चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 13 Jayshankar Prasad द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 13

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(झेलम-तट का वन-पथ)

(चाणक्य, चन्द्रगुप्त और अलका का प्रवेश)

अलकाः आर्य! अब हम लोगों का क्या कर्तव्य है?

चाणक्यः पलायन।

चन्द्रगुप्तः व्यंग न कीजिए गुरुदेव!

चाणक्यः दूसरा उपाय क्या है?

अलकाः है क्यों नहीं?

चाणक्यः हो सकता है - (दूसरी ओर देखने लगता है।)

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव!

चाणक्यः परिव्राजक होने की इच्छा है क्या? यही एक सरलउपाय है।

चन्द्रगुप्तः नहीं, कदापि नहीं! यवनों को प्रति पद में बाधा देनामेरा कर्तव्य है और शक्ति-भर प्रयत्न करूँगा।

चाणक्यः यह तो अच्छी बात है। परन्तु सिंहरण अभी नहीं आया।

चन्द्रगुप्तः उसे समाचार मिलना चाहिए।

चाणक्यः अवश्य मिला होगा।

अलकाः यदि न आ सके?

चाणक्यः अब काली घटाओं से आकाश घिरा हो, रह-रहकरबिजली चमक जाती हो, पवन स्तब्ध हो, उमस बढ़ रही हो, और आषाढ़के आरम्भिक दिन हों, तब किस बात की सम्भावना करनी चाहिए?

अलकाः जल बरसने की।

चाणक्यः ठीक उसी प्रकार जब देश में युद्ध हो, सिंहरण मालवको समाचार मिला हो, तब उसके आने की भी निश्चित आशा है।

चन्द्रगुप्तः उधर देखिए - वे दो व्यक्ति कौन आ रहे हैं।

(सिंहरण का सहारा लिये वृद्ध गांधार-राज का प्रवेश)

चाणक्यः राजन्‌!

गांधार-राजः विभव की छलनाओं से वंचित एक वृद्ध! जिसकेपुत्र ने विश्वासघात किया हो और कन्या ने साथ छोड़ दिया हो - मैंवही, एक अभागा मनुष्य हूँ!

अलकाः पिताजी! (गले से लिपट जाती है।)

गांधार-राजः बेटी अलका, अरे तू कहाँ भटक रही है?

अलकाः कहीं नहीं पिताजी! आपके लिए छोटी-सी झोंपड़ी बनारक्खी है, चलिए विश्राम कीजिए।गांधार-राजः नहीं, तू मुझे अबकी झोंपड़ी में बिठाकर चलीजायगी। जो महलों को छोड़ चुकी है, उसका झोंपड़ियों के लिए क्याविश्वास!

अलकाः नहीं पिताजी, विश्वास कीजिए। (सिंहरण से) मालव!मैं कृतज्ञ हुई।

(सिंहरण सस्मित नमस्कार करता है। पिता के साथ अलका काप्रस्थान)

चाणक्यः सिंहरण! तुम आ गये, परन्तु...।

सिंहरणः किन्तु-परन्तु नहीं आर्य! आप आज्ञा दीजिए, हम लोगकर्तव्य में लग जायँ। विपपियों के बादल मँडरा रहे हैं।

चाणक्यः उसकी चिंता नहीं। पौधे अंधकार में बढ़ते हैं, और मेरीनीति-लता भी उसी भाँति विपपि तम में लहलही होगी। हाँ, केवल शौर्यसे काम नहीं चलेगा। एक बात समझ लो, चाणक्य सिद्धि देखता है, साधनचाहे कैसे ही हों। बोलो - तुम लोग प्रस्तुत हो?

सिंहरणः हम लोग प्रस्तुत हैं।

चाणक्यः तो युद्ध नहीं करना होगा।

चन्द्रगुप्तः फिर क्या?

चाणक्यः सिंहरण और अलका को नट और नटी बनना होगा,चन्द्रगुप्त बनेगा सँपेरा और मैं ब्रह्मचारी। देख रहे हो चन्द्रगुप्त, पर्वतेश्वरकी सेना में जो एक गुल्म अपनी छावनी अलग डाले हैं, वे सैनिक कहाँके हैं?

चन्द्रगुप्तः नहीं जानता।

चाणक्यः अभी जानने की आवश्यकता भी नहीं। हम लोग उसीसेना के साथ अपने स्वाँग रखेंगे। वहीं हमारे खेल होंगे। चलो हम लोगचलें, देखो - वह नवीन गुल्म का युवक - सेनापति जा रहा है।

(सबका प्रस्थान)

(पुरूष-वेष में कल्याणी और सैनिक का प्रवेश)

कल्याणीः सेनापति! मैंने दुस्साहस करके पिताजी को चिढ़ा तोदिया, पर अब कोई मार्ग बताओ, जिससे मैं सफलता प्राप्त कर सकूँ।पर्वतेश्वर को नीचा दिखलाना ही मेरा प्रधान उद्देश्य है।

सेनापतिः राजकुमारी!

कल्याणः सावधान सेनापति!

सेनापतिः क्षमा हो, अब ऐसी भूल न होगी। हाँ, तो केवल एकमार्ग है।

कल्याणीः वह क्या?

सेनापतिः घायलों की शुश्रूषा का भार ले लेना है।

कल्याणीः मगध-सेनापति! तुम कायर हो।

सेनापतिः तब जैसी आज्ञा हो। (स्वगत) स्त्री की अधीनता वैसेही बुरी होती है, तिस पर युद्धक्षेत्र में! भगवान ही बचावें।

कल्याणीः मेरी इच्छा है कि जब पर्वतेश्वर यवन-सेना द्वारा चारोंओर से घिर जाय, उस समय उसका उद्धार करके अपना मनोरथ पूर्णकरूँ।

सेनापतिः बात तो अच्छी है।

कल्याणीः और तब तक हम लोगों की रक्षित सेना - (रुककरदेखते हुए) - यह लो पर्वतेश्वर इधर ही आ रहा है।

(पर्वतेश्वर का युद्ध-वेश में प्रवेश)

पर्वतेश्वरः (दूर दिखलाकर) वह किस गुल्म का शिविर हैयुवक?

कल्याणीः मगध-गुल्म का महाराज!

पर्वतेश्वरः मगध की सेना, असम्भव! उसने तो रण-निमन्त्रण हीअस्वीकृत किया था।

कल्याणीः परन्तु मगध की बड़ी सेना में एक छोटा-सा वीरयुवकों का दल इस युद्ध के लिए परम उत्साहित था। स्वेच्छा से उसनेइस युद्ध में योग दिया है।

पर्वतेश्वरः प्राच्य मनुष्यों में भी इतना उत्साह!

(हँसता है।)

कल्याणीः महाराज, उत्साह का निवास किसी विशेष दिशा में नहींहै।

पर्वतेश्वरः (हँसकर) प्रगल्भ हो युवक, परन्तु रण जब नाचनेलगता है, तब भी यदि तुम्हारा उत्साह बना रहे तो मानूँगा। हाँ! तुम बड़ेसुन्दर सुकुमार युवक हो, इसलिए साहस न कर बैठना। तुम मेरी रक्षितसेना के साथ रहो तो अच्छा! समझा न!

कल्याणीः जैसी आज्ञा।

(चन्द्रगुप्त, सिंहरण और अलका का वेश बदले हुए प्रवेश)

सिंहरणः खेल देख लो, खेल! ऐसा खेल - जो कभी न देखाहो न सुना!

पर्वतेश्वरः नट! इस समय खेल देखने का अवकाश नहीं।

अलकाः क्या युद्ध के पहले ही घबरा गये, सेनापति! वह भीतो वीरों का खेल ही है।

पर्वतेश्वरः बड़ी ठीठ है!

चन्द्रगुप्तः न हो तो नागों का ही दर्शन कर लो!

कल्याणीः बड़ा कौतुक है महाराज, इन नागों को ये लोग किसप्रकार वश कर लेते हैं?

चन्द्रगुप्तः (सम्भ्रम से) महाराज हैं! तब तो अवश्य पुरस्कारमिलेगा।

(सँपेरों की-सी चेष्टा करता है। पिटारी खोलकर साँप निकालताहै।)

कल्याणीः आश्चर्य है, मनुष्य ऐसे कुटिल विषधरों को भी वशकर सकता है, परन्तु मनुष्य को नहीं!

पर्वतेश्वरः नट, नागों पर तुम लोगों का अधिकार कैसे हो जाताहै?

चन्द्रगुप्तः मंत्र-महौषधि के भाले से बड़े-बड़े मप नाग वशीभूतहोते हैं।

पर्वतेश्वरः भाले से?

सिंहरणः हाँ महाराज! वैसे ही जैसे भालों से मदमप मातंग!

पर्वतेश्वरः तुम लोग कहाँ से आ रहे हो?

सिंहरणः ग्रीकों के शिविर से।

चन्द्रगुप्तः उनके भाले भारतीय हाथियों के लिए व्रज ही हैं।

पर्वतेश्वरः तुम लोग आम्भीक के चर तो नहीं हो?

सिंहरणः रातों रात यवन-सेना वितस्ता के पार हो गयी है -

समीप है, महाराज! सचेत हो जाइए!

पर्वतेश्वरः मगधनायक! इन लोगों को बन्दी करो।

(चन्द्रगुप्त कल्याणी को ध्यान से देखता है।)

अलकाः उपकार का भी यह फल!

चन्द्रगुप्तः हम लोग बन्दी ही हैं। परन्तु रण-व्यूह से सावधानहोकर सैन्य-परिचालन कीजिए। जाइए महाराज! यवन - रणनीति भिन्नहै।

(पर्वतेश्वर उद्विग्न भाव से जाता है।)

कल्याणीः (सिंहरण से) चलो हमारे शिविर में ठहरो। फिर बतायाजायगा।

चन्द्रगुप्तः मुझे कुछ कहना है।

कल्याणीः अच्छा, तुम लोग आगे चलो।

(सिंहरण इत्यादि आगे बढ़ते हैं।)

चन्द्रगुप्तः इस युद्ध में पर्वतेश्वर की पराजय निश्चित है।

कल्याणीः परन्तु तुम लोक कौन हो - (ध्यान से देखती हुई)- मैं तुमको पहचान...

चन्द्रगुप्तः मगध का एक सँपेरा!

कल्याणीः हूँ! और भविष्यवक्ता भी!

चन्द्रगुप्तः मुझे मगध के पताका के सम्मान की...

कल्याणीः कौन? चन्द्रगुप्त तो नहीं?

चन्द्रगुप्तः अभी तो एक सँपेरा हूँ राजकुमारी कल्याणी!

कल्याणीः (एक क्षण चुप रहकर) हम दोनों को चुप रहना

चाहिए। चलो!

(दोनों का प्रस्थान)