देवों की घाटी - 13 BALRAM AGARWAL द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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देवों की घाटी - 13

… खण्ड-12 से आगे

बच्चे विस्मयपूर्वक एक बार फिर जादूनगरी-जैसे उस गाँव और उसके उन प्यारे-प्यारे मकानों को देखने लगे।

दादा जी ने टैक्सी को चमोली में भी कुछ देर के लिए रुकवाया। उसके बाद वे आगे बढ़े।

‘‘सही अर्थ में तो हमारी बदरीनाथ यात्रा अब शुरू होती है।’’ टैक्सी के चमोली से चलते ही दादा जी ने कहा, ‘‘अब सबसे पहले हम पीपलकोटी पहुँचेंगे।’’

दादा जी की इस बात पर बच्चों ने कोई ध्यान नहीं दिया। इस समय वे जैसे किसी स्वप्नलोक की सैर कर रहे थे। अभी, कुछ देर पहले उन्होंने वह परीलोक देखा था, किसी जमाने में जहाँ उनके दादा-दादी और डैडी के सुनहरे दिन गुजरे थे। काश, उनके पास समय होता और वे नेग्वाड़ के उसी मकान की उसी बालकनी में कुछ दिन बिता पाते । नीचे फैले पड़े चमोली के कैनवास पर बहती अलकनन्दा के निर्मल जल से उठते बादलों को चारों ओर दूर-दूर तक सिर उठाए खड़े पर्वतों को और उनके पीछे बर्फ का ताज सिर पर बाँधे खड़े त्रिशूल को देख पाते। देख पाते कि सूर्य की गति के साथ-साथ उसका हिम-मुकुट किस तरह हर पल रंग बदलकर अपनी छटा बिखेरता है।

टैक्सी से बाहर के प्राकृतिक दृश्यों और दादा जी के अतीत की कल्पनाओं ने मणिका और निक्की के मन में एक अनोखा ही चित्र खींच दिया। टैक्सी दौड़ती रही और बच्चे चुपचाप बैठे बाहर की दुनिया को देखते रहे। पीपलकोटी, गरुड़गंगा सब पीछे छूट गए और टैक्सी जोशीमठ पहुँच गई।

जोशीमठ और विश्वप्रसिद्ध औली

‘‘जोशीमठ वह जगह है बेटे, जहाँ शहतूत के एक पेड़ के नीचे आदि-शंकराचार्य को दिव्य-ज्योति के दर्शन हुए थे। इसी कारण उन्होंने इस स्थान को ‘ज्योतिर्मठ’ नाम दिया जो बिगड़कर अब जोशीमठ हो गया है।’’ दादा जी काफी देर बाद पुनः बोले तो बच्चे जैसे तन्द्रा से जाग उठे।

‘‘यह तो बेहद खूबसूरत नगर है दादा जी।’’ मणिका बोली।

‘‘यह सच है बेटे । जोशीमठ को गढ़वाल का हर दृष्टि से सुन्दर और विकसित नगर माना जा सकता है। इससे कुछ ही दूर ‘औली’ नाम का बुग्याल है।’’ दादा जी ने बताया।

‘‘बुग्याल क्या होता है?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘बुग्याल...सही बात तो यह है कि बुग्याल का अर्थ बताने वाला कोई एक शब्द हिन्दी में है ही नहीं है।’’ दादा जी बताने लगे, ‘‘शब्दकोश में देखोगे तो बुग्याल का अर्थ चरागाह लिखा मिलेगा। परन्तु चरागाह इसके अर्थ को पूरी गहराई के साथ ध्वनित नहीं कर पाता है। फिर भी, तुम लोग इसे इस तरह समझ सकते हो कि विशेष तरह की अपेक्षाकृत मोटी पत्तियोंवाली परस्पर गुँथी हुई-सी घास के मैदान सर्दी के मौसम में बर्फ की मोटी तह से ढँक जाते हैं। महीनों बर्फ में दबी रहने के कारण वह घास बेहद मुलायम और घनी गद्देदार हो जाती है। इतनी गद्देदार कि बहुत ऊपर से भी इस पर कूदो तो चोट न लगे। गर्मी के मौसम में बर्फ की परत पिघलकर बह जाती है और घास की मोटी तह वाला बुग्याल उभर आता है। औली-जैसे बड़े बुग्याल बहुत-कम पहाड़ों पर मिलते हैं। यहाँ पिछले कई सालों से सर्दी के मौसम में स्कीइंग आदि के प्रशिक्षण शिविर लगाए जाते हैं। जिसमें कई देशों के प्रशिक्षार्थी भाग लेते हैं।’’

‘‘तब तो जोशीमठ को एक अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन-स्थल माना जाना चाहिए दादा जी।’’ मणिका बोली।

‘‘इतनी ही बात नहीं है।’’ दादा जी ने बताया,‘‘जोशीमठ धार्मिक दृष्टि से भी अच्छा और महत्त्वपूर्ण नगर है। नरसिंह भगवान का यहाँ पर बेहद प्राचीन मन्दिर है। सर्दी के मौसम में जब बदरीनाथ का सारा क्षेत्र बर्फ से ढँक जाता है, मन्दिर के कपाट भी बन्द कर दिए जाते है, तब यहाँ, जोशीमठ में ही, भगवान बदरी विशाल की आरती उतारी जाती है। उस दौरान बदरीनाथ कमेटी के सारे पदाधिकारी भी यहीं रहते हैं।’’

जोशीमठ के बाद बदरीनाथ तक का रास्ता या तो निरा ढलान है या निरा उठान, बीचबीच में बस्तियाँ और खेत हैं। लेकिन पीछे देखे जा चुके पहाड़ों के मुकाबले कम और दूर-दूर। इसलिए प्रकृति की सुरम्यता और रमणीयता का आनन्द विशेष रूप से अब ही आना प्रारम्भ होता है।

बच्चे इस सारे आनन्द से अभिभूत थे। इससे पहले हालाँकि वे महामाता वैष्णोदेवी के दर्शनों के लिए जम्मू से कटरा तक पहाड़ों के बीच से गुजर चुके थे लेकिन उस यात्रा से कहीं अधिक आनन्द और रोमांच का अनुभव वे इस यात्रा में कर रहे थे।

विश्व धरोहर ‘रम्माण’

‘‘यहाँ के एक विश्व प्रसिद्ध उत्सव के बारे में मै भी आप सब को बताता हूँ।’’ एकाएक सुधाकर बोला।

‘‘अरे वाह!’’ दादा जी तुरन्त बोले, ‘‘नेकी और पूछ-पूछ? जल्दी बता।’’

‘‘देहरादून में मेरे एक दोस्त हैं—डॉ. नंद किशोर हटवाल। यह जानकारी मुझे उनसे मिली।’’ सुधाकर ने बताना शुरू किया, ‘‘जोशीमठ विकास खण्ड के सलूड़-डुंग्रा गाँव में हर साल अप्रैल के महीने में एक लोक उत्सव का आयोजन होता है। सन् 2009 में उस उत्सव को संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व धरोहर घोषित किया है।’’

‘‘यह तो वाकई एकदम नई जानकारी है!’’ दादा जी बोले।

‘‘बाबू जी, यह उत्सव इस गाँव के अलावा आसपास के डुंग्री, बरोशी, सेलंग गाँवों में भी होता है। लेकिन इन सब में सलूड़ गाँव का ही ज्यादा लोकप्रिय है।’’ सुधाकर ने बताना जारी रखा, ‘‘यह पूरे पन्द्रह दिनों तक चलता है। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नाचना, गाना, प्रहसन, स्वांग, मेला तरह-तरह के आयोजन होते हैं। आखिरी दिन लोकशैली में रामायण के कुछ चुनिंदा प्रसंगों को पेश किया जाता है। इसी वजह से यह सारा आयोजन ‘रम्माण’ नाम से जाना जाता है। रामायण के प्रसंगों के साथ बीच-बीच में पौराणिक व ऐतिहासिक चरित्रों और लोककथाओं में वर्णित घटनाओं को मुखौटा नृत्य शैली के माध्यम से पेश किया जाता है। इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं और भारी मेला जुड़ जाता है।’’

‘‘अप्रैल में किसी खास तारीख को शुरू होता है यह या...’’ दादा जी ने पूछा।

‘‘इसकी शुरुआत बैसाखी के दिन से मानी जा सकती है।’’ सुधाकर ने बताया, ‘‘इस दिन इस क्षेत्र के भुम्याल देवता को बाहर निकाला जाता है। 11 फुट लम्बे बाँस के ऊपरी भाग पर उस देवता की चाँदी की मूर्ति स्थापित की जाती है। मूर्ति के पीछे गाय की पूँछ के बालों से बना चँवर लगा होता है। लम्बे लट्ठे पर ऊपर से नीचे तक रंग-बिरंगे रेशमी साफे बँधे होते हैं। यहाँ की भाषा में इसे ‘लवोटू’ कहते हैं। भुम्याल के लवोटू को अपने कंधे के सहारे खड़ा करके लोक कलाकार नाचते हैं। इन कलाकारों को ‘धारी’ कहते हैं।’’

‘‘बड़ी मजेदार कहानी है सर।’’ यह सब सुनकर अल्ताफ झूमता-सा बोला, ‘‘इसे सुनाकर तो बड़े बाबू जी से आगे निकल गए आप।’’

‘‘बीच में मत टोक अल्ताफ।’’ प्रशंसा सुनकर सुधाकर ने उससे कहा, ‘‘मुझे बाबू जी की तरह कहानी सुनाने की आदत नहीं है, टोकेगा तो भूल जाऊँगा।’’

‘‘तारीफ सुनकर ज्यादा इतराओ मत।’’ उसकी इस बात पर ममता ने टोका, ‘‘आगे बढ़ो।’’

‘‘शुक्र है भगवान का कि तुमने ‘आगे बको’ नहीं कहा।’’ चुटकी लेते हुए सुधाकर ने कहा, ‘‘अच्छा, आगे सुनो—तीसरे दिन भुम्याल देवता गाँव के भ्रमण पर जाता है। यह भ्रमण पाँच-छः दिन में पूरा होता है। आखिरी दिन से पहली रात को ‘स्यूर्तू’ होता है। ‘स्यूर्तू’ का मतलब है पूरी रात चलने वाला कार्यक्रम। ‘स्यूर्तू’ की रात को सभी पात्र आकर नृत्य करते हैं। इस रात गढ़वाल का सुप्रसिद्ध ‘पाण्डव नृत्य’ भी होता है। रम्माण के बाजे लगते हैं और इस पर रम्माणी नाचते हैं। इसमें अठारह साल से कम उम्र के वे बच्चे भी नाचते हैं जिन्हें दूसरे दिन आयोजित होने वाले मुख्य रम्माण मेले के लिए राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान के रूप में चुना जाना होता है। इसी रात को ‘मल्ल’ भी चुने जाते हैं। आखिरी दिन रामायण के कुछ चुनिंदा प्रसंगों को नृत्य के माध्यम से पेश किया जाता है।’’

‘‘जैसे?’’ ममता ने पूछा।

‘‘भई, हटवाल जी तो इस क्षेत्र की संस्कृति और कलाओं के गहरे जानकारों में एक हैं।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘उनकी बताई सारी बातें मुझे याद नहीं हैं। जहाँ तक मुझे याद है रम्माण में राम-लक्ष्मण-भरत-शत्रुघ्न के जन्म, राम-लक्ष्मण का जनकपुरी में भ्रमण, सीता स्वयंवर, राम वनवास, सोने के हिरन का वध, सीता हरण, लंका दहन और राजतिलक के प्रसंग तो दिखाते ही हैं। इसकी विशेषता यह है कि पूरी प्रस्तुति में कोई संवाद नहीं होता; सिर्फ नृत्य के द्वारा सारी कथा की जाती है। यह नृत्य ढोल के तालों पर होता है। हर नृत्य के बाद रामायण के पात्र विश्राम करते हैं। इसी बीच अन्य पौराणिक, ऐतिहासिक और मिथकीय पात्र आकर अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करते हैं। बीच-बीच में भुम्याल देवता का ‘लवोटू’ भी नचाया जाता है।’’

‘‘पहले पता होता तो इस तरह भी कार्यक्रम बना सकते थे कि हम ‘रम्माण’ के दौरान यहाँ से गुजर रहे होते।’’ दादा जी ने अफसोस भरे स्वर में कहा।

‘‘क्यों फिकर करते हैं बाबू जी, अगले साल ‘रम्माण’ भी सही।’’ ममता ने कहा।

‘‘थैंक्यू बेटा।’’ दादा जी बोले।

‘‘जब भी आओ, मेरी ही गाड़ी में आना सर जी।’’ अल्ताफ ने कहा, ‘‘मेरी भी इच्छा है उसे देखने की।’’

‘‘ये लो, पेंठ अभी जुड़ी नहीं है कि गँठकटे आ भी जमे।’’ यह सुनते ही सुधाकर ने चुटकी ली, ‘‘भाई, अगला साल तो शुरू होने दे।’’

इस पर अल्ताफ बेचारा क्या बोलता? चुपचाप गाड़ी चलाता रहा।

‘‘उदास मत हो बेटे, ’’ दादा जी उससे बोले, ‘‘समय से साथ दिया तो हम तेरे ही साथ आएँगे।’’

‘‘थैंक्यू बाबा जी।’’ अल्ताफ प्रसन्न होकर बोला।

गाड़ी अपनी गति से आगे बढ़ती रही।

फूलों की घाटी और हेमकुण्ट साहिब

‘‘यह विष्णुप्रयाग है।’’ काफी देर बाद कार जब एक छोटे पुल पर से गुजरने लगी तो दादा जी ने बताया, ‘‘नारद जी ने यहाँ पर भी भगवान विष्णु की आराधना की थी। यह धौली गंगा और अलकनन्दा के संगम पर बसा है।’’

कार इस समय किसी सँकरी गली-जैसे रास्ते से गुजर रही थी। दोनों तरफ बेहद ऊँची पहाड़ियाँ और बीच में एक गहरी दरार के तल पर कतार लगाकर जूँ की तरह रेंगती हुई बसें और कारें। एकदम ऐसा रास्ता, जैसे किसी ऊँचे केक के बीच से एक पतली फाँक पूरी गहराई तक काटकर अलग निकाल दी गई हो। विष्णुप्रयाग के बाद कार गोविन्दघाट पहुँचकर रुकी। पहले से ही वहाँ खड़ी कुछेक बसों और अन्य वाहनों से उतरे सभी श्रद्धालु यात्रियों के साथ-साथ दादा जी, ममता, सुधाकर, मणिका और निक्की ने भी यहाँ स्थित एक सुन्दर राम मन्दिर में मत्था टेका।

‘‘काफी समय पहले इस जगह का नाम चट्टीघाट था।’’ दादा जी ने बताना शुरू किया, ‘‘बाद में, गुरु गोविन्द सिंह जी को सम्मान देते हुए इस जगह का नाम गोविन्दघाट कर दिया गया। …यहाँ से कुछ दूर उधर, अलकनन्दा के पुल को पार करने के बाद एक गाँव आता था—पुलना भ्यूँडार।’’

‘‘पुलना भ्यूँडार!’’

‘‘हाँ।’’ दादा जी इस बार जरा तनकर बैठ गए। उनकी आँखों में पुरानी यादों की चमक-सी नजर आने लगी।

‘‘वह मेरे एक जिगरी दोस्त का गाँव था।’’ वे आगे बोले, ‘‘भगतसिंह चौहान का गाँव। हमारा और उनका परिवार गोपेश्वर के नेग्वाड़ गाँव में आसपास ही रहता था। उनका बेटा चन्द्रशेखर उन दिनों मणिका जितनी उम्र का था। वह भी बहुत अच्छा लड़का था। एकदम अपने माता-पिता की तरह सीधा-सच्चा और ज़हीन।’’ इतना कहकर वे एक पल को रुके, फिर बोले, ‘‘आजकल वह इन पहाड़ों की खूबसूरती और संस्कृति का चितेरा फोटोग्राफर है। साथ ही, अपने इलाके में आने वाले तीर्थयात्रियों और सैलानियों द्वारा लापरवाही से इधर-उधर फेंक दी गई पॉलिथीन वगैरा की तरह के पर्यावरण को बिगाड़ने वाले कूड़े को इकट्ठा करके नीचे मैदान के कूड़ाघरों को भेजने वाले एक एन. जी. ओ. का सक्रिय सदस्य भी है।’’

यह सब बताते हुए भावावेश से उनकी आँखें भर आईं।

‘‘आगे बताइए न!’’ उन्हें चुप देखकर निक्की बोला।

‘‘2013 में जून की 14 तारीख से पहले का हाल बताता हूँ।’’ दादा जी गहरी पीड़ा से भरे स्वर में बोले, ‘‘भ्यूँडार से कुछ आगे घंघरिया नाम का एक गाँव था। घंघरिया के बायें किनारे पर पुष्पतोया नाम की नदी बहती थी, वह अब भी बहती है। इस नदी के किनारे-किनारे करीब पाँच किलोमीटर तक का इलाका अनगिनत तरह के फूलों से भरा होता था। सन् 1931 में स्माइल नाम के एक अंग्रेज घुमक्कड़ ने फूलों से भरे इस इलाके की भव्यता से चकाचौंध होकर इसे ‘फ्लावर वैली ऑफ गढ़वाल’ यानी गढ़वाल की ‘फूलों की घाटी’ नाम दिया था। तब से यह इसी नाम से जानी जाती थी और दुनियाभर से लोग इसे देखकर आनन्दित होने यहाँ आते थे।’’

‘‘14 जून 2013 के बाद उस इलाके को क्या हुआ सर?’’ अल्ताफ ने पूछा।

खण्ड-14 में जारी…