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चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 12

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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द्वितीय अंक

(उद्‌भांड में सिन्धु के किनारे ग्रीक-शिविर में पास वृक्ष केनीचे कार्नेलिया बैठी हुई।)

कार्नेलियाः सिन्धु का यह मनोहर तट जैसे मेरी आँखों के सामनेएक नया चित्रपट उपस्थित कर रहा है। इस वातावरण से धीरे-धीरे उठतीहुई प्रशान्त स्निग्धता जैसे हृदय में घूस रही है। लम्बी यात्रा करके, जैसेमैं वही पहुँच गयी हूँ, जहाँ के लिए चली थी। यह कितना निसर्ग सुन्दरहै, कितना रमणीय है। हाँ, आज वह भारतीय संगीत का पाठ देखूँ, भूलतो नहीं गयी?

(गाती है।)

अरुण यह मधुमय देश हमारा!

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।

सरस तामरस गर्भ विभा पर - नाच रही तरुशिखा मनोहर।

छिटका जीवन हरियाली पर - मंगल कंकुम सारा!

लघु सुर धनु से पंख पसारे - शीतल मलय समीर सहारे।

उड़ते खग जिस ओर मुँह किये - समग्र नीड़ निज प्यारा।

बरसाती आँखों के बादल - बनते जहाँ भरे करुणा जल।

लहरें टकरातीं अनन्त की - पाकर जहाँ किनारा।

हेम-कुम्भ ले उषा सवेरे - भरती ढुलकाती सुख मेरे।

मदिर ऊँघते रहते जब - जग कर रजनी भर तारा।

फिलिप्सः (प्रवेश करके) कैसा मधुर गीत है कार्नेलिया, तुमने तोभारतीय संगीत पर पूरा अधिकार कर लिया है, चाहे हम लोगं को भारतपर अधिकार करने में अभी विलम्ब हो!

कार्नेलियाः फिलिप्स! यह तुम हो! आज दारा की कन्या वाल्हीकजायगी?

फिलिप्सः दारा की कन्या! नहीं कुमारी, साम्राज्ञी कहो।

कार्नेलियाः असम्भव है फिलिप्स! ग्रीक लोग केवल देशों कोविजय करके समझ लेते हैं कि लोगों के हृदयों पर भी अधिकार करलिया। वह देवकुमारी-सी सुन्दर बालिका सम्राज्ञी कहने पर तिलमिला जातीहै। उसे यह विश्वास है कि एक महान साम्राज्य की लूट में मिली हुईदासी है, प्रणय-परिणीता पत्नी नहीं।

फिलिप्सः कुमारी! प्रणय के सम्मुख क्या साम्राज्य तुच्छ है?

कार्नलियाः यदि प्रणय हो।

फिलिप्सः प्रणय तो मेरा हृदय पहचानता है।

कार्नेलियाः (हँसकर) ओहो! यह तो बड़ी विचित्र बात है!

फिलिप्सः कुमारी, क्या तुम मेरे प्रेम की हँसी उड़ाती हो?

कार्नेलियाः नहीं सेनापति! तुम्हारा उत्कृष्ट प्रेम बड़ा भयानक होगा,उससे तो डरना चाहिए।

फिलिप्सः (गम्भीर होकर) मैं पूछने आया हूँ कि आगामी युद्धोंसे दूर रहने के लिए शिविर की सब स्त्रियाँ स्कन्धावार में सम्राज्ञी केसाथ जा रही हैं, क्या तुम भी चलोगी?

कार्नेलियाः नहीं, सम्भवतः पिताजी को यही रहना होगा, इसलिएमेरे जाने की आवश्यकता नहीं।

फिलिप्सः (कुछ सोचकर) कुमारी! न जाने फिर कब दर्शन होंइसलिए एक बार इन कोमल करों को चूमने की आज्ञा दो।

कार्नेलियाः तुम मेरा अपमान करने का साहस न करो फिलिप्स!

फिलिप्सः प्राण देकर भी नहीं कुमारी! परन्तु प्रेम अन्धा है।

कार्नेलियाः तुम अपने अन्धेपन से दूसरे को ठुकराने का लाभ नहींउठा सकते फिलिप्स!

फिलिप्सः (इधर-उधर देखकर) यह नहीं हो सकता -

(कार्लिया का हाथ पकड़ना चाहता है, वह चिल्लाती है - रक्षा

करो! रक्षा करो! - चन्द्रगुप्त प्रवेश करके फिलिप्स की गर्दन पकड़ करदबाता है, वह गिरकर क्षमा माँगता है, चन्द्रगुप्त छोड़ देता है)

कार्नेलियाः धन्यवाद आर्यवीर!

फिलिप्सः (लज्जित होकर) कुमारी, प्रार्थना करता हूँ कि इसघटना को भूल जाओ, क्षमा करो।

कार्नेलियाः क्षमा तो कर दूँगी, परन्तु भूल नहीं सकती फिलिप्स!तुम अभी चले जाओ।

(फिलिप्स नतमस्तक जाता है।)

चन्द्रगुप्तः चलिये, आपको शिविर के भीतर पहुँचा दूँ।

कार्नेलियाः पिताजी कहाँ हैं? उनसे यह बात कह देनी होगी, यहघटना... नहीं, तुम्हीं कह देना।

चन्द्रगुप्तः ओह! वे मुझे बुला गये हैं, मैं जाता हूँ, उनसे कहदूँगा।

कार्नेलियाः आप चलिए, मैं आती हूँ।

(चन्द्रगुप्त का प्रस्थान)

कार्नेलियाः एक घटना हो गयी, फिलिप्स ने विनती की उसे भूलजाने की, किन्तु उस घटना से और भी किसी का सम्बन्ध है, उसे कैसेभूल जाऊँ। उन दोनों में श्रृंगार और रौद्र का संगम है। वह भी आह,कितना आकर्षक है! कितना तरंगसंकुल है। इसी चन्द्रगुप्त के लिए न उससाधु ने भविष्यवाणी की है - भारत-सम्राट्‌ होने की! उसमें कितनीविनयशील वीरता है

(प्रस्थान)

(कुछ सैनिकों के साथ सिकन्दर का प्रवेश)

सिकन्दरः विजय करने की इच्छा क्लान्ति से मिलती जा रही है।हम लोग इतने बड़े आक्रमण से समारम्भ में लगे हैं और यह देश जैसेसोया हुआ है, लड़ना जैसे इनके जीवन का उद्वेगजनक अंश नहीं। अफनेध्यान में दार्शनिक के सदृश निमग्न है। सुनते हैं, पौरव ने केवल झेलमके पास कुछ सेना प्रतिरोध करने के लिए या केवल देखे के लिए रखछोड़ी है। हम लोग जब पहुँच जायेंगे, तब वे लड़ लेंगे।

एनिसाक्रीटीजः मुझे तो ये लोग आलसी मालूम पड़ते हैं।

सिकन्दरः नहीं-नहीं, यहाँ के दार्शनिक की परीक्षा तो तुम करचुके - दाण्ड्यायन को देखा न! थोड़ा ठहरो, यहाँ के वीरों का भी परिचयमिल जायगा। यह अद्‌भुत देश है।

एनिसाक्रीटीजः परन्तु आम्भीक तो अपनी प्रतिज्ञा का सच्चा

निकला - प्रबन्ध तो उसने अच्छा कर रखा है।

सिकन्दरः लोभी है! सुना है कि उसकी एक बहन चिढ़ करसंन्यासिनी हो गयी है।

एनिसाक्रीटीजः मुझे विश्वास नहीं होता, इसमें कोई रहस्य होगा।पर एक बात कहूँगा, ऐसे पथ में साम्राज्य की समस्या हल करना कहाँतक ठीक है? क्यों न शिविर में ही चला जाय?

सिकन्दरः एनिसाक्रीटीज, फिर तो पलसिपोलिन का राजमहलछोड़ने की आवश्यकता न थी, यहाँ एकान्त में मुझे कुछ ऐसी बातों परविचार करना है, जिन पर भारत-अभियान का भविष्य निर्भर है। मुझे उसनंगे ब्राह्मण की बातों से बड़ी आशँका हो रही है, भविष्यवाणियाँ प्रायःसत्य होती हैं।

(एक ओर से फिलिप्स, आम्भीक, दूसरी ओर से सिल्यूकस औरचन्द्रगुप्त का प्रवेश)

सिकन्दरः कहो फिलिप्स! तुम्हें क्या कहना है?

फिलिप्सः आम्भीक से पूछ लिया जाय

आम्भीकः यहाँ एक षड्‌यन्त्र चल रहा है।

फिलिप्सः और उसके सहायक हैं सिल्यूकस।

सिल्यूकसः (क्रोध और आश्चर्य से) इतनी नीचता! अभी उसलज्जाजनक अपराध का प्रकट करान बाकी ही रहा - उलटा अभियोग!प्रमाणित करना होगा फिलिप्स! नहीं तो खड्‌ग इसका न्याय करेगा।

सिकन्दरः उपेजित न हो सिल्यूकस!

फिलिप्सः तलवार तो कभी का न्याय कर देती, परन्तु देवपुत्र काभी जान लेना आवश्यक था। नहीं तो निर्लज्ज विद्रोही की हत्या करनापाप नहीं, पुण्य है।

(सिल्यूकस तलवार खींचता है।)

सिकन्दरः तलवार खींचने से अच्छा होता कि तुम अभियोग कोनिर्मूल प्रमाणित करने की चेष्टा करते! बतलाओ, तुमने चन्द्रगुप्त के लिएअब क्या सोचा?

सिल्यूकसः चन्द्रगुप्त ने अभी-अभी कार्नेलिया को इस नीचफिलिप्स के हाथ से अपमानित होने से बचाया है और मैं स्वयं यहअभियोग आपके सामने उपस्थित करनेवाला था।

सिकन्दरः परन्तु साहस नहीं हुआ, क्यों सिल्यूकस!

फिलिप्सः क्यों साहस होता - इनकी कन्या दाण्ड्यायन के आश्रमपर भारतीय दर्शन पढ़ने जाती है, भारतीय संगीत सीखती है, वहीं परविद्रोहकारिणी अलका भी आती है। और चन्द्रगुप्त के लिए यह जनरवफैलाया गया है कि यही भारत का भावी सम्राट्‌ होगा।

सिल्यूकसः रोक, अपनी अबाधगति से चलने वाली जीभ रोक!

सिकन्दरः ठहरो सिल्यूकस! तुम अपने को विचाराधीन समझो।हाँ, तो चन्द्रगुप्त! मुझे तुमसे कुछ पूछना है।

चन्द्रगुप्तः क्या है?

सिकन्दरः सुना है कि मगध का वर्तमान शासक एक नीच-जन्माजारज सन्तान है। उसकी प्रजा असन्तुष्ट है और तुम उस राज्य को हस्तगतकरने का प्रयत्न कर रहे हो?

चन्द्रगुप्तः हस्तगत नहीं, उसका शासन बड़ा क्रूर हो गया है, मगधका उद्धार करना चाहता हूँ।

सिकन्दरः और उस ब्राह्मण के कहने पर अपने सम्राट्‌ होने कातुम्हें विश्वास हो गया होगा, जो परिस्थिति को देखते हुए असम्भव नहींजान पड़ता।

चन्द्रगुप्तः असम्भव क्यों नहीं?

सिकन्दरः हमारी सेना इनमें सहायता करेगी, फिर भी असम्भवहै?

चन्द्रगुप्तः मुझे आप से सहायता नहीं लेनी है।

सिकन्दरः (क्रोध से) फिर इतने दिनों तक ग्रीक-शिविर में रहनेका तुम्हारा उद्देश्य?

चन्द्रगुप्तः एक सादर निमन्त्रण और सिल्यूकस से उपकृत होने केकारण उनके अनुरोध की रक्षा। परन्तु मैं यवनों को अपना शासक बननेको आमन्त्रित करने नहीं आया हूँ।

सिकन्दरः परन्तु इन्हीं यवनों के द्वारा भारत जो आज तक कभीभी आक्रान्त नहीं हुआ है, विजित किया जायगा।

चन्द्रगुप्तः एक भविष्य के गर्भ में है, उसके लिए अभी से इतनीउछल-कूद मचाने की आवश्यकता नहीं।

सिकन्दरः अबोध युवक, तू गुप्तचर है!

चन्द्रगुप्तः नहीं, कदापि नहीं। अवश्य ही यहाँ रहकर यवन रण-नीति से मैं कुछ परिचित हो गया हूँ। मुझे लोभ से पराभूत गान्धारराजआम्भीक समझने की भूल न होनी चाहिए, मैं मगध का उद्धार करनाचाहता हूँ। परन्तु यवन लुटेरों की सहायता से नहीं।

सिकन्दर - तुमको अपनी विपपियों से डर नहीं - ग्रीक लुटेरेहैं?

चन्द्रगुप्तः क्या यह झूठ है? लूट के लोभ से हत्या-व्यवसायियोंको एकत्र करके उन्हें वीर-सेना कहना, रण-कला का उपहास करा है।

सिकन्दरः (आश्चर्य और क्रोध से) सिल्यूकस!

चन्द्रगुप्तः सिल्यूकस नहीं, चन्द्रगुप्त से कहने की बात चन्द्रगुप्तसे कहनी चाहिए।

आम्भीकः शिष्टता से बातें करो।

चन्द्रगुप्तः स्वच्छ हृदय भीरु कायरों की-सी वंचक शिष्टता नहींजानता। अनार्य! देशद्रोही! आम्भीक! चन्द्रगुप्त रोटियों के लालच याघृणाजनक लोभ से सिकन्दर के पास नहीं आया है।

सिकन्दरः बन्दी कर लो इसे।

(आम्भीक, फिलिप्स, एनिसाक्रीटीज टूट पड़ते हैं, चन्द्रगुप्तअसाधारण वीरता से तीनों को घायल करता हुआ निकल जाता है।)

सिकन्दरः सिल्यूकस!

सिल्यूकसः सम्राट्‌!

सिकन्दरः यह क्या?

सिल्यूकसः आपका अविवेक। चन्द्रगुप्त एक वीर युवक है, यहआचरण उसकी भावी श्री और पूर्ण मनुष्यता का द्योतक है सम्राट्‌! हमलोग जिस काम से आये हैं, उसे करना चाहिए। फिलिप्स को अन्तःपुरकी महिलाओं के साथ वाल्हीक जाने दीजिए।

सिकन्दरः (सोचकर) अच्छा जाओ!

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