Kabir books and stories free download online pdf in Hindi

कबीर

कबीर


© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as MatruBharti.

MatruBharti has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

MatruBharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

जीवन परिचय

कबीर हिंदी साहित्य के महिमामण्डित व्यक्तित्व हैं। कबीर के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से पैदा हुए थे, जिसको भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी।

कबीर के मातापिता के विषय में एक राय निश्चित नहीं है कि कबीर ष्नीमाश् और ष्नीरुश् की वास्तविक संतान थे या नीमा और नीरु ने केवल इनका पालनपोषण ही किया था। कहा जाता है कि नीरु जुलाहे को यह बच्चा लहरतारा ताल पर पड़ा पाया, जिसे वह अपने घर ले आया और उसका पालनपोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया।

कबीर ने स्वयं को जुलाहे के रुप में प्रस्तुत किया है

ष्जाति जुलाहा नाम कबीरा

बनि बनि फिरो उदासी।श्

कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। ऐसा भी कहा जाता है कि कबीर जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म का ज्ञान हुआ। एक दिन कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े थे, रामानन्द उसी समय गंगास्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल ृरामरामश् शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षामन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों मेंृहम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेतायेश्। अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदुमुसलमान का भेद मिटा कर हिंदूभक्तों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।

जनश्रुति के अनुसार कबीर के एक पुत्र कमल तथा पुत्री कमाली थी। इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था। साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था।

कबीर को कबीर पंथ में, बालब्रह्मचारी और विराणी माना जाता है। इस पंथ के अनुसार कामात्य उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या। लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रुप में भी किया है। वस्तुतः कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे। एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं रू

कहत कबीर सुनहु रे लोई।

हरि बिन राखन हार कोई।।।

कबीर पढ़ेलिखे नहीं थे

मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।।

उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्ति्, रोजा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।

कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्नभिन्न लेखों के अनुसार भिन्नभिन्न है। एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं। विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड ने ृहिंदुत्वश् में ७१ पुस्तकें गिनायी हैं।

कबीर की वाणी का संग्रह ृबीजकश् के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैंरमैनी, सबद और सारवी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, व्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।

कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं। यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं। वे कभी कहते हैं

ृहरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरियाश् तो कभी कहते हैं, ृहरि जननी मैं बालक तोराश्

उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमानसंस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे।

कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।

कबीर का पूरा जीवन काशी में ही गुजरा, लेकिन वह मरने के समय मगहर चले गए थे। वह चाहकर भी, मगहर गए थे। वृद्धावस्था में यश और कीर्ति् की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं। कबीर मगहर जाकर दुरूखी थेरू

अबकहु राम कवन गति मोरी।

तजीले बनारस मति भई मोरी।।श्श्

कहा जाता है कि कबीर के शत्रुओं ने उनको मगहर जाने के लिए मजबूर किया था। वे चाहते थे कि कबीर की मुक्ति हो पाए, परंतु कबीर तो काशी मरन से नहीं, राम की भक्ति से मुक्ति पाना चाहते थेरू

ष्जौ काशी तन तजै कबीरा

तो रामै कौन निहोटा।श्श्

अपने यात्रा क्रम में ही वे कालिंजर जिले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे। वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था। वहाँ के संत भगवान गोस्वामी जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तकोर्ं का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचारविनिमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया

बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।

करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।श्

वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे ?

सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा सें प्रेरित हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर ऐसी स्थिति में पड़ चुके हैं।

कबीर आडम्बरों के विरोधी थे। मूर्ति् पूजा को लक्ष्य करती उनकी एक साखी है

पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौंपहार।

था ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।

११९ वर्ष की अवस्था में मगहर में कबीर का देहांत हो गया। कबीरदास जी का व्यक्तित्व संत कवियों में अद्वितीय है। हिन्दी साहित्य के १२०० वषोर्ं के इतिहास में गोस्वामी तुलसीदास जी के अतिरिक्त इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व किसी कवि का नहीं है।

कबीर के दोहे सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकप्रिय हैं। हम कबीर के अधिक से अधिक दोहों को संकलित करने हेतु प्रयासरत हैं।

(1)

चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।

जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह।

(2)

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।

एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय।

(3)

माला फेरत जुग भया, फिरा मन का फेर

कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर।

(4)

तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय।

कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय।

(5)

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय।

बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय।

(6)

सुख मे सुमिरन ना किया, दुरूख में करते याद

कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद।

(7)

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय।

मैं भी भूखा रहूँ, साधु ना भूखा जाय।

(8)

धीरेधीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।

माली सींचे सौ घड़ा, तु आए फल होय।

(9)

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।

(10)

माया मरी मन मरा, मरमर गए शरीर।

आशा तृष्णा मरी, कह गए दास कबीर।

(11)

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।

हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय।

(12)

दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै कोय।

जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय।

(13)

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।

पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर।

(14)

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।

सारसार को गहि रहै थोथा देई उडाय।

(15)

तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय।

कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय।

(16)

जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।

तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल।

(17)

उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।

तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास।

(18)

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।

धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा जाइ।

(19)

साधू गाँठ बाँधई उदर समाता लेय।

आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय।

(20)

माला फेरत जुग भया, फिरा मन का फेर।

कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर

कबीर वाणी

माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर

कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर

मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला

धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला

कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी

धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो

आया है किस काम को किया कौन सा काम

भूल गए भगवान को कमा रहे धनधाम

कमा रहे धनधाम रोज उठ करत लबारी

झूठ कपट कर जोड़ बने तुम माया धारी

कहते दास कबीर साहब की सुरत बिसारी

मालिक के दरबार मिलै तुमको दुख भारी

चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय

दो पाटन के बीच में साबित बचा कोय

साबित बचा कोय लंका को रावण पीसो

जिसके थे दस शीश पीस डाले भुज बीसो

कहिते दास कबीर बचो कोई तपधारी

जिन्दा बचे ना कोय पीस डाले संसारी

कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर

ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर

ना काहू से बैर ज्ञान की अलख जगावे

भूला भटका जो होय राह ताही बतलावे

बीच सड़क के मांहि झूठ को फोड़े भंडा

बिन पैसे बिन दाम ज्ञान का मारै डंडा

कबीर की हिंदी गजल

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?

रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दरदर फिरते,

हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है,

हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?

पल बिछुड़े पिया हमसे हम बिछड़े पियारे से,

उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?

कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,

जो चलना राह नाजुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?

कबीर भजन

उमरिया धोखे में खोये दियो रे।

धोखे में खोये दियो रे।

पांच बरस का भोलाभाला

बीस में जवान भयो।

तीस बरस में माया के कारण,

देश विदेश गयो। उमर सब ....

चालिस बरस अन्त अब लागे, बाढ़ै मोह गयो।

धन धाम पुत्र के कारण, निस दिन सोच भयो।।

बरस पचास कमर भई टेढ़ी, सोचत खाट परयो।

लड़का बहुरी बोलन लागे, बूढ़ा मर गयो।।

बरस साठसत्तर के भीतर, केश सफेद भयो।

वात पित कफ घेर लियो है, नैनन निर बहो।

हरि भक्ति साधो की संगत,

शुभ कर्म कियो।

कहै कबीर सुनो भाई साधो,

चोला छुट गयो।।

ऋतु फागुन नियरानी हो

ऋतु फागुन नियरानी हो,

कोई पिया से मिलावे

सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है,

सोई पिया की मनमानी,

खेलत फाग अगं नहिं मोड़े,

सतगुरु से लिपटानी

इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची,

इक इक कुल अरुझानी

इक इक नाम बिना बहकानी,

हो रही ऐंचातानी ।।

पिय को रूप कहाँ लगि बरनौं,

रूपहि माहिं समानी

जौ रँगे रँगे सकल छवि छाके,

तनमन सबहि भुलानी।

यों मत जाने यहि रे फाग है,

यह कछु अकथकहानी

कहैं कबीर सुनो भाई साधो,

यह गति विरलै जानी ।।

अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED