गद्दार Mirza Hafiz Baig द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गद्दार

गद्दार

काली अन्धेरी रात सुबह धधकती आग की लपटें कहर बरपा कर थक चली थीं । रात भर की चीख पुकार मरघट के सन्नाटे सी भयावह शांति सी हो चली थी । सुबह का सूरज ठन्डी पड़ रही राख की ढेर पर उगा था । कहीं कहीं लपटें अब भी रह रह कर धधक उठतीं और अपने तेवर दिखाकर फ़िर शांत हो जाती ।

राख की उसी ढेर से वह एक आश्चर्य की तरह बाहर निकल आया । खाक आलूदा चेहरा, राख आलूदा सिर । कलिख पुते हुये हाथ पैर ; वह एक छोटा नन्हा सा मासूम । उसका यूं प्रगट होना किसी आश्चर्य से कम नहीं था । राख के उस ढेर मे उसके माता पिता ढेर हो चुके थे । माता पिता ही क्या आस पड़ोस और पूरा मुहल्ला ही राख की ढेर मे तब्दील हो चुका था । उस आग मे कोई एक भी ऐसा नहीं बचा था जिसे वह जनता हो, या जिस पर विश्वास करता हो । इस बात का पूरा पूरा खयाल रखा गया था कि कोई भी न बचे । इस लिये उसका बच जाना और भी अचरज की बात थी । वह नन्हा, जले हुये मलबे के ढेर मे कुछ तलाश रहा था ।

मैं तुरंत उसके सिर पे जा सवार हुआ ।

“क्या ढूंड रहा है ?” मैने पूछा ।

उसने सिर उठाकर मेरी ओर देखा । मै सहम गया । उसकी रो-रो कर सूज चुकी आंखों मे कुछ था । कुछ तो था, जो मुझे अंदर तक दहला गया । ऐसी सूनी आंखें मैने पहले कभी नहीं देखी थी । किसी तरह मैने अपना सवाल पूरा करने की कोशिश की- “मम्मी पापा को … ?”

“नहीं ।“ उसने जवाब दिया “उन लोगों ने मम्मी पापा को मार कर जला दिया ।“ उसने कहा ।

अच्छा तो इसने सब कुछ देखा है । और रात के अंधेरे के कारण शायद पहचान नहीं पाया । चलो यह तो अच्छी बात है । लेकिन यह भी कोयी बात हुई । हमसे यह चूक कैसे हुई । यह तो हमारी असफ़लता है ।

“तू कहां था ?” मैने पूछा ।

“वहां, टेबल के नीचे ।“ उसने एक तरफ़ इशारा करते हुये कहा । वह मुझपे विश्वास कर रहा था । निश्चल विश्वास । आखिर बच्चा ही तो है । हुंह मुझे क्या ? वह बेवकूफ़ है । बेवकूफ़ इसलिये, क्योंकि उसने मुझ पर विश्वास किया ? विश्वास क्या इतनी बुरी शय है ? लेकिन हम जो कुछ करते हैं अपने विश्वास के आधार पर ही तो करते हैं…

मै यह किस उधेड़बुन मे फ़ंस गया ? मुझे यह सब नहीं सोंचना है । मुझे इस सवाल का जवाब नहीं चाहिये । मै जानता हूं , इस सवाल का जवाब मुझे नंगा करके रख देगा । दर असल मुझे किसी सवाल जवाब मे नहीं पड़ना चाहिये । अपनी आत्मा का नंगापन देखने वाले अक्सर अपने रास्ते बदल लिया करते हैं ।

मैने अपने सिर को एक झटका देकर मन मस्तिष्क मे उठते तूफ़ान को दबाने की कोशिश की ।

मुझे कमज़ोर नहीं पड़ना चाहिये । इसे छोड़ना ठीक नहीं होगा । मेरे समाज का दुश्मन, धर्म का दुश्मन, जाति का दुश्मन ! नही, नही, मेरे देश मेरे राष्ट्र का दुश्मन । इन लोगो के कारण ही हमारी समाजिक व्यवस्था छिन्न भिन्न हो रही है । ये लोग ही सारी सम्स्याओं की जड़ है । ये हमारे जैसे नही है, इसलिये इन्हे जीने का कोई अधिकार नहीं है । इन्हे अगर जीना है तो हमारी तरह से जीना होगा । हमारा वर्चस्व, हमारी श्रेष्ठता स्वीकर करके रहना होगा । दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर…… यह धर्म युद्ध है … नहीं यह देशभक्ति है … । खैर ! यह जो भी हो, यह मेरा कर्म मेरा कर्तव्य है ।

मैं उस बच्चे के सिर पर जा सवार हुआ ।

“क्या ढूंढ रहा है ?” मैने सवाल दागा ।

उसके नन्हे हाथ हर इक चीज़ को अपनी जगह से हटाने की कोशिश कर रहे थे; लेकिन नाकाम हो रहे थे ।

“आप मेरी मदद करेंगे ?” उसने पूछा ।

मै इन्कार नहीं कर सका और मलबे को उलट पलट करने लगा । मुझे आश्चर्य हुआ । मुझे क्या हुआ है ? मै करने क्या आया था और कर क्या रहा हूं ? मै एक बच्चे की बात मे कैसे आगया हूं ? मै उसे इन्कार क्यों नही कर सका ? यह क्या जादू है ? यह जादू शायद उसकी आवाज़ मे है । या शायद उसके अस्तित्व मे । या शायद उसके बचपन मे और मेरे वयस्क होने मे । पता नही… । अरे ! मै यह किस पचड़े मे पड़ गया हूं ? मै हाथ रोक कर खड़ा हो गया । मुझे यह हर्गिज़ गवारा न था कि एक बच्चा मुझसे अपनी बात मनवा ले ।

“क्या हुआ ?” उसने पूछा ।

“मुझे पता ही नही तुम यहां क्या ढूंढ रहे हो । मै तुम्हारी मदद कैसे करूंगा ?” मैने बहाना किया । लो अब मै बहानेबाज़ भी बन गया । किसके आगे ? एक बच्चे के आगे । वह भी किस बच्चे के आगे ? एक दुश्मन के बच्चे के आगे ।

“बताना ज़रूरी है क्या ?” उसने पूछा ।

“हां ! वर्ना मै तुम्हारी मदद कैसे करूंगा ।“ मैने कहा ।

वह मौन हो गया । थोड़ी देर चुप्पी छाई रही ।

“अच्छा छोड़िये, आप रहने दीजिये ।“ उसने कहा ।

मेरे कान खड़े हो गये । आखिर क्या बात थी जो यह छुपा रहा था । कहीं हमारे खिलाफ़ कोई सुराग तो नहीं है ।

मेरे साथियों ने मुझे वारदात की जगह पर वापस भेजा था, दिन के उजाले मे यह देखने के लिये कि, काम सही ढंग से पूरा हुआ कि नही । कही कोई सुराग तो नही छूटा है । लेकिन कहां इस बच्चे के चक्कर मे पड़ गया । वे सब मेरा इन्तेज़ार कर रहे होंगे । मुझे तुरंत उनके पास पहुंचना चाहिये । लेकिन मेरी उत्सुकता मुझे रोक रही है । क्या पता यही वह सुराग हो जिसकी तलाश मे मै यहा आया हूं । अगर यह सच है तो इसे मिटाये बिना जाना ठीक नहीं ।

“आखिर तुम ऐसी क्या चीज़ ढूंढ रहे हो ?” मैने अधीर होकर पूछा ।

“आप मेरी हसी उड़ायेंगे ।“

हसी !? ऐसे मौके पर । या तो यह पागल है, या मुझे पागल बना रहा है ।

“क्यों…?” मैने पूछा । वह चुप रहा ।

“नही उड़ाऊंगा ।“ मैने सांत्वना दी ।

“सपने ।“ उसने कहा ।

“सपने !?”

“हां ! सपने । मेरे पास बहुत सारे सपने थे । मम्मी कहती थी ‘इन्हे सम्हालकर रखना । ये ही तुम्हे रास्ता दिखायेंगे’ । पापा कहते थे ‘तुमसे तुम्हारे सपने कोई नही चुरा सकता’ । वे जल तो नही गये होंगे न ? वे आग मे तो नही जलते ।“

“शायद नही जलते… या शायद… । पता नही…” मै ठीक ठीक कुछ कह नही पा रहा था । शायद मै इस बारे मे कुछ जानता ही नही था । मै कभी सपनो का असीर नही रहा । अगर रहा होता तो शायद आज वह नही होता जो हूं ।

मै यंत्रवत उसके साथ मलबे को इधर उधर करने लगा । कुछ मलबा हटते ही नीचे जले हुये घर की चीज़ें नज़र आने लगीं । अधजला स्टडी-टेबल अधजली कुर्सियां, क्रिकेट का बैट, जली हुई किताबों और कम्प्युटर के अवशेष, एक स्त्री और एक पुरुष की अधजली लाशें । वह हर एक चीज़ को बुझी बुझी आंखों से देख रहा था । तो ऐसी होती हैं स्वप्नहीन आंखें । उसकी आंखों से मुझे डर लगरहा था । मै उसका सामना नही कर सकता… नही… । मै एक कदम पीछे हटा । फ़िर दो और कदम्… फ़िर कुछ और्… । फ़िर मै मुड़कर बेतहाशा भागने लगा ।

मै ऐसे भाग रहा था जैसे मेरे पीछे भूत लग गये हों । शायद मै अपने आप से भाग रहा था, लेकिन क्या अपने आप से भागना सम्भव है ?

मुझे कुछ होश नही मैने कितने जले हुये मकानो, सूनी गलियों और डरे सहमे नुक्कड़ों को पार किया । आखिर को मै अपने साथियो के सामने जाकर गिर पड़ा । मुझे इस हाल मे देख वे भी भयभीत हो गये । “क्या हुआ, क्या हुआ… ?” वे मुझे झिंझोड़-झिंझोड़ कर पूछ रहे थे । वे भागने को उद्दत थे । उनके चेहरों पर खौफ़ साफ़ नज़र आने लगा । यह किस बात का खौफ़ था ? वे तो बड़े बेफ़िक्र रहते थे । रात के कत्लो-गारत के समय भी उनके चेहरे पर उल्लास था । वे मदमस्त थे, जैसे कोई उत्सव मना रहे हों । लेकिन मेरा हाल देख वे इतने डरे हुये क्यों है ।

मैने सारा हाल कह सुनाया । वे स्तब्ध से सुन रहे थे । फ़िर एकाएक ठहाका मारकर हसने लगे । वे पूरा मुह खोलकर हस रहे थे । पेट पकड़-पकड़ कर और मेरी तरफ़ हाथ कर-कर के हस रहे थे । “बच्चे से डर गया… ।“ वे मेरी भर्त्सना कर रहे थे ।

“कहां है ?” किसी ने पूछा ।

“वहीं…”

“बेवकूफ़ ! ज़िन्दा क्यों छोड़ा ? तुझे सबूत मिटाने भेजा गया था…”

“बच्चा तो है…” मैने सफ़ाई देने की कोशिश की; लेकिन मेरी बात काट दी गयी…

“सांप का बच्चा… । दुश्मन का बच्चा सांप से ज़्यादा खतरनाक होता है ।“

“वह क्या करेगा… ? बच्चा… “ मैने फ़िर सफ़ाई देने की कोशिश की लेकिन कोई मेरी बात सुनने को तैयार नही था । वे लोग मुझ पर लगातार चिलाये जा रहे थे…

“अबे बच्चा नही, एटम-बम है एटम-बम ! फ़टा तो हम सब मारे जायेंगे । पता है, मीडिया पहुंचने वाला है । पुलिस पहुचेगी, फ़ोर्स पहुचेगी… हमारे पास सिर्फ़ एक घंटे का समय बचा था । जा जल्दी निपटा के आ… ।“

मै वापस पहुंचा ।

वह मलबे के ढेर पर बैठा रो रहा था । मुझे देखते ही उठ खड़ा हुआ । मैने अपने जेब मे रखे खंजर को टटोला । ठीक… । लेकिन वह मेरी तरफ़ देख रहा था । उसने मेरी आंखों मे आंखें डाल दी जैसे मुझसे कुछ पूछ रहा हो । लेकिन वह चुप रहा । उसकी चुप्पी… उसकी आंखें… । उसकी चुप मे हज़ार सवाल थे । नही, उसे चुप नही रहना चाहिये, उसे सवाल करना चाहिये उसके हर सवाल का जवाब मेरी जेब मे पड़ा था; वह खंजर । लेकिन उसकी चुप्पी का मेरे पास कोई जवाब नही था । और उसकी आंखे… ? वह मुझसे क्या पूछ रही थी ? वे आखें मुझे भयभीत कर रही थीं । बच्चे की ऐसी आंखें जिसमे से सारे सपने लूट लिये गये हों । कितनी भयानक होती है वे आंखें । आंखें ऐसी नही होनी चाहिये । किसी भी बच्चे की आंखें ऐसी नही होनी चाहिये । किसी की भी आंखें… । हां यही वो क्षण था जब मैने जाना कि मुझे किस चीज़ से डर लगता है । इसीलिये मै यह जान पाया कि मुझे क्या करना है ।

“सपने चाहिये ?” मैने पूछा ।

“… “ उसने बिना कुछ कहे हां मे सिर हिलाया । उसके चेहरे पर अविश्वास साफ़ दिख रहा था । फ़िर भी उसने इन्कार नही किया । शायद यह उसकी विकल्पहीनता की स्थिति का तकाज़ा हो ।

मैने उसे उठा लिया और चलने लगा । मै नही जानता था कहां जाना है; लेकिन यह जानता था कि जाना है । यह बिना मन्ज़िल का सफ़र था और बिना राह का भी; क्योंकि मुझे पता था कि कोई दिशा खतरे से खाली न थी । सूनी गलियो मे धीरे-धीरे दूर का शोर सुनाई देने लगा था । मेरा दिल बैठा जा रहा था । सिर की नसें फ़ूलने लगीं । मै पसीने से तर-ब-तर होने लगा । पैर कांपने लगे । बड़े बड़े अपराध करते मै कितना सहज रहा लेकिन अब मुझे क्या हो रहा था । मै शायद चक्कर खाकर गिर जाऊं… फ़िर इसका क्या होगा ? नही, मुझे अपने होश हवास कायम रखने हैं… । अचानक मेरा एक और डर मेरे सामने आगया । वे मेरे साथी सामने थे ।

“अबे ! तूने अब तक काम किया नही । बेवकूफ़ ! इसे लिये कहां फ़िर रहा है ?” किसने कहा मुझे नही पता । मै जैसे आपे मे नही था । मेरे लिये वे सब एक जैसे थे । मुझे अपराध बोध होने लगा । लगा जैसे मै चोरी करते पकड़ा गया हूं । ऐसा मेरे साथ पहली बार हुआ था । वे सब मेरे साथी थे… ।

“लगता है होश मे नही है ।“ कोई बोला ।

“ला, उसे इधर दे ।“ कोई और बोला ।

“इसे सम्हालो… ।“ मुझे ऐसा लगने लगा जैसे कोई बहुत दूर से बोल रहा है । किसी ने आकर बच्चे को लेने की कोशिश की । मैने अचानक दृढ़ता से उसे परे ढकेल दिया ।

“अबे क्या कर रहा है ?” कोई चीखा ।

मैने तुरंत एक हाथ जेब मे डालकर अपना खंजर बाहर निकाल लिया । “मुझे जाने दो… मुझे जाने दो… ।“ मैने गुर्राने की कोशिश की, लेकिन मेरे गले से फ़ुसफ़ुसाहट के सिवाय कुछ न निकला ।

“अच्छा ! हमारी बिल्ली हमी पे म्याउ ?”

“हम पर हथियार उठायेगा ?”

“गद्दार !”

वे मुझे झपटने के लिये बढ़ने लगे । मै भाग निकला । तभी पीछे से एक आवाज़ आई “धांय…” और इसके बाद शोर बढ़ने लगा ।

मुझे पता नही मै कितना दौड़ा हूं । नही पता कहां कहां से भागा हूं । कितनी गलियां पार की । कहां कहां से गुज़रा हूं ।

अब मै एक बड़ी सड़क पर भागा जारहा था, जिसके बीच मे डिवाइडर बना हुआ था और जिसके दोनो ओर से बे इन्तेहा शोर उठ रहा था और पत्थर बरस रहे थे । दोनो तरफ़ इंसानो का हुजूम था दो गिरोहो मे बटा हुआ । एक दूसरे के खून के प्यासे । वे नारे लगा-लगा कर एक दूसरे को उकसा रहे थे । एक दूसरे पर पत्थर और जलती हुई चीज़ें फ़ेक रहे थे । और कमाल यह कि घायल होने वाले भी इंसान ही थे । मै अपनी लगाई हुई आग देख रहा था ।

मै बीच सड़क पर उस नन्हे से बच्चे को सीने से लगाये अकेला भागा जारहा था । दोनो तरफ़ से बरसते हुये पत्थरों से घायल । मेरे पैर के पिछले हिस्से पर कुछ रेंग रहा था । गर्म और लिज़लिज़ा सा । धीरे धीरे दर्द का अहसास पैर की मासपेशियों से होकर मेरे ज़ेहन तक पहुंचने लगा । मेरा एक पैर जवाब देने लगा । किसी तरह घिसटते हुये भागने की नौबत आगई… । अब समझ मे आया, वह धांय की आवाज़… । मुझे पैर मे गोली लगी थी । कमीनो ने कोई हवाई फ़यर नही किया था । वे मेरी जान लेना चाहते थे । कुछ समय पहले तक वे मेरे दोस्त थे । मेरे साथी । अब मेरे खून के प्यासे थे । लेकिन यहां तो मै दोनो तरफ़ से घिरा हुआ था । मेरे पैर मे तेज़ दर्द लहर की तरह दौड़ने लगी । सड़क के बीच डिवाईडर मे एक गड्ढा देख मै उसी की आड़ मे जा छिपा । पैर से खून तेज़ी से बह रहा था । पैर की मासपेशियां दर्द से ऐंठने लगी । ओह्… तो ऐसा होता है गोली लगने का दर्द । मैने बच्चे को आड़ मे किया और अपनी जेब से चाकू निकाल कर उससे गोली निकालने की कोशिश की लेकिन दर्द के कारण नाकाम रहा । वह फ़टी-फ़टी आंखों से मेरे पैर को और उससे बहते हुये खून को देख रहा था । दर्द और डर के भाव एक साथ उसके चेहरे पर उभर आये थे । वह मेरा दर्द महसूस कर रहा था और मेरे लिये डर रहा था । कितनी अजीब बात थी । वह मेरा दुश्मन था; मै उसका । फ़िर यह अहसास क्यों । अभी रात को ही तो मै दंगे और आगजनी मे शामिल था । उसके मा बाप और सारे अड़ोस-पड़ोस के कत्ल मे शामिल । सच है बहुत कुछ हमारे समझ से परे होता है ।

मैने जेब से रुमाल निकाल कर अपने घाव को कसकर बांध दिया । खून फ़िर भी रिसता रहा । मै और नही भाग पाऊंगा । यहीं मारा जाऊंगा । मुझे मारने तो दोनो पक्ष आमादा है । उस तरफ़ वे हैं मै जिनका दुश्मन हूं; और इस तरफ़ वे जो मेरे दुश्मन हैं । किसी एक का पक्षधर नही होना कितना मुश्किल है ? और सबसे मुश्किल है मानवता का पक्षधर होना । कोई आप पर विश्वास नही करता । सब आपके खून के प्यासे होजाते हैं । लेकिन मुझे उसकी चिंता थी । मैने उससे कहा “सड़क के उस पार तेरे लोग है । तू भाग कर वहां चला जा । तू बच जायेगा । इस पार मत जाना, वे लोग तेरे दुश्मन है, तुझे मार देंगे ।“

“आप…?” उसने पूछा ।

‘मै ? मै तो उन लोगो के लिये दुश्मन था और इन लोगो के लिये गद्दार । मै कहां जा सकता हूं ? सच है, गद्दारों का कोई ठिकाना नही होता ।‘

“तू मेरी बात छोड़ । मै कहीं नही जा सकता । तू भाग जा । अपनी जान बचा ।“

“नही, दोस्तो को मुसीबत मे अकेला नही छोड़ते ।“ उसने कहा और मेरे सीने से चिपट गया । मै एक तरफ़ को लुढ़क गया …