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चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 18

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(पर्वतेश्वर का प्रासाद)

अलकाः सिंहरण मेरी आशा देख रहा होगा और मैं यहां पड़ीहूँ। आज इसका कुछ निबटारा करना होगा। अब अधिक नहीं - (आकासकी ओर देखकर) - तारों से भरी हुई काली रजनी का नीला आकाश- जैसे कोई विराट्‌ गणितज्ञ निभृत में रेखा-गणित की समस्या सिद्ध करनेके लिए बिन्दु दे रहा है।

(पर्वतेश्वर का प्रवेश)

पर्वतेश्वरः अलका, बड़ी द्विधा है।

अलकाः क्यों पौरव?

पर्वतेश्वरः मैं तुमसे प्रतिश्रुत हो चुका हूँ कि मालव-युद्ध में मैंभाग न लूँगा, परन्तु सिकन्दर का दूत आया है कि आठ सहस्र अश्वारोहीलेकर रावी तट पर मिलो। साथ ही पता चला है कि कुछ यवन-सेनाअपने देश को लौट रही है।

अलकाः (अन्यमनस्क होकर) हाँ कहते चलो।

पर्वतेश्वरः तुम क्या कहती हो अलका?

अलकाः मैं सुनना चाहती हूँ।

पर्वतेश्वरः बतलाओ, मैं क्या करूँ?

अलकाः जो अच्छा समझो! मुझे देखने दो ऐसी सुन्दर वेणीफूलों से गूँथी हुई श्यामा रजनी की सुन्दर वेणी-अहा!

पर्वतेश्वरः क्या कह रही हो?

अलकाः गाने की इच्छा होती है, सुनोगे?

(गाती है)

बिखरी किरन अलक व्याकुल हो विरस वदन पर चिन्ता लेख,

छायापथ में राह देखती गिनती प्रणय-अवधि की रेख।

प्रियतम के आगमन-पंथ में उड़ न रही है कोमल धूल,

कादम्बिनी उठी यह ढँकने वाली दूर जलधि के कूल।

समय-विहग के कृष्णपक्ष में रजत चित्र-सी अंकित कौन-

तुम हो सुन्दरि तरल तारिके! बोलो कुछ, बैठो मत मौन!

मन्दाकिनी समीप भरी फिर प्यासी आँखें क्यों नादान।

रूप-निशा की ऊषा में फिर कौन सुनेगा तेरा गान!

पर्वतेश्वरः अलका! मैं पागल होता जा रहा हूँ। यह तुमने क्याकर दिया है!

अलकाः मैं तो गा रही हूँ।

पर्वतेश्वरः परिहास न करो। बताओ, मैं क्या करूँ?

अलकाः यदि सिकन्दर के रण-निमन्त्रण में तुम न जाओगे तोतुम्हारा राज्य चला जायगा।

पर्वतेश्वरः बड़ी विडम्बना है।

अलकाः पराधीनता से बढ़ कर विडम्बना और क्या है? अबसमझ गये होगे कि वह सन्धि नहीं, पराधीनता की स्वीकृति थी।

पर्वतेश्वरः मैं समझाता हूँ कि एक हजार अश्वारोहियों को साथलेकर वहाँ पहुँच जाऊँ, फिर कोई बहाना ढूँढ़ निकालूँगा।

अलकाः (मन में) मैं चलूँ, निकल भागने का ऐसा अवसर दूसरान मिलेगा! (प्रकट) अच्छी बात है, परन्तु मैं भी साथ चलूँगी! मैं यहाँअकेले क्या करूँगी?

(पर्वतेश्वर का प्रस्थान)

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