भाग-१ उपनिषद की कथाएँ MB (Official) द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

भाग-१ उपनिषद की कथाएँ


उपनिषदों की कथाएँ

सं. वर्षा जयरथ


© COPYRIGHTS


This book is copyrighted content of the concerned author as well as NicheTech / Hindi Pride.

Hindi Pride / NicheTech has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

NicheTech / Hindi Pride can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

अनुक्रमणिका

१.देवताओं का अभिमान

२.अश्वपति की कथा

३.विरोचन की कथा

४.ओ३म का स्वरूप

५.सत्यकाम की कथा

६.सत्य की महिमा

७.द्रूद्गाात्रेय की कथा

८.परमात्मा का अस्तित्व

९.महर्षि उषस्ति की कथा

१०.ब्रह्मवादिनी गार्गी की कथा

११.राम-हनुमान कथा

१२.प्रतर्दन की कथा

१३.दो ऋषियों की कथा

१४.गार्ग्य का अभिमान

१५.ब्रह्मज्ञानी रैक्व की कथा

१६.प्रजापति का उपदेश

देवताओं का अभिमान

कहते हैं कि जब किसी को शक्ति प्राह्रश्वत होती है तो उसकाअहंकार, अभिमान उस पर हावी होने लगता है। केनोपनिषद्‌ में भीऐसी ही कथा देवताओं के अभिमान पर मिलती है।

देवता और दानवों में प्रायः युद्ध होते रहते थे। इन युद्धों काप्रमुख उद्‌देश्य होता था, ब्रह्मांड में अपनी स्रूद्गाा स्थापित करना, स्वयं कोदूसरे से श्रेष्ठ समझना। देवता समझते थे कि हम ही विश्व में श्रेष्ठ हैं,जबकि असुर स्वयं को देवताओं से श्रेष्ठ मानते थे।

परंतु वे दोनों एक ही पिता की संतान थे, बस उनकी माताएँअलग-अलग थीं। अदिति से आदित्य अर्थात्‌ देवता और दिति से दैत्यअर्थात्‌ असुर पैदा हुए थे।

एक समय युद्ध में देवताओं की पराजय हो गई। असुरों नेस्वर्गलोक पर अधिकार कर दिया। पराजित देवता पर्वत की कंदराओंमें जा छिपे। वे सब श्री विहीन हो गए और अनेक कष्ट सहने लगे।

तब अपनी दशा से खिन्न होकर वे सब परमब्रह्म परमेश्वर की शरणमें पहुँचे और अपनी विपदा से उन्हें अवगत कराया।

परमब्रह्म को देवों पर दया आ गई और उन्होंने कृपा कर देवोंको शक्तियाँ प्रदान कर दी। शक्ति पाकर देवता पुनः शक्तिशाली बनगए। तब उन्होंने एक साथ मिलकर असुरों पर आक्रमण कर दिया।

परमेश्वर की शक्ति से देवता इस युद्ध में जीत गए, असुरों की पराजयहुई और वे देवलोक से भाग निकले।

अपनी इस विजय पर देवता फूले न समाए। वे भूल गए कियह जीव वास्तव में परमब्रह्म पुरुषो्रूद्गाम की थी, देवता तो निमि्रूद्गा मात्रथे। परमब्रह्म की महिमा को देवता अपनी महिमा मान बैठे। उनके मनमें अभिमान पैदा हो गया कि हम तो बहुत ही शक्तिशाली हैं और हमनेअपने हल से ही असुरों पर विजय प्राह्रश्वत की है।

देवों के इस झूठे अभिमान को परमब्रह्म ने ताड़ लिया। उन्होंनेसोचा कि यदि देवताओं में अभिमान बना रहा तो एक दिन इनका पतनहो जाएगा, अतः उन्होंने देवताओं का अभिमान भंग करने का निश्चयकर लिया।

एक दिन जब देवता रास-रंग में तल्लीन थे, परमब्रह्म परमेश्वरएक यक्ष का रूप धारण कर देवलोक जा पहुँचे। रंगमहल के सामनेएक अनूठे यक्ष को देखकर देवता हैरान रह गए। यक्ष का शरीर बहुतमनोहारी था, साथ ही बलिष्ठ भी प्रतीत होता था। उसका सिर आकाशको छूता हुआ प्रतीत होता था।

यक्ष को देखकर देवराज इंद्र सहित सभी देव भयभीत हो गएऔर उसका परिचय जानने को बेचैन हो उठे, लेकिन यक्ष से परिचयपूछने का साहस किसी भी देव में नहीं हुआ। वे एक-दूसरे का मुँहताकने लगे।

सहसा उन्हें ध्यान आया कि देवताओं में अग्निदेव बहुत तेजस्वीहैं। वेदों के अर्थ जानने वाले हैं, संसार में जन्मे सभी पदार्थों का पतारखते हैं और सभी जगह उपस्थित रहते हैं। इसीलिए उन्हें ही यह कामसौंपा जाए। देवताओं ने उन्हें ही उपयुक्त ठहराकर उनसे कहा, “हेअग्निदेव! कृपा कर आप इस यक्ष के पास जाएँ और इनका परिचयपूछें। यह पता लगाएँ कि यह कौन है और किस उद्‌देश्य से देवलोकमें आया है?”

अग्निदेव को अपनी बुद्धि पर बहुत अभिमान था, उन्होंने तुरंतसहमति दे दी। और बोले, “यह कौन-सी बड़ी बात है? मैं अभी इसयक्ष के पास जाता हूँ और पता करता हूँ कि यह कौन है?”

अग्निदेव यक्ष के पास पहुँचे। यक्ष ने उन्हें देखकर पूछा,“आप कौन हैं?”

अग्निदेव को यह प्रश्न बड़ा अजीब-सा लगा। वे सोचने लगे किबड़ा मूर्ख है यह तो, जो मुझसे मेरा परिचय पूछ रहा है। सारा ब्रह्मांड जानताहै कि मैं महातेजस्वी अग्निदेव हूँ, अग्निदेव तमककर बोले, “मैं अग्निदेवहूँ। मेरा एक नाम जातवेदास भी है।”

अग्निदेव की अभिमान भरी बात सुनकर यक्ष रूपधारी ब्रह्ममन-ही-मन मुसकराए, उन्होंने अनजान बनकर पूछा, “अच्छा तो आपहैं अग्निदेव? आप ही ताजवेदास भी हैं, अर्थात्‌ सब का ज्ञान रखनेवाले भी आप ही हैं। यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात है, पर यह तोसमझाइए कि आप में शक्ति क्या है? आप क्या-क्या कर सकते हैं?”

अग्निदेव ने अभिमान से उ्रूद्गार दिया, “मैं क्या कर सकता हूँ?

मेरी शक्ति क्या है? यह जानना चाहते हैं आप? अरे, मैं चाहूँ तो इससारे भूमंडल में आप जो कुछ देख रहे हैं, उन सबको जलाकर राखका ढेर बना सकता हूँ।”

“ऐसी बात है?” यक्ष ने मंद-मंद मुसकराते हुए पूछा।

“हाँ, बिल्कुल ऐसी ही बात है।” अग्निदेव ने गर्वोक्ति की।

“ठीक है।” यक्षरूपी परब्रह्म बोले, “मैं एक सूखा तिनकाआपके आगे डाल रहा हूँ। आप में तो सभी को जला देने की अपारशक्ति है, आप तनिक सी शक्ति लगाकर इस सूखे तिनके को तो जलादीजिए।” यह कहकर यक्ष ने एक सूखा तिनका अग्निदेव के आगेरख दिया।

अग्निदेव को इसमें अपना अपमान महसूस हुआ। वे यक्ष कीओर घूरते हुए बड़े सहज भाव से तिनके के पास गए। उन्होंने तिनकेको जलाना चाहा, किंतु वह नहीं जला। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी सारीशक्ति लगा दी, पर वह तिनका फिर भी नहीं जला। जलना तो दूरथोड़ी-सी अग्नि भी उस तिनके को नहीं छू पाई। छूती भी कैसे?

अग्नि में जो जलाने की शक्ति है, वह तो परमब्रह्म द्वारा दी हुई है।

जब परमेश्वर अपनी हर शक्ति को रोक देंगे तो फिर वह कहाँ सेप्राह्रश्वत होगी। अग्निदेव इस बात को समझ नहीं रहे थे और अपनी डींगेंहाँक रहे थे, पर जब परब्रह्म ने अपनी शक्ति को रोक लिया तो अग्निसे वह सूखा तिनका भी नहीं जल सका। अब तो अग्निदेव का लज्जासे सिर झुक गया और वे चुपचाप देवताओं के पास लौट आए।

अग्निदेव जब प्रजापति के पास पहुँचे तो इंद्र ने पूछा, “क्याहुआ अग्निदेव! पता लगाया कि यह यक्ष कौन है?”

“नहीं सुरराज, उलटा मुझे उसके समक्ष लज्जित होना पड़ा।”

देवता चकित रह गए। अग्निदेव असफल और लज्जित होकरसभा में लौट आए हैं, यह बात उनके लिए विचित्र थी। उन्होंनेअग्निदेव से जब इस विषय में पूछा तो उन्होंने सकुचाते हुए सारी बातेंबता दीं। अग्निदेव के असफल रहने पर देवताओं ने इस बार वायुदेवको चुना और उनसे प्रार्थना की, “वायुदेव! आप जाकर पता जगाइएकि आखिर यह यक्ष है कौन?”

अग्निदेव की तरह वायुदेव को भी अपनी शक्ति पर बहुतअभिमान था। उन्होंने तुरंत कह दिया, “ठीक है देवराज! मैं अभी जाताहूँ और इस यक्ष से उसका परिचय पूछता हूँ।”

बड़ी शान से चलते हुए वायुदेव यक्ष के समक्ष जा पहुँचे।

अपने सामने वायुदेव को खड़ा देखकर यक्ष ने उनसे पूछा, “आप कौनहैं?”

वायु ने भी अपने गुण-गौरव से अकड़कर कहा, “मैं प्रसिद्धवायुदेव हूँ। मेरा ही गौरवमय और रहस्यपूर्ण नाम ‘मातरिश्वा’ है।”

वायु की अभिमान भरी बातें सुनकर अनजान बने यक्ष ने कहा,“ओह! तो आप हैं वह वायुदेव और ‘मातरिश्वा’ अर्थात्‌ अंतरिक्ष मेंबिना आधार के विचरने वाले आप ही हैं। बड़ी अच्छी बात है, परयह तो बताइए कि आपमें शक्ति क्या है? क्या-क्या कर सकते हैंआप?”

“मैं क्या कर सकता हूँ, यही जानना चाहते हैं न आप? अरे,मैं क्या नहीं कर सकता! मैं चाहूँ तो इस सारे भूमंडल को फूँक मारकरउड़ा सकता हूँ, उन सबको बिना सहारे के ऊपर उठा सकता हूँ।”

यक्ष ने मुसकराकर वायुदेव के सामने भी वही सूखा तिनकारख दिया। फिर उससे कहा, “वायुदेव! आपमें तो अपरिमित शक्तिहै। अभी-अभी आपने कहा कि आप चाहें तो समूचे भूमंडल को फूँकमारकर उड़ा सकते हैं। जरा थोड़ी-सी शक्ति लगाकर इस तिनके कोतो उड़ा दीजिए।”

वायुदेव को बड़ा बुरा लगा। यह यक्ष तो उनकी शक्ति कोइतना कम करके आँक रहा है। वह बड़ी अकड़ के साथ आगे बढ़े।

तिनके को उड़ाने के लिए उन्होंने मुख से एक हलकी सी फूँक मारी,लेकिन यह क्या? वायुदेव समझ रहे थे कि तिनके में शक्ति ही कितनीहोती है, मेरी हलकी सी फूँक से ही कई योजन दूर जा पडेगा, किंतुयह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही कि तिनका तनिक भीअपने स्थान से नहीं खिसका। तब वायुदेव ने जोर से एक फूँक मारी।

तिनका अपने स्थान से फिर भी नहीं हिला।

अब तो वायुदेव का बुरा हाल हो गया। वे अपनी पूरी शक्तिसे तिनके की ओर फूँक मारने लगे, लेकिन तिनका तो जैसे धरतीसे चिपक गया था। तब लज्जित भाव में वायुदेव भी अग्निदेव कीतरह वापस देवताओं के पास लौट आए और अपनी असफलता केकारण सिर झुकाकर खड़े हो गए।

यद्यपि देवराज इंद्र समझ गए थे कि वायुदेव भी असफलहोकर लौटे हैं, वह भी यक्ष का परिचय नहीं जान सके, तथापि उन्होंनेपूछ ही लिया। “क्या बात है वायुदेव! क्या आप भी इस यक्ष कापरिचय नहीं जान सके?”

“हाँ, देवराज! न जाने कौन-सी शक्ति है इस यक्ष में। उसनेमुझे एक सूखा तिनका उड़ाने के लिए दिया था। मैंने अपनी पूरी शक्तिलगा दी उस तिनके को उड़ाने में, किंतु उस तिनके को नहीं उड़ासका।”

“यह तो सचमुच आश्चर्य की बात है।” देवेंद्र बोले, “अच्छाअब मैं स्वयं ही जाता हूँ, इस यक्ष का परिचय प्राह्रश्वत करने के लिए।”

कहते हुए इंद्र उठे और यक्ष की ओर चल पड़े, परंतु यह क्या? इंद्रजब तक यक्ष के समीप पहुँचते, तब तक यक्ष उनके सामने सेअंतर्ध्यान हो गया।

इंद्र देवताओं के राजा थे, अतः उनमें अभिमान भी अन्यदेवताओं की अपेक्षा अधिक था। परमब्रह्म ने विचार किया कि इंद्रसे सीधे तो वार्तालाप नहीं किया जा सकता, लेकिन उसे ब्रह्मतत्व काज्ञान कराना आवश्यक है। यह उनका अधिकार भी हरै। यही सोचकरब्रह्म ने एक माया रची।

यक्ष के अंतर्ध्यान हो जाने पर भी इंद्र वहीं खड़े रहे। अग्निऔर वायु की भाँति वे निराश होकर नहीं लौटे। वह कुछ विचार करही रहे थे कि इतने में इंद्र ने देखा कि जहाँ वह अद्‌भुत यक्ष खड़ाथा, ठीक उसी जगह एक अत्यंत सुंदर सुकुमार नारी खड़ी थी। वहऔर कोई नहीं, दयालु परषो्रूद्गाम ने ही इंद्र पर कृपा करने के लिएउमा रूप में साक्षात्‌ ब्रह्म विद्या को भेजा था। उमा को पहचानकर इंद्रउनके पास चले गए और भक्तिपूर्वक बोले, “भगवती! आप कब कुछजानने वाले भगवान शंकर की स्वरूपा शक्ति हैं, इसलिए सब बातोंका पता है। कृपा कर मुझे यह बताइए कि वह अद्‌भुत यक्ष, जो दर्शन

देकर तुरंत ही छिप गया था, वास्तव में कौन है और यहाँ किस लिएप्रकट हुआ था।”

भगवती उमा मुसकराई और बोलीं, “हे इंद्र! देवताओं के राजाहोते हुए भी तुम उसे नहीं पहचान पाए, यह तो बहुत लज्जा की बातहै। जरा, सोचो वायु और अग्नि से अधिक शक्तिशाली और कौन होसकता है, इस पर भी तो विचार करो।”

“तो क्या स्वयं परमब्रह्म ही इस रूप में यहाँ आए थे?” इंद्रने आश्चर्य से पूछा।

“हाँ, इंद्र! अब तुम सही पहचाने, देर से ही सही, तुमने उन्हेंपहचान तो लिया।” भगवती उमा बोली।

भगवती उमा ने आगे कहा, “परमब्रह्म इस रूप में इसीलिएप्रकट हुए थे कि तुम सबका अभिमान दूर हो सके। बहुत आनंद उठालिया तुमने जीत का, अब विश्व के प्रति अपने कार्यों में जुट जाओ।”

देवताओं को अपनी मूर्खता का ज्ञान हुआ। उस दिन से वेसब सही मार्ग पर आ गए। इस प्रकार परमब्रह्म ने संसार में फिर सेशांति की स्थापना कर दी। अतः परमेश्वर ही सर्वोपरि है। उन्हीं कीइच्छा से सारा भूमंडल संचालित होता है। यह विश्व के प्रत्येक कणमें व्याह्रश्वत है। संसार का कोई भी कार्य उनकी इच्छा के बिना पूरा नहींहो सकता।”

ईशावास्योपनिषद से

अश्वपति की कथा

यह कथा एक परोपकारी, दयावान राजा अश्वपति की है। वह राजा कैकेय देश पर राज्य करता था। वह बहुत ही सदाचारी एवं ब्रह्मज्ञानी था। अनेक कठिनाइयों के पश्चात्‌ उसने ‘वैश्वानर’ आत्मा की खोज की थी। इस कारण उसकी ख्याति और भी बढ़ गई थी। उसने आत्म-दर्शन स्वयं किया था और बड़े-बड़े वेदज्ञ पंडितों को भी आत्मत्रूद्गव की दीक्षा दी थी।

उस समय प्राचीन शाल, सत्ययज्ञ, इंद्रद्युम्न, जन एवं बूुडिल नाम के पाँच महापंडित थे। एक दिन वे इकट्ठे होकर यह विचार करने लगे कि आत्मा क्या है और ब्रह्म क्या है? उन लोगों ने यह सुन रखा था कि आजकल उद्‌दालक ऋषि वैश्वानर ‘आत्मा’ की खोज में लगे हुएहैं, अतः वे पाँचों आत्म-त्रूद्गव का ज्ञान प्राह्रश्वत करने के लिए उनके पास पहुँचे।

किंतु उद्‌दालक उनकी शंका का समाधान नहीं कर सके। उन्होंने इस विषय में अपने आपको कच्चा पाया। उन्होंने सुन रखा था कि कैकेय देश का राजा अश्वपति ही उनको सुझाव दे सकता है, अतः वे पाँचों पंडित और उद्‌दालस आत्म-त्रूद्गव की खोज में कैकेय देश जा पहुँचे।

राजा अश्वपति ने उनका यथोचित आतिथ्य-सत्कार किया और बोले, “मेरे राज्य में न तो कोई चोर है, न कोई कृपण और न कोई मद्य पीने वाला। सभी नित्यप्रति हवन करते हैं। मेरे यहाँ कोई अविद्वान व्यक्ति नहीं मिलेगा। प्रजाजनों में कोई व्यभिचारी नहीं है, फिर व्यभिचारिणी तो कोई हो ही कैसे सकती है?” पंडितों और उद्‌दालक को यह सुनकर आश्चर्य हुआ और हर्ष भी कि वे निःसंदेह एक ऐसे राजर्षि के पास आए हैं, जो उनको आत्मत्रूद्गव का सच्चा और पूरा ज्ञान करा सकता है।

अश्वपति ने एक-एक पंडित से अलग-अलग पूछा कि वे किसको आत्मा मानकर उनकी उपासना करते हैं?

उन्होंने जो उ्रूद्गार दिए, उनसे मालूम हुआ कि प्राचीन शाल तो द्युलोक की उपासना करता था। नक्षत्रों और तारों से प्रकाशमान आकाश को वह आत्मा मानता था। सत्ययज्ञ ने आदित्य अर्थात्‌ सूर्य को आत्मा मान लिया थआ और वह उसी का उपासक था।

इंद्रद्युम्न ने वायु को आत्मा बताया और उसने उसी की उपासना की थी। जन पंडित ने अंतरिक्ष को आत्मा मान लिया था और उसी की उपासना में संलग्न था। बुडिल आत्मा मानता था जल को और उद्‌दालक ने पृथ्वी को आत्मा मान लिया था अतः वह केवल पृथ्वी का उपासक था। अश्वपति ने उनसे कहा कि वे अलग-अलग एक-एक अंश को आत्मा मान रहे हैं, संपूर्ण को नहीं, इसलिए उनकी साधना भी अधूरी है।

उसने बताया कि द्युलोक, आदित्य, वायु, आकाश, अंतरिक्ष, जल तथा पृथ्वी को आत्मा मानकर वे धन-धान्य, रथ, बड़े-बड़े भवन और दूसरी सांसारिक समृद्धि पाकर उनको भोग तो सकते हैं, परंतु उस परम लाभ को वे इसकी उपासना से नहीं पा सकते, जिसे पाकर फिर कुछ पाने के लिए शेष नहीं रहता। अलग-अलग एक-एक त्रूद्गव और देवता की उपासना वे भले ही करें, किंतु उनका संशय तब तक दूर नहीं होगा, जब तक उन्होंने वैश्वानर को, विश्वमानुष को अर्थात्‌ समष्टि रूप में आत्मा को नहीं जाना, नहीं पहचाना, उसका साक्षात्कार नहीं किया और उसकी उपासना नहीं की।

अश्वपति के उपदेश का सारांश यही था कि हमारा पिंड यह नर है और वैश्वानर है, ब्रह्मांड में तदाकार हो जाना ही ‘वैश्वानर’ की सच्ची उपासना है। नर की आत्मा को ही देखकर हमें वहाँ नहीं रुक जाना चाहिए। पूरी तृह्रिश्वत तो हमारी तभी होगी, जब हम विश्व में व्याह्रश्वत नर की, वैश्वानर की खोज करेंगे और उसी के लिए यज्ञ करेंगे एवं परितृह्रश्वत भी उसी को करेंगे। मतलब यह कि आत्मा के अपूर्ण रूप की उपासना न कर हम उसके पूर्ण रूप की उपासना करें। संपूर्ण जगत को तृह्रश्वत करने के लिए हम तृह्रश्वत कर्म करें। उन पाँचों पंडितों और उद्‌दालस की जिज्ञासा का पूरा समाधान हो गया। उस दिन से वे ‘वैश्वानर’ के उपासक हो गए।

छान्दोग्य उपनिषद से

विरोचन की कथा

आत्मा परमात्मा का दूसरा नाम कहा जाता है। हमारे देव-पुराणों में भी आत्मा को ईश्वर का दूसरा रूप माना गया है। इसी संदर्भ में छांदोग्य उपनिषद में एक कथा बहुत प्रचलित मानी गई है - प्राचीन काल में एक बार प्रजापति ने सत्संगियों की सभा में आत्मा के विषय में उपदेश दिया। उन्होंने समझाया कि ‘आत्मा’ के मुख्यतः आठ गुण माने गए हैं। पहला गुण तो यह है कि आत्मा पापों से रहित है।

दूसरा यह कि आत्मा को कभी बुढ़ापा नहीं सताता। तीसरा यह कि उसकी कभी मृत्यु नहीं होती। चौथा यह कि वह शोकरहित है। पाँचवाँ यह कि उसे भूख नहीं लगती। छठा यह कि उसे ह्रश्वयास नहीं लगती। सातवाँ यह कि आत्मा सत्यकाम है और आठवाँ यह कि वह सत्य संकल्प है।

देव और असुर दोनों ही प्रजापति के इस सत्संग में आए हुए थे। जब वे लौटकर अपने निवास पर गए तो उन्होंने समूह में बैठकर यह विचार-विमर्श किया कि हमें प्रजापति द्वारा बताए गए आत्मा के विषय में अधिकाधिक ज्ञान प्राह्रश्वत करना चाहिए। ऐसा विचार कर देवताओं ने इंद्र को और असुरों ने अपने राजा विरोचन को अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर उन्हें प्रजापति के पास भेजा।

दोनों परस्पर ईर्ष्या से भरे हुए, हाथों में समिधाएँ (यज्ञ-हवन में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियाँ) लेकर प्रजापति की सेवा में पहुँचे।

प्राजपति ने उनके आने का उद्‌देश्य पूछा तो उन्होंने कहा, “भगवन्‌! हमारा विचार है कि जो आत्मा पापरहित, जरारहित (जिसे कभी बुढ़ापा न आए), मृत्युरहित, शोकरहित, क्षुधारहित, तृष्णारहित, सत्यकाम और सत्य संकल्प है, उसकी खोज करनी चाहिए और उसे रूप से जानने की इच्छा करनी चाहिए, क्योंकि जो व्यक्ति उस आत्मा की खोज कर लेता है, उसे विशेष रूप से जान लेता है, वह संपूर्ण लोक एवं समस्त भोगों को प्राह्रश्वत कर लेता है। इसीलिए हम उस आत्मा को जानने की इच्छा से आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं। कृपया हमें आत्मज्ञान कराइए।”

प्रजापति बोले, “आप दोनों यदि आत्मा के विषय में जानना चाहते हो तो पहले ब्रूद्गाीस वर्ष तक मेरे पास रहकर मन, वचन और कर्म से विद्यार्थी बनकर तपस्या करो। तत्पश्चात्‌ ही मैं तुम्हें आत्म-ज्ञान का उपदेश दूँगा।”

प्रजापति के कहने के अनुसार इंद्र और विरोचन दोनों ने ब्रूद्गाीस वर्ष तक तपस्या की। अवधि पूरी होने पर वे प्रजापति की सेवा में उपस्थित हुए और बोले, “भगवन्‌! हमने आपके कहने के अनुसार ब्रूद्गाीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपनी तपस्या पूरी कर ली है। अब कृपा करके हमें आत्मा के विषय में उपदेश दीजिए।”

तब प्रजापति बोले, “यह जो पुरुष नेत्रों से दिखाई देता है, आत्मा है, यह अमृत है, यह ब्रह्म है।”

यह सुनकर दोनों जिज्ञासुओं ने प्रश्न किया, “भगवन्‌! यह जो जल में सब ओर दिखाई देता है और जो दर्पण में दिखाई देता है,

उसमें आत्मा कौन-सी है?”

प्रजापति बोले, “मैंने नेत्रों के अंतर्गत जिसका वर्णन किया है, वही सबमें प्रत्येक ओर दिखाई देता है।”

“वह भला किस प्रकार?” दोनों ने आश्चर्य से पूछा।

प्रजापति बोले, “तुम दोनों जल से भरा एक-एक पात्र लो और उसमें अपने-आपको देखकर जानने का प्रयत्न करो। उस पर भी जो तुम न जान सको, वह मुझे बता दो।”

दोनों ने जल से भरा एक-एक पात्र लिया और अपने आपको उस जल में देखा।

प्रजापति ने प्रश्न किया, “बताओ, क्या देखते हो इस जल में?”

इंद्र और विरोचन ने कहा, “भगवन्‌! इस जल में तो हम अपने आपको ज्यों-का-त्यों नख पर्यंत संपूर्ण रूप में देख रहे हैं।”

प्रजापति ने पुनः कहा, “अच्छा, अब तुम भली-भाँति सुसज्जित होकर, सुंदर और अच्छे वस्त्रालंकार पहनकर, स्वच्छ और मोहक बनकर जल में अपने आपको देखो।”

उन दोनों ने वैसा ही किया।

प्रजापति ने पुनः पूछा, “अब बताओ, तुम क्या देखते हो?”

दोनों ने कहा, “भगवन्‌! हम जल में दो आकृतियाँ देख रहे हैं। जिस प्रकार हम दोनों ने उ्रूद्गाम और सुंदर वस्त्रालंकार धारण कर रखे हैं, उसी प्रकार जल में दिखने वाले प्रतिबिंबों ने भी धारण कर रखे हैं।”

प्रजापति बोले, “यही आत्मा है। यह अमृत और अभय है। यही ब्रह्म है।”

प्रजापति की बात सुनकर दोनों शांतचित होकर वहाँ से चल दिए।

प्रजापति ने उन्हें दूर जाते देखकर विचार किया, “ये दोनों आत्मा को प्राह्रश्वत किए बिना तथा उससे साक्षात्कार किए बिना चले जा रहे हैं। यह ठीक नहीं है। देवता हो या असुर, जो भी अधूरा ज्ञान प्राह्रश्वत करेगा, वह पराजित होगा तथा उसका विनाश निश्चित है।”

असुरों का प्रतिनिधि विरोचन जब अपने साथियों के पास पहुँचा तो उसने अपने लोगों को कह दिया, “यह शरीर ही आत्मा है।

इसे सुंदर, आकर्षक तथा भव्य बनाना ही हमारे जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। इससे ही हमारा इहलोक और परलोक सुधरेगा।”

वस्तुतः यह तो अधूरी शिक्षा थी। शरीर की सेवा और उसकी परिचर्या तथा उसे सुंदर बनाना एक सीमा तक उचित है, परंतु असुरों की समझ तो उहनी ही थी।

शरीर को सब कुछ मानने वाले असुरों की सभ्यता का भी कालांतर में विकास हुआ। मिस्र (इजिह्रश्वत) देश के पिरामिडों में सुरक्षित प्राचीन राजाओं के वस्त्रालंकारों से विभूषित, लेपकर रखे हुए शव (ममी) इस बात के साक्षी हैं कि असुरों ने शरीर को ही सब कुछ माना था।

किंतु देवताओं का प्रतिनिधि इंद्र अधिक बुद्धिमान था। उसने देव-मँडली तक जाते-जाते सोचा, “यदि जल में दिखाई देने वाले प्रतिबिंब को ही हम आत्मा मान लें, तब तो उसमें परिवर्तन या अस्थिरता माननी होगी। क्या केवल सुंदर वस्त्र पहन लेने से ही आत्मा का सौंदर्य बढ़ जाता है? अथवा क्या किसी की आँख फूट जाने पर उसकी आत्मा को भी हम कानी कहेंगे? यह तो कोई बात न हुई।

प्रजापति ने तो आत्मा को अजर, अमर, नित्य और पवित्र कहा था।

फिर यह नष्ट और अपवित्र होने वाला शरीर आत्मा कैसे हो सकता है?” इस प्रकार तर्क-वितर्क करता हुआ इंद्र पुनः प्रजापति के पास पहुँचा।

प्रजापति ने पूछा, “इंद्र! तुम और तुम्हारा साथी विरोचन तो यहाँ से पूर्ण संतुष्ट होकर चले गए थे। अब लौटकर क्यों आए हो?”

तब इंद्र ने उ्रूद्गार दिया, “भगवन्‌! मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई।

मार्ग में मैंने भली प्रकार विचार किया, परंतु समाधान नहीं हुआ। देव, मैंने सोचा है कि जिस प्रकार यह छायात्मक शरीर अच्छी तरह सुसज्जित

होने पर सजा-धजा दिखता है, उसी प्रकार इसके अँधे होने पर अँधा, जर्जर और खंडित होने पर जर्जर और खंडित भी दिखता है। इस शरीर

का नाश हो जाने पर यह भी नष्ट हो जाता है। विनाशवान वस्तु के संबंध में मुझे कोई फल दिखाई नहीं देता। आथ्मा के जो गुण आपने बताए हैं, वे कहाँ रहे?”

प्रजापति बोले, “इंद्र! तुम जो कुछ कह रहे हो, वह ठीक है।

यह बात ऐसी ही है। अब तुम ब्रूद्गाीस वर्ष रहकर पुनः यज्ञ आदि के साथ ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करो। ब्रूद्गाीस वर्ष बाद मैं तुम्हें इसकी व्याख्या करके पुनः समझा दूँगा।”

और फिर इंद्र ने ब्रूद्गाीस वर्ष तक वहाँ तप किया। तब प्रजापति ने उन्हें स्वह्रश्वन का दृष्टांत देकर आत्मा-विषयक ज्ञान दिया। उन्होंने कहा, “जो यह स्वह्रश्वन में पूजित हुआ विचरता है, वह आत्मा है। स्वह्रश्वन में अपने को तुम जिस रूप में देखते हो, वह तुम्हारा आत्म-स्वरूप ही आत्मा है। यह अमृत है और यही ब्रह्म है।”

प्रजापतिकी बात सुनकर इंद्र वहाँ से शांत-चि्रूद्गा होकर चल पड़े। चल तो पड़े, किंतु मार्ग में उन्हें फिर शंका हुई। विचार करते हुए वह इस संदेह पर पहुँचे, ‘जल से स्वह्रश्वन की स्थिति में अंतर तो है। यह शरीर अँधा होता है, किंतु स्वह्रश्वन का शरीर ऐसा नहीं होता अथवा इसके विपरीत भी होता है। हम हर प्रकार से ठीक होते हैं,

किंतु स्वह्रश्वन में विकृत दिखाई देते हैं। यह सब होते हुए भी यह देह मारने, डाँटने-डपटने, रोने आदि से प्रभावित होती है। इस प्रकार स्वह्रश्वन के आत्म-दर्शन में मुझे कोई फल दिखाई नहीं देता।’

यही सोचते हुए इंद्र पुनः प्रजापति की ओर लौट पड़े।

अपने सामने इंद्र को पुनः हाथ जोड़े देखकर प्रजापति ने पूछा, “इंद्र! तुम तो शांत-चि्रूद्गा होकर चले गए थे, अब किस इच्छा से लौट आए हो?”

इंद्र ने कहा, “भगवन्‌! विचार करने पर मुझे स्वह्रश्वन में हुआ आत्म-दर्शन व्यर्थ जान पड़ा। मैंने देखा है कि यह शरीर अँधा होता है तो भी स्वह्रश्वन शरीर अँधा नहीं होता, यह रोगी होता है, पर वह निरोग रहता है। स्वह्रश्वन शरीर इस शरीर के दोष से दूषित नहीं होता, किंतु फिर भी उसे कोई मारता है, कोई ताड़ना देता हो और उसके कारण मानो वह अप्रिय का अनुभव करता हो, दुःख से रोता हो, ऐसा अनुभव होने के कारण मुझे स्वह्रश्वन में होने वाले आत्म-दर्शन में कोई उपयोगिता नहीं दिखाई देती। आप कृपया मुझे स्पष्ट समझाएँ।”

प्रजापति इंद्र की जिज्ञासा को समझ गए। वे बोले, “तुम ठीक कहते हो। मैं तुम्हें समझाऊँगा, किंतु पहले की तरह तुम्हें फिर से ब्रूद्गाीस वर्ष यहाँ रहना पड़ेगा।”

इंद्र ने आज्ञा शिरोधार्य करके ब्रूद्गाीस वर्ष तक पुनः तप किया।

तत्पश्चात्‌ वे पुनः प्रजापति की सेवा में उपस्थित हुए। प्रजापति ने कहा, “इंद्र! जिस अवस्था में वह सोया हुआ मनुष्य न तो कुछ देखता ही है और न भली-भांति आनंद मनाता हुआ स्वह्रश्वन का अनुभव करता है, वही आत्मा है। यह अमृत है, अभय है और यही ब्रह्म है।”

प्रजापति का यह उपदेश सुनकर इंद्र वहाँ से चल पड़े, किंतु देवताओं के पास जाने से पूर्व उन्हें फिर संदेह हुआ। उन्होंने सोचा, ‘यह भी ठीक नहीं है। निद्रा की जिस अवस्था में उसे ज्ञान ही नहीं होता कि मैं यहाँ हूँ, वह दूसरे जड़-चेतन समुदाय को भी नहीं पहचानता। उस समय तो वह मानो विनाश को प्राह्रश्वत हो जाता है।

निद्रावस्था के इस आत्म-दर्शन में भी कोई सार दिखाई नहीं देता।’

यही सोचकर इंद्र पुनः प्रजापति के पास लौट आए।

प्रजापति ने इंद्र को अपने हाथ बाँधे खड़ा देखा तो उन्होंने पूछा, “इंद्र! अब यहाँ किसलिए आए हो?”

इंद्र ने कहा, “भगवन्‌! यह निद्रावस्था वाला आत्म-दर्शन भी मुझे उपयोगी नहीं लगा। इस अवस्था में तो निश्चय ही इसे यह ज्ञान नहीं होता कि यह मैं हूँ और न यह दूसरे पदार्थों या प्राणियों को ही पहचानता है। उस अवस्था में तो यह मानो नष्ट ही हो जाता है। इसमें भी मुझे कोई इष्टफल नहीं दिखाई पड़ता। आप मुझे कृपया फिर से समझाइए।”

प्रजापति ने स्वीकृति देते हुए कहा, “अच्छा, इस बार तुम केवल पाँच वर्ष ही तपस्या करो। उसके पश्चात्‌ मैं तुम्हें इसका मर्म भी समझा दूँगा।”

इसके पश्चात्‌ इंद्र ने पाँच वर्ष तक पुनः तप किया। जब उसे तप करते हुए एक सौ एक वर्ष व्यतीत हो गए तो पुनः इंद्र प्रजापति की सेवा में उपस्थित हुए तो प्रजापति ने कहा, “इंद्र! अब मैं तुम्हें आत्म-ज्ञान का रहस्य समझाता हूँ।

सुनो, जब तक आत्मा शरीर में रहती है, तब तक वह सुख-दुःखादि द्वंद्वों का अनुभव करती है और शरीर से पृथक हो जाने पर अपने किए पुण्य कृत्यों से जीवात्मा को मोक्ष सुख की प्राह्रिश्वत होती है। जैसे रथ में जोता गया घोड़ा उससे मुक्त होकर स्वतंत्रता का आनंद प्राह्रश्वत करता है, उसी तरह आत्मा भी शरीर के भौतिक बंधनों से मुक्त होकर परमात्मा के निकट जाती है तथा ऐसे सुख का अनुभव करती है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

परमात्मा को पा लेना ही जीव का परम पुरुषार्थ है। इसे पाकर उसे फिर से जन्म-मरण के चक्र में नहीं आना पड़ता।”

अपने वक्तव्य को और विस्तार देते हुए प्रजापति ने आगे बताया, “इंद्र! यह शरीर वास्तव में मरणशील है, यह मृत्यु का ग्रास है। यह देह अमृत तथा अशरीरी (शरीरहीन, सूक्ष्म) आत्मा का निवास स्थान है। आत्मा जब तक शरीर में है, तब तक उसे शरीर में व्याह्रश्वत होने वाले प्रिय-अप्रिय गुणों का अनुभव होता है, शरीर से अलग होते ही आत्मा को प्रिय, अप्रिय कुछ भी अनुभव नहीं होता, वह विराट में मिल जाता है। इसे इस प्रकार समझो, नाक, गंध ग्रहण करने का माध्यम है, वह सूँघती नहीं है, जो सूँघती है, वह तो सूक्ष्म आत्मा है।

इसी प्रकार देखने का काम आत्मा करती है, नेत्र नहीं। बोलने का काम आत्मा करती है वाणी नहीं। सुनती आत्मा है, कान नहीं। मनन करने वाली सूक्ष्म आत्मा है, मन तो उसका माध्यम मात्र है। स्वाध्यायपूर्वक जो अपनी इंद्रियों को अपने अंतःकरण में स्थापित करता है, वही आत्मा से साक्षात्कार कर पाता है।”

प्रजापति द्वारा इस प्रकार विस्तारपूर्वक आत्म-ज्ञान का रहस्य समझाने पर इंद्र संतुष्ट हो गए। फिर परम संतुष्टि का अनुभव करते हुए देवताओं के पास देवलोक जा पहुँचे।

छान्दोग्य उपनिषद से ओ३म का स्वरूप देव और असुरों में हमेशा युद्ध की संभावनाएँ बनी रही हैं।

अवसर मिलते ही दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने तथा स्रूद्गाा हथियाने में लगे रहते थे। छांदोग्य उपनिषद्‌ में ऐसी ही एक कथा का वर्णन मिलता है।

सुर और असुर दोनों सौतेले भाई थे। देवताओं की माता का नाम अदिति और असुरों की माता का नाम दिति था। पद, प्रतिष्ठा तथा ऐश्वर्य-भोग एवं स्रूद्गाा के लिए इनमें बारबार लड़ाइयाँ होती रहती थीं।

देवता सात्विक वृि्रूद्गा के थे, अतः वे लड़ाई-झगड़े से बचना चाहते थे, परंतु असुर तामसी वृि्रूद्गा के थे। वे अपने दुर्गुणों से देवताओं को हमेशा सताते रहते थे। एक बार देवता बहुत दुःखी हुए तो प्रजापति ब्रह्मा के पास गए और असुरों के कष्ट से छुटकारा पाने का उपाय पूछा। ब्रह्माजी बोले, “इस विश्व ब्रह्मांड में सुरी-असुरी दोनों प्रवृि्रूद्गायाँ पल रही हैं।

यह प्रकृति का गुण है, इससे बचना कठिन है। इनका सामना तो करना ही पड़ेगा। असुरों या उनसी आसुरी-वृि्रूद्गायों को समाह्रश्वत करना बड़ा कठिन है। अब तुम अपनी सात्विक इंद्रिय शक्ति से उनका सामना करो। संभव है सफलता मिले।”

ब्रह्माजी की बात मानकर देव-गण अपने लोक को चले आए।

असुरों ने फिर उन पर आक्रमण किया।

इस बार देवों ने अस्त्र-शस्त्र से उनका सामना करने की बजाय अपनी नासिका में बसी घ्राण-शक्ति से उन पर प्रहार किया। वह शक्ति असुरों से टकराकर उनकी वृि्रूद्गायों से दूषित हो गई। जिसमें पहले केवल सुगंध को सूँघने का गुण था, अब वह दुर्गंध को भी सूँघने लग गई।

फिर देवों ने वाक्‌-शक्ति (वाणी) से प्रहार किया। असुरों ने अपने गुण से उसे भी प्रभावित किया। उसमें पहले केवल सत्य का उच्चारण करने की शक्ति थी, अब वह असत्य भी बोलने लगी।

फिर देवों ने श्रवण-शक्ति का प्रयोग किया। यह शक्ति भी असुरों से टकराकर दूषित हो गई और अब वह न सुनने योग्य बुरी बात भी अधिक रुचि से सुनने लग गई।

इसके पश्चात्‌ देवताओं ने अपनी नेत्र-शक्ति से प्रहार किया।

फर यह हुआ कि जो आँखें केवल अच्छाई की ओर देखती थीं, वे अब बुराई की ओर भी देखने लग गई।

इन सबके विफल हो जाने पर देवताओं ने उन पर मन की इच्छा-शक्ति का प्रयोग किया, पर असुरों की शक्ति ने उसे भी परास्त कर उसमें अपनी वृि्रूद्गायों को मिला दिया। जिस मन में हमेशा सदविचार आते थे, उसमें अब बुरे विचारों का भी मनन होने लगा। वे छल-कपट की बातें सोचने लगे। उनका मन भी आसुरी वृि्रूद्गायों से प्रभावित हो गया। देवताओं ने सोचा, इन सब शक्तियों का प्रयोग व्यर्थ हुआ।

इनमें जो सात्विक गुण था, वह भी असुरों के संघर्ष से तमोगुण युक्त हो गया। चलो, फिर से ब्रह्मा के पास चलते हैं। हम उन्हें बताएँगे कि आपके द्वारा सुझाया गया वह प्रयोग तो अच्छे त्रूद्गवों में भी बुरे त्रूद्गवों का प्रवेश करा गया।

ब्रह्माजी ने देवों की चिंता सुनकर कहा, “मैं कहता था न कि इन दोनों गुणों से कुछ भी अछूता नहीं रहेगा। इसलिए इस शरीर में रहने वाली जो केंद्रीय प्राण-शक्ति है, वही ब्रह्मा है। उसका प्रयोग दूसरे के लिए नहीं होता। वह सब गुण-दोषों, चिंत्य, अचिंत्य से परे है।

उसी की उपासना ‘ओ३म्‌’ स्वर से करो। शरीर में उनके वास करने से सब इंद्रियां शक्तिमान रहती हैं, भले-बुरे का ज्ञान रहता है। जीवन की सभी गतिविधियाँ उसी से संचालित रहती हैं, इसलिए उसी प्राण परब्रह्म की ‘ओऽम’ स्वर से उपासना करो। उसी से कल्याण होगा।”

ब्रह्माजी द्वारा ‘ओ३म्‌’ की शक्ति का महात्म जानकर देवों की सभी शंकाओं का समाधान हो गया। तब से वे शुद्ध विचारों के साथ उद्‌गीथ गान (ओ३म का दूसरा नाम) करने लगे।

छान्दोग्य उपनिषद से

सत्यकाम की कथा

सच्चाई का मार्ग सर्वोपरि माना गया है। इस मार्ग पर चलनेवाले कभी अपमानित नहीं होते। छांदोग्य उपनिषद में सत्यकाम कीऐसी ही एक कथा का सजीव वर्णन मिलता है। किसी नगर में जबालानाम की एक स्त्री रहती थी। जबाला का एक ही बेटा था, जिसे वहअपने प्राणों से भी अधिक चाहती थी। उसाक नाम था सत्यकाम।

सत्यकाम जब गुरुकुल में जाकर पढ़ने योग्य हुआ तो उसने अपनी मातासे कहा, “माँ! मैं ब्रह्मचर्यपूर्वक गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करनाचाहता हूँ। वहाँ मेरे गोत्र आदि के बारे में पूछताछ होगी। तुम मुझे बतादो कि मैं किस गोत्र से हूँ?”

पुत्र की बात सुनकर जबाला सोच में पड़ गई। वह विचारकरने लगी कि इस विषय में अपने पुत्र को सच्ची बात बताई जाएया नहीं। बहुत विचार करने के बाद उसने सच बोलने का निर्णयकिया। वह सत्यकाम से बोली, “पुत्र! सच बात तो यह है कि मैंस्वयं भी नहीं जानती कि तुम किस गोत्र से हो?”

“ऐसा क्यों माँ? क्या तुम्हें पिताजी ने अपना गोत्र नहीं बतायाथा?” आश्चर्य से सत्यकाम ने माँ से पूछा।

जबाला कुछ शर्मिंदगी भरे स्वर में बोली, “युवावस्था में मैंनेअनेक धनी लोगों के घर में सेविका के रूप में काम किया था, तभीमैंने तुम्हें प्राह्रश्वत किया था। इसलिए तुम किस गोत्र के हो, मैं निश्चितरूप से नहीं कह सकती।”

“परंतु माँ! गुरुकुल में तो यह प्रश्न अवश्य पूछा जाएगा किमैं किस गोत्र का हूँ, तब मैं उन्हें क्या उ्रूद्गार दूँगा?”

जबाला बोली, “पुत्र! मैं तो बस इतना ही जानती हूँ कि मैंजबाला हूँ और तुम मेरे पुत्र सत्यकाम हो। अब तुम ऐसा करो, जबकोई तुमसे तुम्हारे गोत्र के विषय में पूछे तो तुम अपने को ‘सत्यकामजाबाल’ बता देना।” सत्यकाम की चिंता का इतने से ही समाधान होगया। वह हरिद्रुमत गौतम मुनि के आश्रम में बहुँचा और उनसे जाकरबोला, “पूज्यवर! मैं आपकी सेवा में रहकर ब्रह्मचर्यपूर्वक जीवनबिताता हुआ शिक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ, इसी कारण मैं आपकी सेवामें उपस्थित हुआ हूँ। मेरे लिए क्या आज्ञा है?”

गौतम मुनि बोले, “सौम्य, पहले यह तो बताओ कि तुम्हारागोत्र कौन-सा है?” जिस बात का डर था, वही बात सामने आ गई।

एक क्षण के लिए तो सत्यकाम झिझका, फिर उसने सच्ची बातबता देने का निर्णय कर लिया। वह बोला, “पूज्यवर! मैं किस गोत्रसे हूँ, यह मैं नहीं जानता। यहाँ आने से पूर्व मैंने अपनी माता से यहीबात पूछी थी, किंतु वह भी नहीं जानती कि मैं किस गोत्र से हूँ। मेरेबार-बार पूछने पर उसने मुझसे यही कहा कि युवावस्था में मैं बहुतलोगों के यहाँ सेविका का काम-धंधा करती रही हूँ, तभी मैंने तुझे प्राह्रश्वतकिया था। ऐसी दशा में मैं नहीं जानती कि तू कौन-से गोत्र वालाहै। मैं तो सिर्फ इतना जानती हूँ कि मेरा नाम जबाला है और तू मेरापुत्र सत्यकाम है अतः तू सत्यकाम जाबाल हुआ। गुरुवर! आप मुझेसत्यकाम जाबाल ही समझें।”

सत्यकाम की इस स्पष्टवादिता से गौतम मुनि बहुत प्रसन्न हुएऔर बोले, “सौम्य! तेरे सत्य कथन से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। सत्य कहनाबड़े साहस का काम है। निश्चय ही तू किसी बड़े कुल-गोत्र वालाहै। जा, समिधा ले आ, हवनपूर्वक मैं तेरा आज ही उपनयन संस्कारकरूँगा। मैं तुझे अवश्य शिक्षा दूँगा, क्योंकि तूने सत्य का साथ नहींछोड़ा है।” सत्यकाम ने शीश झुकाया और समिधा लेने चला गया।

विधिपूर्वक गौतम ने उसका उपनयन संस्कार किया। इसके पश्चात्‌अपने गोधन में से चार-सौ दुबली-पतली गाय अलग कर गौतम नेसत्यकाम से कहा, “सौम्य! तून इन गायों को चरा ला।”

सत्यकाम ने गुरु की आज्ञा को सहर्ष स्वीकार किया और गायोंको हाँकता हुआ बोला, “गुरुदेव! जब तक ये चार सौ गाय एक हजारकी संख्या में न हो जाएँगी, मैं यहाँ नहीं लौटूँगा।”

गौओं को लेकर सत्यकाम वन-वन विचरता रहा। उसकी देख-रेख और सेवा-भाव से गायों की संख्या में बढ़ोतरी हो गई। तब एकदिन उन गायों के साथ रहने वाले एक वृषभ (सांड) ने सत्यकाम सेबात की।

वृषभ ने सत्यकाम से कहा, “सत्यकाम! तुम जिस निषअकामभाव से हमारी सेवा कर रहे हो, उसके लिए मैं तुम्हें ब्रह्म के एकपाद (पक्ष) का उपदेश देता हूँ।” ऐसा कहकर वृषभ ने सत्यकाम कोयह उपदेश दिया, “सुनो सत्यकाम! चारों दिशाएँ ही उस परमात्मा कीचार कलाएँ हैं। इनको धारण करने वाला परमात्मा प्रकाश-स्वरूप है।”

वृषभ इतना कहकर मौन हो गया।

सत्यकाम ने इससे आगे जानने की उत्कंठा व्यक्त की तो उसनेब्रह्म को जानने का अगला रहस्य अग्निदेव से पूछने को कह दिया।

अब सत्यकाम उन हजार गायों को लेकर अपने आश्रम की ओर चलपड़ा और रास्ते में जब सायंकाल हुआ तो उसने आग जलाकर रोशनीकर ली। गायों को भी एक स्थान पर एकत्रित कर लिया। उसने अग्निमें आहुतियाँ दीं। अब मानो अग्निदेव ही उसके सामने प्रट होकर कहनेलगे, “देखो सत्यकाम! यह पृथ्वी, अंतरिक्ष, द्युलोक तथा अनंत विस्तारवाला समुद्र भी परमात्मा की कला (रचना) है। लोकों की यह रचनातथा विस्तार को जानकर तुम इसके रचयिता का ज्ञान प्राह्रश्वत करो।”

यह कहकर अग्निदेव ने अपनी बात समाह्रश्वत कर दी और इतना संकेतदे दिया कि अगला उपदेश तुम्हें एक हंस से मिलेगा।

जहाँ चाह वहाँ राह। ज्ञान का प्रतीक हंस शास्त्रों में जीवात्माको ही माना गया है। हंस ने जो उपदेश दिया, उसका सार यही थाकि अग्नि, सूर्य, चंद्रमा और विद्युत (अर्थात्‌ बिजली) ये परमात्मा कीकलाएँ ही हैं। उपनिषदों में यह बात अनेक बार कही गई है कि सूर्य,चंद्रमा, तारों, विद्युत और अग्नि में जो प्रकाश है, वह उनका स्वयं कानहीं है।

अपितु परमात्मा का ही दिया हुआ है। वही ज्योतियों कीज्योति है, इस प्रकार सत्यकाम जाबाल को हंस का उपदेश मिला, साथही यह संकेत भी कि अगली बात तुम्हें एक जलचर (जल में रहनेवाला) पक्षी बताएगा। उपनिषद के रचयिता ऋषि को वृषभ, अग्नि,हंस और जलचर को प्रतीक बनाकर अपनी बात कहनी है।

यथासंभव एक जलचर ने सत्यकाम को बताया कि प्राण, मन,नेत्र और श्रोण अर्थात्‌ कान (मनुष्य की ज्ञानेंद्रियाँ तथा उसके मन एवंप्राण) भी परमात्मा की कलाएँ (शक्तियाँ) ही हैं, जो मनुषय को उसकेउपभोग के लिए दी गई है। ये सब इंद्रिय आदि पदार्थ परमात्मा द्वारादिए गए हैं।

इन चारों (वृषभ, अग्नि, हंस और जलचर) द्वारा प्राह्रश्वत ज्ञान से सत्यकाम जाबाल सोलह कलाओं वाले परब्रह्म का पूर्ण ज्ञाता होगया। तब वह प्रसन्नचि्रूद्गा होकर आचार्य कुल में लौट आया।

सत्यकाम के प्रफुल्ल मुखमंडल को देखकर आचार्य उससेबोले, “सौम्य! तेरा मुखमंडल देखकर मुझे लग रहा है जैसे तू ब्रह्मको भली-भाँति जान गया है। तू ब्रह्मवे्रूद्गाा बन गया है। मुझे बता, तूनेयह ज्ञान किससे प्राह्रश्वत किया है?”

सत्यकाम तो सत्यव्रत अर्थात्‌ सदैव सत्य बोलने वाला था,उसने स्पष्ट रूप से बताया, “आचार्यवर! बस ये समझ लीजिए किमनुष्यों के अतिरिक्त मुझे देवताओं ने भी यह उपदेश दिया है किंतुअब मेरी इच्छा है कि आप ही मुझे विद्या का उपदेश करें। मैंने श्रीमानके समान ऋषियों से सुना है कि आचार्य से जानीगई विद्या ही अत्यंतलाभदायक होती है, वही हितकर भी है।”

सत्यकाम की बात से प्रसन्न होकर आचार्य ने उसे सहर्षविद्यादान दिया। इससे सत्यकाम का विद्या-धन और भी विकसितहुआ। समय पाकर सत्यकाम स्वयं भी आचार्य की पदवी पाने वालेबने। उनके आश्रम में भी अनेकानेक शिष्य शिक्षा ग्रहण कहने लगे।

ब्राह्मणोपनिषद से

सत्य की महिमा

महान्‌ योगी, ब्रह्मज्ञानी, ऋषियों ने वेद-पुराणों में सत्य कीपरिभाषा का अलग-अलग ढंग से बखान किया है। ब्राह्मणोपनिषद्‌ मेंभी सत्य की महिमा का उल्लेख श्वेतकेतु की कहानी द्वारा पढ़ने कोमिलता है। प्राचीन काल में आरुणि नाम के एक विद्या-विशारद्‌ पंडितथे, उनके पुत्र का नाम श्वेतकेतु था। श्वेतकेतु जब बारह वर्ष का होगया तो एक दिन आरुणि ने उससे कहा, “पुत्र! अब तुम किसी आश्रममें जाकर ब्रह्मचर्य की साधना और वहाँ रहकर वेदों का गहन अध्ययनकरो। हमारे कुल की यही परंपरा रही है। हमारे वंश का कोई भीव्यक्ति अभी तक ‘ब्रह्मबंधु’ होकर नहीं रहा। ब्रह्मबंधु का अर्थ समझतेहो न। ब्रह्मबंधु वह कहलाता है, जिसने ब्राह्मण कुल में जन्म तो लियाहै, पर वेद-वेदांग का अध्ययन न किया हो।”

पिता की आज्ञा पाकर श्वेतकेतु आचार्य की सेवा में चलागया। उपनयन संस्कार के बाद उसने विद्याध्ययन शुरू किया। बारहवर्ष उसने आचार्य से शिक्षा ग्रहण की और फिर संपूर्ण वेदों काअध्ययन कर अपने को बहुत बुद्धिमान तथा व्याख्याता मानते हुए बड़ेघमंड के साथ घर लौटा।

पिता ने जब देखा कि श्वेतकेतु इतना पढ़-लिखकर भी विनम्रनहीं बना, उलटा और भी घमंडी हो गया है तो उन्हें भारी दुःख हुआ।

उन्होंने अपने पुत्र को निकट बुलाया और कहा, “वत्स! मैं देख रहाहूँ कि इतने वर्ष गुरुकुल में पढ़ने के बाद भी तुम्हारे व्यवहार में नम्रतानहीं आई। तुम्हें अपनी योग्यता का घमंड हो गया है। इसका क्याकारण है? अच्छा जरा ये तो बताओ कि तुम वह कब कुछ जान गएहो, जिसके कारण न सुना गया भी सुना जैसा हो जाता है, मत-सम्मतन होते हुए भी मत-सम्मत हो जाता है और अविज्ञान अर्थात्‌ न जानीहुई बातें भी जानी हुई हो जाती हैं?”

पिता की बातें सुनकर श्वेतकेतु ने बोला, “नहीं तात! मैंने यहसब नहीं जाना है। कृपया आप ही बताएँ।”

पिता आरुणि ने कहा, “वत्स! जिस प्रकार मिट्टी के एक पिंडद्वारा तरह-तरह के मिट्टी के पदार्थ बन जाते हैं, पर वाणी के विकारसे वे भिन्न-भिन्न नाम-रूपों से जाने जाते हैं, पर सत्य तो मिट्टी हीहै, ठीक उसी प्रकार वह जानने योग्य है। इसी प्रकार सोने, लोहे सेबने पदार्थों के बारे में जान लो। सत्य तो सोना और लोहा है, उनसेबने भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थ नहीं। वैसे ही वह सत्य रूप है।”

श्वेतकेतु बोला, “पिताश्री! निश्चय ही मेरे गुरुदेव इस बातको नहीं जानते थे। जानते होते तो अवश्य बताते। अब आप हीबताइए, वह जानने योग्य क्या है?”

आरुणि ने कहा, “अच्छा बताता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो वत्स।

प्रारंभ में एकमात्र अद्वितीय सत्‌ ही था। सत्‌ ने इच्छा की, मैं बहुतहो जाऊँ, अनेक प्रकार से उत्पन्न होऊँ। इच्छा करते ही सत्‌ से तेजकी उत्पि्रूद्गा हुई, फिर तेज ने भी वैसी इच्छा की, फलस्वरूप तेज सेजल की रचना हुई। इसी क्रम में जल से अन्न की उत्पि्रूद्गा हुई। हमारीमन अन्नमय है, प्राण जलमय है और वाक्‌ तेजोमय है।”

श्वेतकेतु बोला, “तात! इस बात को तनिक विस्तारपूर्वकसमझाएँ।”

अरुणि उसे समझाते हुए कहने लगे, “जो अन्न हम खाते हैं,वह खाने के पश्चात्‌ जीन तरह का हो जाता है। उसका जो अत्यंतस्थूल भाग होता है, वह मल बन जाता है, जो मध्य भाग है, वह माँसहो जाता है और जो भाग अत्यंत सूक्ष्म होता है, वह मन हो जाता है।

इसलिए मन को अन्नमय कहा गया हरै। जो जल पीते हैं, वह पिएजाने पर तीन प्रकार का हो जाता है। उसका जो भाग स्थूल होता है,वह मूत्र बन जाता है। जो मध्य भाग है, वह रक्त बन जाता है औरजो बहुत ही सूक्ष्म भाग है, वह प्राण हो जाता है। इसीलिए प्राण जलमयकहलाता है। इसी प्रकार जो घृत (घी) आदि तेजोमय पदार्थ हम खातेहैं, वह तेजोमय पदार्थ खाए जाने पर तीन प्रकार का हो जाता है।

उस तेजोमय पदार्थ का जो भाग स्थूल होता है, वह हड्डी बनजाता है, जो मध्य भाग है, वह मज्जा हो जाता है और जो सूक्ष्म भागहै वह वाक्‌ हो जाता है। इसीलिए वाक्‌ तेजोमय है।”

पिता की ऐसी सारगर्भित बातें सुनकर श्वेतकेतु का चेहराप्रसन्नता से दमक उठा। फिर उसने पिता से निवेदन किया, “कृपयाआप मुझे इस बात को पुनः समझाएँ।”

आरुणि पुत्र की जिज्ञासा से प्रसन्न हुए। उन्हें यह बात अच्छीलगी कि श्वेतकेतु इस बात को भली प्रकार समझना चाहता है। उन्होंनेकहा, “पुत्र! इस प्रसंग को तुम मथी जाती हुई दही के दृष्टांत सेसमझो। जैसे दही को मथने पर उसका सूक्ष्म भाग मक्खन ऊपर आजाता है, ठक उसी प्रकार खाए हुए अन्न की स्थिति है। उसका सूक्ष्मअंश ऊपर आ जाता है। वही मन है। इसी प्रकार जल और तेज कोसमझो।”

श्वेतकेतु ने और भी अधिक जानने का आग्रह किया। पिताने उसे पंद्रह दिन बिना भोजन किए केवल जल पीकर रहने की सलाहदी। श्वेतकेतु ने वैसा ही किया। सोलहवें दिन वह पिता के पास आयाऔर पूछा, “पिताश्री! अब आपकी क्या आज्ञा है?” आरुणि ने कहा,“बेटा! अब तुम ऋग्‌ (ऋग्वेद), यजुः (यजुर्वेद) और साम (सामवेद)का पाठ करो।”

श्वेतकेतु बोला, “पिताश्री! मुझमें तो अब इतनी शक्ति ही नहींबची है, फिर पाठ कैसे करूँ?”

आरुणि कहने लगे, “पुत्र! पुरुष सोलह कलाओं वाला है।

जिस प्रकार बहुत से इर्ंधन से प्रज्जवलित हुई अग्नि का एक जुगनूके बराबर अंगार रह जाए तो वह उससे अधिक दाह नहीं कर सकता,उसी प्रकार बिना भोजन के तुम्हारी सोलह कलाओं में से केवल एककला ही शेष रह गई है। इसी कारण तुम वेदों का पाठ नहीं कर पारहे हो। अब जाकर तुम

भोजन करो, फिर बात करेंगे।”

श्वेतकेतु ने भोजन किया और स्वस्थ होकर पिता के पासआया। अब पिता ने जो कुछ पूछा, वह सब बताता चला गया।

पिता ने कहा, “अब तो तुम समझ गए कि मन अन्नमय है।

भोजन करने से तुम्हारी चेतना जागृत हो उठी और सब कुछ अपनेआप ही तुम्हें याद होता चला गया।”

श्वेतकेतु ने स्वीकृति में सिर हिलाया। आरुणि ने उसे आगेसमझाया, “पुत्र! अन्न, प्राण और तेज तथा इनसे संबंधित जीव सत्‌का स्वरूप हैं। मरने पर प्राणी का वाक्‌ मन में लीन हो जाता है।

मन प्राण में, प्राण तेज में और तेज सत्‌ में समा जाता है। सत्‌ हीआत्मा है, सत्‌ ही परमात्मा है, तुम भी सत्‌ ही हो।”

पुत्र ने पुनः आग्रह किया तो पिता बोले, “जिस प्रकारमधुमक्खियाँ मधु एकत्र करती हैं और नाना दिशाओं के नाना वृक्षों,लताओं, पुष्पों का रस लाकर सबको एक मेल कर देती हैं, किंतु रसउस मधु में यह पहचान नहीं कर पाते कि हम अमुक वृक्ष, लता यापुष्प के हैं, ठीक उसी प्रकार प्राणी की स्थिति है।”

श्वेतकेतु ने संदेह व्यक्त किया, “किंतु हम सत्‌ को जान नहींपाते, ऐसा भला क्यों?”

आरुणि बोले, “जान पाते हैं पुत्र! बल्कि यों कहो कि अनुभवकरते हैं, किंतु पूरा ज्ञान न होने के कारण उसे बता नहीं पाते।”

“वह भला कैसे?”

“वह बहुत सूक्ष्म जो है?”

“सूक्ष्म किस प्रकार हुआ?”

“यह भी समझाता हूँ पुत्र।” आरुणि बोला, “अब तुम जाकरवट वृक्ष (बरगद का पेड़) का एक फल ले आओ।”

पिता की आज्ञा पाकर श्वेतकेतु वट वृक्ष का एक फल लेआया और आकर बोला, “फल तो मैं ले आया पिताश्री! अब क्याआज्ञा है?”

आरुणि बोले, “अब इस फल को फोड़ो।”

“भगवन्‌! फोड़ दिया।”

“इसमें क्या नजर आता है?”

“इसमें तो अणु के समान छोटे-छोटे दाने हैं, भगवन्‌।”

“ठीक। अब इन दानों में से किसी एक दाने को फोड़ो।”

“लीजिए, यह भी फोड़ दिया।”

“इसमें क्या नजर आया?”

“इसमें तो कुछ भी दिखाई नहीं देता, यह तो बहुत सूक्ष्म है।”

आरुणि मुसकराए और कहा, “बेटा श्वेतकेतु! जिस सूक्ष्म कोतुम देख नहीं पा रहे, उसी सूक्ष्म से विशाल वट वृक्ष पैदा होता है।

ठीक यही बात सत्‌ और जगत के संबंध में है।”

श्वेतकेतु की जिज्ञासा शांत नहीं हुई। उसने पिता से कहा,“पिताश्री! कुछ-कुछ बात को समझ तो रहा हूँ, किंतु भली प्रकारइसका अनुभव नहीं कर पा रहा। कृपया इसे और विस्तार सेसमझाइए।”

आरुणि हँस पड़े। उन्होंने श्वेतेकतु को थोडा-सा नमक दियाऔर कहा, “अब तुम जाकर विश्राम करो। कल प्रातः होने पर यहनमक एक जलपात्र में डालकर लेते आना। तभी बातें होंगी।”

श्वेतकेतु ने पिता की आज्ञा का पालन किया। रात-भर चिंतनऔर विशअराम करने के बाद प्रातः जलपात्र में नमक डालकर वहपिता के सम्मुख उपस्थित हुआ। उसने जलपात्र पिता की ओर बढ़ातेहुए कहा, “पिताश्री! यह लीजिए।”

“पुत्र! यह क्या है?”

“जलपात्र है पिताश्री।”

“और नमक?”

“वह तो मैंने आपकी आज्ञानुसार इस जलपात्र में डाल दियाहै।” श्वेतकेतु बोला।

“अब वह नमक इस जल में से निकालकर मुझे दे दो।”

श्वेतेकतु ने पात्र में हाथ डालकर निकालने की बहुत चेष्टा की,पर नमक नहीं निकला। उसने व्यग्र भाव से पिता की ओर ेदखा। वेहँसकर बोले, “बेटा! नमक जल में ही है। वह इतना सूक्ष्म हो गयाहै कि तुम उसे पहचान नहीं पाते। अच्छा, अब एक काम करो। पात्रमें से थोड़ा-सा जल लेकर उसका आचमन करो।”

श्वेतकेतु ने थोड़ा जल लिया और उसका आचमन किया।

पिता ने पूछा, “कैसा है?”

“नमकीन है।”

“अच्छा, अब इस जल के कुछ भाग करके उन भागों का औरआचमन करो।”

श्वेतकेतु ने आचमन किया। वे सभी भाग नमकीन थे। पिताने कहा, “देखो बेटा! जैसे इस जल में सूक्ष्म रूप से नमक मौजूदहै और तुम उसे देख नहीं पा रहे, किंतु अनुभव कर रहे हो, वैसे हीसत्‌ की स्रूद्गाा है। वह सर्वत्र, सबमें विद्यमान है। हम उसे स्थूल रूपसे देख नहीं पाते, पर कार्य और परिणाम में अनुभव करते हैं।”

श्वेतकेतु की शंका का समाधान हो गया। संतुष्ट होकर उसनेअपने पिता के चरणों में अपना शीश झुका दिया।

जबाल दर्शनोपनिषद से

द्रूद्गाात्रेय की कथा

जबाल दर्शनोपनिषद में प्रस्तुत कथा द्रूद्गाात्रेय के योग-शास्त्र परआधारित है। भगवान द्रूद्गाात्रेय को हमारे धार्मिक ग्रंथों में योग-मार्ग कासम्राट कहा गया है। उन्हें विष्णु का अवतार माना गया है, इसीलिए‘भगवान’ की उपाधि से विभूषित किया गया है। द्रूद्गाात्रेय भगवान केएक शिष्य हुए है, जिनका नाम है, ‘सांकृत मुनि। सांकृत मुनि अपनेगुरु के बहुत बड़े भक्त थे। एक दिन गुरुजी की सेवा में उपस्थितहोकर सांकृत मुनि ने हाथ जोड़कर विनय की, “भगवन्‌! मेरे कल्याणके लिए आप मुझे विस्तारपूर्वक योग की शिक्षा दीजिए।”

अपने शिष्य की बात सुनकर द्रूद्गाात्रेय बोले, “सांकृति! तुम्हारेमन में एक अच्छी उत्कंठा का उदय हुआ है। सुनो, मैं तुम्हें योग केविषय में बताता हूँ।”

“सांकृति! योग के आठ अंग माने गए हैं - यम, नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि। यम का अर्थहै - वश में करना, नियंत्रण करना, संयम करना एवं साधना करना।

यम के भी दस भेद हैं - अहिंसा, सत्य अस्तेय (चोरी नकरना), ब्रह्मचर्य, दया, सरलता, क्षमा, धैर्य, सीमित आहार और भीतरबाहर से पवित्रता। अब उनके बारे में सुनो।

वेद में बताई गई बातों के अतिरिक्त जाकर तन, वाणी औरशरीर द्वारा किसी को किसी प्रकार का कष्ट दिया जाता है या किसीके प्राणों का हरण कर लिया जाता है, वही वास्तविक हिंसा है। इसहिंसा का त्याग ही अहिंसा है।

आत्मा सर्वत्र व्याह्रश्वत है, इसको शस्त्र आदि के द्वारा काटा नहींजा सकता। हाथों या इंद्रियों के द्वारा उसको ग्रहण भी नहीं किया जासकता, उसी आत्मा की साधना श्रेष्ठ अहिंसा है।

नेत्र आदि इंद्रियों के द्वारा जो जिस रूप में देखा, सुना, सूँघाऔर समझा हुआ विषय है, उसको उसी रूप में प्रकट कर देना, बतादेना सत्य है, परमात्मा के अतिरिक्त दूसरी कोई अन्य वस्तु नहीं है,इस प्रकार का निश्चय करना भी सत्य है।

दूसरे के स्वर्ण, रत्न, मणि-मुक्ता, धन आदि से लेकर एकनिके तक के लिए भी मन न मचलना, दूसरों की छोटी या बड़ी,मूल्यवान अथवा साधारण-सी वस्तु के लिए मन में किसी भी प्रकारका लोभ-लालच न लाना ही अस्तेय (चोरी न करना) है। जगत केसमस्त व्यवहारों को अनासक्तभाव से उन्हें आत्मा से दूर रखने का भावही अस्तेय है।

मन, वाणी और शरीर के द्वारा अन्य स्त्रियों से सहवास कात्याग कर धर्म, बुद्धि से केवल अपनी ही पत्नी से संबंध रचाना हीब्रह्मचर्यहै। काम-क्रोध आदि का परित्याग कर मन को परब्रह्म के चिंतनमें लगाए रखना सर्वो्रूद्गाम ब्रह्मचर्य होता है।

सब प्राणियों को अपने ही समान मानकर उनके प्रति मन,वाणी और शरीर द्वारा आत्मीयता का अनुभव करना, अपनी ही भाँतिउनके दुःख को दूर करने और उन्हें सुख पहुँचाने की चेष्टा करना हीदया है।

अपने पुत्र, स्त्री, मित्र, शत्रु तथा अन्य प्राणियों के लिए अपनेमन में सदैव समतापूर्ण विचार रखना ही आर्जन अर्थात्‌ सरलता है।

शत्रुओं द्वारा मन, वाणी और शरीर को भरपूर कष्ट पहुँचाने परभी मन में तनिक भी क्षोभ न करना और उसका बदला न लेने काविचार करना ही क्षमा है।

वैदिक आज्ञाओं का पालन करने से ही संसार मोक्ष को प्राह्रश्वतकर सकता है, दूसरे किसी उपाय से नहीं, ऐसा विचार करना निश्चयही धैर्य है। मैं आत्मा हूँ, आत्मा से भिन्न दूसरा कुछ नहीं है, जैसेनिश्चय से कभी भी विचलित न होना ही धैर्य है।

थोड़ी मात्रा में शुद्ध सात्विक अन्न ग्रहण करना, उदर के दोभाग अन्न से और एक भाग को जल से पूर्ण करके चौथे भाग कोखाली छोड़ना ही सीमित आहार है।

मिट्टी और जल से जो अपने शरीर के मैल को छुड़ाया जाताहै, उसे बाहरी पवित्रता कहते हैं तथा उनके द्वारा शुद्ध बावों का जोमनन है, उसे मानसिक पवित्रता कहा जाता है। मैं विशुद्ध आत्मा हूँ,ऐसा ज्ञान रखना ही श्रेष्ठ पवित्रता है।”

द्रूद्गाात्रेय ने सांकृति को योग के अन्य अंग, नियम, आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि के बारे में भीविस्तारपूर्वक उपदेश दिया। गरु से जीवन के इन गुह्रश्वत भेदों को जानकरसांकृति धन्य हो गए। उन्होंने गुरु द्वारा दिए सभी उपदेश कंठस्थ करलिए और उसी के अनुरूप जीवन व्यतीत करने लगे। कालांतर मेंसांकृति मुनि का नाम भी अपने गुरु की तरह ही चमका और एकज्ञानवान ऋषि के रूप में उन्हें बहुत सम्मान और प्रतिष्ठा प्राह्रश्वत हुए।

बृहदारण्यक उपनिषद से

परमात्मा का अस्तित्व

प्राणों को परमात्मा के समान माना गया है। हमारे शरीर अथवाशरीर के अंगों का महत्व भी प्राणों के सामने तुच्छ पड़ जाता है। इसबात का प्रमाण इस कहानी में अवश्य मिलता है।

एक बार शरीर के अंगों में इस बात क विवाद छिड़ गया किहममें से बड़ा कौन है? वाणी कहने लगी, “मैं बड़ी हूँ, क्योंकि मेरेही द्वारा व्यक्ति बोल पाता है।” कान कहने लगे, “यदि मैं न रहूँ तोव्यक्ति को कुछ भी सुनाई न दे, इसलिए मैं बड़ा हूँ।” मन कहने लगा,“मेरे न रहने से व्यक्ति को किसी चीज का बोध नहीं होगा, अतःमैं ही श्रेष्ठ हूँ।” प्राण ने अपनी प्रशंसा करते हुए कहा, “यदि मैं शरीरका साथ छोड़ दूँ तो यह शरीर ही मृत हो जाए, अतः मैं सबसे बड़ाहूँ।”

यह विवाद काफी समय तक चलता रहा, लेकिन इसकापरिणाम कुछ न निकला। फिर इंद्रियों ने कहा, “इस विवाद कानिबटारा करने के लिए हमें प्रजापति के पास चलना चाहिए। वही इसबात का निर्णय करेंगे के हममें से श्रेष्ठ कौन है?”

ऐसा सोचकर इंद्रियाँ प्रजापति के पास पहुँचीं और अपनेविवाद का कारण बताकर बोलीं, “अब आप ही फैसला कर दीजिएकि हममें से बड़ा कौन है?”

प्रजापति बोले, “तुममें से जिसके शरीर से चले जाने पर शरीरसर्वथा निष्क्रिय और बेकार हो जाए, उसी को श्रेष्ठ मानना होगा।”

प्रजापति के इस आदेश को सभी ने माना। सबसे पहले वाणीशरीर से अलग हो गई, फिर भी शरीर की गतिविधियाँ चलती रहीं।

साल भर अलग रहने के बाद वाणी पुनः लौटी। उसने देखाऔर सोचा, “मेरे जाने से शरीर पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ा। यह तोपहले की तरह ही काम कर रहा है।” उसका चेहरा लटक गया औरवह पुनः शरीर में चली आई।

अब चक्षु यानी नेत्र ने शरीर छोड़ा। उसके न रहने पर मनुष्यको दिखाई देना बंद हो गया।

एक साल पश्चात्‌ चक्षु लौटा। देखा कि शरीर सामान्यहै। उसनेसोचा, “मेरे न रहने से आदमी को कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा।”

अपने में हीनता का अनुभव करते हुए वह फिर से शरीर में प्रवेशकर गया।

अब कान की बारी थी। उसे शरीर छोड़ दिया। फिर भी शरीरपहले जैसा ही बना रहा, फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि वह व्यक्ति सुननहीं पाता था।

साल भर बाद कान लौटा तो हैरान था कि मनुष्य का शरीरउसी प्रकार काम कर रहा था। उसने उस व्यक्ति से पूछा, “मेरे बिनातुम जीवित कैसे रहे?”

“उसी तरह, जिस तरह बहरा व्यक्ति रहता है।” आदमी बोला।

तत्पश्चात्‌ मन ने उस व्यक्ति के शरीर का साथ छोड़ दिया।

साल भर बाद जब वह लौटा तो उसे जवाब मिला, “बच्चे मन केन रहने पर सिर्फ मानसिक विकास नहीं कर पाते, लेकिन अन्य कार्यतो चलता रहता है।”

अंततः जब प्राण ने शरीर छोड़ना चाहा तो सभी इंद्रियाँव्याकुल हो उठीं। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक शरीर में प्राणहैं, तभी तक हमारा अस्तित्व है। प्राणों के निकल जाने पर हम भीबेकार हो जाएँगी, अतः उन्होंने प्राण की श्रेष्ठता स्वीकार कर ली। यहप्राणशक्ति परमात्मा से मिलती है। शास्त्रों ने परमात्मा को ही प्राणकहकर पुकारा है।

छान्दोग्य उपनिषद से

महर्षि उषस्ति की कथा

उपनिषदों में अनेक महान्‌, तपस्वी, ब्रह्मज्ञानी ऋषियों कीकथाओं को प्रस्तुत किया गया है। इन्हीं कथाओं में महर्षि उषस्ति कीकथा बहुत प्रचिलत मानी गई है। बहुत समय पहले की बात है। कुरुप्रदेश के इभ्य नामक गाँव में एक ऋषि रहते थे, जिनका नाम थाउषस्ति चाक्रायण। उनकी पत्नी भी उनके साथ रहती थीं, जिसका नामआटिकी थी। दोनों तप-स्वाध्याय में लीन रहकर शांतिपूर्वक अपनाजीवन व्यतीत करते थे।

एक बार उस प्रदेश में घनघोर वर्षा हुई। मोटे-मोटे ओलों सेधरती पट गई। जिसके फलस्वरूप फसल चौपट हो गई। अकाल कीस्थिति पैदा हो गई। लोग व्याकुल होकर भोजन की तलाश में दरदरभटकने लगे। ऋषि परिवार भी भोजन की खोज में निकल पड़ा।

कई दिन हो गए, किंतु कहीं भी उन्हें अन्न के दर्शन नहीं हुए।

एक दिन वे भोजन की तलाश में इधर-उधर भटक रहे थे किआटिकी को कमजोरी के कारण चक्कर आ गया। ऋषि ने उसे एकवृक्ष के नीचे लिटाया और जब आटिकी को होश आ गया तो उसकीसहमति से वह अकेले ही भोजन की तलाश में एक गाँव की ओरचल पड़े।

वह गाँव ऐसे लोगों का था, जहाँ के लोग हाथियों को पालतेथे। वहाँ उन्होंने अपने घर के बाहर बैठे महावत को उड़द खाते देखा।

ऋषि चाक्रायण उसके पास पहुँचे और उससे याचना की, “भाई, मैंबहुत भूखा हूँ। कई दिन से अन्न का एक दाना भी नहीं खाया। तुमजो यह उड़द खा रहे हो, यदि इनमें से मुझे भी थोड़े से उड़द खानेको दे दो तो मेरे प्राण बच जाएँगे।”

ऋषि की ऐसी दीनता-भरी याचना सुनकर महावत का हृदयदर्वित हो गया। वह बोला, “ऋषिवर! मेरे पास इस पात्र में जितने उड़दरखे हैं, बस यही हैं और ये मेरे जूठे हो चुके हैं। मुझे संकोच हो रहाहै कि ये जूठे उड़द मैं कैसे आपको दूँ?”

ऋषि बोले, “आपातकाल में सब कुछ चलता है, भाई!

फिलहाल तो प्राण बचाने की समस्या है। तुम यह जूठे उड़द ही मुझेदे दो। इन्हें खाकर मेरे प्राण बच जाएँगे।” तब महावत ने थोड़े-सेउड़द चाक्राय़ण को दे दिए। चाक्राय़ण ने कुछ उड़द वहीं खा लिएऔर शेष उड़द एक पोटली में बाँध लिए।

जब वे चलने को हुए तो महावत ने उनसे कहा, “ऋषिवर!

उड़द खाने के बाद जल भी तो पी लीजिए।”

उषस्ति बोले, “नहीं मैं जल ग्रहण नहीं करूँगा, क्योंकि यहतुम्हारा जूठा किया हुआ है।”

“मगर ये उड़द भी तो मेरे जूठे ही थे।” महावत बोला, “जबआपने जूठे उड़द खा लिए तो जूठा पानी पीने में कैसा सेकोच?”

महावत के ऐसा कहने पर महर्षि उषस्ति ने कहा, “मैंने कहाथा न आपातकाल में सब चलता है। जब प्राणों पर आ बनी तो जूठेउड़द भी खा लेने में कोई बुराई नहीं है। रही बात जूठा जल पीनेकी, तो भाई, जल तो मुझे कहीं अन्यत्र भी मिल सकता है। तुम्हाराबहुत-बहुत धन्यवाद, जूठे ही सही, तुमने मुझे अपने भोजन के उड़ददेकर मेरा जीवन बचा लिया।”

महावत से विदा लेकर उषस्ति थोड़े-से उड़द की पोटली लिएअपनी पत्नी के पास पहुँचे और वह पोटली अपनी पत्नी को दे दी।

उनकी पत्नी को किसी सहृदय व्यक्ति से पहले ही काफी भिक्षा मिलचुकी थी, अतः उसने वह पोटली एक ओर रख दी। दोनों रात होजाने पर सुखपूर्वक सो गए।

दूसरे दिन प्रातःकाल जब उषस्ति सोकर उठे तो उन्हें अपनीदुर्दशा का ध्यान आया। वे पत्नी से बोले, “प्रिये! आज मुझे थोड़ा-सा अन्न भी

प्राह्रश्वत हो जाता तो उसे खाकर मेरी भूख शांत हो जातीऔर मैं बाहर जाकर कुछ कमा लाता। मैंने सुना है कि पड़ोसी राज्यका राजा त्रिविक्रम एक यज्ञ करवा रहा है। इस यज्ञ में मुझे ऋत्विक(यज्ञ करने वाला) का कार्य मिल जाता। उससे प्राह्रश्वत दक्षिणा से हमाराकाफी कुछ कार्य चल जाता।”

आटिकी बोली, “स्वामी! लीजिए, कल तो उड़द आपने मुझेदिए थे, वे मैंने सँभालकर रख दिए थे। आप इन्हें खाकर जल पीलें और स्वस्थ मन से यज्ञ में चले जाएँ।”

उषस्ति ने संतोष की साँस ली और वे उड़द खाकर यज्ञ मेंचले गए। जब वे यज्ञस्थल पर पहुँचे तो वहाँ यज्ञ की सारी तैयारियाँपूरी हो चुकी थीं। यज्ञ करवाने वाले आचार्यगण अपने आसनों पर बैठेहुए थे। वे वेद मंत्रों द्वारा परमात्मा की स्तुति करने के लिए तैयार थे।

मंत्रों का उच्चारण करने में तो वे कुशल थे, किंतु त्रूद्गवज्ञानी न होनेके कारण उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि जिन मंत्रों का वेपाठ करेंगे, उसमें किस देवता (परमात्मा) की स्तुति की गई है। उषस्तिवहाँ पहुँचे तो उन्होंने आचार्यगणों से पूछ लिया, “प्रस्तोता! क्या तुम्हेंमालूम है कि वह देवता कौन है जिसकी स्तुति और प्रशंसा के मंत्रतुम पढ़ने के लिए जा रहे हो?”

वहाँ बैठे सभी यज्ञिकों ने उस देवता से अपनी अनभिज्ञताजताई। तब उषस्ति ने चेतावनी भरे स्वर में कहा, “बिना उस देवताको जाने स्तुति के मंत्रों का पाठ तो वैसा ही है जैसा राख में घी कामहोम करना। इससे तो लाभ के स्थान पर हानि होने की संभावना है।

ऐसा करने से तो आप के प्राण भी जा सकते हैं।”

उषस्ति की चेतावनी सुनकर सभी यज्ञ कराने वाले कर्मकांडीऋत्विक चुप होकर बैठ गये।

यह देखकर राजा ने उषस्ति ऋषि से पूछा, “मैं श्रीमान काठीक-ठीक परिचय जानना चाहता हूँ।”

उषस्ति ने कहा, “मैं चक्र का पुत्र उषस्ति ऋषि हूँ।”

राजा ने उषस्ति का नाम सुनकर क्षमा माँगते हुए कहा, “सचमानिए ऋषिवर! मैंने इस मसस्त ऋत्विक-संबंधी कार्यों के लिएआपकी कई स्थानों पर खोज करवाई थी, किंतु आपका कहीं पता नहींलगा। तब निराश होकर मैंने दूसरे ऋत्विक को चुन लिया, परंतु अबजब आप आ ही गए हैं तो कृपा करके सभी ऋत्विद-संबंधी कार्यअब आप ही पूरे कीजिए।”

“बहुत अच्छा।” कहकर उषस्ति ऋषि ने राजा के सामने एकप्रस्ताव रखा। वे बोले, “मैं चाहूँगा कि मेरे आदेश के अनुसार येऋत्विक ही स्तुति आरंभ करें, परंतु एक बात है, जितना धन आप इनलोगों को दें, उतना ही मुझे भी दें।”

“ऐसा ही होगा।” राजा ने स्वीकृति दी।

उषस्ति ऋषि यज्ञ संपूर्ण करवाने को तैयार हुए तो उनके पासबैठे प्रस्तोता, उद्‌गाता और प्रतिहर्ता ने क्रमशः उनके पूछा, “आपने कहाथा कि जिस देवता की तुम स्तुति करने जा रहे हो, उसे बिना जानेयदि तुम स्तुति पाठ करोगे तो तुम्हारे प्राण जा सकते हैं। अतः अबआप उस देवता के बारे में हमें समझाएँ।”

उषस्ति ऋषि बोले, “वह देवता है प्राण नामधारी परमात्मा।

जिसकी वेद-मंत्रों द्वारा स्तुति की जाती है।”

ेएक अन्य याज्ञिक की शंका के उ्रूद्गार में उषस्ति ने उसे बतायाकि जिस उद्‌गीय (ओम्‌) के स्तोत्रों का गायन किया जाता है, वहउद्‌गीथ आदित्य नाम वाला परमात्मा ही है और उद्‌गीथ तो ईश्वर केमुख्य नाम ओ३म्‌ का प्रतीक है।

इस प्रकार सभी प्रश्नकर्ताओं का समाधान कर उषस्ति नेयजमान राजा द्वारा सम्मान एवं सत्कार प्राह्रश्वत किया। वस्तुतः परमात्माको जाने बिना यज्ञ आदि क्रियाओं को करना उचित नहीं होता, यहीइस कथा का सार है।

बृहदारण्यक उपनिषद से

ब्रह्मवादिनी गार्गी की कथा

उपनिषदों में बृहदारण्यक उपनिषद्‌ भी बहुत महत्वपूर्ण मानाजाता है। इसमें भी अनेक ज्ञानी, ऋषि-मुनियों की कहानियों का वर्णनमिलता है। ऐसी ही एक गार्गी की है। कहते हैं कि वैदिक शास्त्र केजगत में ब्रह्मवादिनी गार्गी का नाम बहुत प्रसिद्ध है। इनके पिता कानाम वचक्नु था, उनकी पुत्री होने के कारण इनका नाम ‘वाचक्नवी’पड़ गया, किंतु इनका असली नाम क्या था, इसका वर्णन नहीं मिलता।

गर्ग गोत्र में उत्पन्न होने के कारण हीर लोग इन्हें गार्गी कहते थे औरइनका ‘गार्गी’ नाम ही जन-साधारण में अधिक प्रचलित था। एक बारविदेहराज जनक ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। उसमें कुरु और पाँचालदेश तक के विद्वान ब्राह्मण एकत्रित हुए थे।

राजा जनक को शास्त्रों के गूढ़ त्रूद्गवों का विवेचन और परमार्थचर्चा अधिक प्रिय थी। इसलिए उनके मन में यह जानने की इच्छाहुई कि यहाँ आए हुए विद्वान ब्राह्मणों में सबसे बढ़कर तात्विक विवेचनकरने वाला कौन है? इस परीक्षा के लिए उन्होंने अपनी गौशाला मेंएक हजार गाय बँधवा दीं। उनमें से प्रत्येक के सींगों में दस-दस पादस्वर्ण बँधा हुआ था। यह व्यवस्था करके राजा ने ब्राह्मणों से कहा,“आप लोगों में जो सबसे बढ़कर ब्रह्मवे्रूद्गाा हो, वह इन सभी गायोंको ले जाए।”

सभी ब्राह्मणों ने एक-दूसरे की ओर देखा। किसी में इतनासाहस न हुआ, इसलिए कोई भी अपने स्थान से नहीं उठा। तब राजाने निराश भाव से चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। राजा को निराश देखकरमहर्षि याज्ञवल्करय ने अपने एक शिष्य से कहा, “सौम्य सामश्रवा! हाँक ले चलो इन गायों को अपने आश्रम।”

सामश्रवा ने महर्षि की आज्ञा का पालन किया। उसने सभी गायखूँटों से खोलीं और उन्हें हाँककर ले चला। गायों को इस प्रकार लेजाते देखकर सभी ब्राह्मण क्रुद्ध हो उठे। वे कहने लगे - “क्या यहब्राह्मण सबसे बढ़कर ब्रह्मवे्रूद्गाा है? इसे गायों को ले जाने का क्याअधिकार है?” राजा जनक का होता (पुरोहित) अश्वपाल नाम का एकब्राह्मण था। ब्राह्मणों को क्रुद्ध होते देखकर उसने याज्ञवल्कय से प्रश्नकिया, “याज्ञवल्कय! हम सबमें क्या तुम ही ब्रह्मवे्रूद्गाा हो, जो तुमनेगायों को ले जाने का विचार किया?”

याज्ञवल्कय बोले, “ब्रह्मवे्रूद्गाा को तो हम नमस्कार करते हैं, हमेंगायों की आवश्यकता है, इसीलिए ब्रह्मचारी को इन्हें ले जाने काआदेश दिया।”

अश्वल बोले, “पहले हमारे कुछ प्रश्नों का उ्रूद्गार दो। तदुपरांतही तुम गाय ले जा सकते हो।”

याज्ञवल्कय उ्रूद्गार देने के लिए तैयार हो गए। अश्वल नेप्रशअन किया, “महर्षि! यह सब जो मृत्यु के जाल में फँसा है, उसमृत्यु के प्रसार को यज्ञमान (यजमान) किस साधन के द्वारा जीतताहै?”

याज्ञवल्कय ने कहा, ‘यज्ञमान होता (पुरोहित) ऋत्विक रूपअग्नि से और वाक्‌ से उसे जीत लेता है, क्योंकि वाक्‌ ही यज्ञ कीवास्तविकता होता है। वाक्‌ ही अग्नि है। वही ‘होता’ है, वही ‘मुक्ति’है। यज्ञ ही मुक्ति है।”

अश्वल ने फिर पूछा, “यह जो कुछ हम देख रहे हैं, वह सबदिन और रात के अधीन है। यज्ञमान किस साधन के द्वारा दिन औररात को अपने अधीन करता है?”

‘चक्षु के द्वारा।” याज्ञवल्कय ने उ्रूद्गार दिया, “चक्षु ही आदित्यहै, अतः समझो कि आदित्य के द्वारा ही दिन और रा को अपने अधीनकरता है।” अश्वल ने फिर प्रश्न किया, “याज्ञवल्कय! यह बताओकि यह जो अंतरिक्ष है, यह तो निराधार है, फिर यज्ञमान किस तरहपर स्वर्गलोक में चढ़ता है?”

महर्षि बोले, “यज्ञ में नियत ब्रह्म के द्वारा, मनरूपी चंद्रमा से।

ब्रह्म यज्ञरूपी मन ही है और यह जो मन है, वही यह चंद्रमा है।”

फिर प्रश्न हुआ, “आज कितनी ऋचाओं के द्वारा इस यज्ञ में‘होता’ पाठ केरगा?”

उ्रूद्गार मिला, “तीन के द्वारा।”“वे तीन कौन-सी हैं?”

“वेद-मंत्रों की पुनरावृि्रूद्गा द्वारा, जिसे ‘पुरोनुवाग्या’ कहते हैं।

दक्षिणा के द्वारा, जिसे ‘याज्या’ कहते हैं और अक्षत-फल द्वारा, जिसे‘शस्या’ कहा जाता है।”

“इसमें यज्ञमान किसको जीतता है?” अश्वल ने प्रश्न किया।

“समस्त प्राणी समुदाय को अपने वश में कर लेता है।”

याज्ञवल्कय ने उ्रूद्गार दिया।

“आज इस यज्ञ में पुरोहित कितनी आहुतियाँ होम करेगा?”

अश्वल ने फिर प्रश्न किया।

“तीन।”

“वे तीन कौन-सी हैं?”

“एक तो वह, जो होम की जाने पर प्रज्जवलित होती है, दूसरीवह, जो होम की जाने पर बहुत शब्द करती है और तीसही वह, जोहोम किए जाने पर पृथ्वी के ऊपर लीन हो जाती है?”

“इनके द्वारा यज्ञमान किसको जीतते हैं?”

“प्रथम से देवलोक को, क्योंकि उससे देवलोक दीह्रिश्वतमान होउठता है, दूसरी से पितृलोक को जीतता है और तीसरी से मनुष्यलोकको जीत लेता है।”

अश्वल ने फिर पूछा, “अच्छा, यह बताओ कि ब्रह्म-यज्ञ मेंदक्षिण की ओर बैठकर कितने देवताओं द्वारा यज्ञ की रक्षा करता है?”

“केवल एक के द्वारा।” महर्षि ने कहा।

“वह देवता कौन है?” अश्वल ने पूछा।

“मन ही वह देवता है। मन अनंत है और विश्वदेव भी अनंतहै, अतः उस मन से यज्ञमान अनंतलोक को जीत लेता है।”

अश्वल का समाधान हो गया था, अतः वह चुप हो गया।

अब आर्तभाग की बारी आई। उसने भी याज्ञवल्कय से प्रश्नपूछे। महर्षि ने उनका भी उ्रूद्गार दिया, जो इस प्रकार है -“समझने का साधन ग्रह है और ग्रह का विषय अतिग्रह है।

अन्य प्रकार से कहूँ तो ज्ञानेंद्रियाँ ही ग्रह हैं और उनके विषय हीअतिग्रह हैं।”

“उनकी संख्या कितनी है?” आर्तभाग ने प्रश्न किया।

“आठ।”

“आठ कौन-कौन से? स्पष्ट करके कहो।”

“प्रत्येक ग्रह का अतिग्रह है। प्राण ग्रह है, अपान अतिग्रह,क्योंकि अपान के द्वारा ही गंधों को सूँघा जाता है। वाक्‌ ग्रह है, नामअतिग्रह, जिह्वा ग्रह है, रस अतिग्रह, चक्षु ग्रह है, रू अतिग्रह। श्रोत्र(कर्णेंद्रिय) ग्रह है, शब्द अतिग्रह, मन ग्रह है, काम अतिग्रह, क्योंकिमन से ही कामना पैदा की जाती है। इसी प्रकार हाथ ग्रह है औरकर्म अतिग्रह, त्वचा (चमड़ी) ग्रह है, स्पर्श अतिग्रह। इस प्रकार आठग्रह और आठ अतिग्रह हुए।” अगला प्रश्न हुआ, “यह सब कुछअसार है, सबका सब मृत्यु का भोजन है, मृत्यु सबको लील जातीहै। वह कौन-सा देवताहै, जो मृत्यु को भी खा जाता है?”

महर्षि ने उ्रूद्गार दिया, “अग्नि ही मृत्यु है, क्योंकि वह सबकोलील जाती है। जल अग्नि को भी लील जाता है।”

“जिस समय मनुष्य मरता है, उस समय उसके प्राण क्या ऊपरचले जाते हैं?”

“नहीं। ऐसा नहीं है। वे यहीं विलीन हो जाते हैं।”

“किसमें विलीन हो जाते हैं?”

“वायु में।”

“जिस समय मृत पुरुष की वाणी अग्नि में, प्राण वायु में, चक्षुसूर्य में, मन चंद्रमा में, कर्णेंद्रिया दिशा में, शरीर पृथ्वी में, हृदयआकाश में, रोम औषधियों में, केश वनस्पतियों में, रक्त और वीर्य जलमें विलीन हो जाते हैं, उस समय आत्म पुरुष कहाँ रहता है?”

“कर्मानुसार ही इसकी स्थिति होती है। पुण्यकर्म से पुण्यलोकमें और दुष्कर्म या पापकर्म से पापलोक में।”

जब आर्तभाग के प्रश्नों का समाधान हो गया तो भ्जुय ने प्रश्नकिया, “याज्ञवल्कय! एक बार हम व्रत का पालन करते हुए मद्र देशमें विचर कर रहे थे कि घूमते हुए कपि गोत्र में उत्पन्न पंतचल केघर जा पहुँचे। पंतचल की पुत्री पर एक गंधर्व का प्रकोप था। हमनेउससे पूछा, ‘तू कौन है,’ वह बोला, ‘अंगरिस सुधन्वा हूँ।’ हमने उससेलोकों के अंत के बारे में जानते हुए भी प्रश्न किया, ‘परीक्षित कहाँरहे? परीक्षित के पुत्र पारीक्षित कहाँ हैं? याज्ञवल्कय! वही प्रश्न मेंआपके पूछता हूँ, बताओ पारीक्षित कहाँ रहे?”

याज्ञवल्कय बोले, “मेरा विशअवास है गंधर्व ने यही उ्रूद्गारदिया होगा कि पारीक्षित वहाँ रहे, जहाँ अश्वमेघ यज्ञ करने वाले जातेहैं।”

“तो कृपया बताइए कि अश्वमेघ यज्ञ करने वाले कहाँ जातेहैं?”

याज्ञवल्कय ने उ्रूद्गार दिया, “यह लोक ब्रूद्गाीस, ‘देवरथाहन्य’ केबराबर माना गया है। सूर्य के रथ की गति से एक दिन में संसार काजितना भाग नापा जाए, उसे देवरथाहन्य कहते हैं। ब्रूद्गाीस देवरथाहन्यके बराबर इस लोक को उससे दुगुनी पृथ्वी चारों ओर से घेरे हुएहै।

उसको भी सब ओर से उससे दोगुना समुद्र घेरे हुए है। सो जितनीपतली छुरे की धार होती है अथवा जितना सूक्ष्म मक्खी का पंख होताहै, उतना उन ब्रह्मांडों के बीच में आकाश है। वहाँ वायु है, उसी मेंपरीक्षित रहे और वहीं अश्वमेघ यज्ञ करने वाले जाते हैं। वायु ही व्यष्टिहै, वायु ही समाविष्ट है, व्यष्टि अर्थात्‌ एक अंश, समष्टि अर्थात्‌ अंशोंका समूह, अनंत विस्तार।”

अपने प्रश्न का उ्रूद्गार पाकर भुज्यु भी मौन हो गया। तब फिरचाक्रायण और कोहाल ने भी आत्मा के बारे में प्रश्न किए। जिनकेउ्रूद्गार याज्ञवल्कय ने सही-सही देकर उनकी जिज्ञासा का समाधआनदिया। सबसे अंत में गार्गी ने याज्ञवल्कय से जो प्रश्न किए, वे प्रश्नऔर उनके उ्रूद्गार इस प्रकार हैं।

“महर्षि! यह बताइए कि यह जो रचना है, वह जल में ओत-प्रोत है, किंतु जल किसमें ओत-प्रोत है?”

“वायु में।” याज्ञवल्कय ने बताया।

“और वायु किसमें ओत-प्रोत है?”

“अंतरिक्ष लोकों में।”

“और वे लोक किसमें ओत-प्रोत हैं?”

“गंधर्व लोकों में।”

“गंधर्व लोक किसमें ओत-प्रोत है?”

“आदित्य लोकों में।”

“आदित्य लोक किसमें ओत-प्रोत है?”

“चंद्रलोक में।”

“चंद्रलोक किसमें ओत-प्रोत है?”

“नक्षत्र लोकों में।”

“नक्षत्र लोक किसमें ओथ-प्रोत है?”

“देव लोकों में।”

“देव लोक किसमें ओत-प्रोत है?”

“इंद्र लोकों में।”

“इंद्र लोक किसमें ओत-प्रोत है?”

“प्रजापति लोकों में।”

“प्रजापति लोक किसमें ओत-प्रोत है?”

“ब्रह्म लोकों में।”

“ब्रह्म लोक किसमें ओत-प्रोत है?”

गार्गी के इस प्रश्न पर याज्ञवल्कय बोले, “गार्गी! यह तो तेराअति प्रश्न है। ब्रह्मलोक के संबंध में अति प्रश्न अर्थात्‌ व्यर्थ के प्रश्नकरना समझदारी नहीं है। इससे तो यह प्रकट होगा कि तू कुछ जानतीही नहीं है, अर्थात्‌ कोरे प्रश्नों में तुम्हारी रुचि है, तुम वास्तव में कुछभी जानना नहीं चाहती हो।”

याज्ञवल्कय की यह बात सुनकर गार्गी मौन हो गई। उसके बादआरुणि उद्‌दालक ने प्रश्न किया, “महर्षि! क्या आप उस सूत्र कोजानते हैं, जिसमें यह लोक, परलोक और सारा भूत समुदाय गुँथा हुआहै और क्या आप उस अंतर्यामी को जानते हैं, जो इस लोक, परलोकऔर समस्त भूतों को भीतर से नियंत्रित करता है? याद रहे, मैं यहसब जानता हूँ। यदि आप जानते हैं तो बताओ और बिना जाने हीयदि इन गायों को लेकर गए तो तुम्हारा मस्तक गिर जाएगा।”

याज्ञवल्कय ने उ्रूद्गार दिया, “हाँ, मैं उस सूत्र और अंतर्यामी कोभी जानता हूँ।”

उद्‌दालक कहने लगा, “मैं जानता हूँ, ऐसा तो कोई भी कहसकता है। ऐसा व्यर्थ ढोल पीटने से क्या लाभ है? यदि वास्तव मेंआपको इसका ज्ञान है तो बताते क्यों नहीं?”

याज्ञवल्कय ने उ्रूद्गार दिया, “भद्र! वायु ही वर सूत्र है जिसकेद्वारा यह लोक, परलोक और समस्त भूत समुदाय गुँथे हुए हैं। वायुके न रहने से ही सबका अंत हो जाता है।”

उद्‌दालक बोला, “यह तो ठीक है, अब आप अंतर्यामी केबारे में बताइए।”

याज्ञवल्कय ने कहा, “जो पृथ्वी, जल, अग्नि, अंतरिक्ष, वायु,द्युलोक, आदित्य, दिशा, चंद्रमा, आकाश, तप, तेज, समस्त भूत, प्राण,वाणी, नेत्र, कर्णेंद्रिय, मन, चमड़ी, विज्ञान, वीर्य आदि के भीतर रहताहै, जो इनसे संबंधित प्राणियों के भीतर रहता है और सबका नियमनकरता है, वही तुम्हारी आत्मा अंतर्यामी अमृत है।

अंतर्यामी इन सबकोजानता है, पर ये उसे नहीं जानते। वह दिखाई न देने वाला है, किंतुदेखने वाला है, सुनाई न देने वाला है, किंतु सुनने वाला है, वह मननकरने वाला है, किंतु आसानी से ज्ञात न होने वाला, किंतु विशेष रूपसे जानने वाला है। इस अंतर्यामी से भिन्न सब नाशवान है।”

उद्‌दालक का समाधान हो गया था, अतः वह मौन हो गया।

गार्गी पुनः उठी और उसने कहा, “पूज्यनीय ब्राह्मणों! आज मैं महर्षियाज्ञवल्कय से दो प्रशअन पूछूँगी। यदि इन्होंने मेरे इन दो प्रश्नों काउ्रूद्गार सही दे दिया तो ये समझ लीजिए कि आपमें से कोई भी इन्हेंब्रह्म-संबंधी वाद में नहीं जीत सकेगा।”

इस पर ब्राह्मणों ने कहा, “ठीक है गार्गी! अब तुम प्रश्नपूछो।”

गार्गी ने याज्ञवल्कय से कहा, “याज्ञवल्कय! जिस प्रकार काशीया विदेह का रहने वाला कोई वीर-वंशज पुरुष धनुष पर डोरी चढ़ाकरशत्रुओं को अत्यंत पीड़ा देने वाले दो फल वाले बाण हाथ में लेकरखड़ा होता है, उसी प्रकार मैं दो प्रश्न लेकर तुम्हारे सामने उपस्थितहूँ। तुम मुझे उनका उ्रूद्गार दो।”

“तुम प्रश्न पूछो, गार्गी।” महर्षि बोले, “मैं उ्रूद्गार देने के लिएतैयार हूँ।”

गार्गी ने पूछा, “महर्षि! जो द्युलोक से ऊपर हैं, जो पृथ्वी सेनीचे हैं और जो द्युलोक और पृथ्वी के बीच में हैं और जो स्वयं भीये द्युलोक और पृथ्वी हैं, भूत, वर्तमान, भविष्य हैं, वे किसमें ओत-प्रोत हैं?”

“ये सब आकाश में ओत-प्रोत हैं।” उ्रूद्गार मिला।

गार्गी बोली, “याज्ञवल्कय! आपने मेरे पहले प्रश्न का उ्रूद्गारदिया, इसके लिए आप नमस्कार योग्य हैं। अब मेरे दूसरे प्रश्न काउ्रूद्गार दीजिए।”

महर्षि सहर्ष बोले, “हाँ-हाँ, अवश्य पूछो गार्गी। क्या है तुम्हारादूसरा प्रश्न?”

“आकाश किसमें ओत-प्रोत है?” गार्गी ने पूछा।

महर्षि याज्ञवल्कय ने बताना आरंभ किया, “गार्गी! आकाशजिसमें ओत-प्रोत है, उस त्रूद्गव को ब्रह्मवे्रूद्गाा ‘अक्षर’ कहते हैं। वहअक्षर न मोटा है, न पतला, न छोटा है, न बड़ा, न ठोस है, न तरल,न छाया है, न अंधकार, न वायु है, न आकाश, रस, गंध, नेत्र, कान,वाणी, मन, तेज, प्राण, मुख, भाव कुछ भी नहीं है। उसमें भीतर बाहरकुछ भी नहीं है, वह कुछ भी नहीं खाता, उसे भी कोई नहीं खाता।

और भी सुनो। इस अक्षर के ही प्रशासन में सूर्य और चंद्रमा स्थिरऔर स्थित रहते हैं। द्युलोक और पृथ्वी भी इसी त्रूद्गव में स्थित है।

मुहूर्त, दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु, संवत्सर सभी इसी के प्रशासन मेंस्थित हैं। नदी, पर्वत, दिशा जो कुछ भी है, सभी इसी के वंश मेंहै। जो कोई इस लोक में इस अक्षर को न जानकर हवन करता है,यज्ञ करता है और हजारों वर्ष तक तप करता है, उसका वह सब अंतहोने वाला ही होता है, सब व्यर्थ हो जाता है।

अक्र को जाने बिनाही जो मरकर अन्य लोक में जाता है, वह अभागा है, जो इसे जानताहै, वह सौभाग्यशाली है, ब्रह्मवे्रूद्गाा है। हे गार्गी! यह अक्षर स्वयं दृष्टिका विषय नहीं है, किंतु दृष्टा है, श्रवण का विषय नहीं है, किंतु श्रोताहै, स्वयं विज्ञाता है, किंतु दूसरों से अविज्ञाता (अनजाना) रहता है।

इससे अलग दूसरा कोई भी दृष्टा, श्रोता और विज्ञाता नहीं है।”

इतना बताकर याज्ञवल्कय चुप हो गए।

गार्गी ने ब्राह्मणों से कहा, “पूज्य ब्राह्मणों! आप लोग इसी कोअपना सौभाग्य मानें कि आप महर्षि याज्ञवल्कय को नमस्कार करें, इसीमें आपका छुटकारा हो जाए। यह निश्चय है कि ब्रह्म-संबंधी वाद मेंयाज्ञवल्कय को कोई नहीं हरा सकता।” इतना कहकर गार्गी याज्ञवल्कयके सामने नतमस्तक होकर बैठ गई।

उस सभा में बहुत ही ज्ञानी, पंडित और सभा-चतुर शाकल्यभी बैठा था। उसने कहा, “यदि याज्ञवल्कय चाहें तो मेरे कुछ प्रश्नोंके उ्रूद्गार भी दें। मुझे भी इनसे कुछ पूछना है।”

याज्ञवल्कय ने सहर्ष उसका आग्रह स्वीकार कर लिया। तबशाकल्य ने उनसे पूछा, “महर्षि! इस समूचे ब्रह्मांड में कितने देवगणहैं?”

याज्ञवल्कय ने कहा, “देवताओं की संख्या बताने वाले मंत्र-पदों में जितने देवता बताए गए हैं, उनकी संख्या तीन और तीन सौतथा तीन और तीन सहस्र अर्थात्‌ तीन हजार तीन सौ छह है।”

शाकल्य ने कहा, “ठीक है। अच्छा बताओ, कितने देव हैं?”

“तैंतीस।”

शाकल्य ने फिर वही प्रश्न दोहराया, “कितने देव हैं?”

महर्षि का उ्रूद्गार था, “छह।” इसी प्रकार बार-बार पूछे जानेपर याज्ञवल्कय ने तीन, दो, डेढ़ और एक तक देव संख्या बताई।

शाकल्य ने फिर प्रश्न किया, “वे तीन और तीन सौ तथा तीनऔर तीन हजार देव कौन-कौन से हैं?”

उ्रूद्गार था, “यह तो इनकी महिमाएँ ही हैं। देवगण तो तैंतीसही हैं।”

“वे तैंतीस कौन-से हैं?”

याज्ञवल्कय ने बताया, “आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य,इंद्र और प्रजापति सब मिलकर तैंतीस हैं।”

“वसु कौन हैं?”

“अग्नि, पृथ्वी, वायु, अंतरिक्ष, द्युलोक, चंद्रमा और नक्षत्र, येवसु हैं, इन्हीं में सब जगत समाया हुआ है, इसीलिए ये वसु हैं।”

“रुद्र कौन हैं?” अगला प्रश्न हुआ।

“पुरुष में दस प्राण (इंद्रियाँ) और ग्यारहवाँ आत्मा (मन) है।

ये जिस समय मरणशील शरीर में से निकलते हैं, तब संबंधियों कोरुलाते हैं। रोदन अर्थात्‌ रुलाने का कारण होने से ही ये ‘रुद्र’ कहलातेहैं।”

“आदित्य कौन है?”

“संवत्सर के बारह मास ही आदित्य हैं, क्योंकि ये सब इसकोग्रहण करते हुए चलते हैं, अतः आदित्य कहलाते हैं।”

“इंद्र कौन है?”

“विद्युत ही इंद्र है।”

“प्रजापति कौन है?”

“यज्ञ! यज्ञ ही प्रजापति है।”

“छह देवगण कौन हैं?”

“अग्नि, पृथ्वी, वायु, अंतरिक्ष, आदित्य और द्युलोक।” उ्रूद्गारमिला।

“तीन देव कौन हैं?”

“तीन लोक ही तीन देव हैं।”

“दो देव कौन हैं?”

“अंत और प्राण ही दो देव हैं।”

“डेढ़ देव कौन हैं?”

“यह जो बहती है, वायु।”

शाकल्य ने शँका की, “यह वायु तो एक ही-सी बहती है,फिर डेढ़ किस प्रकार हुई?”

याज्ञवल्कय ने उ्रूद्गार दिया, “वायु बहती भी है और इसी मेंसब कुछ विकास को प्राह्रश्वत होता है, अतः यह डेढ़ ही है।”

“एक देव कौन है?”

“प्राण! इसी को ब्रह्म भी कहते हैं।”

शाकल्य ने तर्क दिया, “पृथ्वी ही जिसका पवित्र विश्राम-स्थलहै तथा जो दर्शन शक्ति और संकल्प-विकल्प का साधन है, जो भीउस पुरुष तो संपूर्ण आध्यात्मिक-कार्य कारण समूह का परम आश्रयमानता है, वही ज्ञाता है। तुम तो बिना जाने ही पंडित होने का अभिमानकर रहे हो।”

याज्ञवल्कय ने कहा, “जिसे तुम संपूर्ण आध्यात्मिक-कार्यकारण समूह का आश्रय कह रहे हो, उस पुरुष को तो मैं भी जानताहूँ, यह जो शरीरधारी पुरुष आत्मा है, वही वह है, जो तुम बता रहेहो और बोलो, क्या कहना चाहते हो?”

शाकल्य ने पूछा, “अच्छा यह बताओ। दूसरा देवता कौनहै?”

“अमृत।”

याज्ञवल्कय ने उ्रूद्गार दिया।

शाकल्य ने फिर से प्रश्न दागा, “याज्ञवल्कय, बताओ। कामही जिसका आराध्य स्थल है, हृदय लोक और मन ज्योति है, उस पुरुषको जो संपूर्ण आध्यात्मिक कार्य-कारण समूह का परम आश्रय जानाजाता है, वही ज्ञाता है। कौन है वह?”

“हाँ, मैं उसे भी जानता हूँ। कामरूप पुरुष ही है वह।”

“उसका देवता कौन है?”

“स्त्रियाँ ही उसका देवता है।”

“रूप जिसका आश्रय है, चक्षुलोक और मन ज्योति है, उसपरमात्मा को जानते हो तुम?”

“हाँ, जानता हूँ, वह आदित्य में विद्यमान पुरुष है।”

“भला बताओ तो, कौन है उसका देवता?”

“उसका देवता है - सत्य।”

“आकाश ही जिसका परम आश्रय है, श्रोण लोक है और मनज्योति है, उस परम आश्रय को जानते हो तुम?”

“जानता हूँ। जो भी कर्णेंद्रिय-संबंधी सुनने वाला पुरष है, वहीवह परम आश्रय है।”

“उसका देवता कौन है?”

“उसका देवता है - दिशाएँ।”

“तम (अँधेरा) ही जिसका आश्रय है, हृदय लोक है, मनज्योति है, उस परम आश्रय को जानते हो तुम?”

“बिल्कुल जानता हूँ, जो भी छायामय पुरुष है, वही यह है।”

“उसका देवता कौन है?”

“उसका देवता है - मृत्यु।”

“रूप ही जिसका आश्रय स्थान है, नेत्र लोक है, मन ज्योतिहै, उस परम आश्रय का ज्ञान है तुमको?”

“हाँ है। जो भी यह दर्पण के भीतर पुरुष है, वही तो हैयह।”

“बताओ तो, कौन है उसका देवता?”

“उसका देवता है - असु। असु अर्थात्‌ प्राण।”

“जल ही जिसका आधार है, हृदय लोक है, मन ज्योति है,उस परम आश्रय पुरुष को जानते हो तुम?”

“हाँ। जो भी यह जल में पुरुष है, वही वह परम आश्रय पुरुषहै।”

“उसका देवता कौन है?”

“वरुण ही उसका देवता है।”

“कार्य ही जिसका निवास है, हृदय लोक है, मन ज्योति है,उस परम आश्रय पुरुष को भी जानते हो तुम?”

“हाँ, जानता हूँ। जो भी यह पुत्र-रूप पुरुष है, वही यह है।”

“उसका देवता कौन है?”

“प्रजापति ही उसका देवता है।”

शाकल्य के प्रश्नों से तंग आकर याज्ञवल्कय ने कहा, “अरेशाकल्य! मुझे ऐसा जान पड़ता है कि इन ब्राह्मणों ने निश्चय ही तुम्हेंअंगारे निकालने वाला चिमटा बना रखा है।”

शाकल्य यह सुनकर कहने लगा, “याज्ञवल्कय! कुरु-पाँचालदेश के इन ब्राह्मणों पर तुम इस प्रकार का आक्षेप कर रहे हो, सोक्या तुम ब्रह्मवे्रूद्गाा हो?”

याज्ञवल्कय बोले, “मेरा ब्रह्मज्ञान यह है कि मैं देवता औरउसकी प्रतिष्ठा सहित सभी दिशाओं का ज्ञान रखता हूँ।”

शाकल्य ने प्रश्न किया, “यदि तुम देवता और प्रतिष्ठा सहितसभी दिशाओं का ज्ञान रखते हो तो बताओ, इस पूर्व दिशा में तुमकिस देवता से युक्त हो?”

“मैं वहाँ सूर्य देवता से युक्त हूँ।” याज्ञवल्कय ने उ्रूद्गार दिया।

“सूर्य किसमें प्रतिष्ठित है?”

“नेत्र में।”

“नेत्र किसमें प्रतिष्ठित है?”

“रूपों में, क्योंकि पुरुष नेत्रों से ही रूपों को देखता है।”

“रूप किसमें प्रतिष्ठित है?”

“हृदय में, क्योंकि पुरुष हृदय से ही रूपों को जानता है।”

शाकल्य बोला, “ठीक है, अच्छा यह बताओ कि इस दक्षिणदिशा में तुम किस देवता वाले हो?”

उ्रूद्गार मिला, “यम देवता वाला।”

“यम किसमें प्रतिष्ठित है?”

“यज्ञ में।”

“और यज्ञ किसमें प्रतिष्ठित है?”

“यज्ञ प्रतिष्ठित है दक्षिणा में।”

“दक्षिणा किसमें प्रतिष्ठित है?”

“श्रद्धा में, क्योंकि जब पुरुष श्रद्धा करता है, तभी दक्षिणा देताहै।”

शाकल्य आगे बोला, “ठीक है, अब यह बताओ कि पश्चिमदिशा में तुम किस देवता वाले हो?”

याज्ञवल्कय का उ्रूद्गार था, “पश्चिम दिशा में मैं वरुण देवतावाला हूँ।”

“वरुण किसमें प्रतिष्ठित है?”

“जल में।”

“जल किसमें प्रतिष्ठित है?”

“वीर्य में।”

“और वीर्य किसमें प्रतिष्ठित है?”

“हृदय में। इसीलिए पिता के अनुरूप उत्पन्न हुए पुत्र को लोगकहते हैं कि यह मानो पिता के हृदय से ही उत्पन्न है।”

शाकल्य ने फिर पूछा, “ठीक है, अच्छा यह बताओ कि उ्रूद्गारदिशा में तुम किस देवता वाले हो?”

“सोम देवता वाला।” याज्ञवल्कय का उ्रूद्गार था।

“सोम किसमें प्रतिष्ठित है?”

“दीक्षा में।”

“और दीक्षा किसमें प्रतिष्ठित है?”

“सत्य में, इसलिए दीक्षा ग्रहण करने वाले से कहा जाता हैकि वह सत्य बोले।”

“सत्य किसमें प्रतिष्ठित है?”

“हृदय में, क्योंकि पुरुष हृदय से ही सत्य को जानता है।”

शाकल्य का अगला प्रश्न हुआ, “अच्छा याज्ञवल्कय! अब यहबताओ कि इस ध्रुवा (अंतरिक्ष) दिशा में तुम कौन-से देवता वालेहो?”

“इस दिशा में मैं अग्नि देवता वाला हूँ।” याज्ञवल्कय काउ्रूद्गार था।

“अग्नि किसमें प्रतिष्ठित है?”

“वाक्‌ में।”

“वाक्‌ किसमें प्रतिष्ठित है?”

“हृदय में।”

“हृदय किसमें प्रतिष्ठित है?”

याज्ञवल्कय ने कहा, “प्रेत।” फिर बोले, “जिस समय तुम इसेहमसे अलग मानते हो, उस समय यदि यह हृदय से अलग हो जाएँतो इस शरीर को कु्रूद्गो खा जाएँ अथवा यह पक्षियों का भोजन बने।”

शाकल्य ने पूछा, “तम अर्थात्‌ यह शरीर और आत्मा (हृदय)किसमें प्रतिष्ठित है?”

“प्राण में।”

“प्राण किसमें प्रतिष्ठित है?”

“अपान में।”

“अपान किसमें प्रतिष्ठित है?”

“व्यान में।”

“व्यान किसमें प्रतिष्ठित है?”

“समान में।”

इतना कहकर याज्ञवल्कय ने कहा, “अरे शाकल्य! बार-बारप्रश्न क्या करता है? जिस आत्मा का नेति-नेति कहकर बखान कियागया है, उस आत्मा को न तो ग्रहण किया जा सकता है, न वह नष्टहोती है, उसे कोई काट भी नहीं सकता। पृथ्वी आदि आठ आश्रयस्थान हैं, अग्नि आदि आठ लोक हैं, अमृत आदि आठ देव हैं औरआदि आठ पुरुष हैं। वह जो उन पुरुषों को निश्चयपूर्वक जानकरउनका अपने हृदय में उपसंहार करके परिवर्तनशील धर्मों (कार्यव्यापारों) को लाँघ चुका है, उपनिषदों में बताए गए उस पुरुष के बारेमें मैं तुमसे पूछता हूँ। अगर तुम उसके बारे में स्पष्ट रूप से मुझे कुछनहीं बताओगे तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग हो जाएगा।”

शाकल्य वह सब नहीं जानता थे, अतः नहीं बता सका।

फलस्वरूप उसका मस्तक धड़ से अलग होकर भूमि पर गिर पड़ा।

अब याज्ञवल्कय ने वहाँ उपस्थित अन्य ब्राह्मणों को संबोधितकर उनसे कहा, “पूजनीय ब्राह्मणों! आप में से जिसकी इच्छा हो, वहमुझसे प्रश्न करे अथवा आप सभी मिलकर मुझसे प्रश्न करें और यदिआप चाहें तो मैं आप में से किसी एक से प्रश्न करूँ या सामूहिकरूप से सभी से प्रश्न करूँ। जो आप उचित समझें, मुझे आदेश करें।”

किंतु ब्राह्मणों में साहस न हुआ। तब याज्ञवल्कय ने स्वयं हीप्रश्न द्वारा उन्हें ब्रह्म के संबंध में ज्ञान कराया।

याज्ञवल्कय ने कहा, “जीव के शरीर को विशाल वृक्ष की तरहसमझो। वृक्ष के प्रूद्गो होते हैं और पुरुष के शरीर में रोम (रोएँ) होतेहैं, वृक्ष में छाल होती है और शरीर में त्वचा होती है। जैसे वृक्ष कीछाल से गोंद निकलता है, वैसे ही पुरुष के शरीर की त्वचा में सेरक्त निकलता है। जैसे वृक्ष में रेशे, काठ आदि हैं, वैसे ही पुरुष केशरीर में शिराएँ, हड्डियाँ आदि हैं।

प्रश्न है कि यदि वृक्ष को काट दियाजाता है तो वह अपने मूल रूप में पुनः और भी नया होकर अंकुरितहो आता है, इसी प्रकार मनुष्य को यदि मृत्यु मिल जाए तो नए जन्ममें मनुष्य किस मूल से उत्पन्न होगा? आप कह सकते हैं कि वीर्यसे उत्पन्न होगा, पर ऐसा कहना उचित नहीं, क्योंकि वीर्य तो जीवितपुरुष से ही उत्पन्न होता है, मृतक पुरुष से नहीं। वृक्ष भी केवल तनेसे ही उत्पन्न नहीं होता, बीज से भी उत्पन्न होता है, किंतु बीज सेउत्पन्न हो जाने वाला वृक्ष भी कट जाने के बाद पुनः अंकुरित होजाता है, पर यदि वृक्ष को जड़ सहित उखाड़ दिया जाए, तो फिरवह अंकुरित नहीं होगा, किंतु मनुष्य तो मरकर पुनः उत्पन्न होता है,ऐसी दशा में मृत्यु के पश्चात्‌ उसे कौन उत्पन्न करता है? इसका उ्रूद्गारयह है कि ब्रह्म ही मनुष्य को उत्पन्न करता है। जैसे वह सारी सृष्टिको उत्पन्न करता है, ब्रह्म स्वयं आनंद रूप है, वह शाश्वत है।”

याज्ञवल्कय ने फिर उन्हें ब्रह्म के विषय में विस्तार से बताया।

राजा जनक सहित तब वहाँ उपस्थित सभी ब्राह्मणों ने उन्हें सर्वश्रेष्ठब्रह्मवे्रूद्गाा मान लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने याज्ञवल्कय की विद्व्रूद्गाा सेप्रसन्न होकर उन्हें बहुत-सी गाय और अनेक प्रकार के उपहार देकरवहाँ से विदा किया।

राम-हनुमान कथा

भक्त शिरोमणि हनुमान श्रीराम के अनन्य भक्त थे। अपनी इसीश्रद्धा और भक्ति के कारण वे सदा राम के प्रिय रहे। एक दिन हनुमानने श्रीराम से आग्रहपूर्वक कहा, “हे प्रभु! आप परमात्मा हैं, सत्‌-चित्‌और आनंदस्वरूप परब्रह्म के आधार हैं।

मैं आपको बारंबार प्रणामकरता हूँ। हे रघुवर! मैं आपके यथार्थ स्वरूप को जानना चाहता हूँ,जो मुक्ति प्रदान करने वाला है, जिसमें मैं अनायास-सहज में ही इसभव-बंधन से छूट जाऊँ। हे देव! कृपा करके मुझसे उसका वर्णनकीजिए, जिससे मैं मुक्ति को प्राह्रश्वत कर सकूँ।”

श्रीराम मुसकराकर बोले, “हनुमान! तुमने अच्छा प्रश्न कियाहै। सुनो, मैं तुम्हें इस त्रूद्गव से अवगत कराता हूँ। हनुमान! वेद चारहैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इन चारों की अनेकशाखाएँ हैं। उन शाखाओं की उपनिषदें भी अनेक हैं। ऋग्वेद कीशाखाएँ हैं, यजुर्वेद की १०९, सामवेद की १००० और अथर्ववेद की५० शाखाएँ हैं। एक-एक शाखा की एक-एक उपनिषद्‌ मानी गई।

इनमें मुक्ति का रहस्य बताया गया। ऋषि-मुनियों ने अनेक प्रकार सेमुक्ति का वर्णन किया है।”

हनुमान हाथ जोड़कर बोले, “प्रभु! मुक्ति के इन अनेक रूपोंमें मेरी बुद्धि भ्रम में फँस गई है। कुछ मुनि कहते हैं कि मुक्ति एकही प्रकार से होती है,तो कुछ मुनियों के विचार से नाम-स्मरण से हीमुक्ति होती है। कुछ का कहना है कि काशी में मरने वाले व्यक्ति कोभगवान शंकर ‘तारक मंत्र’ देते हैं, जिससे प्राणी मुक्त होता जाता है।

दूसरे मुनियों का कथन है कि ‘सांख्य-योग’ से ही मुक्ति मिलती है।

दूसरे कुछ मुनि ‘भक्ति-योग’ से ही मुक्ति का मिलना मानते हैं तोबहुत-से महर्षि वेदांत-वाक्यों के अर्थ का विचार करने से मुक्ति कीप्राह्रिश्वत मानते हैं। कई मनीषियों ने चार प्रकार की - सालोक्य, सायुज्य,सामीह्रश्वय और कैवल्य रूपी मुक्ति बताई है। मैं आपका इस संबंध मेंउपदेश सुनना चाहता हूँ।”

श्रीराम बोले, “हनुमान! इस विषय में सभी का कहना अपनी-अपनी जगह ठीक है। मैं ज्ञान द्वारा मुक्ति को श्रेष्ठ मानता हूँ। यहीउपनिषदों का कहना है।”

हनुमान ने फिर से पूछा, “प्रभु! मुक्ति के प्रसंग से मैंनेजीवन-मुक्ति और विदेह-मुक्ति के विषय में भी सुना है, अतः आपमुझे यह समझाइए कि जीवन-मुक्ति क्या है और विदेह-मुक्ति क्या है?

इनके होने के क्या प्रमाण हैं? इनकी सिद्धि कैसे होती है तथा उससिद्धि का अभिप्राय क्या है?”

श्रीराम बोले, “भद्र! जीव को ‘मैं भोक्ता हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैंदुखी हूँ’ आदि जो ज्ञान होता है, वह चि्रूद्गा का धर्म है। यह ज्ञान क्लेशका कारण है, इसी से बंधन होता है। अतः इस प्रकार ज्ञान जाता रहताहै तो प्राणी जीवन-मुक्ति प्राह्रश्वत करताहै। घट (घड़े) में हम आकाशको देखते हैं, आकाश के लिए वह घट उपाधि (विकार, मिथ्या) मात्रहै, वास्तव में तो आकाश घट से मुक्त ही है। इस प्रकार प्रारब्ध व्यक्तिके लिए उपाधि मात्र है।

प्राणिमात्र जब इस प्रारब्ध रूप से उपाधि से मुक्त हो जाताहै, तो विदेह-मुक्त हो जाता है। ये दोनों प्रकार की मुक्ति कर्तापन औरभोक्तापन से छुटकारा दिलाती है। कर्तापन और भोक्तापन आदि दुखोंसे छुटकारा दिलाकर नित्यानंद की प्राह्रिश्वत करना ही इनका प्रयोजन है।

यह आनंद की प्राह्रिश्वत पुरुष के पुरुषार्थ से सिद्ध होती है। जैसे व्यापारआदि के द्वारा धन की प्राह्रिश्वत होती है, उसी प्रकार पुरुष के जीवनसे जो वेदांत श्रवण का फल मिलता है और समाधि द्वारा जीवन-मुक्तिआदि सिद्धि प्राह्रश्वत होती है, वही वासनाओं के नाश होने पर प्राह्रश्वत होतीहै।”

श्रीराम ने आगे कहा, “हनुमान! पुरुष का प्रयत्न या पुरुषार्थभी दो प्रकार का होता है - शास्त्र विरुद्ध और शास्त्रानुकूल। शास्त्रके विरुद्ध जो आचरण है, वह अनर्थ का कारण बनता है और शास्त्रके अनुकूल आचरण से परमार्थ की सिद्धि होती है। लोक-वासना,शास्त्र-वासना तथा देहवासना के कारण प्राणी को यथार्थ ज्ञान नहीं मिलपाता, अतः सब प्रकार की वासना का त्याग कर देना चाहिए।

“हे हनुमान! वासना शुभ और अशुभ भी होती है। मन कोयत्नपूर्वक शुभ में ही लगाना चाहिए। अभ्यास के द्वारा यह संभव होसकता है। वासना के नाश के साथ-साथ बाहरी वस्तुओं में भी आसक्तिऔर मन का नाश भी जरूरी है। इन तीनों का नाश हो जाने पर मुक्तिमिल जाती है। भली-भाँति विचार करने और सत्य के आभास सेवासनाओं का नाश हो जाता है।

वासनाओं के नाश से चि्रूद्गा उसी प्रकार विलीन हो जाता है,जैसे तेल के समाह्रश्वत हो जाने पर दीपक बुझ जाता है। व्यक्ति समाधिलगाए या न लगाए, कर्मानुष्ठान करे या न करे, जिसके हृदय से वासनासदा के लिए चली गई है, वही मुक्त है। वासनाहीनता ही मुक्ति है।

इंद्रियों को उनके विषयों से समेट लेने पर ही वासना का अंत होताहै। चिर-परिचित पदार्थों के चिंतन और उनमें आसक्ति के कारण चि्रूद्गामें चंचलता आती है। चि्रूद्गा की यही चंचलता ही जन्म-मरण का कारणहै। वासना के कारण प्राणों में धड़कन होती है, उससे पुनः वासनाजन्म लेती है, इस प्रकार चि्रूद्गारूपी बीज से अंकुर पैदा होते रहते हैं।

“हे अंजनिपुत्र!” श्रीराम ने आगे कहा, “चि्रूद्गारूपी वृक्ष के दोबीज होतेहैं - प्राणों की गति और वासना। इन दोनों में से एक केभी क्षीण होने से दूसरा भी क्षीण हो जाता है और इस प्रकार दोनोंका नाश हो जाता है। अनासक्त होकर व्यवहार करने से, संसार काचिंतन छोड़ देने से और शरीर की नश्वरता को समझते रहने से वासनाउत्पन्न नहीं होती। वासना का भली-भाँति त्याग हो जाने पर चि्रूद्गा कीवासनात्मक वृि्रूद्गा नष्ट हो जाती है। इससे शांति देने वाला विवेक जागउठता है।

“अब यह भी सुनो कि चि्रूद्गानाश दो प्रकार का होता है। पहलाहै सरूप और दूसरा है अरूप। जीवन-मुक्त का चि्रूद्गा स्वरूप से रहतातो है, पर वह चि्रूद्गा में लीन नहीं रहता, वह अचित में होता है, किंतुविदेह-मुक्त होने पर उसका स्वरूप से भी नाश हो जाता है, एकाग्रचि्रूद्गाहोकर ही मनोनाश संभव है। चि्रूद्गा को वश में करना कोई सरल कार्यनहीं है।

जिस प्रकार मस्त हाथी को वश में करने के लिए अंकुश हीएकमात्र उपाय है, उसी प्रकार चि्रूद्गा को वश में करने के लिएअध्यात्म-विद्या का ज्ञान, सत्संगति, वासना का भली-भाँति परित्यागऔर प्राणायाम - ये प्रबल उपाय हैं। जो मूढ़ पुरुष हठ करके चि्रूद्गाको वश में करने की चेष्टा करते हैं, वे मानो बिना दीप अंधकार मेंभटकते हैं, वे मस्त हाथी को कमल-नाल में बाँधने की चेष्टा करते हैं।

हे हनुमान! चि्रूद्गा की स्थिरता ही वासना का नाश करती है।

यही सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। जिस प्रकार बीज के अच्छी प्रकार से भुन जानेपर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार चि्रूद्गा की स्थिरता द्वारासंसार-वासना के नष्ट हो जाने पर, फिर जन्म नहीं लेना पड़ता।

कैवल्य-मुक्ति परम-पद अथवा ब्रह्मरूप की प्राह्रिश्वत के लिए थोड़ा औरआगे बढ़ो। सभी वासनाओं का भली-भाँति त्याग करके मोक्ष-प्राह्रिश्वत कीवासना का भी त्याग करो। पहले मन से संबंध रखने वाली वासनाओंका त्याग करके विषय-वासनाओं को भी त्यागो और मोक्ष आदि कीशुद्ध निर्दोष वासनाओं को ग्रहण करो। फिर उनको भी छोड़कर सबकेप्रति समान स्नेह रखते हुए एकमात्र चि्रूद्गा-स्वरूप में अपनी वासनालगाओ, फिर उस चि्रूद्गा-वासना को भी मन और बुद्धि के साथ छोड़करआखिर में ब्रह्म में पूर्णतया लीन हो जाओ। ब्रह्म के स्वरूप को प्राह्रश्वतकर लेना ही कैवल्य-मुक्ति है।”

श्रीराम के इस प्रकार के उपदेश से हनुमान की सारी भ्रांतियाँ,सारे संशय समाह्रश्वत हो गए। उन्होंने श्रीराम का आभार मानते हुए उनकेचरणों में अपना शीश झुका दिया।

कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद से

प्रतर्दन की कथा

हिंदू संस्कृति में अनेक ग्रंथ, पुराण, उपनिषद हुए हैं। इनमेंसुर-असुरों की अनेक कथाओं का वर्णन भी किया गया है। सुर-असुरोंकी एक प्रचलित कथा का वर्णन कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद में कियागया है। असुर सदैव ही देवताओं को दुःख देते रहते थे। वे शक्तिमें देवताओं से प्रबल थे, अतः देवता उनसे सदैव भयभीत रहते थे।

असीम बलशाली एवं अनेक शक्तियों से संपन्न देवराज इंद्र भी उनकाकुछ नहीं बिगाड़ पाते थे।

एक बार ऐसा समय आया, जब देवराज इंद्र को आत्मज्ञानप्राह्रश्वत हुआ। आत्मज्ञान मिलने पर इंद्र की शक्ति बढ़ी और उन्होंनेअसुरों को पराजित कर संपूर्ण देवताओं में श्रेष्ठता का पद प्राह्रश्वत किया।

वे स्वर्ग का राज्य एवं त्रिभुवन का स्वामित्व पा गए। इस देवासुरसंग्राम में उनकी सहायता की थी राजा दिवोदास के परम प्रतापी पुत्रप्रतर्दन ने। यह कथा उसी प्रतापी प्रतर्दन और देवराज इंद्र से संबंधितहै।

प्रतर्दन की सहायता से इंद्र ने जब असुरों पर विजय प्राह्रश्वत कीतो वे प्रतर्दन को अपने साथ स्वर्गलोक ले गए। वहाँ उनकी अद्‌भुतयुद्धकला और परम पुरुषार्थ से प्रसन्न होकर इंद्र ने उनसे कहा,“प्रतर्दन! मैं तुमसे अत्यंत प्रसन्न हूँ, बोलो तुम्हें कौन-सा वर दूँ?”

प्रतर्दन ने विनयपूर्वक कहा, “देवराज! जिस वर को आपमनुष्य जाति के लिए परम कल्यणकारी मानते हों, वैसा कोई वर मेरेलिए आप स्वयं चुन लें।”

इंद्र बोले, “राजन्‌! इस बात को सभी जानते हैं कि कोई भीदूसरे के लिए वर नहीं माँगता, इसलिए कि वह नहीं जानता कि दूसराक्या माँगेगा, अतः तुम्हीं अपने लिए कोई वर माँगो।”

प्रतर्दन ने कहा, “तब तो मेरे लिए कोई वर है ही नहीं, मैंउससे वंचित ही रह जाऊँगा। आप स्वयं तो मेरे लिए कोई वर माँगेंगेनहीं और मैं स्वयं यह नहीं जानता कि मुझे क्या माँगना चाहिए?”

प्रतर्दन की बात सुनकर भी इंद्र अपने वचनों से विचलित नहींहुए, क्योंकि वे वर देने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। इंद्र क्योंकि सत्यस्वरूप हैं, अतः प्रतर्दन के न माँगने पर भी अपनी ओर से ही वरदेने को तैयार हो गए।

इंद्र बोले, “प्रतर्दन! तुम मेरे ही यथार्थ रूप को जानो। इसेही मैं मानव जाति के लिए परम कल्याणकारी वर मानता हूँ कि वहमुझे भली-भाँति जाने। तुम चाहो तो कह सकते हो कि आपमें ऐसीक्या विशेषता है, जो मैं आपको जानूँ? तो सुनो, मैंने प्राण ब्रह्म केसाथ एकता स्थापित कर ली है, इसीलिए मुझमें कर्तापन का अभिमाननहीं है।

मेरी बुद्धि कहीं भी लिह्रश्वत नहीं होती। मेरे मन में कभी भीकर्मफल की इच्छा उत्पन्न नहीं होती, इसलिए कोई भी कर्म मुझे बंधनमें नहीं डालता। इसलिए यह भी कहा जाता है कि मैंने तीन मस्तकवाले विश्वरूप को मार डाला। कितने ही मिथ्या संन्यासियों को, जोआश्रम के अनुकूल आचार से भ्रष्ट और ब्रह्मविचार से विमुख हो चुकेथे, टुकड़े-टुकड़े करके भेड़ियों को खिला दिया।

कितनी ही बारप्रहलाद को कष्ट देने वाले कालखांज नामक बहुत-से असुरों को भीसमस्त बाधाएँ पार करके मार डाला, लेकिन इतना करने पर भी मेरेएक रोम को हानि नहीं पहुँची, क्योंकि मैं अहंकार और कर्मफल कीकामना से शून्य था। इसी प्रकार जो मुझे भली-भाँति जान लेगा, उसकेपुण्यलोक को किसी भी कर्म से हानि नहीं पहुँचेगी।”

प्रतर्दन ध्यानपूर्वक इंद्र की बातें सुन रहे थे।

इंद्र ने आगे कहा, “मैं प्रज्ञास्वरूप प्राण हूँ। समस्त प्राणियोंकी आयु तथा जीवनभूत जो प्राण है, जो मृत्यु से रहित अमृतपद है,वह मुझ इंद्र से भिन्न नहीं है। आयु प्राण है। प्राण ही आयु है तथाप्राण ही अमृत है।

जब तक इस शरीर में प्राण निवास करता है, तबतक ही आयु है। प्रज्ञा से मनुष्य सत्य का निश्चय और विकल्प करताहै। जो आयु और अमृत रूप से इंद्र की उपासना करता है, वह इसलोक में पूरी आयु तक जीवित रहता है तथा स्वर्गलोक में जाने परअक्षय अमृत को पीता है।”

इंद्र की बात सुनकर प्रतर्दन ने पूछा, “इस प्राण के विषय मेंकुछ विद्वान कहते हैं कि सब प्राण (वाक्‌ आदि समस्त इंद्रियाँ औरप्राण) एक होकर कार्य करते हैं, अलग-अलग इनका कार्य संभव नहींहै। जब वाणी बोलने लगती है, तब उस समय प्राण मौन होकर उसकाअनुमोदन करते हैं। जब नेत्र देखने लगते हैं, तब अन्य सब प्राण भीउसके पीछे रहकर देखने लगते हैं। जब कान सुनने लगते हैं, तब अन्यसब प्राण भी उसका अनुसरण करते हुए सुनते हैं। जब मन चिंतनकरने लगते हैं तो अन्य सब प्राण भी उसके साथ रहकर चिंतन करतेहैं और मुख्य प्राण जब अपना कार्य करता है तब, दूसरे प्राण भी उसकेसाथ-साथ वैसी ही चेष्टा करते हैं। क्या यह सत्य है?”

तब इंद्र बोले, “हाँ ऐसा ही है। सब प्राण एक होते हुए भीजो पाँच कहलाते हैं, वे निःसंदेह परम-कल्याण रूप हैं। उसे परम-कल्याण रूप मैं इसलिए कहता हूँ कि वाक्‌ के बिना गूँगे, नेत्र के बिनाअँधे, कान के बिना बहरे, मनःशक्ति के विना शिशु तथा मूर्ख आदिजीवितरहते हैं। किसी अंग के कट जाने या विकृत हो जाने पर भीमनुष्य जीवित रहते हैं, किंतु प्राण न रहने पर एक पल भी जीवितरहना संभव नहीं है। प्राण शक्ति का उद्‌बोधक है और ज्ञान का भी।

प्राण परमात्मा है। प्राणमय परमात्मा का दर्शन ही ज्ञान है। यही प्रज्ञाहै। प्रज्ञा औरप्राण दोनों साथ-साथ ही इस शरीर में रहते हैं। दोनों हीजीवात्मा की मृत्यु के बाद देह से बाहर निकल जाते हैं। प्रज्ञा के कारणही प्राण के माध्यम से इंद्रियों द्वारा उनके विषयों को ग्रहण किया जाताहै।”

“प्रज्ञा के बिना प्राण रहते हुए भी कुछ बोध नहीं हो सकता।

बुद्धि का कोई भी व्यापार प्रज्ञा के बिना सिद्ध नहीं होता। वाणी कोजानने की इच्छा से बढ़कर वाणी की प्रेरक आत्मा को जानना है।

इंद्रियों और इंद्रियों के विषयों को जानने से बढ़कर उन विषयों कोग्रहण करने वाली आत्मा को जानना है।”

इंद्र ने प्रतर्दन को समझाते हुए कहा, “जैसे इंद्रियों के विषयभूत मात्रा हैं, वैसे ही वाक्‌ आदि इंद्रियाँ प्रज्ञा मात्राएँ हैं। यदि भूतमात्राएँ न हों तो प्रज्ञा मात्राएँ भी नहीं रह सकतीं। इन दो में से किसीभी एक के द्वारा किसी भी रूप की (विषय अथवा इंद्रिय) सिद्धि नहींहो सकती। तात्पर्य यह है कि इंद्रि से विषय की और विषय से इंद्रियकी स्रूद्गाा जानी जाती है। यदि केवल विषय हो तो विषय से विषयका ज्ञान नहीं हो सकता अथवा केवल इंद्रिय रहे तो उससे भी इंद्रियका ज्ञान संभव नहीं है, अतः दोनों - भूत मात्रा और प्रज्ञा मात्रा का(विषय तथा इंद्रिय ज्ञान का) होना आवश्यक है।

यहाँ इस बात को समझने की आवश्यकता है कि विषय औरइंद्रियों में तो भेद हैं, किंतु प्रज्ञा मात्रा और भूत मात्रा में भेद नहीं है।

जैसे रथ की नेमि (नाभि) ‘अरों’ के ‘अरे’ रथ की नाभि के आश्रितहैं, इसी प्रकार भूत मात्राएँ प्राण मात्राओं में स्थित है और प्रज्ञा मात्राएँप्राण में प्रतिष्ठित हैं, अतः प्राण ही परमात्मा, आनंदमय, अजर औरअमृतमय है। यह प्राण एवं प्राणरूप चेतन पमरात्मा ही इस देह काअभिमान करने वाले पुरुष से साधु कर्म कराता है। यह लोकपाल है,यह लोकों का अधिपति है और यही सर्वेश्वर है। इन सब गुणों सेयुक्त प्राण को ही परमात्मा और निजात्मा जानकर आत्मा का ज्ञान प्राह्रश्वतकरना चाहिए।”

इंद्र के इस आत्मज्ञान उपदेश से प्रतर्दन बहुत संतुष्ट हुए औरउन्होंने पृथ्वी पर आकर इंद्र का यह उपदेश मानवों को दिया, जिससेसमस्त मानव जाति को लाभ पहुँचा।

दो ऋषियों की कथा

प्रत्येक उपनिषद्‌ में ईश्वर की महिमा को विस्तार में दर्शायागया है। ईश्वर का अस्तित्व प्रत्येक प्राणी, वस्तु में मिलता है। इसीईश्वर की महिमा से ओतप्रोत यह कथा प्रस्तुत की गई है। शौनककापेय और अमिप्रतारी नाम के दो ऋषि वन में रहते थे। वे दोनोंही वायुदेव के उपासक थे, अतः उनका अधिकांश समय वायुदेव कीउपासना में ही व्यतीत होता था। उन दोनों के अनेक शिष्य थे, जोआश्रम में ही रहकर दोनों ऋषियों से शिक्षा ग्रहण करते थे एवं आश्रमकी व्यवस्था भी देखते थे।

दोपहर के समय जब दोनों ऋषि भोजन के लिए बैठे तो एकब्रह्मचारी भोजन का पात्र लिए उनके समीप पहुँचा। उसने ऋषियों सेकहा, “मैं भूखा हूँ ऋषिवर! भोजन का कुछ अंश मेरे भिक्षा-पात्र मेंभी डाल दीजिए।”

ऋषियों ने इस बिन बुलाए मेहमान को विचित्रता भरी नजरोंसे देखा। फिर वे उस ब्रह्मचारी से बोले, “नहीं बालक! तुम्हें देने केलिए अतिरिक्त भोजन हमारे पास नहीं है।”

ब्रह्मचारी बोले, “ऋषिवर! किसी भूखे को भोजन कराना हमारेशास्त्रों में सबसे बड़ा पुण्यकारी कार्य माना गया है। अतः मेरा निवेदनहै कि आप मुझ भूखे को भोजन का कुछ अंश अवश्य दें।”

ऋषियों ने फिर दृढ़ता से इंकार कर दिया, लेकिन भिक्षुकब्रह्मचारी निराश नहीं हुआ। उसने कहा, “अच्छा, पूज्य ऋषियों, मुझेभोजन नहीं देते, न सही, किंतु मुझे मेरे कुछ प्रश्नों का उ्रूद्गार ही देदो।”

“पूछो, क्या पूछना चाहते हो?” ऋषि बोले।

“किस देवता की उपासना करते हैं आप?” ब्रह्मचारी ने पूछा।

ऋषि बोले, “हम दोनों उस वायुदेव की उपासना करते हैं, जौ‘प्राण’ नाम से भी जाना जाता है और सबकी साँस है।”

ब्रह्मचारी बोला, “तब तो आप यह बात भी अवश्य जानते होंगेकि वायु समस्त विश्व में व्याह्रश्वत है। चल-अचल, दृश्य, अदृश्य जोकुछ भी है, वह सब प्राण ही है?”

“हाँ-हाँ, पता है हमें।” ऋषि बोले।

“अब यह बताइए कि यह भोजन आपने किसे अर्पित कियाथा?” ब्रह्मचारी ने फिर प्रश्न किया।

“प्राण को अर्पित किया था हमने यह भोजन।” ऋषि बोले,“इसलिए अर्पित किया था हमने यह भोजन प्राण को, क्योंकि प्राणसारे ब्रह्मांड में व्याह्रश्वत है।”

यह सुनकर ब्रह्मचारी ने फिर प्रश्न किया, “ऋषिवर! यदि प्राणसारे ब्रह्मांड में व्याह्रश्वत है तो मुझमें भी प्राण का वास है, मैं भी तोब्रह्मांड का अंश हूँ।”

“हाँ-हाँ, अवश्य हो।” ऋषियों ने सहमति जताई।

“भूख से पीड़ित मेरे इस शरीर में, जो कि आपके समक्ष खड़ाहै, प्राण का ही संचार है, है ना?” ब्रह्मचारी ने पूछा।

“हाँ, है। इस विषय में तुम्हारा कथन बिल्कुल सच है।”

“तब ऋषिवर! मुझे अन्न से वंचित रखकर आप मानो प्राणको ही अन्न से वंचित कर रहे हैं। उसे हमारे शास्त्रों में ‘अ्रूद्गाा’ अर्थात्‌प्रलयकाल में सबको अपना ग्रास बनाने वाला, सबको अपने भीतरलील लेने वाला कहा गया है। ये सभी भौतिक पदार्थ, यहाँ तक किमनुष्य की वाणी, आँख, कान, नाक तथा मन भी उसी में विलीन होजाते हैं।

फिर क्या बात है कि इन सबको अपना भक्ष्य बनाने वालेपरमेश्वर को आप नहीं जानते? यदि आप लोक परमात्मा की इसमहिमा को जानते होते, तो मुझे भोजन अवश्य देते। आपने तो मनुष्य-मनुष्य में भेद कर दिया है।” ब्रह्मचारी के मुख से ऐसे त्रूद्गवज्ञान कीबातें सुनकर ऋषि चकित रह गये।

तब शौनक कापेय ने उस ब्रह्मचारी से कहा, “हे ब्रह्मचारी!

ऐसी बात नहीं है कि हम चराचर जगत को प्रलय काल में अपनाभोजन बनाने वाले परमात्मा को नहीं जानते, निश्चय ही हम उसपरमदेव, प्रजाओं को पैदा करने वाले उस अखंड नियमों वाले परमेश्वरको जानते हैं। प्रलयकाल में यह सृष्टि उसी में विलीन हो जाती है।

जो स्थूल रूप में दिखाई पड़ती है, वह अंत में सूक्ष्म बनकर उसीमें विलीन हो जाती है। वह परमात्मा चाहे हमारी भाँति साधारण भोजननहीं करता, किंतु वह तो सारी सृष्टि को ही समेटकर उसे अपना भोज्यबनाता है। विद्वान लोग उसी की आराधना करते हैं।”

इसके पश्चात्‌ दोनों ऋषियों ने स्नेहपूर्वक ब्रह्मचारी को अपनेनिकट बैठाया और उसे भोजन खिलाकर, उसका समुचित सत्कारकिया।

तृह्रश्वत होकर उस ब्रह्मचारी ने भी दोनों ऋषियों को उन शास्त्रोंका मर्म समझाया, जिन्हें ऋषियों ने केवल पढ़ा था, किंतु उनका मर्मनहीं समझा था। ब्रह्मचारी द्वारा शास्त्रों का मर्म समझाने का साह यहीथा कि भौतिक सृष्टि तो अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी तथा आकाश से बनीहै, जबकि यह जीव जिस समय शरीर में प्रविष्ठ होता है तो पाँचों प्राणोंसे उसका संचालन करता है, किंतु परमात्मा यथा समय इस सृष्टि कोअपनी इच्छानुसार जब चाहता है, अपनी इच्छित अवस्था में ले आताहै। इसीलिए वेदांत में उसे ‘अ्रूद्गाा’ अर्थात्‌ चराचर जगत को ग्रहण करनेवाला कहा गया है।

प्रश्नोपनिषद से

गार्ग्य का अभिमान

अनेक ऋषि-मुनियों, आत्मज्ञानी और तपस्वियों की अनेककथाओं का वर्णन प्रश्नोपनिषद में मिलता है। ऐसी ही एक कथा गार्ग्यकी है। गर्ग गोत्र में जन्म लेने के कारण लोग उसे गार्ग्य कहते थे,किंतु उसका वास्तविक नाम दृह्रश्वत बालाकि था। उसे इस बात का बहुतअभिमान था कि वह आत्मा और ब्रह्म के बारे में सब कुछ जानताहै।

एक दिन इसी घमंड के साथ वह काशीराज अजातशत्रु के पासजा पहुँचा। राजा ने उसका उचित स्वागत-सत्कार करने के बाद उसकेआने का उद्‌देश्य पूछा तो बालाकि बोला, “राजन्‌! यदि आप ब्रह्मके बारे में जानना चाहें तो मैं आपको उसके विषय में बता सकता हूँ।”

अजातशत्रु ब्रह्म-विषयक चर्चा के लिए सदैव उत्सुक रहता था,इसलिए उन्होंने कहा, “यदि आप ब्रह्म के विषय में मुझे उपयोगी बातेंबताएँगे तो मैं भी आपको एक हजार गाय भेंट-स्वरूप दूँगा।”

बालाकि बोला, “यह जो आकाश में आदित्य (सूर्य) है औरउसी में जो पुरुष दिखाई देता है, मैं तो उसी को ब्रह्म मानकर उसकीउपासना करता हूँ।”

अजातशत्रु सूर्य को ब्रह्म मानने के लिए तैयार न हुए। यह तोसत्य है कि संसार के कार्यों का संचालन करने में आदित्य भी एकबड़ी शक्ति है। आज सौर ऊर्जा से अनेक कार्य किए जाते हैं, किंतुध्यान रखने की बात यह है कि अंततः सूर्य तो आग का एक प्रचंडगोला है।

उसका निर्माता और शक्तिदाता चैतन्य परमात्मा तो इसमेंसर्वता भिन्न ही है। तब हम सूर्य या सूर्य में स्थित किसी अभिमानीचेतन देवता को संसार का संचालक, पालक एवं नियामक मानकरउसकी पूजा-उपासना क्यों करें? यह तो जड़-पूजा ही है।

तब बालाकि ने चंद्रमा में रहने वाले पुरुष को ‘ब्रह्म’ कहा।

अजातशत्रु ने कहा, “यह महान्‌ राजा की भाँति शुक्ल वस्त्रधारी सोमहै। इसका अंत क्षीण नहीं होता, पर ब्रह्म यह भी नहीं है।”

“यह जो विद्युत में पुरुष है, इसी की मैं ब्रह्म-रूप में उपासनाकरता हूँ।” बालाकि ने कहा।

अजातशत्रु बोले, “नहीं। यह तेजस्वी रूप तो है, पर ब्रह्म नहीं।

जो कोई उसकी उपासना करता है, वह भी तेजस्वी हो जाता है औरउसकी संतान भी, पर ब्रह्म इसके भी आगे है।”

तब बालाकि ने आकाश में स्थित पुरुष को ब्रह्म बताया।

अजातशत्रु ने कहा, “नहीं, इसकी उपासना से संतान तथा पशुधन आदिकी प्राह्रिश्वत होती है, पर ब्रह्म यह भी नहीं है।”

बालाकि इसी प्रकार कभी जल तो कभी वायु तो कभी पृथ्वीको ब्रह्म बताता रहा, किंतु अजातशत्रु ने उसकी एक भी बात को ठीकनहीं माना। सच बात तो यह थी कि बालाकि ब्रह्म के य़थार्थ रूप कोजानता ही नहीं था। वह तो संसार में परमात्मा द्वारा बनाए सूर्य, चंद्र,जल, वायु, पृथ्वी आदि जड़ पदार्थों को ही परमात्मा मान बैठा था।

जब अजातशत्रु ने उसके इस कथन का खंडन कर दिया किसूर्य, चंद्र, विद्युत, वायु, अग्नि तथा जल, इन भौतिक पदार्थों का हमअपने हित में उपयोग तो कर सकते हैं, क्योंकि इनसे हमें नाना प्रकारकी भौतिक शक्तियाँ तथा भौतिक वस्तुएँ प्राह्रश्वत होती है, किंतु वे ब्रह्मके स्थान पर हमारी पूजा के पात्र नहीं है।

अजातशत्रु की बातों का जब बालाकि को कोई उ्रूद्गार न सूझातो वह मौन हो गया। उसने यह भी स्वीकार किया कि उसका ज्ञानतो बस इतना ही है, इससे अधिक इस ब्रह्म के बारे में कुछ नहींजानता। उलटा उसने राजा अजातशत्रु से कहा, “यदि आप इस विषयमें मुझसे अधिक कुछ जानतेहैं तो कृपया आप मुझे भी बताएँ। मैंआपका शिष्यत्व स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ।”

अजातशत्रु ने कहा, “एक ब्राह्मण किसी क्षत्रिय के पास उपदेशग्रहण करने की इच्छा से आए, यह बड़ी विपरीत बात है, पर आपकहते हैं तो मैं जितना कुछ जानता हूँ, आपको अवश्य बता दूँगा।”

तब अजातशत्रु ने बालाकि को ब्रह्म-त्रूद्गव का उपदेश दिया।

अजातशत्रु ने केवल मौखिक उपदेश ही नहीं दिया, अपितु उन्होंने उसेव्यावहारिक ज्ञान भी कराया। वह बालाकि को एक सोए हुए व्यक्तिके पास लेकर गए और उसे आवाज देकर पुकारने लगे, किंतु गहरीनिंद में होने के कारण वह व्यक्ति नहीं उठा।

तब अजातशत्रु ने कहा, “इस समय इस आदमी की आत्मासुह्रश्वतावस्था (सुषुह्रिश्वत) में है। आत्मा विज्ञानमय कोश में चली गई है,

अतः सारी इंद्रियाँ भी अचेत हैं, मन भी अक्रिय है, किंतु यही व्यक्तियदि स्वह्रश्वन देखने लगे तो इसका मन सक्रिय हो जाएगा। उस समययह अपने को राजा-महाराजा भी मान बैठेगा। वास्तव में सुषुह्रिश्वत अवस्थामें ही जीवात्मा को ब्रह्म की निकटता प्राह्रश्वत होती है। तभी तो वह जबप्रगाढ़ निद्रा से जागता है तो कहता है कि मैं सुखपूर्वक सोया। यहदिव्य सुख उसे परमात्मा की समीपता के कारण ही प्राह्रश्वत होता है।

आत्मा समस्त सत्यों का सत्य है। जैसे मकड़ी तंतुओं के सहारे ऊपरको चढ़ती है, जैसे अग्नि से अनेक छोटी-बड़ी चिंगारियाँ निकलती हैं,

उसी प्रकार इस आत्मा का फैलाव है। इसी आत्मा समस्त प्राण, समस्तलोक, समस्त देवगण, समस्त चेतन प्राणी विविध रूपों में उत्पन्न होतेहैं। अतः आत्म-साक्षात्कार करो, उसी से ब्रह्म को जानोगे। ब्रह्म केदो रूप हैं, मूर्त और अमूर्त। इसे ही मर्त्य और अमर्त्य, जड़ औरचेतन, असत्‌ और सत्‌ कह सकते हैं।”

अजातशत्रु ने जब इस प्रकार से बालाकि गार्ग्य को ब्रह्म कास्वरूप समझाया तो उसका ब्रह्म को जान लेने का मिथ्याभिमान जातारहा और उसने राजा अजातशत्रु का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया।

छान्दोग्य उपनिषद से

ब्रह्मज्ञानी रैक्व की कथा

छान्दोग्य उपनिषद में ब्रह्मवे्रूद्गा रैक्व की कथा बहुत प्रचलित है।

एक गाड़ीवान होते हुए भी रैक्व ब्रह्म-ज्ञान का पूर्ण ज्ञाता था। रैक्वके ब्रह्मज्ञान ने जनश्रुति की आँखें खोली थीं। कहते हैं प्राचीन कालमें जनश्रुत नाम का एक कुल हुआ है। उस कुल के राजा अपनीदानवीरता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। वे श्रद्धापूर्वक बहुत-सा दान दियाकरते थे। आगे चलकर इसी कुल में जनश्रुति नाम का एक राजा हुआ,जो महावृष देश का राजा बना।

जनश्रुति ने भी अपने पूर्वजों की परंपरा बनाए रकी। उसनेअपनी प्रजा के हित में अनेक कल्याणकारी कार्य किए। राज्य मेंराजमार्गों पर विश्राम-स्थल बनवाए, जिनमें यात्रियों को मुफ्त में भोजनऔर ठहरने के लिए आश्रय दिया जाता था। उसने रोगियों के लिएअनेक रुग्णालयों (अस्पतालों) का निर्माण करवाया, जिनमें रोगी मुफ्तमें अपने रोगों की चिकित्सा करवाते थे। वृद्ध एवं अपंग लोगों कोआश्रय मिलता था। वह भी राजकीय खर्चे से। राजा ने प्रजा पर जोभी कर लगाए थे, वे सब न्याय-संगत थे। प्रजा के हित में जो भीउसे उचित सूझता, तत्काल बिना किसी विलंब के कर डालता था।

ऐसे ही अनेक कारणों से प्रजा उससे पूरी तरह संतुष्ट थी औरअपने राजा की समृद्धि के लिए सदैव कामना करती थी।

जनश्रुति की प्रसिद्धि धीरे-धीरे राज्य की सीमाओं से बाहर भीफैल गई। बाहर के व्यापारी उसके राज्य में आन-जाने लगे। व्यापारबढ़ा तो प्रजा और भी समृद्ध हुई और व्यापार पर लगे कर के कारणराजा का कोष भी भरने लगा। प्रजा राजा जनश्रुति की जय-जयकारकरने लगी।

कहते हैं कि समृद्धि अपने साथ कुछ दुर्गुण भी लाती है। वैसाही एक दुर्गुण राजा जनश्रुति में भी उत्पन्न हो गया।

समृद्धि पाकर वह अहंकारी हो गया। वह सोचने लगा, “मैंही अपने नागरिकों का अन्नदाता हूँ। मेरे ही कारण राज्य में समृद्धिआई है। दान आदि करके मैंने इतने पुण्य कमा लिए हैं कि अब तोस्वर्ग में देवता भी मुझ पर प्रसन्न होंगे।”

एक दिन की बात है, संध्या का समय था। राजकार्यों से निवृ्रूद्गाहोकर राजा महल की छत पर एक आरामदायक पलंग पर अधलेटा-सा दूर आकाश की ओर निहार रहा था। तभी दूर से उड़ते हुए दोहंस उसे अपनी ओर आते दिखाई दिए।

हंस जब राजा के निकट पहुँचे, जो राजा ने एक हंस को यहकहते सुना, “मित्र! यहाँ जरा संभलकर उड़ना। नीचे राजा जनश्रुति बैठाहै।”

“फिर क्या हुआ? राजा जनश्रुति में ऐसी कौन-सी विशेष बातहै जिसके कारण मुझे उसके ऊपर नहीं उड़ना चाहिए?” दूसरे हंसने उपेक्षा से कहा।

“मित्र।” पहला हंस पुनः बोला, “इस राजा ने अपने पुण्य-कर्मों से इतनी ख्याति अर्जित कर ली है कि इसके शरीर से अब एकविशेष तेज निकलने लगा है। तुम नीचे उड़े तो तुम्हारे जल जाने काभय है।”

“क्यों मजाक करते हो मित्र? क्या इस राजा का तेज गाड़ीवानरैक्व के तेज से बढ़कर है?” दूसरा हंस बोला और अपने साथी हंसके साथ आगे बढ़ गया।

हंस तो चले गए, परंतु राजा जनश्रुति की चिंता बढ़ने लगी।

वह सोचने लगा, “कौन है वह गाड़ीवान रैक्व, जिसने मुझसे भी ज्यादापुण्य अर्जित कर लिया है?”

उस रात राजा को नींद नहीं आई। उसके मस्तिष्क में सिर्फरैक्व का नाम ही गूँजता रहा। वह सोचता रहा, ‘प्रातः उठकर सबसेपहले रैक्व को खोज निकालने का काम ही करूँगा। अपने सेवकों कोभेजकर उसे राजसभा में बुलवाऊँगा। फिर देखूँगा कि कैसा है वहव्यक्ति रैक्व?’

सुबह हुई तो राजा को जगाने के लिए शुबचिंतक वहाँ पहुँचेऔर उन्होंने ‘प्रभाती’ (भोर का गान) गाना आरंभ कर दिया, ‘जागिएकृपानिधान! जागिए देवतुल्य!’ ऐसे वचन कहते हुए उन्होंने राजा कीस्तुति की।

अलसाया-सा राजा उठा। हंसों की बातें फिर उसकी स्मृति मेंकचोटने लगीं। अचानक वह स्तुतिवाचकों पर झल्ला उठा, “बस करोयह झूठी प्रशंसा। आगे से इस तरह मेरी प्रशंसा मत करना। मैं इसयोग्य नहीं हूँ।”

स्तुतिवाचक राजा के मुख से ऐसे वचन सुनकर स्तब्ध रह गए।

ऐसी क्या बात हो गई है हमारे महाराज के साथ, जो ये इस प्रकारकी बातें कर रहे हैं? एक चारण (स्तुतिवाचक) ने डरते-डरते पूछही लिया, “स्वामी! ऐसी क्या बात हो गई जो आप इतने चिंतित हैं?”

राजा ने उनके समक्ष हंसों द्वारा किया गया सारा वार्तालाप कहसुनाया। फिर उसने स्तुतिवाचकों से कहा, “दूतों को यहाँ उपस्थितकरो। हम उन्हें कुछ कार्य सौंपना चाहते हैं।”

राजा के आदेश से थोड़ी ही देर बाद दूत राजा के समक्षउपस्थित हो गए।

“हमारे लिए क्या आदेश है, स्वामी?” सिर झुकाकर दूतों नेपूछा।

“जाओ, चारों दिशाओं में जाकर पुण्यात्मा रैक्व की खोजकरो।” राजा ने आदेश दिया।

“यह रैक्व कौन है? स्वामी! हमें तो उसका पता भी नहींमालूम और ये भी नहीं मालूम कि वह करता क्या है?” दूतों केमुखिया ने उलझन भरे स्वर में पूछा।

“रैक्व एक गाड़ीवान है।” राजा ने बताया, “लेकिन है परमपुण्यवान व्यक्ति! जिस तरह जुए में ‘कृत’ नामक पासे के द्वारा जीतनेवाले पुरुष के अधीन उसके नीचे के सारे पासे हो जाते हैं, वैसे हीरैक्व को, प्रजा जो भी सत्कार्य करती है, उनका पुण्यफल प्राह्रश्वत होजाता है। वह दूसरे लोगों द्वारा जानी हुई बात को भी जान लेता है।

बस यही उसकी पहचानहै। जाओ, जल्दी-से-जल्दी उसे खोजकर हमारेपास ले आओ।”

जनश्रुति का आदेश पाकर दूत वहाँ से चले गए।

उन्होंने राज्य के कोने-कोने में जाकर गाड़ीवान रैक्व के विषयमें छानबीन की, किंतु वे असफल रहे। थक-हारकर जब वे वापस लौटरहे थे तो उनकी नजर एक ऐसे गाड़ीवान के ऊपर पड़ी, जो अपनेछकड़े में व्यापारी का माल भर रहा था।

दूतों ने गाड़ीवान के पास जाकर उससे पूछा, “सुनो मित्र! क्यातुम रैक्व नाम के किसी गाड़ीवान को जानते हो?”

“जी हाँ, मैं उसे जानता हूँ।” गाड़ीवान बोला।

“कहाँ मिलेगा वह?”

“वह देखो, वहाँ बैठा है, अपनी गाड़ी के पास।” कहकर उसगाड़ीवान ने एक दिशा में संकेत कर दिया।

दूत गाड़ीवान के बताए हुए स्थान पर पहुँचे। उन्होंने दीन-हीनसे दिखने वाले आदमी को अपनी गाड़ी के नीचे अपने शरीर कोखुजाते हुए देखा।

दूतों ने उससे पूछा, “क्या तुम्हीं गाड़ीवान रैक्व हो?”

“हाँ! मैं ही रैक्व हूँ।” उ्रूद्गार मिला।

“हमारे महाराज तुमसे मिलना चाहते हैं।” दूत ने कहा।

“हमारे कहने का तात्पर्य शायद नहीं समझे हो।” दूत ने पुनःकहा, “महाराज तुमसे अपने महल में मिलना चाहते हैं।”

“मैंने कहा न।” रैक्व ने पुनः उ्रूद्गार दिया, “तुम्हारे महाराजयदि मुझसे मिलने को उत्सुक हैं तो वे यहाँ आकर मिल सकते हैं।”

इतना कहकर रैक्व मौन हो गया।

दूत निराश होकर वापिस लौट चले। उन्होंने राजा को जाकरबता दिया कि उन्होंने रैक्व का पता लगा लिया है। राजा ने जब यहसुना तो उसे बहुत प्रसन्नता हुई। उसने अपने मंत्री को बुलाया औरकहा, “मंत्री जी! हम प्रातः रैक्व से मिलने जाना चाहते हैं, यात्रा कीतैयारी का प्रबंध करो।”

अगले दिन राजा जनश्रुति अपने सेवकों के साथ रैक्व सेमिलने के लिए चल पड़ा। वह अपने साथ छह सौ गाएँ, सौने काहार एवं एक रथ भी रैक्व को भेंट देने के लिए ले गया। वहाँ पहुँचकरउसने रैक्व को अपना परिचय देते हुए कहा, “पुण्यात्मन्‌! मैं यहाँ काराजा जनश्रुति हूँ।

मैंने बड़ी चर्चा सुनी है कि आप बड़े पुण्यात्मा हैं,बड़े ही विद्वान और ब्रह्म-ज्ञानी हैं। इसलिए मैं आपको देने के लिएकुछ अमूल्य उपहार लाया हूँ। यह रथ, यह अमूल्य स्वर्ण और ये गाएँआपकी भेंट हैं। कृपया इन्हें स्वीकार करो और मुझे ब्रह्म-ज्ञान काउपदेश दो।”

राजा के मुख से यह वचन सुनकर रैक्व ने कुछ तीखे स्वरमें कहा, “मूर्ख राजा, क्या तुम यह समझते हो कि ब्रह्म-ज्ञान खरीदाजा सकता है? अरे मूर्ख! ज्ञान खरीदने-बेचने की वस्तु नहीं है। चलेजाओ यहाँ से। मैं तुम्हें कोई उपदेश नहीं दे सकता।”

रैक्व का टका-सा जवाब सुनकर राजा को बहुत निराशा हुई।

वह अपमानित-सा होकर अपने महल लौट गया। लगातार कई दिनोंतक वह रैक्व से हुई भेंट के बारे में सोचता रहा।

रैक्व से ब्रह्म-ज्ञान प्राह्रश्वत करने से इच्छुक राजा जनश्रुति कीव्याकुलता बढ़ती ही गई। वह दुबारा रैक्व के पास पहुँचा।

इस बार उसने बहुत-सा धन, सोना, गाएँ आदि के साथ अपनीकन्या का विवाह भी रैक्व के साथ कर देने की इच्छा जाहिर की।

वह बोला, “हे पुण्यात्मन्‌! आप यह सब ले लीजिए, बस मुझे ब्रह्म-ज्ञान का उपदेश देकर कृतार्थ कर दीजिए।”

राजा की निष्ठा और ज्ञान प्राह्रश्वत करने की उसकी उत्कट इच्छाको देखकर इस बार रैक्व द्रवित हो गया। उसने राजा से कहा,“जनश्रुति! इन सबके साथ मुझे अपना अहंकार भी दे दो। ज्ञानी औरदानी होने का अहंकार होने तक तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा।”

“अहंकार त्याग कर ही तो मैं आपकी सेवा में नतमस्तक हुआहूँ, पुण्यात्मन्‌!” राजा ने विनय की, “कृपा करके मुझे ब्रह्म-ज्ञान कीशिक्षा दीजिए।”

“यदि ऐसी ही बात है तो सुनो। मैं तुम्हें संवर्ग विद्या का दानदेता हूँ।” कहते हुए रैक्व ने जनश्रुति को संवर्ग विद्या (ब्रह्म-ज्ञान) काउपदेश दिया।

“राजा जनश्रुति! संवर्ग वायु को कहते हैं। अग्नि शांत होकरवायु में समा जाती है। सूर्य एवं चंद्रमा की ज्योति भी वायु में समाईरहती है। उसी के द्वारा वह ब्रह्मांड को आलोकित करती है। जल भीबाष्प बनकर ही वायु में समा जाता है।

समस्त जीवित प्राणियों के प्राणभी वायु में विलीन हो जाते हैं। तुम्हारा यह दान, धर्म, यश भी एकदिन इसी वायु में विलीन हो जाएगा। इसलिए तुम अपने समस्तसत्कर्म, धर्म-कार्य वायु देवता को अर्पित कर दो। वायु ही तुम्हारे यशको प्रकाशित करेगी। जाओ, मेरे इस उपदेश के साथ अपना सबकुछले जाओ, मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।”

रैक्व का सारगर्भित उपदेश सुनकर जनश्रुति की आँखें खुलगई। वह रैक्व के चरणों में गिर पड़ा और वह उसी दिन से रैक्वका शिष्य बन गया।

प्रजापति का उपदेश

देव-दानव अथवा मानव कोई भी हो, उसे अपने से बड़े ऋषि-मुनियों, गुरुओं, ज्ञानियों के आशीर्वाद की आवश्यकता बनी रहती थी।

उनसे इसी आशीर्वाद से वे हमेशा उन्नति की ओर अग्रसर रहते हैं। अतःएक बार देवता, असुर एवं मनुष्यों ने सोचा, ‘हमें अपनी समृद्धि औरअधिक-से-अधिक उन्नति के लिए समय-समय पर ऋषि, महात्मा औरआचार्यों से उपदेश और उनका आशीर्वाद लेते रहना चाहिए।’

ऐसा विचारकर देवता, असुर एवं मनुष्य तीनों प्रजापति के पासपहुँचे। प्रजापति ने उनके ठहरने का प्रबंध किया और उनसे कहा,“एक वर्ष तक तुम लोगों को यहाँ रहकर संयम-साधना करनी होगी।

उसके उपरांत ही मैं तुम्हें उपदेश दूँगा।”

एक साल के बाद देवता, असुर एवं मानवों ने प्रजापति सेप्रार्थना की, “प्रभो! अब कृपया हमें उपदेश देकर कृतार्थ करें।”

प्रजापति ने कहा, “ठीक है, मैं तुम्हें बारी-बारी से उपदेशदूँगा।”

पहले देवताओं की बारी आई। उन्होंने प्रजापति से उपदेश देनेका आग्रह किया। प्रजापति बोले - “द।”

देवताओं ने उ्रूद्गार दिया, “प्रभो! आपके ‘द’ का तात्पर्य हैदमन अर्थात्‌ हमें अपनी इंद्रियों का दमन करना चाहिए।”

“ठीक समझे हो तुम।” प्रतापति ने मुसकराकर कहा, “जाओ,इसी के अनुरूप अपने कार्य करो।”

अब मानवों ने प्रजापति के उपदेश देने की प्रार्थना की, “प्रभो!

अब हमें भी अपना उपदेश देकर कृतार्थ करें।”

प्रजापति बोले, “मानवों! तुम्हारे लिए मेरा उपदेश है ‘द’। अबमनन करके यह बताओ कि तुमने मेरे ‘द’ का क्या मतलब समझाहै?”

मनुष्य बोले, “प्रभो! आपके ‘द’ का आशय है दान। इसकाअर्थ है कि हमें दान करना चाहिए।”

मानवों का उ्रूद्गार सुनकर प्रजापति बोले, “तुमने सही अभिप्रायसमझा है मेरे ‘द’ का। अब जाओ और दान को अपने जीवन काएक अनिवार्य अंग बनाओ।”

सबसे अंत में असुरों ने प्रजापति से पूछा, “प्रभो! अब हमेंभी उपदेश दीजिए।”

प्रजापति ने उनसे भी ‘द’ अक्षर का उपदेश देकर ‘द’ कातात्पर्य पूछा। असुर बोले, “प्रभो! आपके ‘द’ का अर्थ है दया। अर्थात्‌आपने हमें दया करने का उपदेश दिया है।”

“हाँ। तुमने भी मेरे उपदेश का सही आशय जान लिया है।”

प्रजापति बोले और फिर उन्हें प्राणीमात्र पर दया करने को कहकर जानेकी आज्ञा प्रदान कर दी।

‘द’, ‘द’, ‘द’ का उपदेश पाकर देवता, असुर और मानवप्रसन्न हो गए। आज भी जब मेघ गरजते हैं तो उनसे ‘द’, ‘द’, ‘द’की गर्जना आती है। तब ऐसा लगता है जैसे वे प्रजापति का उपदेशही दोहरा रहे हों - ‘दमन करो, दया करो, दान करो।’