देवों की घाटी - 16 BALRAM AGARWAL द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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देवों की घाटी - 16

… खण्ड-15 से आगे

‘‘पहली यह कि इसे कम से कम इस्तेमाल किया जाए; और दूसरी यह कि इस्तेमाल करने के बाद इसे लावारिस की तरह सड़क पर या नदी-नाले में न फेंक दिया जाए। इन जगहों पर फेंकी जाने पर ये अपनी ताकत से दस गुना ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं।’’

‘‘मैंने तो सुना है कि, ’’ उसकी बात खत्म हो जाने के बाद अल्ताफ बोला, ‘‘कूड़े से बीनकर ले जाई गई प्लास्टिक और पॉलिथीन को कैमिकल और मशीनों से गुजारकर दोबारा इस्तेमाल करने लायक बना लिया जाता है!’’

‘‘ठीक ही सुना है।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘इस तरह बनाई हुई पॉलिथीन तो और-भी ज्यादा नुकसानदेह होती होगी?’’ अल्ताफ ने पूछा।

‘‘बेशक।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘अरे भाई, केदारनाथ की बाढ़ पर याद आया...’’ उन दोनों की बातचीत के बीच में दादा जी बोले, ‘‘मैंने शुरू से अब तक रास्ते के जिन-जिन गाँवों, मंदिरों और गुफाओं वगैरा के बारे में बताया है, उनमें से बहुत-सी जगहें उस बाढ़ में तबाह हो चुकी हैं।’’

‘‘फिर आपने उन जगहों के बारे में हमें बताया ही क्यों दादा जी?’’ आगे-आगे चलती मणिका दादा जी की बात को सुनकर शिकायती स्वर में बोली।

‘‘भई, बताया इसलिए कि इस समय मुझे न तो उनके पूरी तरह नष्ट हो जाने की जानकारी है; और न ही पूरा या आधा-अधूरा बच जाने की।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘किसी-किसी का तो पता होगा।’’ सुधाकर ने टोका, ‘‘वही सुधार बताते चलते।’’

‘‘उनमें से एक के बारे में तो चलो बता ही देता हूँ; क्योंकि उसके बारे में एक अफवाह मैंने बाढ़ से तबाही के दिनों में उड़ती-उड़ती-सी सुनी थी।’’

‘‘चलो, एक ही सही।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘मम्मी जी कहा करती हैं कि ‘भागते भूत का लंगोट पकड़ में आ जाए तो वह भी सबूत के तौर पर पेश करने के लिए काफी होता है।’’’

‘‘तो सुन—वह जो श्रीनगर के पास उफल्डा नाम के गाँव की बात बताई थी न!’’ दादा जी ने बताना शुरू किया।

‘‘हाँ।’’ इस बार निक्की बोला।

‘‘वहाँ आदि शंकराचार्य ने श्रीयंत्र वाली जिस ऐतिहासिक शिला को नीचे नदी में धकेल दिया था; उसे बाढ़ के पानी ने काफी नुकसान पहुँचाया है।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि वह शिला या तो पूरी या फिर अधूरी, 2013 की बाढ़ में पानी के दबाव से टूट-फूटकर बह गई। जो भी हो, उस बाढ़ ने बहुत-सी प्राचीन गुफाओं, इमारतों, मंदिरों और शिलाओं को ही नहीं बहुत-से गाँवों और बुग्यालों को भी सिरे से नष्ट ही कर दिया।’’

ओजोन परत की कहानी

‘‘आप बुरा न मानना सर जी, ’’ अल्ताफ सुधाकर से बोला, ‘‘लेकिन मेरी समझ में अभी भी नहीं आया कि यहाँ बद्रीनाथ के बाजार में पड़ी प्लास्टिक की यह बोतल या आलू चिप्स का यह खाली रैपर केदारनाथ में बाढ़ कैसे ला सकते हैं।’’

‘‘सच में, इस बात को तो मेरा भी मन मान नहीं पा रहा है।’’ ममता ने अपनी शंका जोड़ी। पहाड़ी रास्ते पर ऊपर की ओर चलते हुए उसकी साँस फूलने लगी थी, इसलिए वह एक बड़ी शिला का सहारा लेकर जहाँ की तहाँ खड़ी हो गई।

उसे थकी हुई देखकर बाकी लोग भी रुक गए। दादा जी भी मौके के मुताबिक एक पत्थर पर बैठकर सुस्ताने लगे और सुधाकर उनके पास पड़े दूसरे पत्थर पर बैठ गया। बच्चे आसपास के पौधों का निरीक्षण करने लगे और अल्ताफ अपने सवाल का जवाब पाने के इंतजार में सुधाकर की ओर मुँह किए खड़ा हो गया।

‘‘आप दोनों की बात का जवाब देने के लिए मुझे कुछ बातें समझानी पड़ेंगी।’’ दो पल रुककर सुधाकर ने बोलना शुरू किया, ‘‘सबसे पहले तो आपको यह समझ लेना होगा कि हमारे चारों ओर का यह वातावरण बहुत नन्हें-नन्हें, किसी भारी-भरकम लैंस की मदद लिए बिना नंगी आँखों से न दीख पाने वाले कणों से भरा पड़ा है।’’

‘‘हाँ सर जी, ’’ इस बात को सुनकर अल्ताफ बोला, ‘‘कम उजाले में धूप की लाइन में बहुत-से कण नंगी आँखों से दिखाई भी देते हैं।’’

‘‘हाँ, ’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘लेकिन जिन कणों की बात मैं कर रहा हूँ, वे तुम्हारे देखे इन कणों से हजार गुना छोटे होते हैं और नंगी आँखों से बिल्कुल भी दिखाई नहीं दे सकते। वे हमारी साँस के साथ शरीर के भीतर जाते हैं और खून में घुलकर पूरे बदन की यात्रा करते हैं। इस तरह वे हमारे स्वास्थ्य पर भी असर डालते हैं और सोचने-समझने के तरीके पर भी। ज्यादा गहराई में जाने की जरूरत नहीं है। हवा में तैरते हुए ये लगातार आपस में टकराते रहते हैं और बहुत तेज गति से चलते रहते हैं। आप बस यह समझ लीजिए कि अच्छी चीजों के सम्पर्क में आने पर ये कण अच्छे गुणों वाले और गंदी चीजों के सम्पर्क में आने पर बुरे गुणों वाले बन जाते हैं तथा दूर तक के वातावरण को प्रभावित करते हैं।’’

‘‘ओ...ऽ...’’ अल्ताफ के मुँह से निकला।

‘‘मुझे लगता है कि हमारे ऋषि-मुनि हवन और यज्ञ करने के बहाने वातावरण में तैरते इन अणुओं को ही शुद्ध किया करते थे।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘हमारे यहाँ भी लोबान की धूनी देने का चलन है।’’ अल्ताफ बोला।

‘‘सड़न और दुर्गंध ही नहीं, तेज आवाजें भी इन कणों को नुकसानदेह बना देती हैं। इसीलिए तेज आवाजों को ध्वनि प्रदूषण फैलाने वाली कहा गया है।’’ सुधाकर ने बताया, ‘‘एक बात यह भी है कि ये कण जितने ज्यादा छोटे होते हैं, उतने ही ज्यादा ताकतवर भी होते हैं। परमाणु बम इन्हीं की ताकत का इस्तेमाल करके तबाही मचाते हैं और रासायनिक हथियार भी इन्हीं के कन्धे पर रखकर अपनी बन्दूक चलाते हैं।’’

इस बीच बच्चे भी वहीं आकर बैठ गए थे। सुधाकर की बात सुनकर मणिका ने कहा, ‘‘डैडी, हमारी किताब में ओजोन लेअर का पाठ है। उसमें बताया गया है कि हमें उसकी रक्षा करनी चाहिए और ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे उसमें छेद हो जाने का खतरा हो।’’

‘‘यह ओजोन लेअर क्या है सर जी?’’ मणिका की बात पर अल्ताफ ने सुधाकर से पूछा।

‘‘अल्ताफ, हमारे वायुमंडल में एक खास अनुपात में हजारों ऐसी गैसें मौजूद हैं जो धरती पर जीवन के लिए जरूरी हैं। अनुपात से उनकी कम या ज्यादा मौजूदगी जीवन के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है। लेकिन, धरती की सतह के ऊपर दस से पचास किलोमीटर की दूरी तक इसको घेरे हुए ओजोन गैस की मोटी परत मौजूद है। इसकी मोटाई मौसम के और भौगोलिक दृष्टि के मद्देनजर बदलती रहती है। ओजोन की यह परत सूरज की ऐसी किरणों को धरती पर आने से रोकती है जो हर प्राणी को रोगी बना सकती हैं। साइंस की भाषा में उन्हें पराबैंगनी किरणें कहा जाता है। ओजोन की परत उन किरणों की 93 से 99 प्रतिशत तक मात्र सोख लेती है। पृथ्वी के वायुमंडल का 91 प्रतिशत से ज्यादा ओजोन उस परत में मौजूद है। हमारी गलती से जब वातावरण के कण प्रदूषित होते हैं तो ओजोन की इस परत में छेद हो जाने का खतरा बढ़ जाता है। अगर वहाँ छेद हो गया तो कितने लाइलाज रोगों से धरती के प्राणी मरने लगेंगे, कहा नहीं जा सकता।’’

‘‘ओ...ऽ...’’ अल्ताफ के मुँह से पुनः निकला।

‘‘अब तुम समझ गए होओगे कि बद्रीनाथ में पड़ी गंदगी किस तरह केदारनाथ में तबाही की वजह बन सकती है या कश्मीर में बहने वाली झेलम में बाढ़ ले आने की वजह बन सकती है।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘यह जो जरूरत से ज्यादा गर्मी, सर्दी या बरसात पड़ने लगी है; या बेमौसम गर्मी, सर्दी या बरसात पड़ने लगी है उस सब की वजह प्रदूषण के कारण गर्म हो चुके वातावरण के कण ही हैं। साइंस की भाषा में इसे ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। ग्लोबल वार्मिंग से इस धरती को बचाने की जिम्मेदारी खास और आम हर व्यक्ति की है।’’

यों कहकर वे अपनी जगह से उठकर आगे बढ़ने लगे। बाकी सब भी पीछे-पीछे चलने लगे।

महिमामयी अलकनन्दा

वहाँ से चलकर दादा जी सबसे पहले असीम और अक्षय जल की स्वामिनी अलकनन्दा की ओर उन्हें ले गए। जिस सुन्दर नदी को वे सब श्रीनगर से यहाँ तक निहारते आए थे और जिसमें अब तक कितनी ही अन्य नदियों और सैकड़ों झरनों को समाहित होते वे देखते आए थे, इस समय उसे वे एकदम उसके ऊपर बने पुल पर खड़े होकर देख रहे थे। पानी का इतना तेज बहाव तथा इतना चौड़ा पाट किसी दूसरी नदी का अब से पहले उन्होंने कभी नहीं देखा था।

इतना जल! और एकदम निर्मल!!

भारतीय सीमा का आखिरी गाँव

उसके बाद दादा जी ने बच्चों को माणा गाँव भी दिखाया। कितना मनोरम, कितना मनोहर है माणा। भारतमाता के माथे पर सुहाग की बिन्दी-जैसा शुभ। भोले-भाले और मासूम बच्चे, स्त्रियाँ, तकली घुमाते, स्वेटर बुनते या उँगलियों के बीच बीड़ी फँसाए धूप सेंकते बूढ़े। बड़ी-बड़ी आँखों वाली छोटी-छोटी सरला गायें, भेड़ें, मेमने, घने बालों वाले भेड़िये-जैसे नजर आते कद्दावर कुत्ते।

गढ़वाल के ज्यादातर नौजवान भारतीय सेना की सेवा में जाना पसन्द करते हैं। देश-सेवा उनके लिए सबसे बड़े गौरव की बात है।

माणा गाँव के प्रवेश द्वार के तौर पर ऊँचा-सा गेट बनाया हुआ है जिस पर देवनागरी हिन्दी में लिखा है—सुस्वागतम। इस गेट के अलावा इधर-उधर अन्य कई बोर्ड भी माणा की सड़कों के किनारे लगे थे। उन सभी पर गाँव का नाम ‘माणा’ के स्थान पर ‘माना’ लिखा देखकर दादा जी को थोड़ा अटपटा लगा लेकिन उन्होंने इस बारे में गाँव के किसी व्यक्ति से कुछ कहना उचित नहीं समझा। उन बोर्डों पर लिखी इबारत के अनुसार माणा गाँव समुद्रतल से 3118 मीटर यानी 10230 फुट की ऊँचाई पर बसा है। गाँव के भीतर जाने पर उन्हें कुछ दुकानों पर ‘हिन्दुस्तान की अन्तिम दुकान’ लिखे बोर्ड भी दिखाई दिए। एक दुकान पर लिखा था—‘हिन्दुस्तान की सीमा पर चाय की अन्तिम दुकान। सेवा का एक मौका अवश्य दें। यहाँ पर एक बार चाय अवश्य पीयें।’

उन बोर्डों को देखकर मणिका सुधाकर से बोली, ‘‘डैड, इस दुकान के सामने खड़ी करके मेरी एक फोटो उतारिए।’’

‘‘ताकि सबूत रहे कि मणिका वाकई हिन्दुस्तान की आखिरी दुकान को छूकर आई है?’’ सुधाकर ने हँसते हुए कहा।

‘‘नहीं, बल्कि इसलिए कि इस गाँव के लोगों को एक दिन खुद पर यह गर्व हो कि एक बार हिन्दुस्तान की जानी-मानी हस्ती मणिका मित्तल माणा में भी अपने चरण रख चुकी हैं।’’ मणिका ने गरदन उठाकर विश्वास के साथ कहा।

उसकी इस बात पर सभी खिलखिलाकर हँस पड़े। सुधाकर ने कैमरा तैयार किया और बोला, ‘‘माननीया मणिका मित्तल जी, मैं आपकी फोटो नहीं खींचूँगा बल्कि वीडियो बनाऊँगा और उस वीडियो से तैयार फिल्म का नाम होगा—माणा में मणिका।’’

सुधाकर की इस बात का सभी ने तालियाँ बजाकर स्वागत किया। मणिका ने उसी पल से एक सधी हुई अभिनेत्री की तरह चलना और बोलना शुरू कर दिया। सबने चुप रहकर उसके इस अन्दाज को प्रोत्साहित किया। इस घटना के बाद सुधाकर ने मणिका की लगभग हर गतिविधि को शूट किया।

उन सब ने गणेश गुफा, व्यास गुफा और भीम पुल के भी दर्शन किए।

‘‘यह पुल देख रहे हो? एक पूरी शिला को उठाकर नदी के दोनों छोरों पर टिका दिया गया है।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘किसी जमाने में, लोग कहते हैं कि नदी को पार करने के लिए भीम ने इस शिला को नदी पर टिकाया था। तभी से इसका नाम ‘भीम पुल’ पड़ गया।’’

‘‘और गणेश गुफा?’’ निक्की ने व्यंग्यपूर्वक पूछा, ‘‘इसे क्या गणेश जी ने खोदा था?’’

‘‘महाभारत का नाम सुना है तुमने?’’ दादा जी ने उससे पूछा।

‘‘क्यों नहीं।’’ निक्की विश्वासपूर्वक बोला।

‘‘किसने लिखा है उसे?’’

‘‘महर्षि व्यास ने।’’ उसी ऐंठ के साथ उसने उत्तर दिया।

‘‘गलत। महर्षि व्यास ने महाभारत को लिखा नहीं बल्कि डिक्टेट किया था; यानी सिर्फ बोला था।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘लिखा तो उसको था गणेश जी ने।’’

‘‘यानी व्यास जी रहे बॉस और गणेश जी बने उनके स्टेनो!’’ मणिका हँसी।

‘‘ठीक कहा तुमने।’’ दादा जी बोले, ‘‘इस पुरानी कहानी पर विश्वास करें तो गणेश जी इस सृष्टि के पहले स्टेनो हैं। महाभारत ग्रंथ को लिखते समय जिस गुफा में गणेश जी बैठते थे उसे गणेश गुफा कहते हैं और जिसमें बैठकर व्यास जी डिक्टेट करते थे उसे व्यास गुफा कहते हैं।...’’

‘‘यानी कि गणेश जी लिखित साहित्य के पहले आशुलेखक हैं।’’ शूटिंग करते हुए कभी आगे तो कभी पीछे चल रहे सुधाकर ने चलते-चलते रुककर कहा।

खण्ड-17 में जारी……