँ छोड़ा?

मालविकाः आते ही होंगे।

चन्द्रगुप्तः (सैनिकों से) तुम लोग कितनी दूर तक गये थे?

सैनिकः अभी चार योजन तक यवनों का पता नहीं। परन्तु कुछभारतीय सैनिक रावी के उस पार दिखाई दिये। मालव की पचासोंहिस्रिकाएँ वहाँ निरीक्षण कर रही हैं। उन पर धनुर्धर हैं।

सिंहरणः (प्रवेश करके) वह पर्वतेश्वर की सेना होगी। किन्तु

मागध! आश्चर्य है।

चन्द्रगुप्तः आश्चर्य कुछ नहीं।

सिंहरणः क्षुद्रकों के केवल कुछ ही गुल्म आये हैं, और तो...

चन्द्रगुप्तः चिंता नहीं। कल्याणी के मागध सैनिक और क्षुद्रकअपनी घात में हैं। यवनों को इधर आ जाने दो। सिंहरण, थोड़ी-सीहिंस्रिकाओं पर मुझे साहसी वीर चाहिए।

सिंहरणः प्रस्तुत है। आज्ञा दीजिए।

चन्द्रगुप्तः यवनों की जलसेना पर आक्रमण करना होगा। विजयके विचार से नहीं, केवल उलझाने के लिए और उनकी सामग्री नष्ट करनेके लिए।

(सिंहरण संकेत करता है, नावें जाती हैं)

मालविकाः तो मैं स्कन्धावार के पृष्ठ भाग में अपने साधन रखतीहूँ। एक क्षुद्र भाण्डार मेरे उपवन में भी रहेगा।

चन्द्रगुप्तः (विचार करके) अच्छी बात है।

(एक नाव तेजी से आती है, उस पर से अलका उतर पड़ती है)

सिंहरणः (आश्चर्य से) तुम कैसे अलका?

अलकाः पर्वतेश्वर ने प्रतिज्ञा भंग की है, वह सैनिकों के साथसिकन्दर की सहायता क ेलिए आया है। मालवों की नावें घूम रही थीं।मैं जान-बूझकर पर्वतेश्वर को छोड़ कर वहीं पहुँच गयी (हँसकर) परन्तुमैं बन्दी होकर आयी हूँ!

चन्द्रगुप्तः देवि! युद्धकाल है, नियमों को तो देखना ही पड़ेगा।मालविका! ले जा इन्हें उपवन में।

(मालविका और अलका का प्रस्थान)

(मालव रक्षकों के साथ एक यवन का प्रवेश)

यवनः मालव का सन्धि-विग्रहिक अमात्य से मिलना चाहता हूँ।सिंहरणः तुम दूत हो?

यवनः हाँ।

सिंहरणः कहो, मैं यहीं हूँ।

यवनः देवपुत्र ने आज्ञा दी है कि मालव-नेता मुझसे आकर भेंटकरें और मेरी जल-यात्रा की सुविधा का प्रबन्ध करें।

सिंहरणः सिकन्दर से मावों की ऐसी कोई सन्धि नहीं हुई, जिससेवे इस कार्य के लिए बाध्य हों। हाँ, भेंट करने के लिए मालव सदैवप्रस्तुत हैं - चाहे सन्धि-परिषद्‌ में या रणभूमि में!

यवनः तो यही जाकर कह दूँ?

सिंहरणः हाँ, जाओ - (रक्षकों से) - इन्हें सीमा तक पहुँचा दो।(यवन का रक्षकों के साथ प्रस्थान)

चन्द्रगुप्तः मालव, हम लोगों ने भयानक दायित्व उठाया है, इसकानिर्वाह करना होगा।

सिंहरणः जीवन-मरण से खेलते हुए करेंगे, वीरवर!

चन्द्रगुप्तः परन्तु सुनो तो, यवन लोग आर्यों की रण-नीति से नहींलड़ते। वे हमीं लोगों के युद्ध हैं, जिनमें रणभूमि के पास ही कृषकस्वच्छन्दता से हल चलाता है। यवन आतंक फैलाना जानते हैं और उसेअपनी रण-नीति का प्रधान अंग मानते हैं। निरीह साधारण प्रजा कोलूटना, गाँवों को जलाना, उनके भीषण परन्तु साधारण कार्य हैं।

सिंहरणः युद्ध-सीमा के पार के लोगों को भिन्न दुर्गों में एकत्रहोने की आज्ञा प्रचारित हो गयी है। जो होगा, देखा जायगा।

चन्द्रगुप्तः पर एक बात सदैव ध्यान में रखनी होगी।सिंहरणः क्या?

चन्द्रगुप्तः यही, कि हमें आक्रमणकारी यवनों को यहाँ से हटानाहै, और उन्हें जिस प्रकार हो, भारतीय सीमा के बाहर करना है। इसलिएशत्रु की ही नीति से युद्ध करना होगा।

सिंहरणः सेनापति की सब आज्ञाएँ मानी जायँगी, चलिए।

(सबका प्रस्थान)