आइना सच नही बोलता - १0 Neelima Sharma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

आइना सच नही बोलता - १0

आइना सच नही बोलता

हिंदी कथाकड़ी

नाम- शोभा रस्तोगी

सूत्रधार नीलिमा शर्मा निविया

2016

'कहाँ झाँक रही है नंदिनी ? बिटिया तेरा खिला खिला चेहरा देख के ही जी जाती हूँ मैं |’ नंदिनी के अभी अभी खिली गुलाबी कली से मुख पर मुस्कान फ़ैल सासु मां के बात सुन ।

‘ वो छोटी छोटी कमसिन कोपलें देख रही हूँ माँ . ऐसे लग रहा हैं जैसे आने वाले फ़ूल की नन्हीं अँगुलियाँ हैं न माँ !’

'हाँ, बेटा |’ मुस्काती हुई माँ नंदिनी के मनोभावों को दुआएँ देने लगीं |

‘ चल, अब आराम कर ले |’

‘जी, माँ |’

रोज सुबह नारियल का सफ़ेद हिस्सा नंदू को निराहार खाना होता |

‘ देख नंदू, इसे खाने से बच्चा गोरा होता है और त्वचा कोमल |’

‘माँ, आप भी | रंग तो दो ही होते हैं न | यदि काला रंग न हो न माँ तो सफ़ेद रंग की क्या बिसात ? कृष्ण काले थे न फिर भी गोरी राधिका दीवानी थी उनकी …
'हाँ,ये तो है । मिश्री सी मीठी बोली, सबके हित की चाहत और नटखट शरारतें । बस यूँ ही लुट जाता था हर कोई उनपे । वे तो लीलाधारी मनोहारी थे । उन पर तो आज भी बलिहारी हुए जाते हैं सभी ।'
'सही कह रही हो, माँ । कृष्ण तो चोर थे दिल चुराने वाले और कारे कारे ...' आँखे फैलाती हुयी नंदिनी खिलखिला उठी ।
' वैसे इंसान की भीतरी कलुषिता का भी कुछ इलाज है क्या, माँ ?’ बात होठों के बीच से फ़िसलती माँ के चेहरे पे रुक गई | समझ ली बहू की तड़प | कहे क्या ?

‘हाँ, रंग तो दो ही होते हैं बेटा, पर जल्दी नारियल पानी ख़त्म करो ,जी मिचलाने पर भी फ़ायदा करता है नारियल |’ बात का सिरा मोड़ दिया माँ ने |
‘ अच्छा, आज क्या बनाऊं तेरे लिए ?’

‘ बस मां, खुद हर वक्त काम और मुझे आराम की गठरी बना दिया है | मोटी, होती जा रही हूं |’

‘इस उम्र मे यह खुशी देख रही हूँ | बाद मे मैं और मेरा पोता करेंगे आराम और तू करना काम |’

‘यदि पोती हुई तो…’

‘ ना जी, क्या फ़र्क़ पड़ना है | जो रब बख्श दे उसमे राजी |’

‘ अच्छा बता तो !दीपक क्या कहता उसे क्या चाहिए बेटा या बिटिया ?’

‘क्या जानूं ? अभी तक कुछ कहा नहीं उन्होंने ?’ माँ को अचरज हुआ |

‘अभी तो वे ये सब चाहते ही नही न |’ काले बादल एकाएक छा गए |

‘ तू परेशां न हो |पुरुष जिम्मेदारी आने के डर से घबरा जाते हैं , बच्चे के आने से खुशियाँ हमारा घर भर देंगी | फ़िर देखना दीपक तेरा और बच्चे का कित्ता ख्याल रखेगा | और तू ... अपना तो भूल ही जाएगी । बस हरदम बच्चे के साथ ही लगी रहेगी । बच्चे के आने के बाद कुछ दूसरी ही हो जाती है औरत ।'

‘मां, आप शायद ठीक ही कहती हो |’ नैनों के कोर तक आशा का सैलाब उमड़ आया था | उम्मीद की जोत जल रही थी | नंदिनी उस जोत को दिल की ओट दे सौतन हवा से बचा ले जाती | आने वाली खुशगवार फिजा की राह तकती कि उसका सावन उसकी ही छत पर बरसे। मां बहू की सोच ताड़ गई पर क्या कहे बेटे के व्यव्हार पर | करवट लेते इस नाज़ुक वक्त पर हर पत्नी अपने पति का सानिध्य चाहती है । नए जीव की अनेकानेक आश्वस्तियों से अपने मन और घर का आँगन भर लेना चाहती है । किन्तु पति की बेरुखी उसके मन का आह्लाद ऐसे झटक देती है जैसे पत्तों पर टिकी वर्षा बूंदों को तेज हवा ।
मां बहू पर स्नेह लुटाती भर भर हाथ | कितनी आसानी से समझ जाती है औरत औरत का दुख ।

'माँ...आज अपनी शादी की एल्बम देखते हैं फिर से ।'

' हां. बड़ा प्रेम लुटा रही है बच्चे पर । अभी से सबसे मिलवा दे ।'

'हाँ, माँ, अभिमन्यु की तरह । जब पैदा होगा बच्चा तो सबको हाथ जोड़ के नमस्ते कहेगा । आपको कहेगा - हाय ग्रैनी ।' हँसी का रंग दांतों की चमक पे भारी पड़ रहा था ।

''ग्रैनी ? '

'अरे ग्रैंडमदर यानी दादी ।'अब आपका बेटा तो उसको अंग्रेजी ही बोलना सीखाएँगे न |

'ओह, अच्छा। चल ले, एल्बम देख ।' माँ की आँखें भी छोटी हो गईं हंसी से ।

' माँ , ये फोटो सहेजने वाली एल्बम भी क्या मस्त चीज होती है न। अपना बीता हुआ कल, पुराना रूप, अपने परिचित, यार दोस्त, सब मिल जाते है यहां । हमारी यादों के जमावड़े भरे होते है न इसमें ।' और फिर खुल गया वह द्वार जिसमे एक एक पल अंकित था अपने गौरवपूर्ण समय को साक्षी करता हुआ । हर चेहरे का उल्लास, दुःख, खुशी सब अपने में नेह से सम्भाले हुए । स्मृतियों के झरोखे भी कितने आनन्दित कर जाते है । पीड़ा को भीतर तक समेटे जब हम गठरी की माफिक पड़े होते है तब ये छायाचित्र उस गठरी में भोर की उजली सुनहरी रश्मियों सा ताप तो दे ही देते है ; साथ में अकेलेपन की काई को भी खुरच देतेे है और हम कुछ देर के लिए ही सही, जीवंत हो जाते हैं । अतीत भी अपनी चादर उघाड़ जरा झांक ही लेता है और फिर मनोहारी स्मृतियाँ लुढ़का कुछ लम्हे उल्लसित कर ही जाता है ।

'माँ, एक बात पूछूं ? इसमें सभी अपनों के फोटो है पर उनका नही जिन्हे मैंने पहले रोज देखा था । '

'किसकी बात कर रही है ?'

'वो जो सफ़ेद साडी में....'

माँ समझ गई थी ।बात बदल कर त्योरी चढाकर बोली,' वह विधवा है । शादी जैसे शकुन के काम में उस अपशकुन का क्या काम ?'

'कौन है वे हमारी ?'

'दीपक की रमा चाची '

'तो उनका फोटो क्यों नहीं ?'

'अरे अभी तो बताया। विधवा है वो विधवा ।' माँ किंचित रोष में थी ।

'सॉरी माँ , आपको बुरा लगा ?'

'न, बस उसकी बात न कर । तू पेट से है और उसका जिक्र मनहूसियत फैलाता है ।'

''ठीक है । नही पूछूँगी ।'

नंदिनी का चेहरा उतर गया । विधवा होना क्या औरत के वश में है । कौन स्त्री वैधव्य ओढ़ना चाहती है । उसका मन प्रश्नों की आंधी में धूल धूसरित हो गया ।

'न... न... नंदू । तू मन छोटा न कर । चल पूछ जो पूछना है । मैं न बताउंगी तो चार दिन पीछे किसी और से पता चलेगा । कई सच झूठ में लिपटे होंगे ।'

'चाचाजी को क्या हुआ था ?'

' बचपन से ही गलत सोहबत में पड़ गए थे । इधर उधर छेड़छाड़ और शराब का ऐब । बाबूजी ने सोचकर कि सुधर जावेंगे, शादी कर दी उनकी ।'

'फिर ?'

' सुधरना क्या था दूना बाहर रहने लगे । पराई आई को भी न सँभाला कभी ।

'चाचीजी के कोई बच्चा...'

'रात का अंधियारा औरत का शरीर तो दिखा ही देता हैं मर्द को ।दिन के उजाले में उसका मन कोई कोई हीपढ़ पाटा हैं । दो बार दिन चढ़े पर देवर जी की परनार की लाग ने ऐसा सदमा दिया उसे कि पेट में ही समाधि बन गई उसके बच्चों की ।'

'कोई शिकवा नहीं किया चाचीजी ने '

' बहुतेरी बाते हुई। पर देवर जी तो धूल भरी आंधी ही निकले । बाहर तो बाहर । घर में न बरोबर ।औरत को सिर्फ देह मानने वाला कब पति धर्म निभाए है । बीबी सफेदी में निचुड़ती जा रही थी पर देवर जी की ऐयाशियों के सितारेे बुलंद थे ।

'चाचीजी ने तलाक... '

'तब कहाँ तलाक मिलता था औरतों ने अपनी बदकिस्मती से हमेशा समझौता किया । ये अधिकार भी मरदों के हिस्से था । फिर एक दिन देवर जी की लाश ही घर आई । पी के जो पड़े , उठ ही न पाए और उस दिन से ये विधवा । ...जाने को कहाँ जाती । बाप मर लिया था । भाई कब रखते हैं है । माँ से मायका होवे पति से ससुराल । उसके तो दोनों ही उजड़ गए ।' अपने कई दुःख पराई कहानी में आ मिले थे ।

'बस घर में ही रम गई । घर गृहस्थी के सौ काम काज । अपनी गृहस्थी तो बसी नही हम सबकी साथिन बनी रही । सबकी तीमारदारी, बच्चों से लाड दुलार, घर के रखरखाव, शादी ब्याह के सौ झमेले इकली ही ओटलेती थी । माँ बाबूजी की सेवा में तो न रात देखती न दिन । वे दोनों तो इसी का गम सीने से लगाए परलोक सिधार गए ।'

'उनका एक भी फोटो नही माँ ?'

'विधवा को सगुन के काम में आगे न आने देते है । वो पीछे ही पीछे काम करती ।'

'पर माँ, विधवा होने में उनका क्या कसूर ?'

'जानती हूँ बेटा, पर सारे कसूर औरत के ही मत्थे मढे जाऐं । मर्द सब कुछ करके भी बरी ।'

'चाचाजी तो अब नही है । ये तो आप लोग जो उन्हें सम्मान नहीं दे रहे ।'

' समाज की यही रीत है बेटा । औरत को सुहागन का, दूधो नहाओ- पूतो फलो का आशीष देते हैं सब । कोई ये भी कहे कि तेरी उम्र बढे। तू खुश रहे । औरत मर जाए तो आदमी विधुर । पर किस कारज में उसे पीछे रखा जाए । सब आदमी औरत के अंतर की कहानी है । '

'जीते जी भी आदमी ही आगे, औरत पीछे ।' नंदिनी के दर्द की किरचें उसकी जुबान का रास्ता देख ही गईं ।

माँ समझ रही थी बहू का दर्द ।

' गाँव जाने पर चाचीजी से मिल सकती हूँ क्या ?'

माँ की स्वीकारोक्ति पा वह लता सी लिपट गई उनसे ।

नंदिनी आज दीपक ने देर से आना है | चल पास ही मॉल मे चलते हैं | तेरा भी जी बहल जाएगा और जरूरी चीजों की शॉपिंग भी हो जाएगी | मेरा पोता भी घुम्मी घुम्मी कर आएगा |’

‘माँ… पोतीभी हो सकती न …’ आँख नचाती हुई बोली नंदिनी |

‘ हां, भई, पोती… मेरी परी |’

‘ और कुछ नन्हे सलौने कपड़े भी लाने हैं न मां |’ आंखों में वात्सल्य उमड़ उमड़ रहा था |

'हाँ, बिल्कुल | पर हमें तो ठीक से रास्ता भी नहीं पता |’

‘बोउदी को ले चलते हैं न |’

'हाँ, ये ठीक रहेगा |'

नंदिनी मां और बोउदी की देखरेख में मॉल में चहलकदमी कर रही थी | मॉल का ख़ूबसूरत, साफ़ सुथरा, कूल कूल माहौल उसे एक जुदा अहसास से सराबोर कर रहा था | बहुत खुश थी वह | कहीं एक फ़ांस की गहरी चुभन के साथ | काश दीपक का साथ … खैर | बोउदी और माँ दोनों उसके चेहरे का नूर देख लुटी लुटी जा रहीं थीं |

न्यू बोर्न बेबी सेक्शन में नाना लुभावने सामान थे | बच्चे को नह्लाने के जुदा जुदा डिजायन के टब, लाइट और आवाज वाले खिलौने… जिराफ़, शेर, कुत्ते, उड़ने वाली तितली | ब्रांडेड मालिश तेल, सोप, बेबी पाउडर | बेबी किट | बच्चे की सुन्दर नैप्पी,शीट आदि | पालने पर तो नज़र ठहर गई | ख़ूबसूरत जालियों से कवर्ड, घंटियों की रुनझुन मे लिपटा पालना |

‘ देखो, मां , कित्ता सुन्दर |’ नंदिनी के स्वर में खुशी पूरे जोश में उछल रही थी | नन्हीं फ्रॉक, मोजे, जूते, स्वेटर पर हाथ फ़िराकर, सहला कर ममता बिछ रही थी |

‘ थक गई होगी मेरी नंदिनी , चल मेरी परी को आइस्क्रीम खानी है |’

‘ अच्छा, आपकी परी को खानी है, मुझे नहीं |’ शिकायत खिलखिलाहटों में झरने लगी |

‘ तेरे सहारे ही तो मेरी परी खाएगी न |’ कहते हुए मां उसे आइस्क्रीम पार्लर पर ले गईं |

‘ शुनो नंदू | इक्दम औरेंज, मिल्क, वाली खाना | चाउक्लेट नहीं चलेगा |’

'क्या बोउदी… आप भी |’

हा हा हा हंसते हुए फ़्लेवर देखने लगे सभी | ब्लैक करेंट, पाइनेप्पल, मैंगो, औरेंज, चौक बार, कसाटा, बटर स्कौच, स्ट्राबेरी, वनीला कितनी ही रेंज थी मन लुभावनी आइस्क्रीम की |

‘आमी लाती हूं तेरे लिए | तू बैठ उधर |’ साइड में लगी कुर्सियों की ओर इशारा किया बोउदी ने | कुर्सी को सीधे घुमा बैठ गई नंदिनी आहिस्ता से ।

मातृत्व का भीना भीना अहसास उसकी शिराओं में स्पन्दित होने लगा था । वह जितना दीपक की बेरुखी पर कचोटती उतना उसे नवागंतुक के आगमन की प्रतीक्षा हिलोरें देती । एक दुःख जो उसका अपना सा हो गया था, एकांतिक कर दिया था जिसने उसे । अब नव उल्लास घुलने लगा था उसमें । मिल जुल मन का भाव तरंगित होता था । आज उसे अपनी परी के अस्तित्व की आश्वस्ति हो रही थी । कैसा तो रूप होगा उसका । कितने ही नवजात शिशुओं को खिलाया उसके हाथों ने । कुछ खिले खिले गुलाब, कुछ मरगिल्ले भीगी रुई से । कुछ गद्दम गद्दम और कुछ निचुड़े से । डर लगता था कि न जाने कब हाथों की गली से सरक जाएं ।
बेहद एहतियात से उठाना पडता था ऐसे बच्चों को । पड़ोसन भाभी के गुल गुल गुलाब बहुत खिलाए उसने । पर अब अपनी बारी थी । हे भगवान, ऐसे देना कि मैं सँभाल सकूँ ।

'ले आइसक्रीम, क्या सोचती नंदू ?'

'कुछ भी नही न बोउदी ।'

बच्ची सी बन गयी थी नंदिनी

'अरे सोच रही होगी कि मेरी परी को भूख लग रही है और ये दोनों जाने कहाँ चली गईं ।' माँ ने पीछे से हल्का सा धौल जमाया ।

हा हा हा करते तीनो ने मॉल घूमा, खाया पीया और घर की राह पकड़ी । मन के कोने में दीपक के साथ की चिरसंचित आस पल्लू पकड़े रही ।
सभी नन्हे कपडे, नवेले खिलौने करीने से रख दिए उसने । बहुत मन था कि परी के पिता को भी दिखाए पर उस हृदय के द्वार तो बंद थे । फिर भी बहुत हलकी और खुश थी नंदिनी आज ।

'बड़ी खुश नज़र आ रही हो दोनों ।' घर में प्रवेश करते हुए दीपक ने नंदिनी के चमकते मुख को देख माँ से पूछा ।

'हम माँ के साथ मॉल गए थे ।' बाउदी का नाम दीपक के सामने न लेना ही उचित समझा उसने ।

'तभी....'

'दिखाऊँ, क्या लाए वहां से ।' बाल सुलभ उत्सुकता उचक रही थी ।

' नहीं, बस रहने दो । वैसे माँ तुम्हारा बड़ा ध्यान रखती हैं ।'

'आपका काम वे ही तो कर रही हैं ।'

'व्हाट डू यू मीन ?' लगभग चीख पड़ा दीपक ।

'नहीं, बस ऐसे ही निकल गया ।' खिसिया गई वह ।

मुंह बना दीपक कमरे में चला गया । पीछे पीछे वह ।
'सॉरी, गलती से कह दिया हमने । प्लीज आप नाराज न हो ।' कहकर वह जाने को मुड़ी तो उसने अपनी कलाई पर गिरफ्त महसूसी । पलटी तो दीपक का शरारती मुँह था सामने ।

'जानता हूँ नंदिनी कि तुम्हे समय नही दे पाता। उस जीवन से भी नहीं जुड़ पाता जो मुझसे जुड़ रहा है ।बहुत खराब हूँ न मैं ।' आँखों के कोर तक छलक आई रुलाई को रोक लिया नंदिनी ने ।

'अरे, मैं तो बस यूँ ही। आप अधिक बिजी रहते हो, तभी न । नहीं तो कौन नहीं चाहता अपनों का साथ ? चलिए, आपका खाना लगाती हूँ ।'

आज रात अपनी सी हो चली थी । पति के अपनत्व सने दो बोलों ने मानो सारा विषाद धो दिया था ।कैसा हैं उसका पिया कभी नीम सा कभी शहद सा दिल की रेत पे जमी पिछली सारी कड़वाहट पीतम प्यारे की नेह लहर में बह गई थी । खिड़की से झाँकता चाँद बिलकुल अपने करीब लगा । खूबसूरत, बड़ा, शीतल और प्यारा । मानो वह भी आज जी भर चांदनी लुटा देना चाहता हो । उसका दिल गुनगुनाने लगा - 'आ जा सनम
मधुर चांदनी में हम मिले तो
वीराने में भी
आ जाएगी बहार .... '
चाँद की उज्ज्वल चमक सोते हुए दीपक के चेहरे पर पड़ रही थी जिस पर नंदिनी की निगाह शहद की बूँद सी ठहर गई थी । दीपक उसे आज बेहद मासूम लगा जैसे कोई नादां बच्चा अपनी गलती मानकर निर्दोष हो जाया करता है । धुला धुला धवल सा । खुद को रोकने के सौ जतन करने पर भी उसके लव सुमन दीपक के चेहरे पर नई इबारत लिखने लगे ।
..................................................
लेखिका शोभा रस्तोगी

सूत्रधार नीलिमा शर्मा निविया

नाम- शोभा रस्तोगी

शिक्षा - एम. ए. [अंग्रेजी-हिंदी ], बी. एड.,शिक्षा विशारद, संगीत प्रभाकर [ तबला ]

सम्प्रति - निगम प्रतिभा विद्यालय, राज नगर, पालम, नई दिल्ली में अध्यापिका

ईमेल - shobharastogishobha@gmail.com

प्रकाशित कृति -- दिन अपने लिए -- लघुकथा संग्रह [ 2014 ] दिल्ली हिन्दी अकादमी से अनुदान प्राप्त |

प्रकाशित रचनाएँ- हंस, कथादेश, कादम्बिनी,आउट लुक, कल्पान्त, समाज कल्याण पत्रिका, संरचना, हिन्दी जगत, पुष्करिणी, पुष्पगंधा,अविराम, हिंदी चेतना --विश्वा (अमेरिका), इंदु संचेतना( चीन) आदि स्तरीय पत्रिकाओं मेंलघुकथा,कविता,कहानी,
लेख,समीक्षा, पत्र आदि प्रकाशित। 'खिडकियों पर टंगे लोग' लघुकथा संग्रह में लघुकथाएँ संकलित .
कविता अनवरत मे कविताएँ संकलित ।


मातृभारती और प्रतिलिपि पत्र लेखन प्रतियोगिता में
पत्र पुरस्कृत