भाग-१ जातक कथाएं MB (Official) द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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भाग-१ जातक कथाएं


जातक

कथाएँ

सं. कौशल्या


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अनुक्रमणिका

१.सोने के पंख

२.उचित न्याय

३.माँ की ममता

४.मृत्यु चक्र

५.चूहे का व्यापारी

६.जैसी करनी वैसी भरनी

७.मूर्ख पंडित

८.प्रेम की महिमा

९.जीवन के आदर्श

१०.धोबी और गधा

११.कर्म का फल

१२.दयालु हाथी

१३.ईर्ष्या का फल

१४.आँखों देखा सच

१५.साधु का पाखंड

१६.दुष्टता का फल

१७.स्वामीभक्त कौवा

१८.शिष्य की बुद्धिमानी

१९.गीदड़ की मौत

२०.हाथी और बटेर

२१.करनी का फल

२२.सच्ची मित्रता

सोने के पंख

किसी गाँव में एक मंदिर का पुजारी रहता था। वह बहुत हीसज्जन और दयालु प्रवृि्रूद्गा का इंसान था। वह गरीबों का पूजा-पाठ,श्राद्ध आदि करवाकर उनसे दक्षिणा में कुछ भी नहीं लेता था। वहमंदिर के चढ़ावे में से भी धन गरीबों में बाँट देता था। उसकी दयालुताके कारण मंदिर में चढ़ावा भी बहुत आता था। गाँव वाले पुजारी काबहुत सम्मान करते थे।

चढ़ावे के धन से पुजारी अपने परिवार का खर्चा चलाता था।

पुजारी की पत्नी और उसके दोनों बच्चे बहुत खुश रहते थे। पुजारीके पास अधिक धन न होते हुए भी वे आपस में बहुत प्रेम से रहतेथे और आपस में एक-दूसरे का सुख-दुःख बाँटते थे। पुजारी कापरिवार हर प्रकार से सुखी और संतुष्ट था।

पुजारी के परिवार में बहुत आनंद-मंगल था। एक दिन पुजारीके परिवार को न जाने किसकी नजर लग गई। पुजारी को दुर्भाग्यसे दिल का दौरा पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई। पुजारी के पास कोईपुरखों की जमा की गई धन-संपि्रूद्गा तो नहीं थी, इसलिए घर की हालतबहुत दयनीय हो गई। गाँव वालों ने कुछ दिन तो पुजारी के परिवारकी मदद की, किंतु धीरे-धीरे उन्होंने भी सहायता करना बंद कर दिया।

पुजारी के स्वभाव के कारण ही पहले तो मंदिर में चढ़ावा भीबहुत आता था, किंतु अब तो केवल दो-चार सिक्के ही चढ़ावे में आतेथे। उन सिक्कों से पुजारी के घर का खर्चा चलना असंभव हो गया।

धीरे-धीरे घर में गरीबी छा गई और पुजारी की पत्नी और बच्चों काजीवन बहुत ही कष्टमय हो गया।

पुजारी ने मानसरोवर की झील में सुनहरे हंस के रूप में जन्मलिया। दयालु मनुष्यों को ही सुनहरे हंस के रूप में जन्म मिलता है।

सुनहरे हंस सरोवर में तैरते, कमल के फूलों का रस पीते और मोतीचुन-चुनकर खाते थे। हंस का जन्म लेने के बाद भी पुजारी को पिछलेजन्म की सारी बातें याद थीं। वह हमेशा पिछल जन्म का पत्नी औरबच्चों को याद करके उदास हो जाता था। वह हमेशा यही सोचता थाकि न जाने मेरी पत्नी और बच्चे अब किस हाल में होंगे।

हंसों के राजा ने एक दिन उस हंस से उसके दुःख का कारणपूछा तो उसने सब कुछ सच-सच बता दिया। हंसों के राजा ने कहा,“मित्र! पूर्व-जन्म की बातें तो कुछ विक्षलण प्राणियों को ही याद रहतीहैं। यदि तुम्हें अपने पिछले जन्म की पत्नी और बच्चों की चिंता सतारही है तो तुम जाकर उन्हें देख आओ। मैं तुम्हें जाने की अनुमति देताहूं।”

राजा की बात मानकर वह हंस वहाँ से उड़ गया। कई-कईघंटे उड़ने के बाद वह अपने गाँव पहुँच गया। मंदिर के पास बनेअपने घर की छत पर हंस उतर गया। अपनी पत्नी और बच्चों कीदयनीय दशा देखकर उसकी छाती फट गई। फटे-चीथड़े कपड़े पहनेहुए बच्चे धूल में लोट रहे थे। भूखे बच्चे अपनी माँ से रो-रोकर खानामाँग रहे थे। उसकी पत्नी की साड़ी फटी हुई थी और बाल बिखरेथे। वह अपने भाग्य को कोसती हुई बच्चों को डाँट रही थी, “अरे

भुखमरो! तुम्हारा बाप तुम्हारे लिए कोई जायदाद छोड़कर नहीं गया।

मैं तुम्हारे लिए खाना कहाँ से लाऊँ? किस से जाकर भीख माँगू?”

बच्चों का रोना देखकर हंस से रहा न गया। वह छत से नीचेआँगन में उतरकर बोला, “तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। अबमैं आ गया हूँ।” हंस को देखकर बच्चे और उसकी पत्नी हैरान होगए। उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था।

हंस ने कहा, “मुझे आश्चर्यचकित होकर मत देखो। मैं पिछलेजन्म में जनार्दन पुजारी था प्रिये, तुम्हारा पति और इन बच्चों का पिता।

अब मैं स्वर्ण हंस के रूप में जन्म ले चुका हूँ। तुम्हें इस हालत मेंदेखकर मुझे बहुत दुःख हो रहा है। अब तुम्हारे दुःख के दिन समाह्रश्वतहो चुके हैं। तीन-चार दिन बाद मैं यहाँ आकर तुम्हें एक सोने कापंख दे जाऊँगा। उस पंख को बेचकर तुम अपनी जरूरत पूरी करना।

इस प्रकार एक दिन तुम्हारा भाग्य बदल जाएगा।”

हंस ने एक सोने का पंख गिरा दिया और अपनी पूर्व-जन्मकी पत्नी और बच्चों से विदा लेकर वह वहाँ से चला गया। उस पंखको बेचकर उन्होंने घर का जरूरी सामान खरीदा और उधार चुकादिया। साथ ही उन्होंने खाने-पीने का सामान खरीदा और सबके लिएनए-नए कपड़े बनवा लिए। हंस जब भी आता, एक सोने का पंखदे जाता। इस प्रकार विधवा और उसके बच्चे सुखपूर्वक रहने लगे।

कुछ ही दिन में विधवा के घर की काया-पलट हो गई, विधवा नेशानदार और समस्त सुख-सुविधाओं से युक्त मकान बनवाया, ढेर सारेगहने और कीमती वस्त्र खरीदे। अब विधवा ठाट-बाट के साथ रहनेलगी। उसने घर का काम करने के लिए नौकर रख लिए। उसने घरका काम-काज करना छोड़ दिया। बच्चे राजकुमारों की तरह से रहनेलगे।

धीरे-दीरे हंस का विधवा के पास आना कम हो गया। अबकेवल हंस को महीने में एक-दो बार ही आने की आज्ञा थी। उससुनहरे हंस ने एक दिन विधवा से कहा, “प्रिये! अब मैं शीघ्र नहींआ सकता। तुम सोच-समझकर धन खर्च किया करो। हो सकता हैकि मेरा यहाँ आना बिलकुल ही बंद हो जाए। हमारे राजा अब मुझेजल्दी-जल्दी आने की अनुमति नहीं देंगे।”

एक महीने बाद हंस ने आकर कहा, “प्रिये! मैं जब अगलीबार आऊँगा तो वही हमारा अंतिम मिलन होगा। फिर मुझे हंसों केबीच में रहना होगा।”

हंस की बात सुनकर विधवा दुखी हो गई। वह सोचने लगीकि यदि हंस यहाँ नहीं आया तो हमें कभी भी सोने के पंख नहींमिलेंगे। हम फिर से गरीब हो जाएँगे और ये ठाट-बाट की जिंदगीकभी नहीं जी पाएँगे। नौकरानी को भी तनख्वाह अधिक मिलती थी।

उसे भी ऐशो-आराम की आदत पड़ चुकी थी। वह सोचने लगी कियदि मालकिन को सोने के पंख नहीं मिले तो उसकी भी नौकरी चलीजाएगी और उसे भी काम की तलाश में इधर-उधर भटकना पड़ेगा।

नौकरानी ने कहा, “मालकिन! यदि हंस फिर यहाँ नहीं आया तो आपगरीब हो जाएँगी! हंस पिछले जन्म में ही तो आपके पति थे, किंतुइस जन्म में वह पक्षी है। अगली बार जब हंस आपसे मिलने आएतो आप उसके सारे पंख उखाड़ लेना। उन पंखों को बेचकर बहुतसारा धन आएगा। फिर आपको अपनी और बच्चों की चिंता करने कीकोई आवश्यकता नहीं पडे़गी। अभी तो आप सुंदर और जवान हो।

आप दूसरा विवाह भी कर सकती हो।”

नौकरानी की बात सुनकर विधवा सोच में पड़ गई। उसेलालच ने अँधा कर दिया। विधवा ने मन-ही-मन हंस के सारे पंखउखाड़ने का निश्चय कर लिया।

दूसरी बार जब हंस विधवा से मिलने आया तो वह रोने कानाटक करते हुए बोली, “स्वामी! आप मेरे पास आओ। क्या फिर आपमुझसे कभी नहीं मिलोगे? मैं आप से गले लगकर मिलना चाहती हूँ।”

हंस विधवा की बात मानकर उसके समीप चला गया। विधवाने हंस को कसकर पकड़ लिया और उसके पंख उखाड़ने लगी। वहनिर्दयतापूर्वक हंस के पंख उखाड़ रही थी। हंस के चिल्लाने का उसकेऊपर कोई असर नहीं हो रहा था।

हंस जोर-जोर से चिल्लाकर कह रहा था, “अरी दुष्ट! मुझेपीड़ा हो रही है। मेरे पंख मत उखाड़ वरना मैं मर जाऊँगा।”

लालची विधवा ने हंस की एक न सुनी और उसके सारे पंखउखाड़ लिए। हंस तड़प रहा था और धीरे-धीरे उसकी साँस उखड़नेलगी। मरते समय हंस ने कहा, “लालची औरत! तूने मुझे मार डाला।

तू यह नहीं जानती कि जब मैं अपने पंख स्वयं दान करता हूं तभीवे सोने के रहते हैं। जबरदस्ती उखाड़ने से तो वे पंख भी साधारणपंखों में बदल जाते हैं। मुझे मारने से तो तेरा ही नुकसान हुआ। तेरीकरनी का फल तुझे जरूर मिलेगा।”

इतना कहकर हंस ने अपने प्राण त्याग दिए। हंस के मरने केबाद वे पंख भी सफेद पंखों में बदल गए। लालची विधवा को कुछनहीं मिला। अधिक धन पाने के लालच में अपना सब कुछ गँवा बैठी।

विधवा हंस के सफेद पंखों को देखकर बहुत देर तक रोती रही।

अपनी गलती पर वह बार-बार पछता रही थी।

उचित न्याय

एक बार चितपुर व उसके खाड़ी क्षेत्रों में सूखा पड़ गया।

सब जगह पानी का अभाव हो गया। पानी की कमी के कारण बेचारेपशु-पक्षी भी बेमौत मरने लगे। मनुष्य और पशु-पक्षियों के जीवन औरमृत्यु का अंतर समाह्रश्वत होता जा रहा था।

गाँव के सभी लोग इकट्ठे होकर मुखिया शेरसिंह के पास जाकरबोले, “मुखिया जी! यदि हम इस गाँव में दो-चार दिन और रुक गएतो हमारी मृत्यु निश्चित है। पशु-पक्षी भी पानी के अभाव में तड़प-तड़पकर मर रहे हैं। यदि हमने इस विषय पर विचार नहीं किया तोपरिणाम भयंकर हो सकता है।”

मुखिया ने कहा, “भाइयों! मुझे सब मालूम है, उसका मुझे भीदुःख है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम कहाँ जाएँ। घर छोड़नाबहुत आसान होता है लेकिन घर बसाना बहुत कठिन है।”

मुखिया जी की बात सुनकर सब लोग तो शांत हो गए लेकिननरेश क्रोधित होकर बोला, “कुएँ, तालाब सब सूख गए हैं। पशु-पक्षी

बेमौत मर रहे हैं। यदि हम इस गाँव में दो दिन और रुक गए तोशायद कोई भी जीवित नहीं बचेगा। अब सोचने का वक्त नहीं है।

हमें कुछ करना ही होगा।”

नरेश को क्रोधित देखकर मुखिया जी उसे समझाने लगे,“क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। मनुष्य को जोश के साथ होशसे भी काम लेना चाहिए। हमारा गाँव चारों ओर से रेत से धिरा है।”

नरेश एक जोशीला नौजवान था। वह मुखिया की कोई भी बातसुनने को तैयार नहीं था। उसने कहा, “मुखिया जी! अब आप मेंयुवकों वाली शक्ति नहीं रही। आप बूढ़े हो चुके हैं। आप हमें बच्चोंकी भाँति बहलाकर झूठी तसल्ली देने की कोशिश न करें। क्या आपहमें बेमौत मारना चाहते हैं?”

नरेश की बातें सुनकर मुखिया जी दुखी होकर बोले, “बेटानरेश! मैं तुम्हारा शत्रु नहीं हूँ। यह समय बहस करने का नहीं है।

आखिर तुम करना क्या चाहते हो?”

नरेश ने उ्रूद्गार दिया, “मैं अपने कुछ साथियों के साथ कलसुबह यह गाँव छोड़कर दूसरे स्थान पर चला जाऊँगा। जो लोग हमारेसाथ चलना चाहें, चल सकते हैं, हमने अपना रास्ता चुन लिया है।आप हमें विवश मत कीजिए और न ही हम आपको विवश करेंगे।

जो लोग हमारे साथ चलना नहीं चाहते, वे आपके साथ यहीं रह सकतेहैं।”

मुखिया और नरेश की बहस के कारण पूरा गाँव दो दलों मेंबँट गया। गरम दल के लोक उसी समय गाँव छोड़ने के पक्ष में थेऔर नरम दल के लोग अभी कुछ दिन प्रतीक्षा करना चाहते थे।

गरम दल के लोगों को गाँव वालों ने रोते हुए विदाय किया।

कई पीढ़ियों से एक साथ रहने वाले लोग एक ही पल में अलग होगए और पीछे अपनी ह्रश्वयार-भरी यादें छोड़ गए। उनके चले जाने केबाद मुखिया ने गाँव वालों से कहा, “भाइयों! यहाँ पर पानी मिलनेके लक्षण दिखाई नहीं देते। हमारे आधे साथी तो इस गाँव को छोड़करजा चुके हैं। अब हम भी यहाँ नहीं रहेंगे। अपने हृदय पर पत्थर रखकरहमने यह फैसला लिया है कि कल सुबह हम भी यह गाँव छोड़करचले जाएँगे। हमारे गाँव से थोड़ी दूर पर एक तालाब में थोड़ा-सा पानीहै। उस तालाब से पानी के मटके भरकर अपनी-अपनी बैलगाड़ी पररख लेंगे। फिर हम भी इस गाँव को छोड़कर चले जाएँगे। इतने बड़ेदेश में हमें रहने के लिए ठिकाना तो मिल ही जाएगा।”

थोड़ी दूर जाने पर मुखिया के काफिले ने एक नरभक्षीकाफिले को देखा जो उनकी ओर ही आ रहा था। देखने में वे जंगलीलड़ाकू के समान लग रहे थे। उनके ऊपर वाले दाँत लंबे और बाहरनिकले हुए थे।

मुखिया ने कहा, “मित्रों! सावधान रहो, हमें अपनी रक्षा स्वयंही करनी है। ये सब रेगिस्तान और जंगलों के खूनी लडा़के हैं। येसब हमसे पानी छीनकर अपनी ह्रश्वयास बुझाना चाहते हैं। जब हम ह्रश्वयाससे तड़प-तड़पकर मर जाएँगे तो ये लोग हमें आग में भूनकर खाजाएँगे। तुम इनकी ओर देखे बिना चुपचाप चलते रहो। जिसने भीइनकी ओर देखा, ये लोग उसी को मार डालेंगे।”

मुखिया की बात सुनकर सभी गाँव वाले डर गए। नरभक्षीउनके सामने खड़े थे, इसलिए चुपचाप आगे चलते रहे। इस समयनरभक्षियों से जान बचाना ही उनका लक्ष्य था। कुछ गाँव वाले कहरहे थे कि, “हम इन नरभक्षियों से नहीं डरेंगे। यदि हम सब मिलकरइन पर टूट पडेंगे तो ये हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

मुखिया जी लोगों को शांत करते हुए बोले, “तुम मेरी बातको समझो। हमारी छोटी-सी गलती भी हमें मौत के मुँह में ले जासकती है।”

काफिला धीरे-धीरे चल रहा था। कुछ लोग सोच रहे थे कियदि वे इसी प्रकार धीरे-धीरे चलेंगे तो उनका पानी समाह्रश्वत हो जाएगाऔर वे रास्ते में ही ह्रश्वयासे मर जाएँगे। वे जल्दी से उस रेगिस्तान कोपार करना चाहते थे।

एक ओर नरभक्षियों का ड़र था तो दूसरी ओर पानी समाह्रश्वतहोने का डर था। गाँव वालों को दोनों ओर अपनी मौत दिखाई देरही थी। सबने मुखिया की बात मानने में ही भलाई समझी। सबनेनिश्चय किया कि यदि मरना है तो एक साथ ही मरेंगे।पानी कब, कहाँ और कैसे मिलेगा, यह कोई नहीं जानता था।

सिर्फ पानी मिलने की आशा में ही सब चले जा रहे थे। नरभक्षी भीगाँव वालों के काफिले के साथ चल रहे थे। नरभक्षियों के सरदारने कहा, “मुखिया जी! कहाँ जा रहे हो?”

मुखिया ने देखा कि नरभक्षियों के हाथों में भाले, बरछे औरतलवारें थीं। वे अपने शिकार पर टूट पड़ने के लिए तैयार थे। उन्हेंदेखकर मुखिया ने कहा, “देखो नरभक्षियों के सरदार! पानी के अभावमें ही हमने अपना घर-बार छोड़ा है और अब पानी की खोज में इधर-उधर भटक रहे हैं। इस रेगिस्तान में हमें न जाने कब पानी मिलेगा।”

नरभक्षी सरदार ने कहा, “मुखिया जी! आपने जो बैलगाड़ियोंपर पानी से भरे मटके लाद रखे हैं, उसके बोझ से तो ये बेचारे बैलभी मरे जा रहे हैं। यदि आप पानी के मटके बैल से उतार दोगे तोये बैल तेजी से भागने लगेंगे और तुम सब शीघ्र ही पानी वाले स्थानपर पहुँच जाओगे।”

मुखिया ने काह, “नहीं नरभक्षी सरदार! हम पानी के मटकेबैलगाड़ी से नहीं उतार सकते, वरना हम पानी वाले स्थान पर पहुँचनेसे पहले ही मर जाएँगे। हमारे अंदर भी सोचने-समझने की शक्ति है,और हम जानते हैं कि हमें क्या करना है।”

नरभक्षी सरदार ने मुखिया से कहा, “तुमने बेकार में ही इतनाबोझ लाद रखा है। आगे बहुत जोर की वर्षा हो रही है। देखो, हमारेसारे कपड़े भी भीग रहे हैं। लाओ ये पानी से भरे मटके हमें दे दो।

बोझ कम होत ेही तुम शीघ्र ही पानी वाले स्थान पर पहुँच जाओगे।”

मुखिया ने जब नरभक्षी सरदार को पानी से भरे मटके नहींदिए तो वह अपने काफिले के साथ आगे चला गया। गाँव के दूसरेलोग तो नरभक्षी सरदार की बातों में आ गए और मुखिया से कहनेलगे कि, “वह ठीक ही तो कह रहा था। यदि हमने बैलगाड़ियों सेपानी के मटके उतार दिए तो हम शीघ्र ही पानी वाले स्थान पर पहुँचजाएँगे, वरना हम न जाने कब तक इसी रेगिस्तान में भटकते रहेंगे।”

मुखिया बहुत बुद्धिमान था। वह बोला, “देखो, ये नरभक्षी बहुतचालाक और दुष्ट होते हैं। ये हमें अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों मेंफँसाकर हमारा पानी छीनने की कोशिश कर रहे थे। तब तक हमारेपास पानी है, तब तक हमें किसी से ड़रने की आवश्यकता नहीं है।

ये लोग हमारा पानी छीन लेंगे तो हम ह्रश्वयासे ही मर जाएँगे। इन लोगोंकी बात पर ध्यान दिए बिना चुपचाप आगे चलने में ही हम सबकीभलाई है।”

मुखिया की बातें सुनकर गाँव वालों को कुछ निराशा अवश्यहुई लेकिन वे चुपचाप आगे चलते रहे। मुखिया के आगे उनकी एकन चली। रेगिस्तान में उनके सिर पर मौत मँडरा रही थी। मौत केडर से वे अंदर-ही-अंदर घुले जा रहे थे। उनके हृदय में विचारों केअनेक तूफान उमड़ रहे थे। मुखिया को जवाब देने की शक्ति किसीमें नहीं थी। मुखिया की गाड़ी सबसे आगे थी। वह हर खतरे कासामना करने के लिए तैयार था। मुखिया जोश में होश खोने वालाइनसान नहीं था। उसके पास जिंदगी का बहुत बड़ा अनुभव था।

मुखिया के काफिले ने जैसे ही रेगिस्तान को पार किया तोउन्होंने एक भयंकर दृश्य देखा। उस दृश्य को देखकर उनका दिलदहल गया और वे जोर-जोर से रोने लगे। वहाँ लोगों की हड्डियों केपिंजर पड़े थे। नर-नारी, बच्चों का इतना बड़ा संहार देखकर वे लोगअपने को रोक न सके और बहुत देर तक छाती पीट-पीटकर रोतेरहे।

मुखिया ने अपना सिर पीटते हुए कहा, “दुर्भाग्य से हमारे गाँवके सभी लोगों को इन नरभक्षियों ने मारकर खा लिया। हाय राम...हाय राम... यह क्या हो गया?”

रोने-पीटने से अब कुछ नहीं हो सकता था। इन लोगों कोनरभक्षियों ने अपने जाल में फँसा लिया और मारकर खा गए। यदिउन सबने मुखिया की बात मानी होती तो वे सब बेमौत नहीं मारे जाते।

माँ की ममता

बहुत पहले की बात है, नूरपुर गाँव में राधा और शांति नामकी दो औरतें रहती थीं। उन दोनों में बहुत प्रेम था। उन दोनों केपति काम पर चले जाते तो वे एक साथ बैठ जाती थीं। पूरा गाँवउन दोनों की सुबह-शाम इकट्ठी बैठे हुए देखता था।

पड़ोसिन होते हुए भी उन दोनों में सगी बहिनों जैसा ह्रश्वयार था।

वे दोपहर में एक साथ खाना खातीं और इधर-उधर की बातें करतीथीं। उन दोनों की अपनी अलग ही छोटी-सी दुनिया थी। सब उनकेह्रश्वयार को देखकर कहते थे कि ह्रश्वयार हो तो राधा और शांति के जैसा।

उन दोनों का ह्रश्वयार पूरे गाँव में मिसाल बनकर रह गया था।

कुछ समय बाद एक सहेली के घर बच्चा हुआ तो दूसरी केमन में ईर्ष्या की भावना पैदा हो गई। बाँझ स्त्री को इस समाज मेंमनहूस कहा जाता है। कोई भी औरत अपने को बाँझ कहलवाना नहींचाहती। बाँझ स्त्री को सभी नफरत की निगाह से देखते हैं।

प्रत्येक स्त्री यही चाहती है कि कोई बच्चा उसे माँ कहकरपुकारे और वह अपने बच्चे को सीने से लगाकर लोरी सुनाए। गाँववाले बच्चे को कभी शांति की गोद में देखते तो कभी राधा की गोदमें। किसी को यह पता ही नहीं चला कि आखिर बच्चा किसका है।

समय बदलते देर नहीं लगी। दोनों सहेलियों के बीच में नफरतकी दीवार खड़ी हो गई। दोनों के मन में ईर्ष्या की ऐसी आग लगी,जिसे बुझाना कठिन हो गया। दोनों की मित्रता ने झगड़े का रूप लेलिया। धीरे-धीरे यह झगड़ा मारपीट में बदल गया। सबने दोनों केप्रेम को नफरत के रूप में बदलते हुए देखा। दोनों ही बच्चे परअपना-अपना अधिकार दिखा रही थीं।

दोनों ही न्याय के लिए गाँव के प्रधान के पास गइर्ं औरचिल्ला-चिल्लाकर कहने लगीं कि यह बच्चा मेरा है। दोनों एक-दूसरेको बाँझ, पापिन, निर्लज्ज, डायन और अपशब्दों से संबोधित कर रहीथीं। दोनों ही अपने को बच्चे की असली माँ कह रही थीं। बच्चे परअपना अधिकार दिखाने के लिए दोनों एक-दूसरे को झूठा कह रहीथीं।

गाँव का प्रधान और पंचायत के लोग उलझन में फँस गए।

उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि दोनों औरतों में से कौनसच बोल रही है? वे किसके पक्ष में फैसला सुनाएँ, ये कहना बहुतमुश्किल था। पंचायत के लोग यह अच्छी तरह से जानते थे कि उनमेंसे एक औरत झूठ बोल रही है।

आपस में विचार-विमर्श करने के बाद भी पंचायत के लोगफैसला न कर सके। अंत में गाँव के प्रधान ने कहा, “यह फैसलाकरना हमारे लिए असंभव है। भगवान ने किसी बच्चे के माथे परउसके माँ-बाप का नाम नहीं लिखा। यह बच्चा किसका है, यह हमनहीं जानते। तुम दोनों ही सच्चा न्याय कर सकती हो। कल सुबहराजदरबार में इस बात का फैसला किया जाएगा कि बच्चे की असलीमाँ कौन है?”

फिर दोनों इस बात को लेकर लड़ने लगीं कि कल सुबह तकबच्चा किसके पास रहेगा, पहली औरत बोली, “बच्चा मेरे पास रहेगा।

इस झूठी बेईमान औरत के पास मैं अपने बच्चे को कभी नहीं रहनेदूँगी।” तभी दूसरी औरत बोली, “यह तो बाँझ है। मुझे इस परविश्वास नहीं है। मैं अपने बच्चे को इसके पास नहीं रहने दूँगी।”

दोनों को लड़ते देखकर प्रधान ने कहा कि यह बच्चा रात कोमेरी पत्नी के पास रहेगा। कल सुबह राजा साहब किसके पक्ष में भीफैसला देंगे, बच्चा उसी को सौंप दिया जाएगा। प्रधान की बात मानकरदोनों औरते अपने-अपने घर चली गई।

दूसरे दिन सुबह राधा और शांति के साथ पंचायत के लोगऔर पूरा गाँव दरबार में उपस्थित हो गया। सभी जानना चाहते थे किराजा साहब किसके पक्ष में फैसला देंगे। सभी राजा का न्याय जाननेके लिए उत्सुक थे।

मंत्री महोदय ने बच्चे को गोद में लेकर कहा, “महाराज! इसबच्चे पर ये दो औरतों अपना अधिकार जता रही हैं। दोनों ही अपनेआप को इस बच्चे की माँ कह रही हैं। यह बच्चा तो बोल नहींसकता। अब आप ही कुछ फैसला कीजिए।”

मंत्री की बात सुनकर राजा सोच में पड़ गए। वास्तव में मामलाबहुत ही गंभीर था। राजा ने कई बार उन दोनों औरतों और बच्चे कीओर देखा लेकिन कोई फैसला न कर सके। बच्चा दोनों ही औरतोंको देखकर बार-बार हँस रहा था।

राजा बहुत चिंतित दिखाई दे रहे थे। आज उनके न्याय कीअग्नि-परीक्षा होने वाली थी। राजा की चुह्रश्वपी देखकर गाँव वाले भीपरेशान थे। तभी अचानक राजा की आवाज सुनाई दी, “मंत्री जी!

इस फैसले को करने का अधिकार हम संत औषध कुमार को देते हैं।

वे किसी के साथ अन्याय नहीं कर सकते। उनसे अच्छा न्याय कोईनहीं कर सकता।”

इतना कहकर राजा मंत्री के साथ संत औषध कुमार के आश्रमकी ओर चल दिए। उनके पीछे दोनों औरतें और पंचायत के लोगभी चलने लगे। आश्रम पहुँचकर राजा ने कहा, “महात्मा जी! इस बच्चेको हम आपके हवाले करते हैं। अब आप ही इसे इसकी असली माँके सुपुर्द कर दीजिए। आप जो भी फैसला करेंगे, वह इन्हें स्वीकारकरना पड़ेगा।”

महात्मा जी ने उस बच्चे को ह्रश्वयार से गोद में लिया और उनऔरतों की आँखों में झाँकते हुए उनके दिल की गहराईयों में उतरनेकी कोशिश करने लगे। महात्मा जी ने जैसे ही उनसे पूछा कि यहबच्चा किसका है तो दोनों फिर से झगड़ने लगीं। दोनों इस प्रकारलड़ने लगीं कि जैसे वे एक-दूसरे को मार डालेंगी।

इसेक बाद महात्मा जी ने एक औरत को अपने पास बुलायाऔर कहने लगे,

“बेटी, तुम्हारा क्या नाम है? क्या यह तुम्हारा पुत्र है?” यहऔरत हाथ जोड़कर बोली, “स्वामी जी! मेरा नाम राधा है और यहबच्चा मेरा पुत्र है।” इतना कहकर राधा ने अपने बच्चे के सिर परहाथ फेरा और सुबक-सुबककर रोने लगी।

इसके बाद महात्मा जी ने दूसरी औरत को अपने पास बुलाकरकहा, “बेटी! तुम्हारा क्या नाम है, क्या यह तुम्हारा पुत्र है?”

दूसरी औरत बोली, “महात्मा जी! मैं अभागिन इस बच्चे कीमाँ हूँ। इस नीच औरत ने इस बच्चे को मेरे घर से चुरा लिया औरइसकी माँ बन गई।” शांति ने भी बड़े ह्रश्वयार से बच्चे के सिर परहाथ फेरा।

इसके बाद दोनों औरतें दीवार के सहारे जाकर खड़ी हो गइर्ं।

महात्मा जी ने अपनी आँखें बंद कर लीं। सभी महात्मा जी के फैसलेकी प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी महात्मा जी बोले, “मैं यहाँ तक चक्रबना रहा हूँ। इसके एक सिरे पर राधा खड़ी होगी और दूसरे सिरेपर शांति खड़ी हो जाएगी। बच्चा चक्र के बीच में रहेगा। जो पहलेबच्चे को उठाकर गोद में लेगी, बच्चा उसी को दे दिया जाएगा।

दोनों ही औरतों ने महात्मा जी की बात मान ली। महात्मा जीने बच्चे को चक्र में एक-दो-तीन कहा। महात्मा जी के तीन बोलनेके साथ ही राधा और शांति बच्चे पर झपट पड़ी। एक ने बच्चे कासिर पकड़ा तो दूसरी ने पैर पकड़ लिए। दोनों ही बच्चे को अपनी-अपनी ओर खींचने लगीं।

बच्चे का शरीर इस खींचा-तानी को सहन न कर सका औरवह जोर-जोर से रोने लगा। बच्चे को रोते-बिलखते देखकर भी उन्हेंउस पर दया नहीं आ रही थी। वे बच्चे को बराबर अपनी ओर खींचरही थीं और बच्चा चीख रहा था।

तब शांति का हृदय तड़प उठा। वह बच्चे को तड़पता हुआदेख न सकी। उसने बच्चे को छोड़ दिया और जमीन पर बैठकर रोनेलगी। राधा ने बच्चे को जल्दी से उठाकर अपने सीने से लगा लियाऔर कहने लगी, “महात्मा जी! झूठ हमेशा हारता है और सच्चाई कीजीत होती है। अब तो आपको यकीन हो गया कि यह बच्चा मेरा हीहै। मैं इस बच्चे की असली माँ हूँ।”

महात्मा जी ने राधा की बात ध्यान से सुनकर कहा, “देखोराधा! यह बच्चा तुम्हारा नहीं है। बच्चे को शांति के हवाले कर दो।

वही बच्चे की असली माँ है। भले ही तुमने बच्चे को चक्र के अंदरसे पहले उठाया हो, लेकिन यह बच्चा तुम्हारा नहीं है। बच्चे को रोतादेखकर भी तुम्हारे अंदर तनिक भी ममता नहीं जागी। शांति से बच्चेका तड़पना देखा न गया और उसने बच्चे को छोड़ दिया।”

महात्मा जी का न्याय सुनकर सभी हैरान हो गए। बच्चा असलीमाँ को सोंप दिया गया। सभी महात्मा जी के न्याय की प्रशंसा करतेहुए अपने घर चले गए।

मृत्यु चक्र

एक बहुत बड़े यशस्वी और तपोबल वाले महात्मा किसी जंगलमें आश्रम बनाकर रहते थे। उनके आश्रम में बहुत सारे शिष्य भी उनसेशिक्षा ग्रहण करते थे। एक दिन वे अपने शिष्यों के साथ भ्रमण करनेके लिए निकले। कई स्थानों का भ्रमण करने के बाद उन्हें रास्ते मेंही शाम हो गई।

थोड़ी दूर पर एक गाँव था। गाँव तक पहुँचने का रास्ता बहुतही बीहड़ और हिंसक जीव-जंतुओं से भरा था। तबी महात्मा जी नेदेखा कि गाँव के बाहर एक लोहार की भट्टी थी। भट्टी के पास हीउसका छोटा-सा घर था। विवश होकर महात्मा जी को उस लोहार केघर शरण लेनी पड़ी। लोहार ने महात्मा जी और उनके चेलों का बहुतआदर-सत्कार किया और उन्हें प्रेमपूर्वक भोजन करवाया और भोजनकरवाने के बाद उन सबके सोने का प्रबंध कर दिया। लोहार केआतिथ्य-सत्कार को देखकर महर्षि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने लोहारके व्यवहार की बहुत प्रशंसा की।

प्रातःकाल महात्मा जी वहाँ से जाने लगे तो उन्होंने कहा,“भाई! हम तुम्हारे आतिथ्य-सत्कार से बहुत प्रसन्न हैं। तुम अपनीइच्छा से कोई भी तीन वरदान माँग लो।”

प्राचीन काल में महात्माओं द्वारा दिए गए वरदान प्राय सत्यहोते थे। लोहार ने कहा, “हे महात्मा! मुझे ऐसा वर दीजिए कि किसीचीज की कमी न रहे।”

महात्मा जी ने तथास्तु कहा और दूसरा वरदान माँगने के लिएकहा। लोहार ने दूसरे वरदान में सौ वर्ष की आयु माँगी। महात्मा जीने तथास्तु कह दिया।

तीसरा वरदान माँगते समय लोहार हड़बड़ा गया और वह जल्दीमें बोला, “मेरी भट्टी में जो यह लोहे की कुरसी है, उस पर जो भीबैठे, वह मेरी इच्छा के बिना उठ न सके।” महात्मा जी ने तथास्तुकहा और वहाँ से चले गए।

महात्मा जी के जाने के बाद लोहार का काम-धंधा बहुत अच्छाचलने लगा। उसके पास किसी चीज की कमी न रही। लोहे के काममें उसे सोने के समान ही बरकत होने लगी। अब तो लोहार बहुतठाठ-बाट से रहने लगा। सौ वर्ष की आयु होने पर भी वह बूढ़ा नहींहुआ। स्वस्थ रहते हुए उसने अपनी आयु के सौ वर्ष पूरे किए।

जो मनुष्य इस पृथ्वी पर जन्म लेता है, उसे एक दिन यहसंसार छोड़कर जाना ही पड़ता है। लोहार की आयु जैसे ही पूरी हुईतो उसे लेने के लिए यमराज आ गए। यमराज को देखकर लोहारघबरा गया। उसने यमराज से कहा, “महाराज! मुझे सिर्फ थोड़ा-सासमय दे दीजिए। मैं अपने जीवन के अंतिम कार्य निबटा लूँ। तबतक आप उस लोहे की कुरसी पर बैठकर विश्राम कीजिए।”

लोहार के कहने पर यमराज उस लोहे की कुरसी पर बैठ गए।

अब लोहार जोर-जोर से हँसने लगा। लोहार जानता था कि यमराजउसकी इच्छा के बिना कुरसी से नहीं उठ सकते। अपनी चालाकी परलोहार बहुत खुश हो रहा था।

थोड़ी ही देर में जब यमराज को भूख लगी तो उसने एकमुरगी की गरदन काट दी। लेकिन लोहार यह देखकर हैरान था किमुरगी की गरदन तुरंत जुड़ गई और वह भाग गई। अब बेचारे लोहारको दाल-रोटी खाकर ही गुजारा करना पड़ता था।

बिना यमराज के किसी की भी मृत्यु नहीं हो सकती थी। कोईभी जानवर नहीं मरा तो पृथ्वी पर जीवों की संख्या बहुत बढ़ गई।

कीट-पतंगे, मच्छर-मक्खियों की हवा में संख्या इतनी बढ़ गई किमनुष्य का साँस लेना मुश्किल हो गया। आकाश चील, गिद्धों औरटिड़िडयों से भर गया। मेढकों के कारण सड़क पर चलना भी कठिनहो गया। चूहे इतने बढ़ गये कि सारी फसल खा जाते थे। पक्षी पेड़ोंके सारे फल खा जाते थे। पानी में मछलियों की संख्या इतनी बढ़गई कि पीने के लिए पानी मिलना भी कठिन हो गया था। साँपों कीसंख्या भी अधिक हो गई। चारों ओर बदबू ही बदबू हो गई।

पृथ्वी पर अनर्थ होता देखकर लोहार घबरा गया। उसने अपनीगलती के लिए यमराज से क्षमा माँगी और उसे करसी से आजाद करदिया। वास्तव में मृत्यु एक आवश्यकता ही है। यदि मृत्यु न हो तोइस धरती पर मनुष्य का जीवन नरक बन जाएगा।

चूहे का व्यापारी

किसी गाँव में राजू नाम का एक गरीब लड़का रहता था।

उसके माता-पिता उसे बहुत ह्रश्वयार करते थे। वह अपने बूढ़े माता-पिताकी इकलौती संतान था। उसके बूढ़े माता-पिता उसे तिल-तिल बड़ाहोते देखकर बहुत खुश होते और सोचते कि राजू न जाने कब बड़ाहोगा और काम करने लगेगा। राजू बूढ़े माता-पिता के बुढापे काएकमात्र सहारा था।

एक दिन राजू की माँ ने अपने पति से कहा, “अब चिंताकरने की आवश्यकता नहीं है। राजू बड़ा हो चुका है, वह हमारे सारेदुःख दूर कर देगा। राजू बहुत मेहनती और आज्ञाकारी है। वह खालीबैठने वालों में से नहीं है।”

पत्नी की बातें सुनकर बूढ़े पति ने कहा, “हमारे पास तोजमीन भी नहीं है, जिसे जोतकर वह फसल उगा ले। नौकरी तो शहरमें जान-पहचान वालों को ही मिलती है। हमारे पास धन भी तो नहींहै, जिससे वह कोई दुकान खोल सके। मेरी समझ में यह नहीं आताकि आखिर राजू करेगा क्या?”

राजू की चिंता में दोनों पति-पत्नी घुले जा रहे थे। पत्नी नेपति को समझाते हुए कहा कि यदि राजू शहर जाएगा तो कुछ-न-कुछकाम तो मिल ही जाएगा। मेहनत करने वालों के लए शहर में बहुतसे काम हैं। पड़ोस वाली गंगा का बेटा भी तो घर से खाली हाथही गया था। अब गंगा के पास पैसों की कमी नहीं है। वह ठाट सेरहती है और जरूरत पड़ने पर दूसरों को उधार भी दे देती है। इसप्रकार दोनों पति-पत्नी अपने भविष्य के सपने सँजोते हुए समय काटरहे थे।

धीरे-धीरे राजू जवान हो गया और उसने अपने माता-पिता सेकहा, “अब मैं कमाकर लाऊँगा और तुम दोनों आराम से बैठकरखाना। मैं शहर जाकर खूब धन-दौलत कमाऊँगा। मैं भी अच्छे-अच्छेकपड़े पहनूँगा और आप दोनों को भी नए कपड़े लाकर दूँगा। मैं तुम्हेंहल-बैल, बैलगाड़ी और थोड़ी-सी जमीन लेकर दे दूँगा, ताकि तुमउस पर खेती करके अनाज पैदा कर सको और तुम्हें शोषण करनेवाले जमींदार की नौकरी न करनी पड़े।”

एक दिन राजू शहर चला गया। वहाँ उसने सजी-धजी बड़ी बड़ी दुकानें देखीं। शहर के लोग बहुत साफ-सुथरे थे। उसे अपने मैलेकपड़े देखकर शरम आने लगी। वह काम की खोज में सारा दिनभटकता रहा किंतु उसे काम नहीं मिला। शाम को वह थक-हारकर एकबगीचे में बैठ गया। बगीचे में राजा का खजांची बैठा हुआ अपने मित्रसे कह रहा था, “मैं राजा का एक भी पैसा फालतू खर्च नहीं करता।

मैंने राजकोष को अच्छी तरह से भर दिया है इसलिए आजकल राजामुझसे बहुत खुश रहता है।”

खजांची के मित्र ने पूछा, “आखिर तुम्हारी सफलता का क्याराज है।” खजांची ने कहा, “यदि कोई चाहे तो चूहे की लाश सेभी व्यापार में सफलता प्राह्रश्वत कर सकता है।” खजांची की बाच सुनकरउसके मित्र को बहुत आश्चर्य हुआ। उस की समझ में यह नहीं आयाकि मरे हुए चूहे से व्यापार में सफलता कैसे प्राह्रश्वत हो सकती है। थोड़ीदेर बाद खजांची और उसका मित्र वहाँ से उठकर चले गए।

उनके जाने के बाद राजू ने देखा कि बगीचे में एक मरा हुआचूहा पड़ा था। ‘यह चूहा तो यहाँ बेकार ही पड़ा है। इसे अपने साथले जाने में हर्ज ही क्या है। यदि इस चूहे से व्यापार नहीं हुआ तोभी मेरा समय तो कट ही जाएगा। खाली बैठने से तो अच्छा है किकुछ काम कर लेना चाहिए।’

इसके बाद राजू ने चूहे की टाँग में रस्सी बाँधी और बाजारकी ओर चल दिया। उसे देखकर बाजार में कुछ लोग हँसने लगे।

राजू ने किसी की परवाह नहीं की और आगे बढ़ने लगा।

बाजार में एक सेठ अपनी बिल्ली को लेकर जा रहा था।

बिल्ली मरे हुए चूहे को देखकर दौड़ने लगी और दौड़ते-दौड़ते राजूके पास जाकर रुक गई। कुछ ही देर में वह सेठ भी राजू के पासआकर रुक गया। सेठ ने देखा कि बिल्ली चूहे को लिए बिना नहींजाएगी। विवश होकर सेठ ने उस मरे हुए चूहे को एक रुपए में खरीदलिया। एक रुपया लेकर राजू बहुत खुश हुआ और गाँव की ओर चलदिया। सारे रास्ते राजू यही सोचता रहा कि एक रूपए से बहुत साराधन कैसे कमाया जाए।

गाँव में पहुँचकर राजू ने देखा कि कुछ लोग घास काट रहेथे। गरमी का मौसम था। सूर्यदेव आकाश में चमक रहे थे। राजू नेसोचा कि इस किसानों को यहाँ पीने के लिए पानी नहीं मिलता होगा।

यदि मैं यहाँ पर पानी का व्यापार कर लूँ तो अच्छी कमाई हो जाएगी।

ऐसो सोचकर राजू ने एक घड़ा और दो गिलास खरीद लिए।

मटके में पानी भरकर राजू पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गया।

दोपहर में जब किसानों को ह्रश्वयास लगी तो राजू के पास पानी पीनेके लिए आ गए। राजू ने सभी को ठंडा पानी पिलाया। किसान पानीपीकर बहुत खुश हुए और राजू से बोले, “बेटा! तुम बहुत ही पुण्यका काम कर रहे हो। तुमने हमारी ह्रश्वयास बुझाई है। हम भी तुम्हारे खानेका प्रबंध अवश्य करेंगे। तुम हमारे बगीचे से जितने चाहो सुगंधितफूल ले सकते हो।”

शाम को जब मटका खाली हो गया तो राजू ने उसमें फूलभर लिए और पहाड़ी वाले मंदिर में जाकर बैठ गया वहाँ शाम केसमय भक्त माँ काली के मंदिर में फूल चढ़ाते थे। देखते-ही-देखतेभक्तों ने राजू के सारे फूल खरीद लिए। वह अपने मुँह से फूलों केपैसे नहीं माँगता था। भक्तों ने अपनी श्रद्धा से फूलों के इतने पैसेदिए जिसकी राजू ने कल्पना भी नहीं की। राजू ने एक रूपए से पूरेसौ रूपए कमाए।

राजू ने खजाची को मन-ही-मन धन्यवाद दिया, जिसकी बातमानकर उसने मरे हुए चूहे से अपना कारोबार शुरू किया था राजू नेअपने जीवन में सौ रुपए एक साथ पहली बार देखे थे। उसकी समझमें यह बात आ गई कि सच्चे मन से काम करने वालों को मेहनतका फल जरूर मिलता है। भक्तों के चले जाने के बाद राजू ने भीमाँ काली की उपासना की और फिर शहर की ओर चल दिया।

शहर जाकर राजू ने ढाबे पर भरपेट खाना खाया और जलेबीभी खाई। वह बचपन से ही जलेबी खाने के लिए तरसता था। दूसरोंको जलेबी खाते देखकर उसके मुँह में पानी आता था लेकिन उसे कभीजलेबी खाने को नहीं मिली। अच्छी तरह से पेट भरने के बाद राजूने ईश्वर को धन्यवाद दिया।

मजदूरों को पानी पिलाना, मंदिर में फूल बेचना और ढाबे परखाना खाकर सोना ही राजू की दिनचर्या थी। सारे किसान-मजदूर राजूको बहुत ह्रश्वयार करते थे। उसने सबका मन जीत लिया था। राजू भीअपने काम से बहुत खुश था।

एक रात राजू गाँव से शहर की ओर जा रहा था कि अचानकजोर से आँधी-तूफान आ गया। उसी जंगल में एक गुफा थी। राजूतूफान और वर्षा से बचने के लिए गुफा में छिप गया। सुबह जब वहगुफा से बाहर निकला तो उसने देखा कि बहुत सारे पेड़ जमीन परटूटकर गिर चुके थे। उसने सोचा कि यदि लकडियों को काटकर शहरले जाकर बेचा जाए तो बहुत मुनाफा हो सकता है किंतु वह अकेलेलकड़ियाँ नहीं काट सकता था। उसके लिए बहुत से मजदूरों कीआवश्यकता थी।

राजू ने मन-ही-मन एक उपाय सोचा। वह हलवाई की दुकानपर गया और एक टोकरी में बहुत सारे लड्डू ले आया। पास में कुछबच्चे खेल रहे थे। वह लड्डू लेकर बच्चों से बोला, “यदि तुम मेराएक काम करोगे तो तुम्हें खाने के लिए लड्डू दूँगा।” बच्चे लड्डू केलालच में राजू का काम करने के लिए तैयार हो गए।

बच्चों ने लड्डू खाए और तूफान से टूटे हुए सारे पेड़ों को एकस्थान पर इकट्ठा कर दिया। थोड़ी ही देर में बच्चों ने लकड़ियों काऊँचा ढेर लगा दिया। लकड़ियाँ शहर ले जाने के लिए राजू को एकबैलगाड़ी की जरूरत थी। जंगल में बैलगाड़ी का मिलना बहुत मुश्किलथा। राजू ने मन-ही-मन भगवान को याद किया। सच्चे दिल से कीगई प्रार्थना भगवान अवश्य सुनते हैं।

तभी एक बूढा़ किसान खाली बैलगाड़ी लेकर शहर जा रहाथा। उसे शहर से दुकान का सामान लाना था। उस किसान ने राजूको पहचान लिया। राजू के कहने पर उसने सारी लकड़ियाँ बैलगाड़ीमें भर लीं। फिर दोनों ने शहर जाकर लकड़ियों की अच्छी तरह सेसाफ किया। बूढे किसान ने राजू को समझाया कि लकड़ियों को साफकरने पर ही अच्छे दाम मिलते हैं। राजू के पास साल और सागवानकी बहुत अच्छी लकड़ी थी।

तभी उधर से एक लकड़ी का व्यापारी आ गया। उसने सोचाकि लकड़ी खरीदने में हर्ज ही क्या है। जब लकड़ी सूख जाएँगी तोबेच दूँगा। मुझे अच्छा मुनाफा मिल जाएगा। लकड़ीके व्यापारी ने राजूकी सारी लकड़ियाँ अच्छे दामों में खरीद लीं। इतने सारे रुपए देखकरराजू हैरान रह गया।

रुपए लेकर राजू भविष्य की योजनाएँ बनाने लगा। तभी उसनेसुना कि शहर में घोड़ो का सबसे बड़ा व्यापारी आ रहा है। वह पाँचसौ घोडे़ लेकर आएगा तो उन घोड़ो के लिए घास की जरूरत पड़ेगी।

इतनी सारी घास शहर में तो मिलनी मुश्किल है। मैं गाँव में घूम-घूमकर बहुत सारी घास इकट्ठी करके इस घोड़े के व्यापारी को बेचदूँगा तो मैं बहुत धनवान बन जाऊँगा। यह घोड़े का व्यापारी घोड़े कीखुराक पर अच्छा धन खर्च करेगा।

राजू मन-ही-मन खुश होकर सोचने लगा कि धन कमाने काइससे अच्छा अवसर फिर नहीं मिलेगा। राजू ने सोचा कि गाँव वालेबहुत भोले होते हैं। वे उसकी जरूर मदद करेंगे। उसने चार मजदूरलिए और कई मटके पानी से भरकर उसी स्थान पर आ गया जहाँकिसान फसल काट रहे थे। इस बार राजू बहुत सारा गुड़ भी लायाथा।

फसल काटते-काटते किसान बुरी तरह से थक चुके थे। उनकेशरीर से पसीना बह रहा था और वे ह्रश्वयासे भी थे। राजू ने किसानोंको बुलाया और उन्हें ठंडा पानी पिलाकर गुड़ भी खिलाया। राजू केइस व्यवहार से किसान बहुत खुश हुए। शाम होते ही किसानों ने घासखोदकर बड़े-बड़े गट्ठर बना दिए। राजू बैलगाड़ी पर घास के गट्ठरलादकर शहर की ओर चल दिया।

एक खुले मैदान में लाकर राजू ने घास के गट्ठर रख दिए।

वहाँ पर घोड़ो के व्यापारी ने पहले से ही अपने घोड़े बाँदरखे थे, जिससे घोड़ो के खरीदार घोड़ो को अच्छी तरह देखकर खरीदसकें। घोड़ो के व्यापारी ने जब हरी-बरी घास देखी तो वह बहुत प्रसन्नहुआ। उसने एक हजार रुपए में राजू से सारी घास खरीद ली औरदो हजार रुपए राजू को दो दिन की घास लाने के लिए पेशगी देदिए। राजू को एक हजार रूपए इनाम में भी मिले। अब राजू के पासचार हजार रूपए थे। इतने सारे रूपए देखकर राजू खुशी से नाच उठा।

अब उसकी गिनती शहर के धनवान लोगों में होने लगी।

राजू की एक हलवाई से मित्रता हो गई। राजू ने हलवाई कीदुकान के ऊपर ही कमरा किराए पर ले लिया। राजू जब अपने कमरेपर गया तो उससे हलवाई ने कहा, “देखो राजू! गंगा घाट पर एककपड़े का व्यापारी आया हुआ है। वह विदेशी माल लाकर यहाँ बेचताहै। हम दूसरे व्यापारियों से पहले पहुँचकर उसका सारा माल खरीदलेंगे और बाद में दूसरे व्यापारियों को महँगे दामों बेच देंगे।”

राजू व्यापार के मामले में बहुत सावधान था। उन्होंने एककिराए की गाड़ी ली और दोनों कपड़े के व्यापारी के पास गंगाघाटपर पहुँच गए। राजू बहुत चतुर था। उसने कपड़ों के व्यापारी कोअपनी मीठी-मीठी बातों में फँसा लिया कपड़ो का व्यापारी राजू औरहलवाई शंकरलाल के व्यवहार से बहुत खुश हुआ। उसने अपना सारामाल राजू और शंकरलाल को बेच दिया।

राजू के पास कपड़ो के व्यापारी को देने के लिए रुपए भीकम थे। राजू ने कपड़ों के व्यापारी गुलजारी लाल से वादा किया किवह तीन दिन के अंदर उधार चुका देगा। सेठ गुलजारी लाल ने राजूकी बात मान ली।

इसके बाद राजू ने वहीं पर तंबू गाड़ दिया और एक बोर्डलगवा दिया, “सेठ शंकरलाल, राजकुमार - विदेशी माल केव्यापारी।” इस बोर्ड को पढ़कर दूसरे व्यापारी हैरान हो गए। सेठगुलजारी से मिलने पर उन्हें पता चला कि सेठ राजकुमार औरशंकरलाल ने सारा माल खरीद लिया है।

जब सारे व्यापारी सेठ राजकुमार और शंकरलाल के पासविदेशी माल खरीदने आए तो उन्हें दस प्रतिशत के हिसाब से सारामाल बेच दिया और सेठ गुलजारी लाल का सारा उधार भी चुकादिया। एक-एक पैसे को तरसने वाले राजू ने सेठ राजकुमार बनकरलाखों का सौदा एक ही पल में कर डाला।

सेठ गुलजारी लाल ने राजू ने पूछा, “राजू! इतनी छोटी आयुमें इतनी बड़ी सफलता का क्या राज है?”

राजू ने कहा, “सेठ जी! मरे हुए चूहे की लाश का व्यापारही मेरी सफलता का राज है।”

राजू की बात सुनकर सेठ गुलजारी लाल चौंक गए। उसकेबाद राजू ने राजा के खजांची से लेकर अब तक की सारी कहानीसुना दी। सेठ गुलजारी लाल ने राजू को व्यापार में अपना साझीदारबना लिया।

राजू गाँव से अपने माता-पिता को ले आया और एकआलीशान मकान बनवाकर खुशी से रहने लगा। इस प्रकार राजू कोसब चूहे वाला सेठ कहने लगे।

जैसी करनी वैसी भरनी

बहुत पहले शहर से थोड़ी दूर मोहनपुर नाम का एक गाँव था।

उस गाँव में मंगलू नाम का एक बूढ़ा रहता था। पूरा गाँव उसे मंगलूचाचा कहकर ही पुकारता था। उनके पास बहुत थोड़ी-सी जमीन थी।

उनके बैल इतने कमजोर थे कि उनकी बंजर और पथरीली जमीन परहल चलाने में असमर्थ थे।

मंगलू का नंदू नाम का पुत्र था। वह नंदू को बहुत ह्रश्वयार करताथा। वह स्वयं सारा काम करता किंतु नंदू से कुछ काम नहीं करवाताथा। मंगलू समय से पहले बूढ़ा हो चुका था। उसका शरीर देखने मेंसिर्फ हड्डियों का ढाँटा था। वह नंदू को खेती जैसे कठोर काम में नहींलगाना चाहता था।

एक दिन मंगलू ने अपनी पत्नी से कहा, “अब चिंता करनेकी कोई बात नहीं है। नंदू जवान हो चुका है। वह अब काम करेगाऔर हम आराम से खाएँगे। मुझे नंदू पर पूरा भरोसा है। हमने उसेबहुत दुखों से पाला है। हमने खुद भूखे रहकर इसे भरपेट खानाखिलाया है। हमने खुद फटे वस्त्र पहने लेकिन इसे अच्छे-अच्छे वस्त्रपहनने को दिए। मुझे यकीन है कि चाहे सारी दुनिया बदल जाए किंतुनंदू नहीं बदल सकता।”

मंगलू की पत्नी ने कहा, “स्वामी! कभी-कभी सपने उलटे भीहो जाते हैं। तुम अब सपने देखना बंद करो। मैं पहले आपकी पत्नीहूँ ओर बाद में नंदू की माँ हूँ। मैं नंदू को अच्छी तरह से जानतीहूँ। मुझे उस पर जरा भी विश्वास नहीं है। अब तुम भी नंदू को लाड़-ह्रश्वयार करना बंद करो। जिस दिन तुम्हारे शरीर की शक्ति समाह्रश्वत होजाएगी उस दिन तुम्हारा यह लाड़ला पुत्र नंदू तुम्हें बोझ समझनेलगेगा।”

नंदू के विषय में मंगलू और उसकी पत्नी के विचार भिन्नथे। इसी प्रकार लड़ते-झगड़ते मंगलू और उसकी पत्नी का समयव्यतीत हो रहा था। एक बार गाँव में हैजे की बीमारी फैल गई। मंगलूकी पत्नी भी इस बीमारी की चपेट में आ गई और उसकी मृत्यु होगई। मंगलू और नंदू का रो-रोकर बुरा हाल था। जाने वाले कभीलौटकर नहीं आते। जब पिता-पुत्र दोनों रोते-रोते थक गए तो उन्होंनेसंतोष कर लिया।

अब घर सँभालने वाला कोई नहीं था। गाँव वालों के कहनेपर मंगलू ने नंदू का विवाह कर लिया। नई-नई दुल्हन के आने सेघर में फिर से खुशियाँ आ गइर्ं। एक वर्ष बाद नंदू की पत्नी ने एकपुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम उन्होंने कृष्णा रख दिया। नंदू औरउसकी पत्नी कृष्णा को बड़े लाड़-ह्रश्वयार से पाल रहे थे। मंगलू कोकृष्णा के बिना खाना-पीना भी अच्छा नहीं लगता था। वह सारे दिनकृष्णा का नाम ही पुकारता रहता था।

बुढ़ापे से बडा रोग नहीं होता। बुढ़ापे में तो सगे-संबंधी भीशत्रु बन जाते हैं। जवानी में तो हर व्यक्ति साथ देता है किंतु बुढ़ापेमें कोई साथ नहीं देता। बुढ़ापे के कारण मंगलू का भी स्वास्थ्य खराबरहने लगा। वे दिन-भर खाँसते रहते थे। धीरे-धीरे उनके शरीर कीशक्ति समाह्रश्वत होती चली गई। कुछ दिन तो नंदू और उसकी पत्नीने मंगलू की खूब सेवा की, किंतु धीरे-धीरे वे दोनों भी दूर भागनेलगे। मंगलू का एकमात्र सहारा उनका पोता कृष्णा ही था, जो हर समयअपने बाबा की सेवा करता था।

मंगलू की बीमारी से नंदू और उसकी पत्नी बहुत दुखी होचुके थे। जब नंदू खेंतो में काम करने चला जाता तो उसकी पत्नीको मंगलू की सेवा करनी पड़ती थी। एक दिन नंदू की पत्नी ने कहा,“इस बूढ़े ने तो हमारा जीना ही हराम कर दिया है। सारा दिन कुछन-कुछ माँगता है। अब तो हमारा इस घर में साँस लेना भी मुश्किलहो गया है। इस बूढ़े को या तो नदी में फेंक दो या फिर गला घोंटकरमार दो।”

नंदू ने अपनी पत्नी से कहा, “ऐसा मत कहो, ये मेरे पिताहैं। मैं इन्हें मार नहीं सकता, वरना लोग तो यही कहेंगे कि मैंने एकबूढ़े और लाचार बाप को मार डाला।”

नंदू के समझाने का भी उसकी पत्नी पर कोई असर नहींहुआ। वह ह्रश्वयार से नंदू को समझाते हुए बोली, “तुम इन्हें इलाज केबहाने से ले जाओ और नदी में फेंक दो। ऐसा करने से इन्हें मुकितमिलेगी और हमें शांति मिल जाएगी। यदि तुम इन्हें नदी में नहीं फेंकसकते तो जंगल में गड्ढा खोदकर उसमें दबा दो। यह काम तुम्हें आजकी राज को ही करना पड़ेगा। यदि घर पर ही मर गए तो बेकार मेंखर्चा बढ़ जाएगा।

विवश होकर नंदू को अपनी पत्नी की बात माननी पड़ी।

यद्यपि नंदू यह पाप कर्म करने को तैयार नहीं था किंतु पत्नी की जिदके कारण उसने रात के अँधेरे में बैलगाड़ी तैयार कर ली और मंगलूको चारपाई सहित ही बैलगाड़ी में रख लिया।

कृष्णा अपने बाबा के पास ही सोता था। तभी उसकी नींदटूट गई और वह भी अपने बाबा के साथ चलने की जिद करने लगा।

कृष्णा बाबा को अकेला नहीं छोड़ता था। कृष्णा के जागने के कारणनंदू और उसकी पत्नी की सारी योजना असफल हो रही थी। नंदू कीपत्नी शांति ने हार नहीं मानी।

रात के अँधेरे में बैलगाड़ी चली जा रही थी। नंदू अपने बाबाका माथा बार-बार सहला रहा था। रास्ता सुनसान था। मंगलू की खाँसीकी आवाजे सुनाई दे रही थीं। जंगली जानवरों की आवाजें साफ सुनाईदे रही थीं। गाड़ी भयानक जंगल में पहुँची तो नंदू फावड़ा लेकर पेड़ोंकी ओट में चला गया। नंदू ने गड्ढा खोदना आरंभ कर दिया। कृष्णाकी समझ में कुछ नहीं आया। वह सोचने लगा कि आखिर पिताजीरात में इस सुनसान जंगल में गड्ढा क्यों खोद रहे हैं?

कृष्णा ने कहा, “पिताजी! आप यह गड्ढा क्यों खोद रहे हैं?”

नंदू ने कहा, “वे बेचारे कब तक दुःख भोगते रहेंगे। वे बहुत दुखीहै। तुम्हारे बाबा को शांति देने के लिए ही मैं यह गड्ढा खोद रहा हूँ।”

कृष्णा बहुत होशियार था। वह अपने पिता की चालाकी समझगया। कृष्णा ने अपने पिता से कहा, “पिताजी! जब आप यह गड्ढाखोद लें तो यह फावड़ा मुझे दे दीजिए, ताकि मैं भी आपके लिएपहले से ही गड्ढा खोद सकूँ। जब आप बीमार हो जाएँगे तो मुझे अँधेरेमें गड्ढा खोदना नहीं पड़ेगा। मैं भी आपकी शांति के लिए यह पुण्यका काम अबी करना चाहता हूँ।”

कृष्णा की बातें सुनकर नंदू की आँखें खुल गई। नंदू ने अपनेपुत्र को गले से लगाकर कहा, “बेटा! तुमने मुझे बहुत बड़ा पाप करनेसे बचा लिया। मैं पापी हूँ। मुझे माफ कर दो। मैं सचमुच बहतु बड़ीभूल करने जा रहा था।”

नंदू ने अपने पिता को शहर ले जाकर अच्छे डाॆक्टर से इलाजकराया। मंगलू की खाँसी बिलकुल ठीक हो गई और वह स्वस्थ होकरअपने घर लौट आया। नंदू की समझ में यह बात आ गई कि इनसानजैसा बोता है, उसे वैसा ही काटना पड़ता है। यदि कृष्णा समय परअपने पिता की आँखें नहीं खोलता तो सचमुच बहुत बड़ा अनर्थ होजाता। मनुष्य को कोई भी कार्य करने से पहले कई बार सोचनाचाहिए।

मूर्ख पंडित

एक पंडित कुछ अक्ल का मोटा था। उसे शास्त्रों का ज्ञान नहींथा। उसने कुछ श्राद्धों के मंत्र रट लिए थे, जिनके द्वारा वह श्राद्धकर्म करवाता था।

एक बार किसान के पिता का श्राद्ध था। वह पंडित श्राद्धकरवाने गया तो किसान ने नमस्कार करके कहा, “पंडित जी! क्याहाल हैं? आप बहुत कमजोर हो गए हैं।”

पंडित ने ठंडी आह भरते हुए कहा, “यजमान! क्या कहूँ। पेटमें बीमारी हो गई है, कुछ भी ठीक से हजम नहीं होता। वैद्य जी नेबकरी के दूध के साथ दवाई खाने को कहा है। बकरी का दूध मिलनातो बहुत मुश्किल है।”

किसान बहुत चालाक था। उसने अपने फायदे की बात सोची।

यदि वह गाय की जगह किसान को श्राद्ध-कर्म में बकरी देगा उसे बहुतफायदा होगा। किसान ने कहा, “पुरोहित जी! आपको बकरी के दूधकी आवश्यकता है। मेरे पास एक दूध देने वाली बकरी है। यदि आपचाहें तो गाय की जगह श्राद्ध-कर्म में बकरी ले लीजिए।”

किसान की बात सुनकर पंडित जी बहुत खुश हुए। पंडित जीमोटी अक्ल के व्यक्ति थे, उन्होंने सोचा कि आज का दिन तो बहुतशुभ है। मुफ्त में बकरी भी मिली और गाय की देखभाल करने सेभी मुक्ति मिल गई।

खुश होकर पंडित जी अपने घर की और चले जा रहे थे किअचानक बकरी के थनों से दूध टपकने लगा। पंडित जी ने बकरीको उठाकर अपने कँधे पर बिठा लिया और चलने लगे।

पेड़ों की ओट में तीन ठग छिपे बैठे थे। उन्होंने सोचा कियह पंडित भी कितना मूर्ख है जो बकरी को कँधे पर लाद कर लेजा रहा है। वे पंडित से बकरी ठगने की योजना बनाने लगे। वे तीनोंठग रास्ते में थोड़ी-थोड़ी दूर पर जाकर खड़े हो गए ताकि पंडित कोबेवकूफ बना कर बकरी ठग सकें।

पहले ठग ने पंडित से कहा, “छीःछीःछीः, आपने तो बहुतबड़ा अनर्थ कर डाला। एक पंडित होते हुए बी एक सूअर के बच्चेको कँधे पर लाद रखा है। आपका तो धर्म भ्रष्ट हो गया है।”

पंडित ने क्रोधित होकर कहा, “तुम्हें दिखाई नहीं देता। बेकारकी बातें करके मेरा समय बरबाद मत करो। मेरे कँधे पर बकरी है,सूअर का बच्चा नहीं।” इतना कहकर पंडित गुस्से सो बड़बड़ाने लगाऔर आगे चल दिया।

थोड़ी दूर पर पंडित जी को दूसरा ठग मिला और राम-रामकरके बोला, “पंडित जी! मैं यह क्या देख रहा हूँ। घोर कलयुग आगया है। इस संसार में धर्म तो बिलकुल नहीं रहा। तुम भी शूद्रों काकाम करने लगे। पंडित होते हुए भी मरे हुए बछड़े को कँधे पर लादरखा है।”

पंडित क्रोधित होकर बोला, “पीछे एक अँधा मिला था जोबकरी को सूअर का बच्चा कह रहा था और तुम बकरी को मरा हुआबछड़ा कह रहे हो। मेरे लिए तो आज का दिन ही खराब है।”

पंडित की बात सुनकर दूसरा ठग कहने लगा, “अरे पंडित!

तुम बछड़े को बकरी बताकर कितने लोगों को मूर्ख बनाओगे। तुम्हेंयह नीच काम करते हुए देखकर बहुत दुःख हुआ। जाओ, मुझे तुमसेकुछ लेना-देना नहीं है। अपने मरे हुए बछड़े को लेकर जल्दी चलेजाओ।”

पंडित क्रोध से आग-बबूला होकर आगे चल दिया। अबपंडित का मन अशांत हो गया था। उसके चले जाने के बाद ठग भीपेड़ों की ओट में जाकर छीप गया। थोड़ी दूर जाकर पंडित को तीसराठग मिल गया।

उसने कहा, “पंडित जी! मैं तो आपकी बहुत इज्जत करताथा। मुझे पता नहीं था कि आप ऐसे काम भी करते हो। गधे को कँधेपर लादकर तुमने अनर्थ कर डाला। यह तुम्हें शोभा नहीं देता कि गधेको कँधे पर डालो।”

ठग की बातें सुनकर पंडित चिढ़कर बोला, “तुम्हें ठीक सेदिखाई नहीं देता। यह बकरी है गधा नहीं।” ठग फिर से पंडित कोअपनी बातों के जाल में फँसाते हुए कहने लगा, “पंडित जी! मुझेलगता है कि तुम्हारी आँखों और बुद्धि दोनों पर परदा पड़ चुका है।

तुम्हा गधा भी बकरी दिखाई दे रहा है। मेरे पास फालतू बातें करनेका समय नहीं है। जो तुम्हारा मन करे वही करो।”

इतना कहकर तीसरा ठग भी चला गया। उसके जाने के बादपंडित सोचने लगा कि तीन आदमी झूठ नहीं बोल सकते। किसी कोसूअर का बच्चा नजर आ रहा है, किसी को मरा हुआ बछ़डा औरकिसी को गधा दिखाई दे रहा है तो मुझे बकरी नजर आ रही है।

पंडित ने बकरी को अपने कँधे से नीचे उतार दिया औरसोचने लगा कि यह बकरी राक्षस तो नहीं है जो कई रूप बदल रहीहै। मुझे ठीक समय पर इस बकरी की असलियत मालूम पड़ गईवरना यह मुझ अजगर का रूप धारण करके खा जाती।

पंडित ने डरकर बकरी को छोड़ दिया और तेज गति से आगेचलने लगा। पंडित को भागता देखकर तीनों ठग जोर-जोर से हँसनेलगे। उन्होंने जल्दी से बकरी को पकड़ लिया और पंडित की मूर्खतापर बहुत देर तक हँसते रहे।

प्रेम की महिमा

एक गाँव में एक पंडित रहते थे। बहुत दिन पहले उनकी पत्नीका स्वर्गवास हो चुका था। वे सारा दिन पूजा-पाठ में लगे रहते औरअपने यजमानों के लिए भगवान से प्रार्थना करते थे। दुर्भाग्य से उनकेकोई संतान नहीं थी इसलिए पंडित जी दूसरों के सामने तो खुश रहनेका नाटक करते लेकिन मन-ही-मन दुखी रहते थे।

पंडित जी के दुःख का कारण एक यजमान समझ गया औरउसने दया करके पंडित जी को दक्षिणा में बछड़ा दे दिया। वे बछडेको लेकर बहुत खुश हुए। पंडित जी बछडे को अपने पुत्र के समानसमझने लगे। वे बछड़े के गले में अंगोछा बाँधकर अपनी कुटिया कीओर चले आ रहे थे कि रास्ते में लोग उनकी ही हँसी उड़ाने लगे।

कुछ लोगों ने पंडित जी से कहा, “अपने बछड़े के गले में मोटा रस्साबाँध दो।”

पंडित जी को बछड़े से इतना ह्रश्वयार हो गया कि वे लोहे कीसाँकल अथवा मोटा रस्ता उसके गले में डालकर उसको तकलीफ देनानहीं चाहते थे। धीरे-धीरे वे बछड़े को अपनी कुटिया में ले आए।

उन्होंने साफ पानी से बछड़े को नहलाया और तौलिए से उसका बदनपौंछ दिया। इसके बाद उन्होंने पूरी-कचौड़ी बनाई और ह्रश्वयार से खिलानेलगा। उन्होंने बछड़े का नाम ह्रश्वयार से नंदी रख दिया।

पूरे घर में नंदी और बछड़े के अलावा और कोई नहीं था।

नंदी की सेवा और देखभाल करते हुए उन का समय अच्छी तरह सेबीत रहा था। धीरे-धीरे नंदी भी जवान हो गया। गाँव के दूसरे बछड़ोकी अपेक्षा नंदी का शरीर सुडील था। नंदी के चौकस कान और मस्तआँखें थी। उसकी लहराती हुई पूँछ तो उसकी सुंदरता को और भीबढ़ा रही थी। पूरा गाँव नंदी की सुंदरता और तंदुरस्ती की चरचा करताथा।

पंडित जी बछड़े को अपना धर्म-पुत्र मानकर उसकी सेवा मेंकोई कमी नहीं रखते थे। यदि नंदी हिचकी या डकार भ ीलेता तोपंडित जी चिंतित हो जाते थे। वे उसके लिए ताजे फल, पेड़ों केप्रूद्गो और हरी-हीर घास लाते थे। ताजे फल और हरी घास खा-खाकरनंदी का शरीर पट्ठेदार हो चुका था। वह अब हर चुनौती और हरमुकाबले के लिए तैयार हो चुका था। उसकी विशेषता यह थी कि वहमनुष्य की भाँति बातें भी करने लगा था।

नंदी को बातें करते देखकर पंडित जी बहुत हैरान थे। उन्हेंचिंता इसी बात की थी कि नंदी को किसी की नजर न लग जाए।

नंदी के बातें करने की बात वे किसी को नहीं बताते थे। पंडित जीनंदी और अपना खर्चा बड़ी मुश्किल से चलाते थे इसलिए नंदी पंडितजी की सहायता करना चाहता था।

एक दिन पंडित जी नंदी के सिर पर ह्रश्वयार से हाथ फेर रहेथे। नंदी ने पंडित जी की सहायता करने के उद्देश्य से कहा, “मेरेअंदर इतनी शक्ति हे कि मैं सामान स लदी हुई सौ गाड़ियाँ एक साथखींच सकता हूँ। मैं चाहता हूँ कि आप जमींदार से एक हजार सोनेके सिक्कों की शर्त लगा लो, फिर तुम मेरी शक्ति का कमाल देखनाकि मैं कैसे सौ लदी हुई गाड़ियाँ खींचकर आपको शर्त जितवा दूँगा।

नंदी की बातें सुनकर पंडित जी सोचने लगे कि नंदी सचमुचजवानी के कारण होश खो बैठा है। यह अकेला सौ गाड़ियाँ कैसे खींचसकता है? मैंने बड़ी मुश्किल से थोड़ा पैसा जमा किया हैं। यदिजमींदार से शर्त हार गया तो कौड़ी-कौड़ी को मोहताज हो जाऊँगा औरभूखे मरने की नौबत आ जाएगी।

पंडित के मन की दुविधा नंदी समझ गया और बोला, “आपमेरे धर्म-पिता हैं। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि सामान से लदीसौ गाड़ियाँ खींचकर आपको शर्त जितवा कर ही रहूँगा। मैंने आपकाजो कुछ भी खाया-पिया है, उसे बेकार नहीं जाने दूँगा। अब आपजमींदार के पास जाकर शर्त लगा लीजिए।”

बस फिर क्या था? पंडित जी जमींदार की हवेली पर चलेगए। जमींदार ने पंडित जी का बहुत आदर-सत्कार किया और उनकेआने का कारण पूछा। पंडित जी ने कहा, “मेरे यजमान! मेरा नंदीअब पूरी तरह जवान हो चुका है और वह मनुष्य की तरह बातें भीकरता है। वह जानता है कि आप बहादुर हैं और बहादुरों की कदरभी करते हैं। नंदी सामान से लदी आपके खलिहान से सौ गाड़ीखींचकर आपकी प्रशंसा पाना चाहता है।”

शाम को जमींदार ने गाँव में मुनादी करवा दी कि, “नंदी कलसुबह सामान से लदी सौ गाड़ियाँ खींचने वाला है। यदि नंदी ने सौगाड़ियाँ खींच दीं तो जमींदार पंडित जी को एक हजार सोने की मुद्राएँदेगा। यदि नंदी सौ गाड़ियाँ खींच नहीं पाया तो पंडित जी को हजारसोने की मुद्राएँ जमींदार को देनी पडेंगी।

गाँव के लोग पंडित जी की हँसी उड़ाने लगे। सब कहने लगेकि नंदी तो खा-खाकर मोटा-ताजा हो गया है। वह फिसड्डी है, उसकेअंदर जरा भी ताकत नहीं है। वह बीस गाड़ियाँ भी नहीं खींच सकता।

अब तो पंडित जी एक हजार सोने की मुद्राएँ हार ही जाएँगे।गाँव वालों की बातें सुनकर पंडित जी का विश्वास टूट गयाऔर उन्हें यकीन हो गया कि नंदी सौ गाड़ियाँ खींच नहीं सकता। सुबहहोते ही पंडित जी ने बेदर्दी से नंदी को सौ गाड़ियों के आगे जोतदिया। सारा गाँव यह जानने के लिए उत्सुक था कि आखिर एक हजारसोने की मुद्राएँ कौन जीतेगा?

पंडित जी ने दुखी होकर कहा, “नंदी! आज तेरी परीक्षा होनेवाली है। पूरे गाँव को आज तू अपनी ताकत और बहादुरी का कमालदिखा दे। मेरे पास एख हजार मुद्राएँ हराम की नहीं है। मैं यह शर्तजीतना चाहता हूँ। यदि मैं यह शर्त हार जाऊँगा तो तेरी खैर नहीं है।मेरा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन सब तुझे ही कामचोर कहेंगे।”

पंडित की बातें सुनकर नंदी ने जोर लगाया और उसी स्थानपर खड़ा रहा। वह अपने स्थान से तनिक भी न हिला। पंडित जीबोले, “कमीने! जल्दी चल। मुझे फँसाकर अब तू आराम से क्यों खड़ाहै। दुष्ट! पापी! तुझे पालने से तो अच्छा था कि मैं कोई गधा ही पाललेता, जो कम से कम पचास रुपए रोज ही दिहाड़ी तो कमाता।”

पंडित जी के मुख से गालियाँ सुनकर नंदी को भी क्रोध आगया। वह भी गैरत वाला पशु था। वह भी टस से मस नहीं हुआ।

तभी भीड़ में से आवाज आई कि नंदी सौ गाड़ियाँ खींच नहीं सकाऔर पंडित जी हार गए। जमींदार के जीतने की खुशी में गाँव वालेचिल्लाने लगे।

नंदी अपने मन में सोच रहा था कि मैं तो पंडित जी कीभलाई करना चाहता था, ये तो मुझे ही गालियाँ देने लगे। मेरी भीकुछ इज्जत है, मैं बिना लगती किए पंडीत जी की डाँट-फटकार औरगालियाँ क्यों सुनूँ। यह सोचकर नंदी अपनी जगह से नहीं हिला।

चारों ओर से आवाजें आइर्ं कि पंडित जी शर्त हार चुके हैं।

पंडित जी ने विवश होकर जमींदार को एक हजार सोने की मुद्राएँ देदीं। पंडित जी ने नंदी को जोर से दो चाबुक मारे और गाड़ियों कीकतार से खोलकर घर ले गए। नंदी हँसकर बोला, “मेरे धर्म-पिता!

आज तक तुमने मुझे कभी नहीं डाँटा। अपना धर्मपुत्र बनाकर मुझे ह्रश्वयारसे पाला था। आपके दुर्व्यवहार के कारण पंचायत के सामने मेरा बहुतअपमान हुआ है। अपनी हार का कारण आप स्वयं हैं। इसमें मेरा कोईदोष नहीं है। नुकसान भी आपका ही हुआ है, मेरा नहीं। यह किसीकिताब में नहीं लिखा है कि दुर्व्यवहार से हंमेशा कार्य करने की शक्तिबढ़ती है, दुर्व्यवहार से हमेशा कार्यक्षमता घटती है। यदि आप ह्रश्वयारसे गाड़ी शींचने के लिए कहते तो मैं एक सौ पाँच गाड़ियाँ भी खींचसकता था। यदि आप प्रेम की शक्ति देखना चाहते हैं तो जमींदार केपास जाओ और दो हजार सोने की मुद्राओं की शर्त लगा लो। यदिआप मुझे सच्चे मन से अपना धर्म-पुत्र समझते हो तो पंचायत केसामने ह्रश्वयार से कहना, बेटा नंदी, जल्दी चल। मेरी इज्जत तेरे हाथमें है, फिर देखना मैं कितने जोश और उत्साह के साथ गाड़ी खींचताहूँ।”

पंडित जी को नंदी की बात पर विश्वास हो गया और वेअपने किए पर पछताने लगे। उन्होंने अपनी आँखों में आँसू भरकरभर्राई आवाज में कहा, “मेरे बेटे! तुम हो और मेरे ही रहोगे। मैं तुम्हेंन तो कभी डाँटूगा और न ही तुम्हारा अपमान करूँगा। मुझे माफ करदो। मैं हमेशा तुम्हें सुखी देखना चाहता हूँ। चाहे तो तुम इस बार दोहजार सोने की मुद्राएँ भी हार जाना, मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूँगा।”

पंडित जी फिर जमींदार के पास गए और दो हजार सोने कीमुद्राओं की शर्त लगा ली। जमींदार को इस बात की बहुत हैरानी थीकि एक बार हारने के बाद भी पंडित ने फिर से शर्त कैसे लगा ली।

नंदी सबसे आगे वाली गाड़ी के सामने आकर खड़ा हो गया। पंडितजी गाड़ी पर बैठकर कहने लगे, “शिवाजी के नंदी अवतार, हमनेपहली बात तो जमींदार के साथ हँसी-मजाक किया था, अब पूरे गाँवको अपनी शक्ति का कमाल दिखा दे। मैं जानता हूँ नंदी कि तेरे अंदरपाँच हजार घोड़ों की शक्ति है। तुम दो सौ गाड़ियाँ खींचते हुए भीमुझे मथुरा, काशी, वृंदावन और गोकुल की यात्रा करा सकते हो। तुमपर हमेशा भगवान शिव की कृपा रही है। तुम सचमुच महान हो। तुम

एक झटका लगाओ ताकि गाँव वालों को शिवजी के नंदी अवतार केगुणों का पता चल लके।”

पंडित की ह्रश्वयार-भरी बातों का नंदी पर बहुत गहरा असरहुआ। उसने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि वह गाँव वालों कोअपनी शक्ति का कमाल दिखाकर रहेगा। जिस प्रकार चीता घातलगाकर शिकार पर आक्रमण करता है वैसे ही नंदी ने अपनी साँसरोकर अपनी गरदन आगे बढ़ाई और पिछले पैरों से पूरी शक्ति लगाकरजोर से झटका दिया। गाड़ियाँ खींचने में नंदी ने अपनी पूरी ताकतलगा दी। पहले गाड़ियाँ धीरे से हिलने लगीं और फिर सारी गाड़ियोंके पहिए घूमने लगे। देखते-ही-देखते गाड़ियाँ तेजी से दौड़ने लगीं।

नंदी की रफ्तार के साथ ही उसके गले में पडे हुए घुँघरु भी जोरसे गूँजने लगे।

जहाँ ह्रश्वयार होता है वहाँ पर भगवान निवास करते हैं। जिसकेमन में ह्रश्वयार नहीं होता, वह कभी भी ईश्वर का ह्रश्वयार प्राह्रश्वत नहीं करसकता। ईश्वर का प्रेम पाकर ही हम अपने जीवन में खुशियाँ लासकते हैं। यदि हम किसी से ह्रश्वयार नहीं कर सकते तो हमें उसे कटुशब्द कहने का भी कोई अधिकार नहीं है।

जीवन के आदर्श

बहुत पहले की बात है, हस्तिनापुर में एक महान्‌ प्रतापी राजाहुए थे, जिनका नाम मानसिंह था। दुर्भाग्य से उनके कोई संतान नहींथी। संतानहीनता के कारण राजा बहुत दुखी रहते थे। उन्होंने पूजा-पाठ, यज्ञ सब कुछ किया लेकिन उनके कोई संतान नहीं हुई। जबराजा की आयु ढलने लगी तो एक दिन भगवान ने उनकी पुकार सुनली। राजा के घर एक चाँद के समान पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र का नामजयसिंह रखा गया। जयसिंह का लालन-पालन बहुत ह्रश्वयार से कियाजाने लगा।कहा जाता है कि अधिक लाड़-ह्रश्वयार से बच्चे बिगड़ जाते हैं।राजकुमार जयसिंह भी अधिक लाड़-ह्रश्वयार मिलने के कारण जिद्‌दी होगया। छोटे बच्चे को जिद करता देखकर माता-पिता खुश होते हैं। यदिबड़ेबच्चे जिद करें तो उसका परिणाम बहुत भयंकर होता है।राजकुमार जयसिंह के मुख से यदि कोई बात निकल जातीतो उसे पूरा करके ही मानते थे। यदि उनकी बात पूरा होने में तनिकभी देर हो जाती तो वे लड़ने-मरने के लिए तैयार हो जाते थे। उसकेअत्याचारों से प्रजा दुखी रहने लगी। प्रजा से जब राजकुमार जयसिंहके अत्याचार सहन नहीं हुए तो उन्होंने रजा से उसकी शिकायत की।राजकुमार के अत्चायारों के विषय में सुनकर राजा बहुत दुखी हुए।राजा को राजकुमार के भविष्य की चिंता सताने लगी।

एक दिन राजा ने अपने मंत्रियों से कहा, “हम राजा हैं। अपनीप्रजा पर हम कभी भी अत्याचार नहीं होने देंगे। प्रजा के साथ न्यायकरना हमारा कर्तव्य है। हमारा पुत्र तो हमारे आदर्शों को ही मिट्टी मेंमिला रहा है। हमें तो संतान का कुछ भी सुख नहीं मिला। हमें अपनीप्रजा की चिंता दिन-प्रतिदिन सता रही है।”

महामंत्री ने राजा को धीरज दिलाते हुए कहा, “आप चिंता मतकीजिए। हम आपके दुःख को समझते हैं। यदि आप ही धीरज खोदेंगे तो प्रजा का क्या होगा? अएभी तो राजकुमार बच्चे हैं और नादानभी हैं। आऐप उन्हें गुरु के आश्रम में भेज दीजिए। वहाँ पर वे सबकुछ सीख जाएँगे।”

राजा को मंत्री का सुझाव उचित लगा। राजा जब अपने पुत्रको गुरु के आश्रम में लेकर गए तो महर्षि को बहुत ही आश्चर्य हुआ।

राजा ने महर्षि को प्रणाम करके कहा, “मुनिवर! मेरा पुत्र दिन-प्रतिदिनबिगड़ रहा है। इसके व्यवहार में प्रजा बड़ी दुखी है। मेरे बाद मेरेराज्य को कौन सँभालेगा, इसी बात की चिंता सता रही है। यहराजकुमार तो राजसिंहासन पर बैठने के लायक ही नहीं रहा। मुझे आपपर पूरा विश्वास है कि आप इसे जरूर ठीक कर देंगे। आज से आपही इस बालक के पिता हैं।”

गुरुदेव ने राजकुमार की ओर देखकर कहा, “राजन! आपचिंता न करें। मैं आपके दुःख को समझता हूँ। आप राजकुमार कोआश्रम में छोड़कर राजमहल चले जाइए। आप भगवान पर भरोसारखिए, सब ठीक हो जाएगा। आप खुशी से घर जइए और एक महीनेके बाद अपने पुत्र को वापस ले जाइए।”

महर्षि का आश्वासन पाकर राजा अपने महल लौट आए। दूसरेदिन सुबह महर्षि ने राजकुमार जयसिंह को अपने पास बुलाकर कहा,“पुत्र! क्या तुम्हें सुबह की सैर करना अच्छा रहता है। हम चाहते हैंकि तुम हमारे साथ सुबह की सैर करने चलो।”

राजकुमार जयसिंह महर्षि के साथ बगीचे में सैर करने के लिएनिकल गए। सुबह की ठंडी हवा चल रही थी और रंग-बिरंगे फूलोंपर भौंरे मँडरा रहे थे। हवा के झोंकों से फूलों से लदी डालियाँ हिलरही थीं। महर्षि ने कहा, “देखो यह बगीचा कितना सुंदर है। तुम कुछगुलाब के फूल तोड़कर ले आओ।”

राजकुमार भागता हुआ गया और गुलाब के फूल तोड़कर लेआया। गुलाब के फूलों से बहुत अच्छी खुशबू आ रही थी। राजकुमारने उन फूलों को महर्षि को भेंट कर दिया। फूलों को सूँघते हुए महर्षिने कहा, “पुत्र, इन फूलों से बहुत अच्छी सुगंध आ रही है। अब तोतुम एक नीम की टहनी तोड़कर ले आओ।” राजकुमार दौड़कर गयाऔर नीम की टहनी तोड़ लाया। यह देखकर महर्षि बहुत प्रसन्न हुए।

महर्षि ने राजकुमार से गुलाब का फूल सूँघने के लिए कहा।राजकुमार फूल सूँघकर बोला, “वाह क्या खुशबू है। मेरा दिल तो इसफूल की खुशबू से बाग-बाग हो गया।” इसके बाद महर्षि ने राजकुमारसे नीम के प्रूद्गो खाने के लिए कहा। राजकुमार ने नीम के प्रूद्गो खातो लिए लेकिन कड़वाहट के कारण उसका बुरा हाल हो गया।

राजकुमार थू-’थू करता हुआ गया और सारे प्रूद्गो थूक आया।

इसके बाद महर्षि ने राजकुमार को समझाया, “बेटा! फूलों मेंखुशबू है इसलिए फूल की खुश्बू तुम्हारे मन को अच्छी लगती है।नीम के प्रूद्गो कड़वे हैं इसलिए वे तुम्हें अच्छे नेहीं लगते। संसार मनुष्यसे ह्रश्वयार नहीं करता बल्कि उसके गुणों से ह्रश्वयार करता है। देखो, नीमके पेड़ की छाया भी धनी होती है। नीम के प्रूद्गा भी हरे-हरे औरगुणकारी होते हैं। नीम के प्रूद्गाों में कोई भी सुगंध अथवा मिठास नहींहोती। नीम के प्रूद्गो बहुत ही कड़वे होते हैं। इसी कड़वाहट के कारण

लोग नीम को पसंद नहीं करते।”

महर्षि ने राजकुमार को समझाया कि अच्छा और बुरा जीवनके ये दो ही सिद्धांत हैं। जो मनुष्य गुलाब के फूलों के समान अच्छाकाम करते हैं, और अपने कार्यों से दूसरों को प्रसन्न करते हैं, उन्हेंसब ह्रश्वयार करते हैं और उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए अच्छी नजरोंसे देखते हैं।

जो लोग नीम के प्रूद्गाों के समान कड़वे हैं और बुरे कार्य करतेहैं, उनसे सब नफरत करते हैं। इसलिए मनुष्य को अच्छे काम करनेचाहिए, गुणवान बनना चाहिए, ताकि सब ह्रश्वयार करें।

महर्षि की बातें राजकुमार की समझ में आ गइर्ं। राजकुमार नेमहर्षि के चरणों में नतमस्तक होकर कहा, “गुरुदेव! आप सचमुचमहान्‌ हैं। आपने तो अपने ज्ञान से मेरी आँखें ही खोल दी हैं। अबमैं कभी भी जीवन में बुरा काम नहीं करूँगा। सबकी ाज्ञा का पालनकरते हुए किसी को कष्ट नहीं पहुंचाऊँगा। मैं जीवन में वही कामकरूँगा जिससे दूसरों को सुख मिलेगा।” गुरुदेव के उपदेश सेराजकुमार का स्वभाव ही बदल गया।

धोबी और गधा

बहुत पहले की बात है, एक धोबी के पास गधा था। गधेका काम है बोझा लादना। धोबी अपने गधे से इतना ह्रश्वयार करता थाकि उसे अधिक-से अधिक आराम देना चाहता था।

धोबी अपनी ससुरात गधे पर चढ़कर चला तो जाता था किंतुससुराल के गाँव से बाहर आते ही गधे से उतर जाता और पैदल चलनेलगता था। धोबी यह जानता था कि घर आने पर फिर कपड़ों केगट्‌ठर उठाने पड़ेंगे! धोबी अपने गधे को पूरी तरह आराम देना चाहताथा।

एक बार धोबी अपनी ससुराल से आ रहा था। आगे-आगेधोबी चल रहा था और पीछे उसका गधा चल रहा था। गधे के गलेमें जो रस्सी पड़ी थी, उसका एक सिरा धोबी के हाथ में था। गधाआराम से चल रहा था इसलिए गधे के गले में पड़ी रस्सी ढीली होचुकी थीं। धोबी अपने विचारों में खोया हुआ सामने देखकर ही चलरहा था। उसे यह ख्याल ही नहीं रहा कि उसका गधा भी पीछे आरहा है।

दो ठगों ने धोबी और उसके गधे को इस प्रकार जाते देखलिया। उन ठगों ने धोबी से गधा ठगने का निश्चय कर लिया। ठगधीरे-धीरे धोबी के पास पहुँचे और गधे के गले से रस्सी खोल दी।

धोबी को पता नहीं चला कि गधा उसके पीछे आ रहा है या नहीं।

एक ठग तो गधे तो लेकर जल्दी से झाड़ी में छिप गया औरदूसरे ठग ने रस्ती का सिरा अपने गले में बाँध लिया और धोबी केपीछे-पीछे चलने लगा। धोबी अपनी ही धुन में चल रहा था इसलिएरस्ती तन गई और ठग का दम घुटने लगा। धोबी ने पीछे मुड़करभी नहीं देखा और बोला, “अबे जल्दी चल, रुक क्यों गया?”

ठग ने रस्सी को अपने हाथ में पकड़ लिया ताकि उसका गलान घुट जाए। धोबी ने रस्सी को खींचा तो वह ढीली नहीं हुई। हैरानहोकर धोबी ने पीछे मुड़कर देखा कि गधा क्यों नहीं चल रहा। गधेके स्थान पर एक आदमी के गले में रस्सी बँधी देखकर धोबी कोबहुत आश्चर्य हुआ। धोबी घबराकर बोला, “अरे मेरा गधा कहाँ चलागया? भाई! तुम कौन हो?”

ठग ने कहा, “मालिक! मैं ही आपका गधा हूँ। मैंने तो मनुष्यके रूप में ही जन्म लिया था। बचपन में मैं बहुत शैतानी करता था।

मेरी माँ मेरी शरारतों से तंग आ चुकी थी। उसने मुझे श्राप दिया कितू सात वर्ष तक गधा बनकर प्रायश्चित करेगा। गधे के रूप में मैंनेआपकी बहुत सेवा की है। कुछ क्षण पहले ही मेरे श्राप की अवधिसमाह्रश्वत हुई और मैं फिर से मनुष्य बन गया।”

धोबी ने हैरान होकर ठग से कहा कि मैंने मेले से तुम्हें तीनसाल पहले खरीदा था। ठग ने बड़ी चतुराई से कहा कि उससे पहलेभी मैं दूसरे धोबी के यहाँ रहता था। धोबी बहुत भोला था। उसने ठगकी बात पर विश्वास कर लिया और उसे कुछ पैसे देकर कहा, “अपनेघर जाकर अपनी माता की खूब सेवा करना, कभी शरारत मत करना,और अपनी माँ को खुश रखना। फिर तुम्हारी माँ तुमसे खुश हो जाएगीऔर फिर कभी श्राप नहीं देगी और न ही कभी तुम पर क्रोध करेगी।”

वह ठग तो धोबी से पैसे लेकर दूसरे ठग के पास चला गया।

दोनों ठग धोबी की मूर्खता पर हँसने लगे। उस गधे को ठगों ने एकगधे के व्यापारी को अच्छे दामों में बेच दिया।

कुछ दिन बाद जब गाँव में पशु-मेला लगा तो वहाँ पर वहगधा भी बिकने के लिए आया। धोबी को भी नए गधे की जरूरतथी इसलिए वह भी मेले में गधा खरीदने के लिए चला गया। दूसरेगधों को देखता हुआ वह धोबी भी अपने गधे के पास पहुँच गया।धोबी ने गधे की पीठ पर जो निशान लगा रखा था, उसे पहचानलिया। अपने मालिक को देखकर गधा भी खुशी से कान फड़फड़ानेलगा।

धोबी ने कहा, “तूने घर जाकर जरूर कोई शरारत की होगीइसलिए क्रोधित होकर तेरी माँ ने तुझे फिर से गधा बना दिया। तूसचमुच ही नालायक है, अब मैं तुझे कभी नहीं खरीदूँगा।”

लोगों ने समझा कि धोबी पागल हो गया है जो गधे जैसेजानवर से बातें कर रहा है। धीरे-धीरे यह बात धोबी के गाँव में भीफैल गई। गाँव वालों को यकीन हो गया कि धोबी का दिमाग खराबहो गया है या फिर वह भाँग का नशा करने लगा है। हो सकता हैकि यह धोबी कपड़ों को फाड़ दे या फिर जला दे। गाँव वालों नेधोबी को पागल समझकर उसे कपड़े देना भी बंद कर दिया, जिससेधोबी का काम-धंधा बंद हो गया।

ठग की बात पर विश्वास करके धोबी का गधा भी चला गयाऔर काम-धँधा भी ठह्रश्वप हो गया।

कर्म का फल

बहुत पहले की बात है, एक गाँव में एक किसान रहता था।

उसके पास थोड़ी-सी जमीन थी और वह भी साहूकार के पास गिरवीपड़ी थी। किसान अब अपनी जमीन पर हल चलाना और बुआई काकाम नहीं करता था। वह सुबह शहर जाकर मजदूरी का काम करनेलगा था। उसी मजदूरी से वह अपने परिवार का पालन-पोषण करताथा।

संयोग से एक दिन उसके घर में आटा, दाल, चावल कुछभी नहीं था। उस दिन उसके घर में सुबह नाश्ते के लिए रोटी भीनहीं बनी। घर में सिर्फ एक ह्रश्वयाज था, जिसे आधा-आधा दोनों ने खालिया। इसके बाद किसान मजदूरी करने के लिए शहर चला गया।

रास्ते में किसान ने देखा कि गाँव का साहूकार कुरसी पर बैठाथा और उसके पास गाँव वाले अपनी इच्छा से दस-बीस-तीस भिक्षुओंको खाना खिलाने की गिनती लिखवा रहे थे। उस एक हजार भिक्षुओंके खाने का प्रबंध एक स्थान पर किया जाना बहुत मुश्किल था। यहसोचकर गाँव के मुखिया और दानियों ने यह योजना बनाई कि महात्माबुद्ध के एक हजार भिक्षुओं का रहने और खाने का प्रबंध सभी गाँववाले अपनी शक्ति के अनुसार करेंगे।

वह किसान भी उसी भीड़ में जाकर खड़ा हो गया। जब सबलोग साहूकार को अपनी गिनती लिखवा चुके तो साहूकार ने कहा,“आप कितने भिक्षुओं को खाना खिलाना चाहते हैं। जल्दी से आपभी अपनी गिनती लिखवा दीजिए।”

साहूकार की बात सुनकर किसान सोचने लगा कि आज दोदिन हो गए, मुँह में अन्न का एक दाना भी नहीं गया। भूख के कारणपेट रीढ़ की हड्डी से लग चुका है। आँखों के सामने भूख के कारणअँधेरा छा रहा है। कहीं से खाने की खुशबू आए तो भूख से औरभी बेहाल हो जाता हूँ। ऐसा लगता है कि अब भूख के कारण मेरादम ही निकल जाएगा। यहाँ तो अपनी ही जान के लाले पड़ रहे हैंतो मैं भिक्षुओं को खाना कहाँ से खिलाऊँगा।

साहूकार किसान की हालत समझ गया। उसने कहा, “जाओसामने से वह कुल्हाड़ी ले आओ। एक हजार भिक्षुओं का खाना पकानेके लिए सूखी लकड़ियाँ काट दो। मैं तुम्हें मुँहमाँगी कीमत दूँगा। मेरेपास आकर बैठो। तुम्हें मजदूरी भी मिलेगी और खाना भी मिलेगा।”

किसान साहूकार के पास आकर बैठ गया। साहूकार ने नौकरको आवाज लगाकर कहा, “रामू! इन किसान भाई के लिए घीडालकर खाना लाओ। साथ में मिठाई भी लाना। मालकिन से कहनाकि गाय का जो घी मैं खाता हूँ वही किसान भाई के खाने में डालदे।”

रामू अंदर गया और थोड़ी ही देर में साग, सब्जी, कचौरीपूरीसे भरे दो थाल ले आया। साहूकार ने ह्रश्वयार से कहा, “किसानभाई! खाना खाओ। यह सब तुम्हारे लिए ही है।”

किसान ने साहूकार की ओर देखा पर खाना खाने के लिएतैयार नहीं हुआ। किसान पीछे मुड़कर अपने घर की ओर देखने लगा।

साहूकार किसान के मन की बात समझ गया कि घर पर उसकी पत्नीभी भूखी बैठी होगी। किसान के मन की बात समझकर साहूकार नेदो खाने के थाल लगाकर किसान के घर भिजवा दिए।

जब नौकर किसान के घर खाना दे आया तो उसने भी भरपेटखाना खा लिया। पेट भरने के बाद किसान ने साहूकार से कुल्हाड़ीमाँगी। किसान कुल्हाड़ी लेकर जंगल गया और सूखी लकड़ी वालेपेड़ों को काटकर जमीन पर गिरा दिया। इसके बाद लकड़ी के छोटेछोटे टुकडे कर दिए ताकि भिक्षुओं के लिए आसानी से खाना पकायाजा सके।

काटने के लिए सिर्फ दो ही पेड़ बचे थे कि किसान के हाथमें छाले पड़ गए। उचकती हुई लकड़ियाँ उसकी टाँगों में घुस गइर्ं,जिससे उसकी टाँगों से खून बहने लगा। किसान यह बात अच्छी तरहसे जानता था कि एक हजार भिक्षुओं का खाना पकाने के लिए कम-से-कम बीस कुंतल लकड़ी की आवश्यकता पड़ेगी। सुबह के दसबजने पर भी वह केवल पाँच कुंतल ही लकड़ी काट पाया था। किसानने अपनी पगड़ी फाड़ी और हाथ के छालों पर लपेट ली और काममें लग गया।

किसान के पास सिर उठाकर देखने की भी फुरसत नहीं थी।वह शाम छः बजे से पहले ही सारे सूखे पेड़ काटना चाहता था।

किसान अपने काम में इतना लीन था कि उसे पता नहीं चला किसाहूकार उसके सामने से कई बार गुजर चुका है। किसान को अपनेकाम में लीन देखकर साहूकार बहुत खुश हुआ। साहूकार के मन मेंकिसान की इज्जत और भी बढ़ गई।

साहूकार के पास किसान की प्रशंसा करने के लिए शब्द हीनहीं थे। साहूकार किसान की सहायता करना चाहता था। साहूकारकिसान की हवा में लहराती हुई कुल्हाड़ी को देखकर बहुत हैरान था।

किसान को शाम छः बजे से पहले बीस कुँतल लकड़ियाँ काटनी थींइसलिए उसे किसी की भी परवाह नहीं थी। मेहनत करनेवालों कीभगवान भी मदद करता है।

शाम पाँच बजे तक वह लकड़ियों के ऊँचे ढेर के सामने खड़ाथा। शाम को जब साहूकार ने लकड़ियों का ढेर देखा तो वह हैरानरह गया। साहूकार ने खुशी से किसान को गले लगा लिया। साहूकारने किसान को अपने घोड़े पर बैठाया और अपने घर ले आया।

साहूकार ने एक टोकरा चावल और एक टोकरा फल-सब्जी लेकर एकबैलगाड़ी में रखवाकर उस किसान को घर पहुँचाने का आदेश दिया।

किसान ने हाथ जोड़कर साहूकार का धन्यवाद अदा किया औरकहने लगा, “मेरी पत्नी इतनी चतुर नहीं कि वह भिक्षु मेहमानों कास्वागत अच्छी तरह से कर सके। मेरे हाथ भी कोई काम करने लायकनहीं। मैं अपनी क्षमता के अनुसार अपने घर एक भिक्षु मेहमान कोखाना खिलाना चाहता हूँ।” इतना कहकर किसान प्रसन्न होकर अपनेघर की ओर चल दिया।

सुबह चार बजे किसी ने किसान का दरवाजा खटखटाया।

दरवाजे पर एक रसोइया खड़ा था। रसोइए ने कहा, “मुझे पता चलाहै कि आज आपके घर बौद्ध भिक्षुओं का खाना है। मैं उनके लिएपौष्टिक और स्वादिष्ट खाना बनाना चाहता हूँ।”

किसान ने कहा, “मैं और मेरी पत्नी अपनी शक्ति और क्षमताके लिए बौद्ध भिक्षुओं के लिए स्वयं ही खाना बना लेंगे। हमारी इतनीशक्ति नहीं है कि हम आपको मजदूरी दे सकें।”

रसोइए ने कहा, “आप चिंता न करें। मैं आपसे मजदूरी नहींलूँगा। मैं अपनी इच्छा से बौद्ध भिक्षुओं की सेवा करना चाहता हूँ।

आप मेरा विश्वास कीजिए, मैं बहुत ही स्वादिष्ट खाना बनाऊँगा।”

देखते ही देखते रसोइए ने आलू उबाले और दाल बना ली।

चावल तैयार करके सलाद भी काट ली। वह आटा गूँथ करकेकचौरियाँ तलने लगा। कुछ ही देर में महात्मा बुद्ध के ह्रश्वयारे शिष्यकृष्णपाल भी आ गए और उन्होंने प्रेम से खाना खाया। खाना खाकरकृष्णपाल जी ने संतुष्ट होकर किसान को आशीर्वाद दिया। तभी वहाँपर साहूकार भी आ गया। कृष्णपाल जी ने किसान और उनके घरके बने खाने की बहुत प्रशंसा की। साहूकार ने किसान को ह्रश्वयार सेगले लगाया और उसकी गिरवी रखी हुई जमीन भी वापस कर दी।

साहूकार ने भी कृष्णपाल जी के चरणों में गिरकर उनका आशीर्वादलिया।

कृष्णपाल जी ने साहूकार को आशीर्वाद देते हुए कहा, “जोअपनी मदद स्वयं करते हैं, भगवान भी उन्हीं की सहायता करते हैं।

भगवान अपने भक्तों की सहायता करने के लिए दौड़कर आते हैं। वेअपने भक्तों को कभी निराश नहीं करते। भगवान का सच्चा भक्त वहीकहलाता है जो भगवान के बनाए हुए इन्सानों से ह्रश्वयार करता है। दूसरोंसे ह्रश्वयार करना भगवान का नाम लेने के बराबर है। जो ह्रश्वयार करताहै, उसे ही भगवान की भक्ति का फल मिलता है। ह्रश्वयार केबिना कभीभी भक्ति का फल नहीं मिल सकता।

हमारा काम मेहनत करना है और मेहनत करने वालों की हमेशाजीत होती है। गीता में भी कहा गया है कि कर्म करो और फल कीइच्छा कभी मत करो। फल देना तो भगवान का काम है। जो लोगकर्म करने में विश्वास करते हैं, वे समाज के लिए उदाहरण बन जातेहैं। ईश्वर उन्हें कभी दुःख नहीं देता। वे अपने जीवन में हमेशा सुखीरहते हैं।

प्रायः मनुष्य दुःख में ही भगवान को याद करता है। यदिमनुष्य सुख के समय में भी भगवान को याद करे तो उससे जीवनमें कभी भी दुःख नहीं उठाने पड़ते। जो भक्त एक पल के लिए भीभगवान को नहीं भूलते, उसकी मदद के लिए भगवान स्वयं नंगे पैरदोड़कर आते हैं। भक्त का काम सिर्फ हर समय भगवान को यादकरना है और भक्त को सुख-शांति देना भगवान का काम है।’’

महात्मा बुद्ध के शिष्य कृष्णपाल का उपदेश सुनकर साहूकारऔर किसान अपने को सौभाग्यशाली समझ रहे थे। उन्होंने कर्म कोही अपने जीवन का लक्ष्य मान लिया। इसके बाद कृष्णपाल साहूकारऔर किसान को आशीर्वाद देकर चले गए।

इसके बाद सारे भिक्षु महात्मा बुद्ध की जय-जयकार करनेलगे। कृष्णपाल जी के विचारों को सुनकर पूरे गाँव में सुख शांतिकी लहर दौड़ पडी।

दयालु हाथी

संसार के बहुत-से देशों में आज भी बौद्ध धर्म प्रचलित है।

आवागमन के चक्कर की इस धर्म में सबसे अधिक मान्यता है। मनुष्यइस संसार में जन्म लेता है और फिर मर जाता है, इसके बाद फिरसे जन्म लेता है। आवागमन का यह चक्र इसी प्रकार चलता रहताहै। आवागमन के इसी चक्र पर आधारित वाराणसी के राजा ब्रह्मद्रूद्गाके शासनकाल में हिमाचल के जंगलों में बोधिसत्व ने हाथी के रूपमें जन्म लिया। इस हाथी के बच्चे के जन्म लेने के साथ ही जंगलमें भयंकर तूफान आया। बड़े-बड़े पेड़ उखड़कर गिर गए और शंख

तथा घड़ियालों की आवाज चारों ओर गूँजने लगी। यह हाथी का बच्चादूध के समान सफेद था।

हाथियों के कुल में ऐसा बच्चा कभी भी पैदा नहीं हुआ था।

इस हाथी के बच्चे को देखने के हाथी झुँड बनाकर आए। अपने बेटेको माता-पिता ने बड़े ह्रश्वयार से अपने पास जमीन पर लिटाकर रखाथा। तूफान के बाद आकाश में काले-काले बादल छा गए और ठंड़ीठंडीहवा चलने लगी।

अपने साथियों के साथ हँसता-खेलता हुआ यह हाथी का बच्चाधीरे-धीरे बड़ा होने लगा। दूसरे हाथी के बच्चे उसे अपने साथ लेजाना चाहते थे, किंतु वह अपने साथियों से नफरत करता था। उसकेसभी साथी दूसरों पर अत्याचार करते थे। उसे अपने साथियों की यहीआदत पसंद नहीं थी।

अपने साथियों द्वारा किए गए पापों को देखकर एक दिनउसका हृदय दुःखी हो गया। उसने अपने साथियों से अलग रहने कानिश्चय कर लिया। धीरे-धीरे उसे दूसरे जानवरों से ह्रश्वयार हो गया।

किसी भी जानवर को परेशान करने की उसकी आदत नहीं थी।।

उसके इसी प्रकार के व्यवहार के कारण सारे जानवर उससे प्रसन्न रहतेथे। वह छोटे जानवरों के सुख-दुःख का साथी था। जंगली जानवरोंने ऐसा हाथी का बच्चा पहले कभी नहीं देखा था।

एक दिन सफेद हाथी ने जंगल में एक कमजोर बंदर को रोतेहुए देखा। जब सफेद हाथी ने उसके रोने का कारण पूछा तो बंदरबोला, “भैया! मेरे साथी मुझे कमजोर समझकर बहुत सताते हैं। रोनेके सिवाय मैं कर ही क्या सकता हूँ। वे सब मुझे अकेला छोड़करचले जाते हैं।”

सफेद हाथी ने कहा, “तुम्हारे साथियों को तुम्हें तंग नहीं करनाचाहिए। अपने कमजोर भाई का मजाक बनाते हुए उन्हें तनिक भी लज्जानहीं आती! यदि तुम मेरे साथ चलो तो मैं तुम्हारे साथियों को समझानेकी कोशिश करूँगा। एक प्राणी ही दूसरे प्राणी के काम आता है।”

इतना कहकर हाथी ने बंदर को अपनी सूँड पर बिठा लियाऔर उसे उस स्थान पर ले गया जहाँ बंदर के साथी खेल रहे थे।

बंदर को हाथी की सूँड पर बैठा देखकर जंगल के सभी जानवर हैरानहो गए। दूसरे बंदरों ने गजराज को बारी-बारी से सिर झुकाकर प्रणामकिया। बंदरों के लिए यह बड़े ही गर्व की बात थी कि एक हाथीउनके घर आया था। बंदरों ने प्रसन्नता से कहा, “गजराज! आपनेहमारी नगरी में आने का कष्ट क्यों किया?” हाथी बोला, “मैं तुम्हारेपास तुम्हारे साथी की ही प्रार्थना लेकर आया हूँ। मेरी पीठ पर जोबंदर बैठा है, वह भी तुम्हारी ही जाति का है, तुम्हारे ही भाई के समानहै। यह कमजोर है, इसलिए इससे नफरत करने में तुम्हें शरम आनीचाहिए। प्रत्येक प्राणी किसी दूसरे से कमजोर ही होता है। कमजोरीतो ईश्वर की देन है। तुम शायद नहीं जानते कि कमजोर को न तोसताना चाहिए और न ही उससे नफरत करनी चाहिए।”

इसके बाद सफेद हाथी ने बंदर को उसके साथियों के पासबैठाकर कहानी सुनानी आरंभ कर दी - एक बार एक मुसाफिर जंगलसे गुजर रहा था। जंगल इतना घना और भयंकर था कि रास्ता भीठीक से दिखाई नहीं दे रहा था। इसी कारण वह मुसाफिर रास्ता भटकगया।

अँधेरे में उसने एक हाथी को अपनी ओर आते हुए देखा।

डर के कारण उसका बुरा हाल हो गया। वह भय से काँपने लगा।

उसने सोचा कि अब तो वह हाथी उसे मार डालेगा। हाथी से बचनेके लिए वह इधर-उधर भाग रहा था। यदि वह मुसाफिर रुक भी जातातोहाथी भी रुक जाता। हाथी मुसाफिर का पीछा कर रहा था। हाथीमुसाफिर के पास तो नहीं आया लेकिन उसे दूर से ही देख रहा था।

मुसाफिर भी यह सोचकर हैरान था कि हाथी उसे ह्रश्वयार से देख रहाथा।

मुसाफिर हाथी को बोलते हुए देखकर हैरान हो गया। उसनेबोलने वाला हाथी पहले कभी नहीं देखा था। हाथी बोला, “क्या तुमपरदेशी हो? तुम बहुत दुखी हो। क्या मैं तुम्हारे किसी काम आ सकताहूँ?” मुसाफिर ने कहा, “गजराज! मैं वाराणसी जा रहा था कि इसघने जंगल में रास्ता भूल गया हूँ, इसलिए दुःखी हूँ। रात हो चुकीहै। अब मैं कहाँ जाऊँ?”

हाथी ने कहा, “चिंता मत करो, आप रात में मेरे घर आरामकीजिए। आपको कोई तकलीफ नहीं होगी। सुबह होते ही आपवाराणसी चले जाइए। आज आप एक जानवर का भी प्रेम देख लो।

मैं इन्सानों को कष्ट पहुँचाने वाला जानवर नहीं हूँ।”

इतना कहकर हाथी उस मुसाफिर को अपनी गुफा में ले गयाऔर उसके खाने के लिए ताजे फल ले आया। मुसाफिर थका हुआथा। उसने ताजे फल खाए तो उसकी सारी थकावट दूर हो गई। इसकेबाद मुसाफिर आराम से सो गया।

सुबह होने पर हाथी ने मुसाफिर के लिए नाश्ते का प्रबंध दियाऔर बोला, “भाई! नाश्ता कर लो, फिर मैं तुम्हें अपनी पीठ परबैठाकर वाराणसी छोड़ आऊँगा। मुझ पर विश्वास करो। संसार में सभीजीव एक जैसे नहीं होते। कुछ लोग अच्छे होते हैं तो कुछ लोग बुरेभी होते हैं। मैं तो एक सेवक हूँ, सभी प्राणियों का भला ही चाहताहूँ। भविष्य में जब कभी भी तुम्हें मेरी जरूरत हो, फौरन चले आना।

मैं हर प्रकार से तुम्हारी सहायता करूँगा।”

मुसाफिर ने कहा, “गजराज! तुम बहुत दयालु हो। मैं तो यहीसमझता था कि हाथी खूनी और हिंसक होते हैं, वे मनुष्य को मारकरखा जाते हैं। आप तो सचमुच ही देवता हैं।” इसके बाद हाथी नेमुसाफिर को अपनी पीठ पर बिठा लिया और वाराणसी छोड़ आया।

एक दिन मुसाफिर गरीबदास बाजार गया। उसने वहाँ एकदुकान में हाथी-दाँत की बनी हुई अच्छी-अच्छी चीजें देखीं तो उनचीजों की प्रशंसा करने लगा। दुकानदार बोला, “भैया! हम तो हाथीदाँत से और भी सुंदर-सुंदर चीजें बना सकते हैं। परंतु हमारी मजबूरीयह है कि आजकल अच्छा हाथी-दाँत नहीं मिलता। इतनी हिम्मत किसीमें भी नहीं है कि जीवित हाथी का दाँत निकाल सके। यदि मुझे आजभी जीवित हाथी का दाँत मिल जाए तो मैं मुँहमाँगी रकम देने को तैयारहूँ।” इतना कहकर दुकानकार अपना काम करने लगा।

मुसाफिर गरीबदास ने कहा, “देखो भैया! इस संसार में सबकुछ मिल सकता है। घमंड का बोल तो मैं बोलता नहीं, मैं तुम्हेंअवश्य ही जीवित हाथी का दाँत लाकर दूँगा।”

गरीबदास की बातें सुनकर दुकानकार ने सोचा कि नाम तोगरीबदास है। यह हाथी का क्या करेगा? ऐसे लोग तो सिर्फ सपनेही देखते हैं। थोड़ी देर बाद वहाँ से गरीबदास भी वहाँ से जंगल कीओर चल दिया। उसे पूरा विश्वास था कि वह जंगली हाथी उसकीमदद जरूर करेगा।

गरीबदास ने हाथी के घर जाकर उसे प्रणाम किया और कहनेलगा, “भैया! हमारा तो नाम ही गरीबदास है, हम तो जेब से भी गरीबहैं और घर से भी गरीब हैं। आप से मेरी हालत छिपी नहीं है। अबतो गरीबी के कारण जीना भी बहुत मुश्किल हो गया है। यदि तुममुझे अपना एक दाँत दे दो तो, मैं उस दाँत को बेचकर अपने परिवारका पेट भर सकता हूँ।”

हाथी तो बहुत ही दयालु था। उसने कहा, “यदि मेरा दाँतबेचकर तुम अपने परिवार का पेट भर सकते हो तो यह बड़ी खुशीकी बात है। जाओ तुम आरी ले आओ और मेरे दोनों दाँथ काट लो।”

गरीबदास ने कहा, “हे गजराज! मैं तो आरी अपने साथ हीलाया हूँ। भगवान आपको लंबी उम्र दे। बस आप मेहरबानी करके मेरीगरीबी दूर कर दीजिए।”

इसके बाद हाथी जमीन पर बैठ गया और गरीबदास ने बड़ीही निर्दयता से उसके दोनों दाँत आरी से काट लिए। दाँत कटने केबाद हाथी ने कहा, “गरीबदास! मैंने तुम्हें मित्र माना है इसलिए हीअपने जीवन की सबसे अमूल्य वस्तु तुम्हें दे दी है। मरे ये दाँत ज्ञानका स्रोत हैं।”

दाँत लेकर गरीबदास ने हाथी का शुक्रिया अदा किया औरअमीर बनने के सपने देखते हुए हाथी-दाँत का सामान बेचने वालेदुकानदार के पास चला गया। दुकानकार ने उस हाथी-दाँत को बहुतध्यान से देखा और उसे पचास सोने की मोहरें दे दी।

सोने की मोहरें लेकर गरीबदास बहुत प्रसन्न हुआ और मनही-मन सोचने लगा कि अब मैं गरीबदास नहीं रहा, अब मैं अमीरदासहो गया हूँ। वह इसी चिंता में था कि उन सोने की मोहरों को कहाँसँभालकर रखे। इतना सारा धन देखकर वह खुशी से फूला नहींसमाया और अपने होश खो बैठा।

इसके बाद गरीबदास खुशी-खुशी घर जाकर अपनी पत्नी सेबोला, “जो सोने की मुद्राएँ सेठ लोगों के पास होती हैं, आज मेरेपास भी हैं। हम अब अमीर हैं, किसी सेठ से कम नहीं हैं।”

इसके बाद सेठ पत्नी के साथ बाजार गया और पेट-भर खानाखाया। घर की सजावट का सामान खरीदा और नए-नए वस्त्र भीखरीदे। एक ही दिन में गरीबदास की दुनिया ही बदल गई। उसनेएक घोड़ा भी खरीद लिया। घोड़े पर बैठकर वह अपने मित्र तथारिश्तेदारों से भी मिलने गया। पूरे शहर में गरीबदास की ही चर्चा होरही थी। सभी लोगों को इस बात की हैरानी थी कि वह एक ही दिनमें इतना अमीर कैसे बन गया? अमीर बनने की खुशी में उसने अपनेमित्रों को भी दावत दी। अमीर बनने के बाद गरीबदास का समय हँसी-खुशी के साथ बीत रहा था।

अमीर बनने के बाद गरीबदास के शत्रु भी उसके मित्र बनगए। उसके मित्रों की गिनती दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। खालीबैठकर खाने से तो खजाना भी खाली हो जाता है। अब धीरे-धीरेगरीबदास का धन समाह्रश्वत होने लगा। उसे यही चिंता सता रही थी किधन के अभाव में वह कैसे जीवित रहेगा। उसके मित्र उसका मजाकबनाएँगे। बेचारे गरीबदास को यही चिंता दिन-प्रतिदिन सता रही थी।

गरीबदास को फिर हाथी की याद आने लगी। वह जानता थाकि अभी हाथी कि मुँह में आधे-आधे दाँत हैं। वह फिर हाथी के पासगया। हाथी ने उसका बहुत स्वागत किया। हाथी ने कहा, “गरीबदास!

कहो मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ। मैंने तुम्हें अपना मित्र कहाहै, मैं अपने प्राण देकर भी तुम्हारी सहायता करूँगा।”

गरीबदास ने कहा, “गजराज! आप सचमुच महान हैं। मैंआपका यह उपकार जीवन-भर नहीं भूलूँगा।”

इतना कहकर गरीबदास ने हाथी के सारे दाँत काट लिए औरजंगल की ओर चला गया। उस लालची गरीबदास ने अपने ऐशो-आराम के लिए उस दयालू हाथी का सुख-चैन छीन लिया। हाथी नेमित्रता को निभाने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया।

गरीबदास अमीर बनने का सपना लेकर मन-ही-मन खुश हो रहा था।

गरीबदास जब जंगल से गुजर रहा था तो एक स्थान पर पैररखने से धरती फट गई और उसका पैर जमीन में फँस गया। वहाँपर भयंकर आग निकली, जिसमें गरीबदास जलकर राख हो गया।

हाथी-दाँत भी जल गए।

बेचारे हाथी को सारा जीवन बिना दाँत के ही बिताना पड़ा।

लालची, स्वार्थी आदमी को चाहे सारी दनिया की दौलत मिल जाएकिंतु उसे संतोष नहीं मिलता। लालची आदमी के मन को कभी शांति

नहीं मिलती। ऐसा आदमी दूसरों को हानि पहुँचाकर भी अपना स्वार्थसिद्ध कर लेता है।

ईर्ष्या का फल

बहुत पहले किसी गाँव में एक जुलाहा अपनी दो पत्नियों केसाथ रहता था। उसकी बड़ी पत्नी बहुत ही चालाक थी। वह सारे घरपर राज करती और आराम से रहती थी। उसकी एक बेटी थी, जिसकानाम सूक्खू था। दोनों माँ-बेटी घर का कोई भी काम नहीं करती थीं,आराम से बिस्तर पर बैठकर हुक्म चलाती थीं। खाना-पीना और सोनायही दोनों माँ-बेटियों का काम था।

जुलाहे की छोटी पत्नी बहुत ही सीधे-सरल स्वभाव की थी।

वह घर का सारा काम करती और बहुत ह्रश्वयार से रहती थी। अपनीमाँ के साथ दुक्खू को भी घर का सारा काम करना पड़ता था। सारेदिन काम करने पर भी उन दोनों को जुलाहे की बड़ी पत्नी से डाँटखानी पड़ती थी। जुलाहा दुक्खू और उसकी माँ की तरफ न तो कोईध्यान देता और न ही उन्हें ह्रश्वयार करता था। जुलाहा भी सुक्खू औरउसकी माँ को ही ह्रश्वयार करता था। वह उन्हें ही नए-नए कपड़े बनवाताऔर उनकी हर जरूरत का ख्याल रखता था।

दुर्भाग्य से एख दिन जुलाहे की मृत्यु हो गई। उसकी बड़ीपत्नी ने चालाकी से सारी संपि्रूद्गा अपने नाम कर ली और सुक्खू केसाथ आराम से रहने लगी। जुलाहे के मरने केबाद तो दुक्खू औरउसकी माँ पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। उन दोनों को जुलाहे कीबड़ी पत्नी ने घर से निकाल दिया। वे दोनों सूत कातती और दूसरोंके घर में काम करके अपना गुजारा करने लगीं। सारा दिन काम करकेउन्हें जो भी रूखा-सूखा मिलता, उसे खाकर अपना पेट भरती थीं।

एक दिन दुक्खू की माँ ने छत पर रुई सुखाने के लिए डालदी। वह दुक्खू से रुई का ध्यान रखने के लिए कहकर स्वयं पानीभरने चली गई। इतने में हवा का एक तेज झोंका आया और सारीरुई उड़ाकर ले गया। दुक्खू ने रुई पकड़ने की बहुत कोशिश की परंतुरुई पकड़ न सकी। अब दुक्खू जोर-जोर से रोने लगी। दुक्खू कोरोते देखर पवनदेव ने कहा, “दुक्खू! तुम बहुत अच्छी लड़की हो।

रोना बंद करो और मेरे पीछे-पीछे आ जाओ। मैं तुम्हारी रुई दिलादूँगा।” दुक्खू पवनदेव की बात सुनकर बहुत खुश हुई और उनके पीछेचल दी।

आगे चलकर रास्ते में दुक्खू को एक गाय मिली। गाय नेकहा, “बेटी! मेरे चारों ओर बहुत गंदगी हो रही है। तुम इस जगहसे गोबर हटा दो।” दुक्खू बहुत ही दयालु थी और दूसरों की सेवाकरना उसका धर्म था। दुक्खू ने गोबर हटाकर वहाँ की सफाई करदी और घास का पूला गाय के सामने डाल दिया। गाय के पीने केलिए बाल्टी में पानी भरकर रख दिया।

आगे चलकर केले के कहने पर दुक्खू ने वहाँ की भी सफाईकर दी और आगे बढ़ गई। थोड़ी दूर पर उसे एक घोड़ा मिला। घोड़ाकई दिन से भूखा था। दुक्खू ने उसे भी घास काटकर खिला दी।

इसके बाद घोड़े को पानी पिलाकर वह आगे चल दी।

थोड़ी दूर जाकर दुक्खू ने देखा कि एक बुढ़िया सूत कात रहीथी। उसके बाल चाँदी की तरह सफेद थे। वह बुढ़िया चाँद की माँथी। पवनदेव के इशारा करने पर दुक्खू ने बुढ़िया के पैर छुए औरअपनी रुई माँगने लगी। बुढ़िया ने कहा, “जाओ, पहले बालों में तेललगाकर ताल में स्नान करो और फिर नई साड़ी पहनकर आओ। इसकेबाद तुम्हें तुम्हारी रुई मिल जाएगी।”

दुक्खू ने बुढ़िया की बात मान ली। वह अंदर गई और बालोंमें तेल लगाकर ताल में डुबकी लगा ली। अब तो दुक्खू परी के समानसुंदर बन गई। फिर उसने दूसरी डुबकी लगाई तो उसके शरीर परगहने लद गए। उसके बाद उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह तीसरीडुबकी लगा सके।

इसके बाद दुक्खू कमरे में गई। वहाँ पर बहुत सारी कीमतीसाड़ियाँ रखी थीं। उसने कीमती साड़ियों में से एक सादी सी साड़ीपहन ली और भोजन-कक्ष में आ गई। वहाँ पर तरह-तरह के पकवानऔर मिठाईयाँ रखी थीं। उसने पकवान और मिठाई को हाथ भी नहींलगाया और दाल-रोटी खा ली। इसके बाद जब वह बुढ़िया के पासआई तो उसने उसे उसकी रुई लौटा दी।

बुढ़िया के पास दो डिब्बे रखे थे। उसने दुक्खू से कहा किवह एक डिब्बा उठा ले। दुक्खू ने बड़ा डिब्बा छोड़कर छोटा डिब्बाउठा लिया। अब दुक्खू अपने घर की ओर चल दी। रास्ते में उसेवही घोड़ा मिला, जिसे दुक्खू ने घास खिलाई थी। घोड़े ने दुक्खू कोअशरफियों से भरा हुआ घड़ा दे दिया।

केले के पेड़ ने खुश होकर दुक्खू को सोने के केलों का गुच्छप्रदान किया। गाय ने हर समय दूध देने वाली बछिया दी। इतने सारेउपहार लेकर दुक्खू अपने घर लौट आई। दुक्खू की माँ बहुत ही प्रसन्नहुई। माँ और बेटी के अब दुःख के दिन बीत गए थे। रात में दुक्खूने डिब्बा खोला तो उसमें से एक सुंदर राजकुमार निकला। राजकुमारने दुक्खू से विवाह कर लिया। अब वे तीनों आराम से रहने लगे।

उन्हें अब किसी चीज की कमी नहीं थी।

दुक्खू और उसकी माँ को सुखी देखकर सुक्खू की माँ उनसेईर्ष्या करने लगी। उसने छत पर रुई सूखने के लिए डाल दी। कुछही देर में जब रुई को हवा का झोंका उड़ाकर ले गया तो उसने रुईलाने के लिए सुक्खू को भेज दिया।

रास्ते में सुक्खू को वही गाय, पेड़ और घोड़ा मिला औरउन्होंने सुक्खू से काम करने के लिए कहा। सुक्खू बहुत घमंडी लड़कीथी। उसे काम करना भी नहीं आता था। गाय, पेड़ और घोड़े कीबात सुनकर वह मुँह बिचकाकर चली गई और उनकी बात नहीं मानी।

सुक्खू ने सूत कातने वाली बुढ़िया को आज्ञा दी कि वही जल्दी सेउसकी रुई और डिब्बा दे दे।

बुढ़िया के कहने से सुक्खू अंदर गई और तेल लगाकर तालमें तीन-चार डुबकी जल्दी से लगा ली। डुबकी लगाते ही वह भयंकरराक्षसी बन गई। इसके बाद वह अंदर गई और कीमती साड़ी पहनली। दूसरे कमरे में जाकर सुक्खू ने अच्छे-अच्छे पकवान खाए। इसकेबाद उसने बुढ़िया के पास से बड़ा वाला डिब्बा उठा लिया और घरकी ओर चल दी।

रास्ते में घोड़े ने सुक्खू को जोर से लात मारी। केले के पेड़ने भी उसक पर छिलकों की बरसात कर दी। गाय ने भी उसे सींगमारकर दूर फेंक दिया। इस प्रकार सुक्खू रोती-बिलखती घर पहुँचगई। उसकी हालत देखकर माँ को बहुत दुःख हुआ। सुक्खू ने भी जबरात को डिब्बा खोला तो उसमें से एक बड़ा अजगर निकला। अजगरने सुक्खू को खा लिया और खिड़की के रास्ते से भाग गया। सुक्खूकी माँ जब कमरे में आई तो उसने अजगर की केंचुली देखी। सुक्खूकी माँ अपनी बेटी की मृत्यु पर बहुत देर तक रोती रही। उसका सबकुछ समाह्रश्वत हो चुका था। ईर्ष्या की आग के कारण ही सुक्खू कीमाँ अपना सब कुछ गँवा बैठी।

आँखों देखा सच

एक भयानक जंगल में नदी बहती थी। उस नदी के किनारेबहुत सारे नारियेल के पेड़ थे। उन पेड़ों की जड़ों में छोटी-छोटीझा़डियाँ उगी थीं। चूहे, नेवले, खरगोश और गिलहरियों ने उन झाड़ियोंमें अपने छिपने की जगह बना ली थी।

वहीं पर एक खरगोश अकेला बैठा-बैठा आराम कर रहा था।

कुछ देर बाद वह ऊँघने लगा। उसे ऐसा लगा जैसे जमीन घूम रहीहै और पानी ऊपर चढ़ रहा है। फिर उसे जमीन के फटने की आवाजमहसूस हुई। जोर के धमाके के साथ उसे ऐसा लगा कि जैसे कोईज्वालामुखी फट गया है।

अब तो खरगोश घबरा गया और डरकर बैठ गया। फिर एकऔर धमाका हुआ, जिसे सुनकर खरगोश के पैरों की जमीन खिसकगई। उसे यकीन हो गया कि अब जीना बहुत मुश्किल है क्योंकि प्रलयआ चुकी है, पृथ्वी रसातल में समाने वाली है। पृथ्वी के सभी जीव-जंतु प्रलय के पानी में डूब गए तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा।

खरगोश ने नाद से बाहर देखा तो तेज हवा चल रही थी।

खरगोश अपने कानों को इस प्रकार हिला रहा था कि जैसे अपनेआस-पास की कुछ आवाजें सुन रहा हो। खरगोश घबरा गया क्योंकिउसे कोई भी आवाज सुनाई नहीं दे रही थी। उसने अनुमान लगायाकि किसी भी आपि्रूद्गा के आने से पहले वातावरण शांत हो जाता है।

अब तो खरगोश पागलों की भाँति उछला और तेजी से भागनेलगा। वह भागो-भागो, बचाओ-बचाओ कहता हुआ तेजी से भाग रहाथा। “प्रलय आ चुकी है। जल्दी से भागो और अपने बच्चों की जानबचा लो। पृथ्वी रसातल में समाने वाली है। यदि आप नहीं भागे तोबहुत नुकसान हो सकता है।”

खरगोश थोड़ी ही दूर गया था कि उसने देखा कि कुछखरगोश बिना सोचे-विचारे उसके दाएँ-बाएँ, आगे-पीछे भाग रहे हैं।

एक गीदड़ भी आश्चर्य चकित होकर उन भागते हुए खरगोशों को देखरहा था। गीदड़ ने उन भागते हुए खरगोशों के पूछा कि क्या मुसीबतहै जो तुम इस प्रकार भागे जा रहे हो?

खरगोशों ने गीदड़ की बात का अधिक विस्तार से उ्रूद्गार नदेकर सिर्फ इतना ही कहा कि, “प्रलय आ रही है। जल्दी भागो। चारोंओर आग ही आग दिखाई देगी। चारों और मौत का तांडव होगा।

लोग जिंदगी के लिए भी तरस जाएँगे। चलो दौड़ो, जल्दी करो।”

गीदड़ भी खरगोशों के साथ दौड़ने लगा। गीदड़ों के सरदारके भागते ही दूसरे गीदड़ों में भी भगदड़ मच गई। सारे गीदड़ दुमदबाकर भागने लगे। उन्हें रास्ते में कुछ लोमड़ियाँ मिलीं। एक लोमड़ीने गीदड़ और खरगोश के भागने का कारण पूछना चाहा तो भीड़ मेंसे एक आवाज आई कि, “प्रलय आ रही है, जल्दी भागो। भगवानका गुणगान करो और अपने को बचा लो। जल्दी भागो। प्रलय आचुकी है।”

उन्हें भागते देखकर हाथी ने पूछा कि क्या मुसीबत है जो सबदुम दबाकर भाग रहे हैं। फिर कोई जोर से गला फाड़ते हुए बोला,

“प्रलय आ रही है। जल्दी भागो। जंगल के सभी जीव-जंतु घबराकरशोर मचाने लगे। खरगोश, लोमड़ी और गीदड़ चीखते-चिल्लाते हुएभागते चले जा रहे थे। हाथी भी चिंघाड़ता हुआ अपनी सूँड लहराकरउन सबके साथ चल दिया। शेर ने भी सभी जानवरों को भागते हुएदेखा। शेर जोर से दहाड़ते हुए बोला, “रुक जाओ, तुमअनुशासनहीनता क्यों कर रहे हो? पहले मुझे बताओ कि क्यों भाग रहेहो? मैं जंगल का राजा हूँ। मेरी आज्ञा के बिना तुम दौड़ो-भागो का

गीत क्यों गा रहे हो? मेरी अनुमति के बिना तो इस जंगल में एकचिड़िया भी पर नहीं मार सकती। यदि तुम नहीं रुके तो मैं तुम्हें मृत्युदंडदे दूँगा।”

शेर की आवाज सुनकर चारों ओर सन्नाटा छा गया। सभीलोमड़ी, खरगोश, हाथी चुह्रश्वपी साधकर बैठ गए। तभी कहीं से आवाजआई, “ऐ जंगल के राजा! प्रलय आ चुकी है। सारी धरती ज्वालामुखीके विस्फोट से दहल रही है। ज्वालामुखी से लावा इस प्रकार निकलरहा है जैसे सारी पृथ्वी राख हो जाएगी।”

शेर तो जंगल का राजा था। वह तनिक भी नहीं घबराया औरबोला, “कौन बोल रहा है? हमारे सामने आओ।”

शेर की आवाजड सुनकर पेड़ों के पीछे से निकलकर हाथीसामने आ गया। हाथी ने शेर से कहा, “वह सामने जो मोटा लोमड़बैठा है, उसी ने मुझसे कहा कि प्रलय आ गई है।”

शेर ने क्रोधित होकर लोमड़ को घूर-घूरकर देखते हुए कहाकि, “तुम्हें किसने बताया कि प्रलय आ गई है। मैं सब कुछ सचजानना चाहता हूँ। यदि तुमने हमें सच-सच नहीं बताया तो हम तुम्हेंमृत्यु-दंड़ दे देंगे।”

शेर को गुस्से में देखकर लोमड़ भय से थर-थर काँपने लगा।

उसकी आँखें फटी की फटी रह गइर्ं और कान नीचे गिर गए। लोमड़ने डरते हुए कहा, “हे जंगल के राजा! सारे झगड़े की जड़ तो गीदड़है। उसी ने मुझसे कहा था कि प्रलय आ गई है। यह भागो-भागोकहकर भाग रहा था।”

धीरे-धीरे शेर की समझ में सारी बात आ गई। उसने अपनेपैरों से मिट्टी उड़ाते हुए कहा, “गीदड़! तुझे मार दूँ या छोड़ दूँ? सच-सच बताओ कि तुमसे किसने कहा कि प्रलय आ रही है?” शेर कोक्रोधित देखकर गीदड़ के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। गीदड़ने रोते हुए कहा, “इस लंबी मूँछों वाले खरगोश ने ही सबसे कहाथा कि प्रलय आ गई है। सबसे पहले इसी ने मुझे सूचना दी थीकि प्रलय आ गई है।”

शेर की दहाड़ सुनते ही खरगोश बेहोश होकर जमीन पर गिरपड़ा। दूसरे जानवर खरगोश के मुख पर पानी डालकर उसे होश मेंलाने का प्रयत्न करने लगे। अब खरगोश को होश आया तो उसनेसारी बात शेर को बता दी। शेर ने खरगोश से कहा, “जहाँ सेज्वालामुखी फटने की आवाज आई थी, मुझे वहाँ पर ले चलो। मैंसब कुछ जानना चाहता हूँ।”

इसके बाद शेर और सारी पंचायत खरगोश के साथ नारियलके पेड़ों के पास आ गई। सबने देखा कि दो नारियल पेड़ से टूटकरनीचे गिरे पड़े थे। इसके बाद शेर की समझ में स कुछ आ गया।

पेड़ से नारियल के टूटकर जमीन पर गिरने की आवाज ज्वालामुखीके फटने के विस्फोट के समान थी।

वास्तव में खरगोश ने नारियल के गिरकर फटने की आवाजको ही ज्वालामुखी का विस्फोट समझ लिया था। शेर ने सबसे कहदिया कि आज से कानों सुनी हुई आवाज को कोई मह्रूद्गव नहीं दियाजाएगा। केवल आँखों देखी बात को ही सच मानकर उस पर अमलकिया जाएगा।

साधु का पाखंड

किसी गाँव में एख चोर रहता था। उसका काम केवल चोरीकरना था। वह चोरी करके अपना और अपने परिवार का पेट भरताथा। लोग उससे नफरत करते थे। उसने सोचा, ऐसा अपमानित जीवनजीने से तो अच्छा है कि मैं साधु बन जाऊँ। मन में अटल निश्चयकरके उसने साधु का रूप धारण कर लिया और जंगल में आश्रमबनाकर रहने लगा। जहाँ उस चोर से सब घृणा करते थे वहाँ अबउसके साधु बन जाने पर लोग उसके चरण छूकर आशीर्वाद लेने लगे।

जंगल में उसके आश्रम में दूर-दूर से बच्चे, बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुषसभी आशीर्वाद लेने आते थे।

आश्रम के पास में एक गाँव था। उस गाँव के जमींदार केपास संपि्रूद्गा बहुत अधिक थी। उसे अपना धन चोरी होने की चिंतासता रही थी। एक दिन उसने सोचा कि, ‘पास वाले गाँव में जोमहात्मा जी हैं वे देवतास्वरूप हैं। मैंने सुना है कि वे बहुत बड़े सिद्धऔर पहुँचे हुए संत हैं। यदि मैं अपना सारा धन और स्वर्णाभूषणमहात्मा जी के आश्रम में छिपा दूँ तो उनके चोरी होने का डर नहींरहेगा।’

एक दिन जमींदार अपनी धन-दौलत घड़े में भरकर आश्रमचला गया और महात्मा जी के पैर छूकर बोला, “भगवन्‌! आपकेदर्शनों की अभिलाषा ही मुझे यहाँ खींचकर लाई है। मैं आपसे प्रार्थनाकरता हूँ कि इस घड़े को आप अपने पास रश लीजिए। इसमें मेरेजीवन की जमा की गई सारी धन-संपि्रूद्गा है। मेरे घर तो इस धनके चोरी होने का डर है परंतु आश्रम में इसे कोई नहीं चुरा सकता।”

धन से भरा घड़ा देखकर चोर बहुत प्रसन्न हुआ और कहनेलगा, “जमींदार साहब! क्या आपको मुझ पर पूरा भरोसा है। आपसचमुच बहुत भोले हैं।” इतना कहकर वह जोर-जोर से हँसने लगा।

चोर को हँसते देखकर जमींदार ने कहा, “महात्मा जी! भगवान कीकृपा से मुझे किसी भी वस्तु की कमी नहीं है। इतना धन शायद हीकिसी के पास होगा। आप तो मेरे गुरु हैं। आपके सिवा मैं किसीपर भी विश्वास नहीं कर सकता।”

साधु ने कहा, “जमींदार साहब! जिसकी नीयत साफ होती हैउसे हर मनचाही वस्तु मिलना स्वाभाविक है। मैं भगवान से प्रार्थनाकरूँगा कि आपको इससे भी अधिक धन की प्राह्रिश्वत हो।” जमींदारने चोर के पैर छूकर कहा कि, “भगवन्‌! आपका आशीर्वाद ही मेरेलिए वरदान होगा।”

साधु की नजर घड़े पर टिकी हुई थी। भले ही वह साधु केरूप में था लेकिन उसकी आदत चोरी करने की थी। चोर ने सोचाकि अब तो मेरी सारी आयु मजे से कटेगी।

भविष्य में खबी चोरी भी नहीं करनी पड़ेगी। अब तो मुझेपुलिस का भी डर नहीं है। वैसे भी इतना सारा धन तो मैंने अपनेजीवन में कभी भी नहीं देखा। मैं इस धन को हड़पकर ही रहूँगा।

फिर चोर ने कहा, “जमींदार साहब! माया तो मन में पाप उत्पन्न करतीहै। मैं तुम्हारी इस माया को हाथ भी नहीं लगाऊँगा।”

साधु ने धन से भरा घड़ा पीपल के पेड़ की जड़ में दबादिया और कहा कि, “जमींदार साहब! जरूरत पड़ने पर आप इस धनको निकाल लीजिए। मैं तो धन रूपी माया के जाल से दूर ही रहनाचाहता हूँ।” जमींदार के जाने के बाद साधु सुंदर सपने देखने लगा।

उसकी आँखों में नींद नहीं थीं। साधु ने सोचा कि वह धन का घड़ानिकालकर कहीं दूसरे शहर में जाकर हवेली बनाकर अपने परिवार केसाथ आराम से रहेगा।

अब जमींदार को अपने धन की तनिक भी चिंता नहीं थी।

उसे यकीन था कि साधु उसके धन की रखवाली करेगा। कोई दूसराचोर साधु की कुटिया में आने की हिम्मत नहीं करेगा। कोई भी इन्सानयह सोचेगा भी नहीं कि साधु की कुटिया में इतना सारा धन छिपाहै। जमींदार कभी-कभी साधु की कुटिया में जाता रहता था।

चोर ने निश्चय कर लिया कि वह इस धन को किसी दूसरेस्थान पर छिपा देगा और जमींदार से कह देगा कि उसका धन चोरीहो गया है। हम तो साधु हैं, हमारा माया से कुछ लेना-देना नहीं है।

इसके बाद वह जमींदार से आज्ञा लेकर किसी दूसरे शहर में चलाजाएगा।

मन में निश्चय करके साधु जमींदार के घर की ओर चलदिया। जमींदार ने साधु को दूर से ही आते देख लिया। जमींदार नेसाधु को सम्मानपूर्वक आसन पर बैठाया और शरबत पिलाया। साधुने जमींदार से कहा, “अब हम यह आश्रम छोड़कर जा रहे हैं। हमारेजाने से पहले आप अपना धन निकाल लीजिए। हम साधु हैं औरगृहस्थों के समान एक स्थान पर नहीं रह सकते। जिस प्रकार जल औरवायु एक स्थान पर नहीं ठहर सकते, उसी प्रकार साधु भी एक स्थानपर नहीं ठहर सकते।”

जमींदार ने साधु को रोकने की कोशिश करते हुए कहा,“भगवन्‌! यहाँ आपकी कृपा से ही हमारा कल्याण होगा।”

इसके बाद साधु जमींदार से आज्ञा लेकर आश्रम की ओर चलदिया। साधु पूरे रास्ते यही सोचता रहा कि इतनी बड़ी चोरी उसनेपहली बार की है। हो सकता हैर यह उसकी आखिरी चोरी हो। वहजमींदार पर अपनी ईमानदारी की छाप छोड़कर जाना चाहता था। वरनाऐसा भी हो सकता है कि जमींदार उसे दूसरे शहर में जाकर भी चोरसाबित कर पुलिस से पकड़वा दे। यही सोचकर साधु वापस जमींदारकी हवेली पर लौट गया।

साधु को वापस आता देखकर जमींदार घबरा गया। उसकीसमझ में यह नहीं आ रहा था कि साधु के वापस आने का क्या कारणहै? जमींदार ने कहा, “भगवन्‌! आप वापस क्यों हो गए, क्या हमसेकोई भूल हो गई है?” साधु ने कहा, “वत्स! तुमसे कोई भूल नहींहुई है। साधु किसी की वस्तु स्वीकार नहीं करते। हवेली का एकतिनका मेरे बालों में उलझकर चला गया। मैं आपको वही तिनकालौटाने आया हूँ।” इतना कहकर साधु ने अपने बालों में से तिनकानिकालकर जमींदार को वापस कर दिया और अपने आश्रम की ओरचल दिया।

जमींदार को बहुत हैरानी हुई कि साधु तिनका भी वापस करनेआया है। अब तो जमींदार को साधु पर पूरा विश्वास हो गया। जमींदारके पास उसका एक मित्र भी बैठा हुआ था। वह बहुत ही चालाक औरदूरदर्शी था। उसने साधु को ध्यान से देखकर कहा, “जमींदार साहब!ये महात्मा कौन हैं और आपके पास क्यों आए थे?”

जमींदार ने अपने मित्र शिवदास को बताया कि, “मैंने अपनासारा धन इनके पास रख दिया था ताकि मेरे धन को चोर चुरा नसके। अब ये साधु यह गाँव छोड़कर जा रहे हैं तो मेरे धन लौटानेकी बात कर रहे थे।” जमींदार की बात सुनकर उनका मित्र शिवदासजोर से हँसने लगा। शिवदास ने जमींदार से कहा, “तुम बहुत भोलेहो। तुम्हें इस पाखंडी, धोखेबाज साधु ने ठग लिया है। यदि तुम्हेंअपना धन चाहिए तो मेरे साथ जल्दी से उस पाखंडी के आश्रम मेंचलो।”

इतना कहकर शिवदास अपने मित्र जमींदार को साधु के आश्रममें ले गया और पेड़ के नीचे से धन से भरा मटका निकालने के लिएकहा। जमींदार तो साधु को भगवान का ही रूप समझता था। उसे साधुकी ईमानदारी पर तनिक भी संदेह नहीं था। जमींदार दौड़कर आश्रममें गया और फावड़ा ले आया।

जमींदार ने जल्दी से पेड़ के नीचे बहुत गहरा गड्ढा खोद दियाकिंतु वहाँ पर मटका नहीं था। अब तो जमींदार घबरा गया। उसकेहाथ-पैर फूलने लगे और वह रोने लगा, “हाय शिवदास! मैं लुट गया,बरबाद हो गया।” पूरे जीवन की कमाई चोरी होते देखकर जमींदारका दिल जोर से धड़क रहा था।

शिवदास ने जमींदार को भरोसा दिलाया कि, “हम उस पाखंड़ीसाधु को जरूर खोज लेंगे। वह अधिक दूर नहीं गया होगा। हिम्मतहारने से कुछ नहीं होगा। जल्दी उठो और साथ चलकर जंगल में उसेढूँढो।” इसके बाद वे दोनों पाखंडी साधु को जंगल में खोजने लगे।शिवदास बहुत चतुर ओर होशियार था। वे दोनों जंगल सेबाहर निकलने वाले रास्ते की ओर भागने लगे। उन दोनों की साँसेंफूल रही थीं लेकिन फिर भी वे भागे जा रहे थे। कुछ ही देर मेंउन्हें वह पाखँडी साधु मिल गया।

जब साधु को पता चला कि जमींदार उसका पीछा कर रहाहै तो वह और भी तेजी से भागने लगा। शिवदास भी तेजी से भागनेलगा। साधु की धोती एक झाड़ी में उलझ गई और वह जमीन परगिर पड़ा।

शिवदास ने भागकर साधु के बाल पकड़ लिए और एकथह्रश्वपड़ उसके मुख पर जोर से मारा। शिवदास ने कहा, “नीच पापी!

अब अपना नाटक बंद कर दे, तेरी पोल खुल चुकी है। जल्दी सेमेरे दोस्त का सारा धन वापस कर दे वरना तेरी खैर नहीं।”

साधु ने कहा, “एक महात्मा को मारते हुए तुम्हें शरम नहींआती। मुझे तुम्हारे धन के विषय में कुछ नहीं मालूम। मैंने तो आश्रमछो़ड़ दिया है।” शिवदास कहने लगा, “कि यदी तुमने धन वापस नहींकिया तो तुम्हें इसी स्थान पर दफना देंगे।” शिवदास की मार से वहसाधु डरकर कहने लगा, “मुझे मत मारो, मैंने तुम्हारा धन उस पेड़के नीचे से निलाकर दूसरे पेड़ के नीचे छिपा दिया था।”

इसके बाद जमींदार और शिवदास चोर को लेकर आश्रम आगए। साधु ने सारा धन निकालकर उनके हवाले कर दिया। साधु नेलज्जित होकर उनसे क्षमा माँगी और भविष्य में कभी चोरी न करनेकी कसम खाई। जमींदार साधु पर बहुत क्रोधित हो रहा था क्योंकिऐसे पाखंडी साधु ही पूरे साधु-समाज का नाम बदनाम करते हैं।

जमींदार ने कहा, “मुख में राम बगल में छुरी।”

दुष्टता फल

किसी जंगल में एक ऊँट रहता था। वह ऊँट बहुत ही सीधाऔर भोला था। ुवह पास के जंगल में जाकर रोज घास चरता था।

उसी जंगल में एक दुष्ट प्रकृति का सियार रहता था। दूसरों के कामबिगाड़ना और उन्हें मुसीबत में फँसाकर मजे लेना उसकी पुरानी आदतथी। सियार ने ऊँट को भी मुसीबत में फँसाने का निश्चय कर लिया।

सियार ने ऊँट से कहा, “ऊँट चाचा! तुम रोज घास खाते हो। रोजघास खाते-खाते तुम्हारा मन नहीं ऊब जाता?”

ऊँट बोला, “भतीजे! मेरी किस्मत में तो रोज घास खाना हीलिखा है। खुंभियाँ तो इस जंगल में देखने को भी नहीं मिलीं। कँटीलीझाड़ियाँ मेरे मुँह में चुभ जाती हैं। यदि मैं घास नहीं खाऊँगा तो मुझेभूखा रहना पड़ेगा।”

सियार ने कहा, “चाचा! प्रयास करने से तो सब कुछ मिलजाता है। मैं तो माँस भी खाता हूँ और मूली, टमाटर, गाजर पास केखेचों में जाकर खा लेता हूँ। हरी सब्जियाँ और फल खाने से तो मेरेबाल और गाल दोनों लाल हो गए हैं।” इतना कहकर सियार अपनेगालों पर पंजा फेरकर अपन ीदुम हिलाने लगा।

सियार ऊँट से कहने लगा, “आज मैं तुम्हें दावत देता हूँ किऊँटों को हमेशा रसदार चीजें खानी चाहिए। चलो, पास के खेत मेंखीरे, ककड़ियाँ, लौकी और तोरई खाने चलते हैं।”

हरी सब्जियों का नाम सुनकर ऊँट के मुँह में पानी आ गयाऔर वह सियार की बात मानकर पास के खेत में सब्जियाँ खाने चलागया। सियार ने जल्दी-जल्दी गाजर और टमाटर खा लिए और हूहूकी आवाजें जोर-जोर से निकालने लगा। सियार अपना पेट भरकरखेत से बाहर निकल गया किंतु ऊँट अभी गाजर और टमाटर खा हीरहा था। किसान हू-हू की आवाज सुनकर दौड़कर आ गए। किसानोंने खेत में ऊँट को देखकर डंड़े से पीटना शुरू कर दिया। ऊँट कीपिटाई देखकर सियार बहुत खुश हो रहा था।

ऊँट पिटाई के कारण ठीक से चल भी नहीं पा रहा था। ऊँटको देखकर सियार बोला, “चाचा! मेरी तो हू-हू करने की आदत है।

तुम भी मेरे साथ आए हो, यह बात मुझे याद ही नहीं रही। किसानोंने कल तुम्हारे साथ जो दुर्व्यवहार किया, उसका मुझे बहुत दुःख है।

मुझ पर विश्वास करो, मैं आगे से ऐसी गलती कभी नहीं करूँगा।”

ऊँट तो भोला था। उसने सियार की बातों पर विश्वास करलिया। सियार फिर ऊँट को खेतों में हरी सब्जियाँ खाने के लिए लेगया और जल्दी से अपना पेट भरकर हू-हू करने लगा। हू-हू कीआवाज सुनते ही किसानों ने ऊँट को बुरही तरह से पीटा। ऊँट कीपिटाई देखखर सियार खूब हँस रहा था। सियार ने दूसरे दिन ऊँटको देखते ही नाटक करना शुरू कर दिया। सियार ऊँट से बोला,

“चाचा! किसानों ने कल तुम्हारे साथ जो कुछ भी किया उसमें मेराकोई दोष नहीं है। वह एक हादसा ही था। कल जब मुझे एक साँपने काटा तो मैं हू-हू करने लगा।” इतना कहकर सियार ऊँट को अपनापंजा दिखाने लगा जिस पर किसी काँटे के चुभने का निशान था।

सियार ने रोते हुए कहा, “चाचा! तुम्हारी कल जो पिटाई हुईउसका मुझे बहुत दुःख है। मैं तो सारी रात सो नहीं सका। आज भीमेरी आँखें लाल हैं। यदि आप आज मेरे साथ खेत में खीरे खाने नहींगए तो मैं समझ लूँगा कि आपने मुझे माफ नहीं किया। मुझे अपनेआप पर बहुत शरम आ रही है।”

ऊँट फिर से सियार के साथ चल दिया। सियार ऊँट केभोलेपन पर जोर-जोर से हँस रहा था।

सियार अपना पेट भरने के बाद फिर से हू-हू करने लगा।

किसानों ने मार-मारकर ऊँट की सारी हड्डियाँ तोड़ दीं। ऊँट के शरीरपर इतनी चोटें थी कि वह दो दिन घास खाने के लिए जंगल में भीनहीं गया।

तीसरे दिन जब ऊँट घिसटता हुआ जंगल जा रहा था किसियार ने उसे देख लिया। ऊँट की भी नजर सियार पर पड़ गई।

ऊँट ने कहा, “सियार! तुम धोखेबाज हो। मैं तुम्हें कभी माफ नहींकरूँगा।”

सियार बोला, “चाचा! मैंने तुम्हें धोखा नहीं दिया। तुम्हारीअकल ने ही तुम्हें धोखा दिया है। क्या तुम नहीं जानते कि खाना खानेके बाद हम हू-हू करते हैं।” इसके बाद कुछ दिन तक ऊँट ने सियारसे बात भी नहीं की। सियार को यकीन हो गया कि ऊँट कभी भीउसकी बातों में नहीं आएगा। ऊँट ने सियार से बदला लेने का निश्चयकर लिया।

कुछ दिन बाद उस क्षेत्र में भारी वर्षा हुई। वर्षा के कारणनदी-नालों में बाढ़ आ गई। आस-पास के सभी क्षेत्र भी पानी से भरगए। जानवरों के लिए यह जरूरी था कि वे उस इलाके को छोड़दें, वरना वे डूबकर मर जाएँगे। ऊँट तो ऊँचे कद का होने के कारणपानी को पार करके दूसरे स्थान पर जा सकता था लेकिन सियार काकद छोटा होने के कारण वह पानी को पार नहीं कर सकता था।

तभी सियार को ऊँट की याद आ गई। सियार ने ऊँट से कहा,“चाचा! मुझे यहाँ से किसी दूसरे स्थान पर ले चलो, वरना मैं पानीमें डूबकर मर जाऊँगा।” ऊँट ने कहा, “मित्र! मैं तुम्हें अपनी पीठपर बैठाकर ऐसे स्थान पर ले जाऊँगा जहाँ कभी वर्षा नहीं होती।

मुसीबत में एक मित्र ही मित्र के काम आता है।”

इस प्रकार ऊँट सियार को अपनी कमर पर बैठाकर पानी मेंले गया और गहरे पानी में पहुँचने के बाद टेढ़ा होने लगा ताकि सियारपानी में डूबकर मर जाए। सियार पानी में गिरने लगा तो ऊँट से बोला,“चाचा! सीधे चलो, वरना मैं पानी में डूबकर मर जाऊँगा। मेरा जीवनअब तुम्हारे हाथ में है।”

ऊँट ने हँसते हुए कहा, “तुम मूर्ख हो, क्या तुम नहीं जानतेकी हम ऊँट पानी में जाते ही लोटने लगते हैं। तुम्हारे लिए मेरी यहआदत नहीं बदल सकती।” इतना कहकर ऊँट ने पानी में गोता लगायातो सियार गिर पड़ा और पानी में डूबकर मर गया। सियार को मरादेखकर ऊँट जोर-जोर से हँसने लगा।

दुष्टता का परिणाम हमेशा बुरा होता है। सियार ने जो ऊँट केसाथ दुष्टता का व्यवहार किया, उसकी कीमत उसे अपनी जान देकरचुकानी पड़ी।

स्वामीभक्ति कौवा

उस समय की बात है जब पशु-पक्षी भी इन्सानों की तरह सेबातें करते थे और एक-दूसरे के मन की बात आसानी से समझ जातेथे। एक बार कौवों का राजा अपनी कौवी रानी के साथ आकाश मेंतेजी से उड़ा चला जा रहा था। वे दोनों बहुत भूखे थे। वे स्वादिष्टऔर पौष्टिक भोजन की तलाश कर रहे थे।

थोड़ी दूर जाकर कौवी रानी ने कहा, “नाथ! तली हुईमछलियों की सुगंध मुझे विचलित कर रही है।” कौवी रानी की बातसुनकर कौवे राजा ने नीचे देखा तो वह काठमांडू शहर था। वहीं परराजा का शाही महल था। उसमें महाराजा के लिए दोपहर का भोजनपक रहा था। भोजन की सुगंध ने कौवे राजा को भी विचलित करदिया।

कौवे राजा ने अपनी रानी से कहा, “अब मैं नीचे उतर रहाहूँ। सुगंधित भोजन खाए बिना मैं वापस नहीं लौटूँगा। अब मुझे अपनीजान की भी परवाह नहीं है।” कौवे राजा की बात सुनकर कौवी रानीने कहा, “हे नाथ! ऐसा मत कहो, यदि आप नीचे उतर गए तो राजाके पहरेदार, चौकीदार, घुड़सवार आपको जीवित नहीं छोड़ेंगे। आप मुझेविधवा मत बनाओ। इस संसार में मैं किसके सहारे जीवित रहूँगी।

यदि कुछ पल के लिए भी आप मुझे दिखाई नहीं देते तो मुझे अपनाजीवन वीरान लगता है। आप लालच में आकर अपने प्राण दाँव परमत लगाओ। यदि आपको मेरी परवाह नहीं है तो बच्चों का ख्यालकीजिए। आपके बिना ये बच्चे भी अनाथ हो जाएँगे।”

कौवा राजा भी कौवी रानी की बात सुनकर वापस आ गया।

इसके बाद वे दोनों घोंसले में आ गए और अपने बच्चों के लिएखाने-पीने का प्रबंध करके फिर से उड़ गए। शाम होने से पहले हीवे दोनों बाहर गए और कुछ खाकर अपना पेट भर लिया और अपनेबच्चों के लिए नरम-नरम भोजन जबड़ों में भर लाए।

कौवी रानी अपने कौवे राजा को समझाते हुए बोली, “मेरेसरताज! आप तो कौवों के राजा हैं। आपकी सेना और सेनापति वप्रजा आपका यह काम आसानी से कर सकती है।”

कौवी की बात सुनकर कौवा प्रसन्न होकर कहने लगा,“आपकी सोच का मुकाबला कोई नहीं कर सकता। सचमुच, आप मेरीरानी बनने योग्य हैं। मैं कल सुबह सेनापति को स्वादिष्ट भोजन काप्रबंध करने की आज्ञा दे दूँगा।” इस प्रकार कौवा राजा और कौवीरानी स्वादिष्ट भोजन की लालसा में सारी रात जागते रहे।

दूसरे दिन सुबह कौवा और कौवी ऊँचे स्थआन पर बैठकरकाँव-काँव करने लगे। उनकी आवाज सुनकर कौवों की फौज आसपासके पेड़ों पर आकर बैठ गई। कौवे एक डाल से दूसरी डाल पर उछलरहे थे। सारे कौवे कभी आकाश में उड़ जाते तो कभी नीचे उतर आते।

कौवे राजा के बुलाने पर सेनापति कौवा हाथ जोड़कर बोला,“मेरे आका! मुझे आज्ञा दीजिए, मैं अपनी जान देकर भी आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।”

कौवे राजा ने अपनी स्वादिष्ट भोजन खाने की इच्छा प्रकट करदी। बस फिर क्या था, सेनापति ने बीस चतुर कौवों को बुलाकरअपनी योजना बता दी कि जब राजा को खाना परोसने के लिए थालमें भोजन जा रहा होगा तब मैं रसोइए की आँखों में ऐसा झपट्टा मारूँगाकि उसके हाथ से भोजन से भरा छाल छूटकर जमीन पर गिर जाएगाऔर तुम सब अपनी चोंच में भोजन भरकर उसी पेड़ पर बैठ जाना,जिस पेड़ पर कौवे राजा का घोंसला है। वहाँ से हम कौवे राजा कीशान में स्वादिष्ट भोजन पेश कर देंगे।’’

थोड़ी देर में रसोइया खाने से भरा थाल लेकर रसोई से बाहरनिकला तो सेनापति कौवे ने रसोइए की आँख पर झपट्टा मारा, जिससेरसोइए की आँखें बंद हो गइर्ं और उसके हाथ से थाल छूट गया।

सैनिक कौवों ने सारा भोजन अपने जबड़ों में भर लिया और उड़ गए।

रसोइया अपनी सहायता के लिए जोर-जोर से पुकार रहा था। राजमहलके द्वारपाल, चौकीदार सभी रसोइए की सहायता के लिए दौ़डने लगे।

रसोइए ने सेनापति कौवे की ओर इशारा करके बता दिया किइसी दुष्ट ने सारा खाना गिराया है। यदि आपने इसे नहीं पकड़ा तोराजा हमें मृत्युदंड दे देंगे। मृत्यु के भय से राजमहल के सिपाहीसेनापति कौवे को पकड़ने के लिए दौड़ने लगे। इतने सारे सिपाहियोंको अपने पीछे भागते देखकर सेनापति कौवा डर गया और उसे यकीनहो गया कि अब उसकी मृत्यु निश्चित है।

उड़ते-उड़ते सेनापति कौवा बुरी तरह से थक चुका था। उसकीआँखें बंद हो रही थीं। अब उसमें उड़ने की शक्ति भी नहीं थी। ह्रश्वयासके कारण उसकी चोंच खुलने लगी और जीभ बाहर निकल आई।

सेनापति कौवा जैसे ही जमीन पर गिरा तो रसोइए ने उसे दबोच लिया।

रसोइए ने कौवे को पकड़ा और बादशाह के सामने पेश करदिया। राजा बहुत बुद्धिमान था। उसने कहा कि कौवे के बयान के बादही उसकी सजा निश्चित की जाएगी। राजा ने कौवे सेनापति से कहाकि, “हम सच्चाई जानना चाहते हैं कि तुमने हमारा खाना क्यों औरकिसके कहने पर गिराया? ऐसा पाप करने से पहले तुम्हें जरा भी डरनहीं लगा?”

सेनापति कौवे ने गिड़गिड़ाकर कहा, “महाराज! मैं कौंवों केचक्रवर्ती राजा का सेनापति हूँ। उनकी आज्ञा से मैं स्वादिष्ट और पौष्टिकभोजन इकट्ठा करने के लिए आपकी पूरी रियासत में घूम रहा था।

आपके भोजन से अच्छी सुगंध मुझे कहीं नहीं मिली। मैंने योजनानुसाररसोइए की थाली का भोजन जमीन पर गिरा दिया और अपने सैनिकोंकी सहायता से इकट्ठा करके अपने राजा के पास ले जा रहा था किआपके सिपाहियों ने मुझे पकड़ लिया। एक आज्ञाकारी सेनापति कोजो भी आप दंड़ देंगे वह मुझे स्वीकार होगा। मैंने तो सिर्फ अपनेराजा की आज्ञा का पालन किया है।”

राजा भी बहुत बुद्धिमान था। उन्होंने सोचा कि यदि अपनेस्वामी के प्रति वफादारी करने वाले इस कौवे सेनापति को मृत्यु-दंडदिया गया तो मेरी प्रजा भी मेरे प्रति वफादार नहीं होगी। सभी लोगस्वामीभक्ति को अभिशाप समझेंगे। ऐसा सोचकर राजा ने सेनापति कौवेको जीवनदान दे दिया।

सारी प्रजा ने राजा के निर्णय की प्रशंसा की। वे सब राजाकी महानता देखकर बहुत प्रसन्न हुए। सेनापति कौवा भी प्रसन्न होकरउड़ता हुआ अपने साथियों के पास आ गया। अपने साथियों से भोजनलेकर उसने कौवे राजा के सामने प्रस्तुत किया। कौवे राजा और कौवीरानी ने स्वादिष्ट भोजन खाया और सेनापति कौवे की स्वामीभक्ति कीबहुत प्रशंसा की।

शिश्य की बुद्धिमानी

पंडित सूर्यपति ने नगर के बाहर प्रकृति के सुरम्य वातावरण में अपना आश्रम बना रखा था। यह आश्रम प्रकृति की गोद में था, जहाँ चारों ओर हरियाली ही हरियाली थी। चारों ओर घने छायादार वृक्ष थे, जिन पर बहुत-से पक्षी अपना घोंसला बनाकर रहते थे। पास में ही शीतल जल से परिपूर्ण एक नदी बहती थी। फल और पूलों से लदे हुए अनेक वृक्ष थे। पंडित सूर्यपति के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूर-दूर से विद्यार्थी आते थे।

उस समय के विद्वान पंडितों में पंडित सूर्यपति की गिनती की जाती थी। उनके पास राजा-महाराजाओं और शहर के अमीर लोगों के भी बच्चे शिक्षा ग्रहण करने आते थे।

पंडितजी अपनी इकलौती पुत्री को अपनी जान से भी अधिक प्रेम करते थे। अपनी पुत्री का विवाह करने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था। एक बार पंडित जी ने सोचा कि मुझे अपने विद्यार्थियों की परीक्षा लेनी चाहिए कि सबसे बुद्धइमान और निपुण कौन है? जो भी विद्यार्थी सबसे बुद्धिमान होगे, मैं उसी के साथ अपनी कन्या का विवाह कर दूँगा।

दूसरे दिन पंडित जी ने सभी विद्यार्थियों को एक स्थान पर बुलाकर कहा, “देखो बच्चों! आप सब जानते हैं कि मेरी एक पुत्री है, अपनी पुत्री को दहेज में देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। मैं आप सबका बुद्धि-परीक्षण करना चाहता हूँ। तुम सब में जो भी बुद्धिमान होगा, उसी के साथ मैं अपनी पुत्री का विवाह कर दूँगा। तुम्हें मेरी पुत्री के विवाह के लिए कपड़े, गहनों तथा दूसरी जरूरी वस्तुओं की व्यवस्था करनी होगी। भले ही तुम चोरी करके लाओ, लेकिन तुम्हारी चोरी के विषय में किसी को पता नहीं चलना चाहिए। चोरी बिलकुल गुह्रश्वत रहनी चाहिए। यदि किसी की चोरी का भेद खुल गया तो मैं उसके द्वारा लाई वस्तुओं को कभी भी स्वीकार नहीं करूँगा।”

गुरुदेव की आज्ञा सुनते ही सभी विद्यार्थी अधिक-से-अधिक समान जुटाने में लग गए। जो भी विद्यार्थी सामान लाता, उसे चुपचापगुरुदेव के पास जमा करा देता। सभी विद्यार्थी अधिक-से-अधिकसामान इकट्ठा करने में लगे हुए थे। गुरुदेव सभी विद्यार्थियों द्वारा लाईगई वस्तुओं को अलग-अलग रखते थे ताकि उनका बुद्धि-परीक्षणठीक से हो सके।

एक शिष्य ऐसा भी था, जो चुपचाप उदास बैठा रहता था।

उसको उदास देखकर गुरुदेव ने कहा, “वत्स भीमसेन! तुम बहुत दुःखीदिखाई दे रहे हो। तुम्हारे साथी तो मेरे लिए रोज कुछ-न-कुछ चुराकर

लाते हैं लेकिन तुम आज तक कुछ भी चुराकर नहीं लाए।”

भीमसेन ने कहा, “गुरुदेव! आपने तो कहा था कि तुम जोकुछ भी चुराकर लाओ, उसका किसी को भी पता नहीं चलना चाहिए।

चोरी बिलकुल गुह्रश्वत तरीके से होनी चाहिए। किंतु गुरुदेव! हम अपनीआत्मा से कुछ नहीं छिपा सकते। हमारे द्वारा की गई चोरी का हमारीआत्मा को अवश्य पता चल जाएगा। फिर आप ही बताएँ कि चोरीगुह्रश्वत तरीके से कैसे की जा सकती है?”

गुरुदेव ने प्रसन्न होकर कहा, “वाह बेटा! हम तुम्हारी बात सेबहुत प्रसन्न हैं। हमारे शिष्यों में सबसे बुद्धिमान तुम्हीं हो। जिस बातको मेरा कोई भी शिष्य नहीं समझ सका उसे तुम समझ गए। मेरेविचार से तुम मेरी पुत्री के योग्य हो।”

इसके बाद गुरुदेव ने सभी शिष्यों को बुलाकर कहा, “देखोबच्चों! मेरे विचार से भीमसेन ही सबसे बुद्धिमान और मेरी पुत्री कापति बनने योग्य है।” गुरुदेव की बात सुनकर सभी शिष्यों ने कहा,“गुरुदेव! भीमसेन ने तो आप की आज्ञा का पालन भी नहीं किया।

वह आपके लिए कोई भी वस्तु चुराकर नहीं लाया, फिर भी वह हमसेबुद्धिमान कैसे हो सकता है?”

गुरुदेव अपने शिष्यों को समझाते हुए बोले कि, “बच्चों! मेरीशर्त यह थी कि चोरी का किसी को भी पता नहीं चलना चाहिए।

तुम्हारे द्वारा की गई चोरी का तुम्हारी आत्मा को मालूम था इसलिएवह चोरी गुह्रश्वत नहीं रही और तुमने शर्त का ठीक से पालन नहीं किया।

इस बात को केवल भीमसेन ही समझ पाया। मैं अपनी पुत्री का विवाहभीमसेन से करूँगा। मुझे अपनी पुत्री को दहेज नहीं देना। तुम सारीवस्तुएँ जहाँ से चोरी करके लाए थे, वहीं पर वापस रख आओ। इसपरीक्षा में केवल भीमसेन ही खरा उतरा है।”

गुरुदेव की बात सुनकर सभी शिष्य बहुत प्रसन्न हुए औरउन्होंने गुरुदेव से भीमसेन की बुद्धिमानी की बहुत प्रशंसा की।

गीदड़ की मौत

किसी जंगल में एक गीदड़ रहता था। एक बार वह भूख-ह्रश्वयास से व्याकुल होकर सुबह से शाम तक भटकता रहा लेकिन उसेकुछ भी खाने को नहीं मिला। भूख ने उसे पागल बना दिया था। उसमेंस्वयं शिकार करने की हिम्मत नहीं थी। उस गीदड़ से तो जंगल केछोटे-छोटे जीव भी नहीं डरते थे।

तभी गीदड़ ने देखा कि सामने से शेर आ रहा है। शेर कोदेखते ही गीदड़ डर गया। वह सोचने लगा कि आज तो यह मुझेभूखा ही मार डालेगा। इस शेर से बचने का कोई उपाय खोजनाचाहिए। गीदड़ बहुत ही चालाक जानवर माना जाता है। वह हमेशा हीमौके की तलाश में रहता है। गीदड़ ने शेर से कहा, “हे जंगल केराजा! आपके चरणों में गरीब का प्रणाम! वैसे तो आपके राज्य मेंसभी सुखी हैं किंतु मेरे जैसे अभागे जानवर को कभी-कभी दुःख

उठाना पड़ता है। एक तो मैं डरपोक गीदड़, दूसरे भूखा और अकेलाहूँ। भूखा जीव भला सुखी कैसे रह सकता है?”

शेर ने कहा, “धीरज रखो, अब तुम्हें चिंता करने की कोईआवश्यकता नहीं है। मेरे साथ चलकर रहो और भोजन की चिंता मुझपर छोड़ दो।” शेर की बात सुनकर गीदड़ बहुत प्रसन्न हुआ। उसगीदड़ की जान भी बच गई और जंगल के राजा शेर का साथ भीमिल गया।

इसके बाद शेर गीदड़ को अपनी गुफा में ले आया। शेर कीगुफा में हाथी का माँस देखकर गीदड़ की भूख और तेज हो गई। तभीशेर ने कहा, “तुम बहुत भूखे हो, सामने जो हाथी का माँस पड़ा है,उसे खाकर अपना पेट भर लो।” शेर की बात सुनकर गीदड़ ने भरपेटहाथी का माँस खाकर अपनी भूख मिटा ली और वहीं पर गहरी नींदसो गया।

शेर के साथ रहने का गीदड़ ने मन ही मन निश्चय करलिया। दूसरे दिन शिकार पर जाते समय शेर ने गीदड़ से कहा,“देखो, तुम मेरे मेहमान हो। तुम हमारी गुफा में आराम करो। हमतुम्हारे लिए शिघ्र ही भोजन का प्रबंध करके वापस आते हैं।”

गीदड़ ने कहा, “नहीं, आप जंगल के राजा हैं। आप राजाहोकर अकेले ही जंगल में घूमते रहें, यह तो बड़े शरम की बात है।

राजा के साथ मंत्री का चलना भी आवश्यक होता है।” इस प्रकारगीदड़ की बात सुनकर शेर ने उसे अपना मंत्री बना लिया।

अब तो गीदड़ जंगल में बड़ी शान से घूमने लगा। राजा कामंत्री होना उसके लिए बड़े गौरव की बात थी। गीदड़ को देखते हीछोटे-मोटे जानवर भाग जाते थे। मंत्री बनते ही गीदड़ के पंख निकलआए। वह छोटे-छोटे जानवरों पर रौब जमाने लगा।

दूसरे दिन शेर ने गीदड़ से कहा, “तुम सामने वाली पहाड़ीपर पहरा देना। यदि कोई पशु आए तो मुझे सूचित करना। तुम्हारासंकेत पाकर मैं उस पशु को मारकर अपना भोजन बना लूँगा। मेरे खानेके बाद जो कुछ भी बचे, उसे तुम खा लेना।”

शेर की बात मानकर गीदड़ पहाड़ी पर पहरा देने के लिएचला गया और चारों ओर ध्यान से देखने लगा कि कहीं कोई पशुतो नहीं आ रहा। तभी गीदड़ को एक हाथी दूर से आता हुआ दिखाईदिया। हाथी को देखकर गीदड़ दौड़कर शेर के पास आया और कहनेलगा कि, “महाराज! हमारे इलाके में एक खूनी हाथी घुस आया है।”

हाथी का नाम सुनते ही शेर दुम उठाकर पूरी शक्ति के साथजोर से दहाड़ने लगा। क्रोध के कारण शेर की आँखें अँगारे के समानलाल हो गइर्ं। शेर की दहाड़ सुनकर छोटे-छोटे जानवर इधर-उधर छिपगए ताकि अपनी जान बचा सकें। आगे-आगे शेर पहाड़ी की ओरदौड़ा और पीछे-पीछे गीदड़ दौड़ने लगा। क्रोधित होकर शेर पूरे जोशके साथ हाथी पर टूट पड़ा।

उन दोनों के भयंकर युद्ध को देखकरऐसा लगा कि मानो दो पहाड़ आपस में टकरा गए हों। हाथी कीचिंघाड़ से तो पूरा जंगल ही हिल गया। शेर के सामने हाथी अधिकदेर तक ठहर न सका और मौत के मुँह में चला गया। शेर ने बड़ेमजे से हाथी का माँस खाया और बाकी का बचा हुआ माँस गीदड़ने खा लिया।

गीदड़ मन-ही-मन यह सोचकर खुश था कि शेर का मंत्रीबनने के बाद उसे कभी भूखा न रहना पड़ेगा। शेर के साथ रहने केकारण ही गीदड़ मोटा-ताजा हो गया। अब तो गीदड़ का रंग ही बदलगया। गीदड़ को देखकर छोटे-छोटे जानवर डरकर दूर भागने लगे।

गीदड़ को अब किसी की सहायता की जरूरत नहीं थी।

अब गीदड़ स्वयं को बहुत शक्तिशाली समझने लगा। वहसोचने लगा कि अब मैं अपना शिकार स्वयं कर सकता हूँ तो फिरशेर की जूठन क्यों खाऊँ? ऐसा सोचकर गीदड़ शेर से बोला, “हेजंगल के राजा! अब मैं अपनी शक्ति से हाथी को भी मार सकताहूँ। कृपया अब मुझे घर जाने की आज्ञा दे दीजिए।”

गीदड़ की बात सुनकर शेर को बहुत ही हैरानी हुई। शेरसोचने लगा कि मुफ्त का भोजन खा-खाकर इस गीदड़ का दिमागखराब हो गया है। पहले तो यह बहुत कमजोर था लेकिन अब छोटेहाथी के समान दिखाई दे रहा है। इसे अपनी शक्ति पर बड़ा घमंडहो गया है। गीदड़ का घमंड उसे अवश्य ही मौत के मुँह में धकेलदेगा।

शेर ने गीदड़ को समझाते हुए कहा, “देखो गीदड़! तुम स्वयंको मेरे समान शक्तिशाली समझने की भूल मत करो। हर कोई शिकारनहीं कर सकता। मेरी बात मानो और मेरे पास रहो और सारी जिंदगीआराम से रहो। तुम्हें भोजन की चिंता करने की भी जरूरत नहीं है।”

गीदड़ ने कहा, “हे जंगल के राजा! आप मेरे गुरु हैं। मैंअपनी शक्ति के बल पर जीना चाहता हूँ। आप मुझे आशीर्वाद दीजिएकि मैं अपने काम में सफल रहूँ।”

गीदड़ की बात सुनकर शेर ने कहा, “गीदड़ महाराज! यदितुम्हें अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा है तो तुम आज से राजा बन जाओऔर मैं तुम्हारा मंत्री बन जाऊँगा। तुम गुफा में जाकर आराम करो औरमैं पहाड़ी पर जाता हूँ।” इतना कहकर शेर पहाड़ी पर चला गया औरगीदड़ गुफा में चला गया। राजा बनने की खुशी में गीदड़ घमंडी होगया। वह जोर-जोर से हँस रहा था। उसे खुशी इस बात की थी किशेर उसका मंत्री है।

गीदड़ यही सोचता था कि जंगल के दूसरे जानवर उसकीशक्ति से डरकर ही उसे नमस्कार करते हैं। परंतु वास्तव में ऐसा नहींथा। गीदड़ शेर का साथी था इसलिए सारे जानवर गीदड़ को नमस्कारकते थे। गीदड़ को अपनी शक्ति पर बहुत अभिमान हो गया था।

शेर पहाड़ी पर बैठकर चारों ओर देख रहा था कि कोई जानवरतो नहीं आ रहा। तभी उसे एक हाथी दिखाई दिया। शेर दौड़कर गीदड़के पास आकर बोला, “महाराज! उठो! हाथी आ गया है। जल्दीचलिए।”

शेर की बात सुनकर गीदड़ घमंड़ से उठकर बोला, “शिकारकरना ही हमारा काम है। हम इस जंगल के राजा हैं। चलो सेवक,हमारे पीछे चलो।” इतना कहकर शेर के समान ही गीदड़ भी दहाड़नेलगा। गीदड़ को दहाड़ते हुए देखकर शेर मन-ही-मन में प्रसन्न होरहा था।

गीदड़ को स्वयं पर पूरा विश्वास था कि वह भी हाथी कोशेर के समान ही मार देगा। पहाड़ी पर एक ओर हाथी चिंघाड़ रहाथा तो दूसरी ओर गीदड़ दहाड़ रहा था। गीदड़ ने जैसे ही छलाँगलगाई तो हाथी ने उसे हवा में लपककर अपनी सूँड में लपेट लिया।

पहले तो हाथी ने गीदड़ को ऊपर उठाया और फिर जमीन पर पटकदिया। गीदड़ ने उठने की बहुत कोशिश की परंतु हाथी ने उसके ऊपरअपना भारी पैर रख दिया। बेचारा गीदड़ देखते-ही-देखते मारा गया।

गीदड़ को मरा देखकर शेर मन-ही-मन हँस रहा था। शेर सोचरहा था कि गीदड़ कभी भी शेर नहीं बन सकता। जिसका जो कामहै, वह उसी को करना चाहिए।

हाथी और बटेर

बहुत पहले की बात है कि किसी जंगल में एक बहुत बड़ातालाब था। उस तालाब के किनारे बहुत सारे फलदार पेड़ लगे थे औरतालाब के बीच में अनेक कमल के फूल खिले थे। ठंडी-ठंडी हवाधीमी गति से चल रही थी। वहाँ का वातावरण देखकर ऐसा लग रहाथा कि मानो यही पृथ्वी का स्वर्ग है।

एक नर बटेर अपनी मादा बटेर के साथ उसी तालाब केकिनारे रहता था। प्रकृति के इस सुरम्य वातावरण में वे दोनों घंटोंफुदकते रहते थे। उन दोनों को इस प्रकार फुदकते देखकर ऐसा लगताथा कि मानो उन्होंने शरम के सभी बंधनों को तोड़ दिया हो।

एक दिन मादा बटेर अपने नर बटेर को तालाब के दूसरेकिनारे पर ले गई। वहाँ पर तीन अंडों को देखकर नर बटेर खुशीसे झूम उठा। वे दोनों बहुत देर तक खुशी से नाचते रहे। नाचकरवे दोनों अपने मन की प्रसन्नता व्यक्त कर ही रहे थे कि अचानकउनके नाचने की गति धीमी पड़ गई। उनके मन में बुरे ख्याल आनेलगे, जिसके भय से उनका हृदय काँपने लगा। उन्हें भय इस बात काथा कि कहीं कोई उनके अंडों को फोड़ न दे।

उसी तालाब पर कुछ हाथी रोज पानी पीने और नहाने के लिएआते थे। बटेर दंपति इस बात को जानते थे कि हाथियों को अपनीकूद-फाँद के सिवा और किसी बात से कोई मतलब नहीं है। यदिकिसी हाथी का पैर उनके अंडों पर पड़ गया तो अंडे टूट जाएँगे।

ये अंडे ही बटेर-दंपि्रूद्गा का जीवन थे। वे दोनों तो इसी खुशी मेंजीवित थे कि कब उनके अंडों में से चूजे निकलेंगे और उन्हें चूँ-चूँ की मधुर आवाज सुनाई देगी।

हाथी अपने पैरों से उनके अंडों को कुचल न दे, इसी विचारसे बटेर-दंपि्रूद्गा व्याकुल हो गए। उनका चहकना-फुदकना सब बंद होगया। वे दोनों रात की नींद और दिन का खाना भी भूल गए। वेदोनों इसी चिंता में रहते थे कि न जाने कब हाथियों का झुँड आ जाएऔर उनके अंडों को कुचल दे।

तभी बटेर-दंपि्रूद्गा ने हाथियों के आने की आवाज सुनी तोउनके पैरौं को नीचे से जमीन ही खिसक गई। वे डरी हुई आँकों सेइधर-उधर देखने लगे। अपने परिवार का विनाश होने की आशंका सेउन दोनों के चेहरे का रंग ही फीका पड़ गया। मन-ही-मन वे भगवानको याद करने लगे कि, “हे भगवान! जिस प्रकार आपने द्रौपदी कीलाज बचाई, सूरदास को सही मार्ग दिखाया और वाल्मीकि को अच्छाइन्सान बनाया, उसी प्रकार हमारे बच्चों की रक्षा करो, ताकि हम भीअपने परिवार के साथ खुशी के पल बिता सकें।”

हाथियों का झुँड अपनी सूँडों को लहराता हुआ और मस्ती मेंझूमता हुआ उसी ओर चला आ रहा था। हाथी जोर-जोर से चिंघाड़रहे थे। मादा बटेर जोर-जोर से रोने लगी और बोली, “स्वामी बटेर!

मैं आने वाली मुसीबत को अपनी आँखों से देख रही हूँ। मैं भी एकमाँ हूँ। यदि आप भी मेरी नजर से देखोगे तो जान जाओगे की इनदुष्ट हाथियों से हमें केवल भगवान ही बचा सकता है।”

नर बटेर ने भी रोते हुए कहा, “जिसने संतान का वियोग देखाहो, वही बाप का दुःख समझ सकता है। मैं भी तो पिता हूँ।”

तभी वहाँ पर झूमता हुआ हाथियों का झुँड आ गया। मादा बटेरने हिम्मत दिखाते हुए हाथियों के राजा को रोककर प्रार्थना की, “हे

हाथियों के राजा! हमें जीवन-दान दे दो। हमारे बच्चों पर दया करोऔर उन्हें कोई भी नुकसान मत पहुँचाओ। हम जीवन-भर तुम्हारेआभारी होंगे।”

हाथियों का राजा बहुत दयालू था। उसने मादा बटेर कोसांत्वना देते हुए कहा, “तुम चिंता मत करो। जब तक हाथी पानीपिएँगे और स्नान करेंगे तब तक मैं तुम्हारे घोंसले के पास खड़ा रहकरतुम्हारे अंडों की रखवाली करूँगा।” इतना कहकर हाथी राजा बटेर केघोंसले के पास खड़ा हो गया।

धीरे-धीरे सभी हाथियों ने तालाब में पानी पिया और स्नानकरके जाने लगे। तभी एक मस्त हाथी झूमता हुआ आया और बटेरके घोंसले के पास आकर खड़ा हो गया।

इस मस्त हाथी को देखकर बटेर-दंपति घबरा गया।

मादा बटेर दुःखी होकर नर बटेर से बोली, “स्वामी! इस हाथीकी नजर हमारे बच्चों पर पड़ गई है। यह अवश्य ही हमारे बच्चोंको हानि पहुँचाएगा।” मादा बटेर को दुःखी देखकर नर बटेर बोला,“तुम चिंता मत करो। हम हाथ जोड़कर इस हाथी से भी दया कीभीख माँग लेंगे।”

बटेर-दंपि्रूद्गा जानते थे कि हाथी दुष्ट और स्वभाव से क्रूर है,हमारी प्रार्थना का इसके ऊपर कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। लेकिनफिर भी वे दोनों उस दुष्ट हाथी से अपने बच्चों की रक्षा की भीखमाँगने लगे। उस दुष्ट हाथी ने एक ही पल में बटेर-दंपि्रूद्गा की आँखोंके सामने उनके अंडों को कुचल दिया। अपनी दुनिया को उजड़तेदेखकर बटेर-दंपि्रूद्गा बहुत देर तक रोते रहे। उस जंगल में उन्हें सांत्वनादेने वाला कोई नहीं था। बहुत देर तक रोने-बिलखने के बाद बेचारेदोनों चुप हो गए।

शांत होने के बाद बटेर ने कहा, “जब तक मैं अपने बच्चोंकी मृत्यु का बदला उस दुष्ट हाथी से नहीं लूँगा, तब तक चुप बैठनेवाला नहीं हूँ। चाहे हाथी कितना भी मोटा-ताजा क्यों न हो, लेकिनउसे अपनी करनी का फल भुगतना ही पड़ेगा।” इतना कहकर बटेरअपनी बटेरी को साथ लेकर अपने कौवे के पास गया। उस समयकौवा बरसात आने से पहले ही अपने घोंसले को ठीक कर रहा थाताकि वर्षा आने पर उसके बच्चों को कोई क्षति न हो। बटेर औरबटेरी को देखते ही कौवा बहुत खुश हुआ।

बटेर ने कहा, “भाई कौए! बहुत जरूरी काम के लिए मैंतुम्हारे पास तुम्हारी भाभी के साथ आया हूँ।” बटेर दंपि्रूद्गा ने दुष्ट हाथीकी सारी कहानी कौवे को रो-रोकर बताई कि किस प्रकार हाथी नेउनके अंडे और घोंसले को नष्ट कर दिया है। बटेर दंपि्रूद्गा की व्यथासुनकर कौवा आग-बबूला हो गया और उसने दुष्ट हाथी से बदला लेनेका निश्चय कर लिया।

कौवे ने बटेर-दंपि्रूद्गा के साथ मिलकर हाथी को मारने के लिएएक योजना बना ली। कौवे ने तय किया कि, “वह हाथी की आँखमें चोंच मारकर उसे अंधा कर देगा और चींटी दुष्ट हाथी की आँखमें अपने अंडे डाल देगी। कुछ समय बाद अंडों में से बच्चे निकलकरहाथी की आँख में काटेंगे। इससे हाथी को बहुत कष्ट होगा। फिर हाथीपानी की खोज करेगा और हमारा मित्र मेढक तालाब से बाहर आएगाऔर बिना पानी वाले स्थान पर जाकर टर्र-टर्र करने लगेगा। हाथीमेढक का पीछा करेगा और मेढक हाथी को पहाड़ की चोटी पर लेजाएगा। हाथी पहाड़ से नीचे गिरकर अपने किए की सजा भुगतेगा।

इस योजना के द्वारा हम हाथी से बदला ले सकते हैं।”

दूसरे दिन बटेर ने कौवे को उस दुष्ट हाथी की पहचान करवादी। कौवे ने हाथी के ऊपर उड़ना आरंभ कर दिया और अवसर पातेही हाथी की दाहिनी आँख अपनी चोंच मारकर फोड़ दी। कौवा तेजीसे ऊपर उड़ गया और हाथी दर्द से तडपने लगा। हाथी अभी अपनेको ठीक से संभाल भी नहीं पाया था कि कौवे ने उसकी बाँयीं आंखभी फोड़ दी। दोनों आँखों के फूटने के कारण हाथी बेबस हो गया।

चींटी भी अवसर की तलाश में थी, उसने शीघ्र ही हाथी कीदोनों आँखों में अंडे दे दिए। तीन दिन बाद चींटी के अंडों में सेबच्चे निकल आए और हाथी का आँख में काटने लगे। हाथी पानीकी तलाश में इधर-उधर भटकने लगा। अब मेढक को अपना कामकरना था। मेढक ने भी टर्र-टर्र करना शुरू कर दिया।

मेढक की आवाज सुनकर हाथी बहुत प्रसन्न हुआ। हाथी सोचरहा था कि यहाँ पर पानी अवश्य होगा। हाथी ने अपनी सभ्दभेदीताकत का प्रयोग किया और मेढक का पीछा करने लगा। धीरे-धीरेमेढक टर्र-टर्र करता हुआ हाथी को पहाड़ी की चोटी पर ले गया।

हाथी पहाड़ की चोटी से निचे गिरा और मर गया। हाथी की टाँगें,सूँड टूटकर जमीन पर उधर-उधर बिखर गए। चील और गिद्ध हाथीके शरीर के टुकड़ों को खाकर अपनी भूख मिटाने लगे।

इस प्रकार छोटे-छोटे जीवों ने मिलकर विशाल हाथी को मौतके घाट उतार दिया। हाथी को अपने पाप की सजा मिल गई।

करनी का फल

किसी समय मिथिला के जंगल में एक धूर्त सियार रहता था।

वह इतना आलसी था कि अपना पेट भरने के लिए चूहे और खरगोशोंको भी शिकार करना नहीं चाहता था। शिकार करने में तो परिश्रमकरना पड़ता है, लेकिन वह सियार मेहनत करने से हमेशा दूर भागताथा। उसकी बुद्धि बहुत चतुर थी। वह हमेशा इसी ताक में रहता थाकि बिना परिश्रम किए ही उसे भोजन मिल जाए, जिसे खाकर वहआराम से सो जाए।

एक दिन सियार झाड़ी में छिपकर बैठा था। उसने देखा किकुछ चूहे उछल-कूद करते हुए इधर-उधर भाग रहे थे। एक मोटा-ताजा चूहा भी उनके साथ दौड़ रहा था, जिसे सभी चूहे सरदार कहरहे थे। अपने सरदार की आज्ञा का पालन सभी चूहे कर रहे थे। उनचूहों को भागते देखकर सियार के मुख से लार टपकने लगी और भूखतेज हो गई। उसके शैतानी दिमाग में तरह-तरह के विचार आने लगे।

जब चूहे अपने बिल में जाने लगे तो सियार ने उनकरा पीछा करकेबिल देख लिया।

दूसरे दिन सियार चूहों के बिल के पास आँख बंद करके औरदोनों हाथ जोड़कर एक टाँग पर खड़ा हो गया। सियार का मुख उगतेसूर्य की ओर था। चूहे अपने बिल से बाहर निकले तो सियार कोइस प्रकार खड़े देखकर हैरान हो गए। एक चूहा सियार के पास जाकरबोला, “मामा! किस कारण से तुम एक टाँग पर खड़े रहकर स्वयंको कष्ट दे रहे हो?”

सियार बोला, “अरे मूर्ख चूहे! यदि मैंन इस पृथ्वी पर अपनीचारों टाँगें टिका दीं तो यह पृथ्वी हिल जाएगी और तुम सब मरजाओगे। तुम्हारे कल्याण के लिए ही मैं एक टाँग पर खड़ा हूँ।”

सियार की बात सुनकर चूहे आपस में खुसर-पुसर करने लगे और बादमें वहीं पर आकर खड़े हो गए।

चूहों का सरदार बोला, “हे सियार! तुम सचमुच महान्‌ हो, जोहमारे कल्याण के लिए स्वयं इतना कष्ट उठा रहे हो। कृपया, हमें अपनेबारे में सबकुछ बता दीजिए।” चूहों के सरदार की बात सुनकर सियारकहने लगा, “बहुत पहले मैंने हिमालय पर्वत पर एक टाँग पर खड़ेहोकर तपस्या की थी। सैंकड़ों वर्षों की तपस्या से खुश होकर देवताओंने मेरे ऊपर फूलों की वर्षा की और कहा कि मेरा भार इतना अधिकबढ़ जाएगा कि यदि मैंने चारों पैर जमीन पर रख दिए तो यह पृथ्वीजमीन को फोड़ती हुई दूसरी ओर निकल जाएगी। मेरी कृपा के कारणही यह धरती टिकी है। मैं जीवों को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहता इसलिएएक टाँग पर ही खड़ा हूँ।”

सियार की बातें सुनकर सभी चूहे बहुत प्रभावित हुए और हाथजोड़कर खड़े हो गए। तभी एक चूहे ने कहा, “हे तपस्वी मामा! तुमसूर्य की ओर मुँह करके क्यों खड़े हो?” सियार बोला, “मैं सूर्य कीपूजा कर रहा हूँ, इसलिए मेरा मुँह सूर्य की ओर है। मेरा मुँह इसलिएखुला है कि मैं हवा खाकर ही जीवित रहता हूँ। मेरे तप की शक्तिही हवा को तरह-तरह के स्वादिष्ट पकवानों में बदल देती है। मुझेभोजन की जरूरत ही नहीं पड़ती।”

सियार की बातों सुनकर चूहों का भय निकल गया और सारेचूहे सियार के नजदीक आने लगे। चूहों को अपने पास आता देखकरधूर्त सियार बहुत खुश होता था। धीरे-धीरे सारे चूहे सियार के भक्तबन गए। चूहे सियार के चारों और बेठकर ढोलक, मंजीरे, चिमटे औरखड़ताल बजाते और भजन गाते-सियार सियारम्‌ भजनम्‌ भजनम्‌।

भजन-कीर्तन करते समय चूहे भक्ति-रस में डूब जाते थे। कीर्तसमाह्रश्वत होने के बाद जब चूहे अपने बिल में जाने लगते तो सियारपीछे वाले दो-तीन चूहों को दबोचकर खा जाता और फिर आराम सेसो जाता था। रोज सुबह सियार का यही काम था कि वह चूहों केबिलके सामने सूर्य की ओर मूँह करके एक टाँग पर खड़ा हो जाता था।

सियार का यह नाटक बहुत दिन तक चलता रहा।

एक दिन चूहों के सरदार ने सोचा कि चूहे कम क्यों हो रहेहैं? एक दिन चूहों के सरदार ने कहा, “हे महात्मा सियार! क्या कारणहै कि मेरी टोली के चूहों की संख्या कम हो रही है?” सियार बोला,“हे चतुर मूषक! जो चूहे सच्चे मन से मेरी भक्ति करते हैं उन्हें शरीरसहित वैकुंठ की प्राह्रिश्वत होती है। बहुत से चूहों को मेरी भक्ति काफल प्राह्रश्वत हो चुका है।”

चूहों का सरदार बहुत बुद्धिमान था। वह सोचने लगा कि कहींसियार का पेट तो वैकुंठ नहीं है, जहाँ सारे चूहे धीरे-धीरे जा रहे हैं।

चूहों के सरदार ने अपने साथियों को इस बात से अवगत कराया औरमन-ही-मन निश्चय कर लिया कि वह सच्चाई का पता लगाकर हीरहेगा। उसने निश्चय कर लिया कि वह आज बिल के अंदर सबकेबाद में घुसेगा।

दूसरे दिन भजन-कीर्तन के बाद चूहों का सरदार सबसे पीछेथा। सारे चूहे तो बिल में घुस गए, लेकिन चूहों का सरदार धीरे-धीरे चल रहा था। सियार ने जैसे ही चूहों के सरदार को दबोचनाचाहा तो वह कूदकर बहूत दूर चला गया। चौकन्ना रहने के कारणही चूहों का सरदार सियार के चंगुल से बच गया।

चूहों के सरदार ने सभी चूहों को आदेश दिया कि वे सबएक साथ मिलकर आक्रमण कर दें। चूहों के सरदार ने कूदकर अपनेदाँत सियार की गरदन में गड़ा दिए। देखते ही देखते सभी चूहों नेमिलकर महात्मा सियार को मौत के घाट उतार दिया। चूहे सियार कीबोटी-बोटी नोचकर खा गए। केवल वहाँ पर सियार की अस्थियाँ हीपड़ी थीं।

इस प्रकार जल्दी ही उस ढोंगी सियार की असलियत सबकेसामने आ गई। उसे अपनी करनी का फल मिल गया। ढोंग अधिकसमय तक नहीं चलता। असलियत पता चलने पर ढोंगी सियार कोअपनी करनी का फल भुगतना ही पड़ा।

सच्ची मित्रता

सच्चे दोस्त वही होते हैं, जो जरूरत पड़ने पर सहायता करते हैं। दोस्ती अमीर-गरीब, कमजोर-ताकतवर, छोटा-बड़ा किसी के बीच भी हो सकती है। सच्ची दोस्ती के लिए इन्सान का ताकतवर होना जरूरी नहीं है। सच्चा दोस्त वही है जो वफादारी निभाए और जरूरत पड़ने पर काम आए।

किसी जंगल में एक शक्तिशाली शेर रहता था। शेरनी और अपने दो बच्चों के साथ वह बहुत खुश था। वह जंगल में सारे दिन दहाड़ता और पूँछ उठाकर इधर-उधर घूमता रहता था। मौज-मस्ती करना और शिकार करना ही उसका काम था। उसे किसी बात की कोई चिंता नहीं थी।

कुछ शिकारियों की नजर उस शेर पर पड़ गई और वे शेर को पकड़ने की योजना बनाने लगे। शिकारियों ने बाजार में शेर की खाल का भी सौदा कर डाला। शिकारियों का विचार था कि यदि शेर पकड़ा गया तो उससे शेरनी और बच्चों को भी पकड़ने में कोई कठिनाई नहीं होगी। शेर बहुत ही चालाक और बुद्धिमान था। वह शिकारियों का इरादा समझ गया। शेर जैसे ही शिकारियों को देखता तो वहाँ से दुम दबाकर भाग जाता था।

शिकारियों ने शेर को पकड़ने के लिए एक सभा का आयोजन किया, जिसमें बुजुर्ग और अनुभवी शिकारियों ने भी भाग लिया। सभा में इस बात पर बहस हुई कि शेर को किस प्रकार पकड़ना चाहिए।

किसी शिकारी ने तीरों की बौछार करके शेर को पकड़ने का सुझाव दिया तो किसी ने बंदूक से मारने का सुझाव दिया। एक शिकारी ने जाल द्वारा शेर को पकड़ने का प्रस्ताव सबके सामने रखा, जिसे सर्वसम्मति से मंजूर कर लिया गया। जिस रास्ते से शेर तालाब पर पानी पीने आता था, उसी रास्ते पर शिकारियों ने जाल डालने का निश्चय कर लिया।

रात को चाँद निकल आया, तो शेर चाँद की चाँदनी में तालाब की ओर पानी पीने के लिए भागने लगा। भागते-भागते शेर की दाहिनी टाँग जाल में फँस गई। शेर ने अपनी टाँग छुड़ाने की बहुत कोशिश की लेकिन वह अपनी टाँग में से जाल निकाल नहीं पाया। इसी कोशिश में शेर पूरा ही जाल में उलझ गया। फिर शेर स्वयं को बचाने के लिए जोर-जोर से दहाड़ने लगा।

शिकारियों ने जाल लगाया और अपने-अपने घरों में आराम से जाकर सो गए। शिकारियों ने तय किया था कि अभ वे सुबह आकर शेर को जाल सहित ही पकड़कर ले जाएँगे। शेर ने स्वयं को जाल से निकालने की बहुत कोशिश की, लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वह स्वयं को जाल से बाहर नहीं निकाल पाया।

पास में ही चूहों का बिल था। उस बिल में जो चूहा रहता था, वह एक बार शेर के पंजे के नीचे आ गया था। चूहे ने गिड़गिड़ाकर शेर से निवेदन किया, “हे जंगल के राजा! आप बहुत शक्तिशाली हो। मेरे ऊपर से अपना पंजा उठाकर मुझे जीवनदान दे दो।”

शेर ने चूहे की विनम्रता देखकर उसके ऊपर से अपना पंजा उठा लिया और चूहे को आजाद कर दिया। शेर ने विनम्रता से कहा,

“मित्र चूहे! तुम्हें चोट तो नहीं लगी।” इस प्रकार चूहा शेर को दुआ देता हुआ अपने बिल में घुस गया। चूहा भी शेर की दयालुता देखकर बहुत प्रसन्न हुआ।

आज शेर को मुसीबत में देखकर चूहे से रहा न गया। शेर की दर्द-भरी दहाड़ ने चूहे के हृदय को पिघला दिया। चूहा अपने बिल से बाहर आ गया और अपने तेज दाँतों से जाल की रस्सियाँ कुतरने लगा। कुछ ही देर में चूहे ने जाल की सारी रस्सियाँ काट डालीं और शेर को आजाद कर दिया और अपनी दुम लहराता हुआ गुफा में चला गया।

इस प्रकार कमजोर चूहे ने अपने ताकतवर मित्र शेर की सहायता की और अपनी वफादारी का सबूत दिया। तभी वहाँ पर अपने बच्चों के साथ शेरनी भी आ गई। शेरनी ने चूहे को दुआएँ देते हुए कहा, “हे ह्रश्वयारे चूहे! मैं तेरे उपकार का बदला कभी नहीं चुका सकती।

तुम मेरे लिए भगवान बनकर आए हो। यदि आज आप इनकी मदद न करते तो मेरा सुहाग उजड़ जाता और मैं विधवा हो जाती। इनके मरने के बाद तो जंगल-राज बिगड़ जाता।”

तभी घोड़ों की टाप सुनाई दी, जिन पर बैठकर कुछ शिकारी उधर ही आ रहे थे। शेर-शेरनी सावधान हो गए और घात लगाकर बैठ गए। जैसे ही शिकारी उनके सामने से गुजरे तो शेर और शेरनी ने उन पर आक्रमण कर दिया। शेर-शेरनी ने शिकारियों को चीर-फाड़ डाला। घोड़े बिदक गए और तेजी से भाग गए। घोड़े शेर और शेरनी के भयंकर आक्रमण को सहन नहीं कर सके। शिकारियों का माँस खाकर शेर और उसके बच्चों ने अपनी भूख मिटाई।

इस प्रकार छोटे-से चूहे ने शक्तिशाली शेर की जान बचाकर दोस्ती को निभाया। मुसीबत के समय एक-दूसरे की मदद करना ही सच्ची दोस्ती कहलाता है।