आइना सच नही बोलता
हिंदी कथाकड़ी 20
लेखिका अपर्णा अनेकवर्ना
अपर्णा .एक प्रतिभाशाली कवियत्री , पत्रकारिता की डिग्री धारक , पहले पत्रकार थी अब फुल टाइम गृहणी ,समय का सार्थक उपयोग करती हैं कविताएं लिखकर , उनकी कविताये अनेक प्रतिष्ठित
समाचार पत्र _पत्रिकाओ में प्रकाशित हो चुकी हैं |लेखन उनकी आत्मा से उसी तरह जुड़ा हैं जिस तरह शरीर का साँस लेना . उनकी रचनाये हिंदी और अंग्रेजी भाषा दोनों में प्रकाशित होती आई हैं | अनुवाद कार्य भी उनके द्वारा कुशलता पूर्वक किया जाता हैं
सूत्रधार नीलिमा शर्मा
समरप्रताप सिंह सुबह की पूजा में मग्न हैं और आँगन उनके मंत्रोचार से गूँज रहा है. नंदिनी ने धीरे-धीरे उनके सुबह के क्रियाकलापों की सारी ज़िम्मेदारी उठा ली है. या फिर स्वयं अमिता ने उसे इनमें लिप्त कर दिया है.
देवघर की सफाई और पूजा की तैयारी वो सुबह ही कर लेती है. जब तक समरप्रताप पूजा से निवृत होते हैं वह बाहर के बरामदे में क्रीम और लाल रंग से रंगी बेंत की कुर्सी मेज़ पर उनके लिए सुबह के अख़बार और भीगे बादाम की पाँच गिरी रख जाती है. समरप्रताप आज भी चाय नही पीते. गुनगुने दूध का ग्लास ख़त्म होते होते अख़बार भी ख़त्म करके वो ज़रूरी फोन करते हैं. तब तक उनके पुराने मुंशी आमोद सिंह भी आ जाते हैं.
उनके साथ दिन के नक्शे को तय करते नाश्ते का समय हो जाता है. आमोद जी पर इंतज़ाम का ज़िम्मा छोड़ कर समर भीतर नाश्ते के लिए आते हैं. अमिता अब भी पास बैठती हैं पर खाती वो नंदिनी के साथ बाद में ही हैं.
नंदिनी अब भी ससुर के सामने पड़ने से बचती है और वो भी कुछ असहज हो उठते हैं. दीपक का नहीं होना उन दोनों के लिए अभी ताज़ा ज़ख़्म है, दोनों अपने अपने मान में एक दूसरे के सामने पड़ने से कतराते हैं. एक दूसरे की उपस्थिति से अनभ्यस्त वो एक दूसरे को अनचाहे ही दीपक की याद दिलाते हैं.
अमिता अब भी वही कर रही हैं जो वो सालों से करती आई हैं. पहले पति और पुत्र के बीच के सूत्र जोड़ती रहतीं अब वो पति और पुत्रवधू के बीच के उन अकबकाए हुए असहज पलों को ध्यान से टालती रहती हैं. भिनकती मक्खी को पंखा झल कर पास फटकने नहीं देतीं.
आजकल गोद में अक्सर दिवित भी होता है जो सुबह ही माँ के पास से दूध पी कर दादी-दादा के पास आ जाता है. तीनों अक्सर उसे देखते हुए - अपनी अनुपस्थिति में प्रचंड रूप से उपस्थित - दीपक के बारे में सोचने से स्वयं को रोक नही पाते. जहाँ ये स्मृति पिता में ठगे जाने का रोष, माँ में एक ख़ालीपन और परित्यक्ता में एक अजीब सी असुरक्षा भर देती है.. इन सब सघन भावनाओं से बेख़बर एक शिशु अपनी नन्ही गुलथुल लात के प्रहार से पल भर में ही इन्हें दूर कर देता. दुख़ कुछ देर के लिए छाँट जाता.
घर में दो माहौल बनते उमड़ते बिखरते हैं. एक दीपक के सब कुछ छोड़ कर अचानक अमेरिका चले जाने के बाद की चुप्पी और दूसरा धीरे-धीरे पास आते चुनाव का शोर. दोनों अपने अपने जगह क़ाबिज़ दोनों पैतरे बदलते ताल ठोंक रहे होते हैं. इनके बीच तीन व्यस्क और एक शिशु का जीवन अपनी शाश्वत गति से आगे बढ़ता जा रहा है.
'माँ, ये आप ही रख लीजिए,' नंदिनी ने अपने ज़ेवर का बक्सा अमिता की ओर बढ़ाते हुए कहा. अमिता उसका मुँह देखती रह गयी. उन्होंने जाने कितने घरों में इसी स्त्रीधन के लिए संबंध तार-तार होते देखें हैं. खुद उनकी सास ने उनकी हसरतों की परवाह किए बगैर सारे ज़ेवर अपने पास रख लिए थे. उनमें से क्या उनकी ननदों को विवाह में भेंट किए गये उन्हें भी नही पता.
बहुत पहले ही परिवार के शक्ति-समीकरण को समझ उसके आगे नतमस्तक हो स्मर्पण कर दिया था. पर आज नंदिनी के ठंडे रुख़ और भावहीन चेहरे से उनके भीतर कुछ चटक सा गया. माथे पर बस एक नन्ही सी बिंदी लगाए अपनी उस सूने और फिर भी शांत चेहरे से अपनी सासू माँ की ओर देखती हुई वो अपनी उम्र से बहुत कम दिख रही थी. होठों की चुप में भी उसका निर्णय अटल दिख रहा था.
अमिता ने एक ठंडी साँस भरते हुए उससे कहा, 'आ बैठ मेरे पास. इसकी क्या ज़रूरत है नंदू? देख, सब्र से काम ले. क्या पता समय फिर फिरे हमारा.. जैसे एक बार लौटा वैसे ही फिर लौट आए दी..' ' नहीं माँ, वो अब नही लौटेंगे. मैं जानती हूँ. अपनी संतान को जिसने एक नज़र भी ना देखा वो कैसे..' नंदिनी कोशिश करती क़ी दीपक का उल्लेख उसके सामने ना ही हो. 'इसे आप रख लीजिए. मुझे होश नहीं रहता. कुछ गुम ना हो जाए' नंदिनी तेज़ी से कमरे से बाहर चली गयी.
अमिता ने आँखें मूंद लीं और कल्पना करती रही दीपक लौट आया है.. अपने दुधमुँहे के पास, अपने वयोवृद्ध पिता के पास.. उसका घर फिर से भर गया है. 'हे ईश्वर!' हाथ जोड़ माथे से लगा लिए अपने.
चुनाव की सरगर्मियां गहराने लगी हैं. समरप्रताप को एक नयी फ़िक्र सताने लगी लगी है. अक्सर पार्टी ऑफिस और घर और क्षेत्र के बीच अपने बदहवास दौरों में उनके माथे पर बल पड़ने लगे हैं. आमोद सिंह अपने मालिक की चिंता खूब समझते हैं. अब जब कि इतने सालों की मेहनत रंग लाने ही वाली है तब ही दीपक का यूँ चला जाना.. किस-किस का मुँह बंद करेंगे वो दोनों. पार्टी हाईकमान को भनक भी लग गयी तो पासा पलट सकता है. और पीठ में खंजर भोंकने वालों की भी कोई कमी कहाँ है. 'शिव-शंभू!' अनायास ही आराध्य का नाम निकल पड़ता है एक थके अभिमानी पिता के मुँह से.
टाटा सूमो अभी हवेली के पोर्च में रुकी ही थी कि वहाँ एक जानी पहचानी मारुति ओमनी खड़ी देखी दोनों ने. नंदिनी के पिता महावीर चौधरी की गाड़ी..
'आज समधी के सामने लज्जित होना ना पड़े. कोई मेरी ग़लती थोड़ी ना है. नंदिनी ही बाँध ना सकी दीपक को तो मैं क्या कर सकता हूँ,' खुद को मन ही मन समझाते अपनी संसारिक ढाल को मज़बूत कर समरप्रताप भीतर की ओर बढ़े. कदमों में कूटनीति की दृढ़ता भर चुकी थी. आमोद सिंह बाहर ही ठहर गये. इतने समय में वो ये बखूबी समझते थे कि मालिक से नमक का फ़र्ज़ निभाना, समय से और ज़रूरत भर बोलने से बेहतर कोई और तरीका हो ही नहीं सकता था.
महावीर चौधरी समधी को आता देख हाथ जोड़े उठ खड़े हुए, 'नमस्कार भाई साहब!'
'बैठिए जी. नमस्कार, नमस्कार,' दोनों बैठक के सोफे पर आमने सामने बैठे. माहौल के भारीपन को महसूस कर, समरप्रताप ने मौके को मज़बूती से अपने क़ब्ज़े में कर लेने की सोच कर कहा. 'कैसे आना हुआ? बिटिया का मोह खींच लाया या नाती का?' महावीर को बोलने का अवसर दिए बगैर उन्हे बीच में ही काटते हुए पत्नी से पूछा, ' अरे भाई सुनती हो! नाश्ता चाय ठंडा कुछ तो भिजवाओ यहाँ.' वो भली प्रकार जानते थे कि महावीर उनके घर का पानी भी नही पिएँगे. 'ये कैसे हो सकता है समधी जी? ये बिटिया का घर है,' कहते हुए उन्होंने बहुत गहरी नज़र से समरप्रताप सिंह को देखा.
जैसे दो प्रतिद्वंदी पहलवान आमने सामने एक दूसरे की कमज़ोरी को जानते समझते उसकी ताक़त को तौल रहे हों वो दोनों ही अपने बच्चों के जीवन में आए तूफान को लेकर स्वयं को दोषमुक्त साबित करने पर तुले थे.
'मैं तो बिटिया को यही समझाने आया था कि दिवित इस खानदान का चिराग है और उसका ये कर्तव्य है कि वो यहाँ रह कर अपने कुल की सेवा में लगी रहे. दीपक ने कतई सही नहीं किया. वहीं घर बसा रखा था ये भी पता चलने दिया ना ही विवाह की मर्यादा ही समझी. संतान तक की ना सोची. पर नंदिनी तो हमारे लिए पराया धन ही थी ना. आपके घर ही सोभेगी,' जल्दी से किसी भी अप्रत्याक्षित ज़िम्मेदारी से साफ हाथ झाड़ चुके थे महावीर चौधरी.
समरप्रताप सिंह को पलटवार का मौका दिए बगैर ही तुरुप का पत्ता भी फेंक दिया, 'चुनाव का भी ध्यान हम संबंधियों को ही रखना होगा ना भाई साहब. हमारे घर बैठी नंदिनी सबके सवाल का सबब बन जाए और आपके चुनाव में कहीं कोई दुश्मन इसे मुद्दा ना बना ले, इसलिए बेहतर है कि दोनो माँ बेटे आपके घर.. या यूँ कहें अपने घर ही रहें.'
समरप्रताप तिलमिला उठे. भीतर से यह संवाद सुनतीं तीनों औरतों ने अपने अपने हिस्से के थोड़े से आँसू और बहा लिए. 'आपकी बेटी ही कौन सा उसे रोक पाई,' बहुत चाह कर भी नहीं कह सके समरप्रताप. बरामदे में खड़े-खड़े बहू के माता-पिता को लौटता देखते रहे. बाबू महावीर सिंह अपनी बेटी की ज़िम्मेदारी से साफ-साफ हाथ धो गये थे. माँ बहुत दुखी लग रही थीं पर स्पष्ट था कि नंदिनी अब यहीं रहेगी.
एक लंबी सांस ले कर समरप्रताप वहीं बेंत की कुर्सी पर ढह गये. वो अचानक बहुत थका और बूढ़ा महसूस कर रहे थे. 'दीपक तूने ऐन वक़्त बहुत बड़ा धोखा दिया है. अब मेरा वारिस दिवितप्रताप सिंह है. उसे मुझसे कोई परदेस नहीं छीन सकता. मैं ये कभी नहीं होने दूँगा,' स्वयं से ये कहते समरप्रताप ने आँखें मूंद लीं. 'ये खबर कहीं से भी बाहर नहीं जानी चाहिए कि दीपक अब कभी नहीं लौटेगा. कोई पूछेगा तो कह दूँगा बाहर विदेश में नौकरी कर रहा है. बहू और बच्चा हमारे पास छोड़ गया है. उन्हें कभी बाद में... ओह! शिव-शंभू!'
माँ और सासू माँ के बीच बैठी नंदिनी सोचती रही थी इस भरे पूरे संसार में अपना मोल. यदि दिवित ना होता तो शायद उसके ससुराल में भी उसके लिए कोई जगह ना होती. वो सिर्फ़ एक अदद वारिस की माँ है. उसकी इस भरी-पूरी दुनिया में बस यही पहचान है. अपमान और कुंठा से उसका मन रुंध गया. अनायास ही वह सिल्विया से अपना मेल बिठाने लगी. सिल्विया अपने प्रेयस की प्रिया, उसकी संतान की माँ होने के अलावा एक पढ़ी-लिखी नौकरियाफ़्ता स्वतंत्र वजूद की मलिका भी थी. तो क्या दीपक को यही बात उसके पास वापस खींच ले गयी थी? उसने तो बचपन से सर झुका कर बस समर्पण करना ही सीखा था. उससे तो यही कहा गया था कि उसके सुख के द्वार इसी रास्ते पड़ेंगे. फिर कब कहाँ क्या ग़लत हो गया?
'नहीं मेरी बच्ची. रो मत. अब हम तीनों को एक दूसरे का ही आसरा है. अपने घर है बेटा तू. चल, उठ! माँ के लाए उपहारों को संभाल ले बेटा,' अमीता ने शायद उसके भीतर की बेचैनी पढ़ ली थी. 'ला दिखा तो मुझे मुन्ने के लिए क्या भेजा है तेरी माँ ने,' दोनों नन्हे-मुन्ने प्यारे से जोड़ों को देखने लगीं. दीपक के गये दो महीने होने को आए थे. दोनों ने संभालना शुरू कर दिया था. आज बहुत दिनों बाद दोनों की आँखें भीगी हुई थीं. 'दीपक की माँ! यहाँ तो आओ,' अमिता पति की तरफ से भी बेचैन थीं. वो बरामदे की ओर बढ़ गयीं.
कपड़ों के बीच से नंदिनी के हाथों ने एक रेजिस्टर को महसूस किया. ये तो उसकी ड्रेस डिज़ाइनिंग वाला रेजिस्टर है. अंदर से एक चिट्ठी भी गिरी. उसे खोलने से पहले ही वो समझ गयी थी ये खत उसे उसकी साक्षी भाभी ने लिखा था.
'प्यारी नंदू मेरी,
काश मैं खुद आ पाती तेरे पास. अच्छा हुआ मांजी जा रही हैं. तेरे भैया जाते तो मैं ये कभी भी ना भेज पाती. देख तेरे सपने तूने अकेले नहीं देखे थे. तेरे साथ मैंने भी देखे थे उन्हें. उनकी पिटारी भेज रही हूँ. इसे संभाल लेना. जब मन हारने लगे इन सपनों से बातें करना. तुझमें बहुत कुछ करने का गुण है मेरी बहन. हिम्मत ना हारना..'
आगे के शब्द धुँधला चुके थे. उन्हें पढ़तीं आँखें फिर बरस रही थीं. बस इस बार उनमें बहता अफ़सोस सिर्फ़ उसके खुद के लिए था. उसे पता भी नहीं चला कब अमिता ने उसके हाथों से वो रेजिस्टर ले लिया था और मंत्रमुग्ध सी उसके पन्ने पलटते जा रही थी. 'नंदू! ये सब तूने किया है बेटा?' आश्चर्य और सराहना मिल जुलकर एक हो गये थे.
नंदिनी ने जीवन शायद पहली बार किसी के स्वर में अपने लिए तारीफ सुना और उसे बहुत ही अलग सा अनुभव हुआ. जैसे किसी सोते हुए बीज को किसी ने सपने में बड़े हौले से पुकारा हो और वो ठीक जागने से पहले वाली कुनमुनाहट से गुज़र रहा हो. जैसे वो रोज़ सुबह अपने आधे जागे-आधे सोए शिशु को संभाले हुए दूध पिलाती है. तब वो उसका अंग-अंग निरखती है. उसके नन्हे से शरीर में आए हर छोटे-छोटे बदलाव को भरपूर महसूस करती है. उसे लगा जैसे वो खुद भी एक शिशु में बदल गयी है. जैसे उसके आसपास जीवन-ऊर्जा एक मातृ शक्ति बनकर उसे अपने अंक में भरने को तैयार हो रही है. उसे लगा जैसे वो किसी अंत को पार करके किसी प्रारंभ तक पहुँचने को तैयार हो रही है. ये आभास एक क्षण की सौवें हिस्से में बीत गया पर उसके लिए एक युग बीत गया तभी.
रात का अंतिम प्रहर शुरू ही हुआ है. अमीता और समरप्रताप अपने कमरे में दिन भर के थके सो रहे हैं. इस समय वो अपनी दुश्चिंताओं को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं. नींद अर्ध-मृत्यु ही तो है. अपने चेतन जगत के दुख-सुख, सगे-पराए, दोस्ती-दुश्मनी, लाभ-हानि से दूर शरीर और मन अगले दिन के समर के लिए स्वयं को तैयार करते हैं. ये दोनों योद्धा भी वही कर रहे हैं. पर नंदिनी की आँख अचानक ही खुल गयी. मुन्ना को सोता पा कर वो निश्चिंत है फिर भी उसका दिल धड़क रहा है.
उसने उठ कर पानी का ग्लास उठाया ही कि बैठक में रखा फोन रात के सन्नाटे को चीरता हुआ उसके हृदय से होड़ लगाने लगा हो. 'दीपक..' वो फुसफुसाई और पैर खुद ही बैठक की ओर बढ़ गये. एक झटके में फोन इसलिए भी उठाया क्यूँकि वो नहीं चाहती थी कि उसके सास-ससुर में से कोई भी जाग जाए.
'हलो!? कौन.. कौन बोल रहा है?,' दूसरी तरफ पसरे सन्नाटे से वो सवाल करने लगी. पूरे चार सेकेंड के बाद अचकचाहट से भरा 'कैसी हो?,' उधर वही चिरपरिचित स्वर था और अंदाज़ भी वही जाना पहचाना. बिल्कुल निर्लिप्त बिल्कुल ठंडा, भावहीन. जैसे उससे बात करना सृष्टि का सबसे मुश्किल काम था.
'फोन मुझे दो!' समरप्रताप कमरे में आ चुके थे और उससे फोन माँग रहे थे. उसने काँपते हाथों से उन्हें फोन पकड़ाया और लगभग भागती हुई अपने कमरे तक पहुँच गयी. दिवित अब भी सो रहा था. उसने उसे सीने से भींच लिया जैसे कि उस पर अपना विवश अधिकार जमा रही हो. बैठक से आती आवाज़ों ने उसे फिर से उधर खींचा. पर पैर जवाब दे चुके थे. वहीं बैठी वो बातों का सिरा पकड़ने की कोशिश करने लगी. वही सवाल-जवाब.. वही लौटने का तक़ाज़ा.. कि अचानक बाबूजी का स्वर हिंसक रूप से क्रुद्ध हो उठा. 'हां! हां! है मुझे चुनाव की चिंता! तूने तो नहीं की मेरी चिंता. देख दीपक! मुझ से इस लहज़े में बात नहीं करना. वहीं मर जा मेरी बला से. फोन भी करने की ज़रूरत नहीं. इस चुनाव से निपट लूँ तो तेरा भी कुछ करता हूँ. फोन रख दे बेशर्म!' एक बूढ़ा शरीर असहाय गुस्से से काँप रहा था. खाँसी का ज़बरदस्त दौरा पड़ा था समर बाबू को. अमीता पति को बिठा कर एक हाथ से पानी पिला रही थीं और दूसरे से उनका पीठ मल रही थीं.
अपने बच्चे को सीने से लगाए नंदिनी अपने जीवन की एक राह हो हमेशा के लिए बंद होते देख रही थी. उसके होंठ मंत्र की तरह जप रहे थे, 'अब दीपक कभी नहीं.. कभी-कभी नहीं आएगा नंदू. तुझे उसके माँ-पिता के लिए और उसकी संतान के लिये जीना होगा.'
हिंदी कथाकड़ी
लेखिका अपर्णा अनेकवर्ना
अपर्णा .एक प्रतिभाशाली कवियत्री , पत्रकारिता की डिग्री धारक , पहले पत्रकार थी अब फुल टाइम गृहणी ,समय का सार्थक उपयोग करती हैं कविताएं लिखकर , उनकी कविताये अनेक प्रतिष्ठित
समाचार पत्र _पत्रिकाओ में प्रकाशित हो चुकी हैं |लेखन उनकी आत्मा से उसी तरह जुड़ा हैं जिस तरह शरीर का साँस लेना . उनकी रचनाये हिंदी और अंग्रेजी भाषा दोनों में प्रकाशित होती आई हैं | अनुवाद कार्य भी उनके द्वारा कुशलता पूर्वक किया जाता हैं
सूत्रधार नीलिमा शर्मा