श्रीरामचरितमानस अंत्याक्षरी
संकलन –रवि रंजन गोस्वामी
ॐ
समर्पण
श्री सीता –राम
लेखकीय
कोई भी भारतीय और वो भी हिन्दी भाषी ऐसा नहीं होगा जिसने कभी अंत्याक्षरी न खेली हो या जो इस खेल से परिचित न हो । अधिकतर लोग इसे फिल्मी गानों के साथ खेलते हैं और कुछ कविताओं के साथ । आजकल अंत्याक्षरी के अनेक रूप हैं लेकिन आसान ,पारंपरिक और सर्वाधिक लोकप्रिय तरीका आज भी वही है जिसमें एक खिलाड़ी गाने या कविता की कुछ पंक्तियाँ कहता है जिस अक्षर पर उसका गाना या कविता समाप्त होती है दूसरा खिलाड़ी उस अंतिम अक्षर से गाना या कविता शुरू करता है ।
श्री तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस भारत का और विश्वसाहित्य का एक उत्कृष्ट और अनूठा बृहत काव्य गृन्थ है। यह भारतीय मूल्यों और संस्कारों का संग्राहक और प्रतिपादक है ।यह ग्रंथ चौपाइ ,दोहा ,सोरठा ,छंद जैसी काव्य विधाओं की मदद से लिखा गया है और इन सभी में भरपूर गीतात्मकता है । इनकी मदद से या इन पर आधारित अंत्याक्षरी भी मजे से खेली जा सकती है । इस तरह अंत्याक्षरी खेल का आनंद लेते हुए श्री राम चरितमानस जैसे महान गृन्थ का रसास्वादन कर सकते हैं । श्री रामचरितमानस अंत्याक्षरी खेलने में सहायता के लिए मैंने हिन्दी वर्ण माला के विभिन्न अक्षरों से प्रारम्भ होने वाले कुछ कुछ चौपाई ,दोहा ,सोरठा,छंद ,श्लोक इत्यादि को इस पुस्तक में संकलित किया है ।जिन अक्षरों से इस पुस्तक में सामग्री न जुटाई जा सकी उनके बारे में पाठक अन्य उत्तम साहित्य से कविताओ या गीतों की सहायता लेकर खेल सकते हैं । शुभकामनायें ।
किसी प्रकार की त्रुटि के लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ ।
-रवि रंजन गोस्वामी
आमुख
इस पुस्तक की सारी सामग्री श्री गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरित मानस से ली गयी है । ये पुस्तक अन्त्याक्षरी खेल में सहायता करेगी और खेल खेल में हमें भारतीय साहित्य व संस्कृति के संपर्क में लाने व इसके प्रति हमारे अंदर जिज्ञासा और रुचि जागृत करने में सहायक होगी ।
हिन्दी वर्णमाला
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१चौ ० -अस बिबेक जब देई विधाता। तब तजि दोष गुनहि मनु राता॥
काल सुभाऊ करम बरिआई। भलेउ प्रकृति बस चुकई भलाई ॥ (बालकाण्ड ९ ,१ )
विधाता जब इस प्रकार का विवेक देते हैं तब दोषों को छोड़ कर मन गुणों में अनुरक्त होता है । काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग भी माया के बश में होकर कभी कभी भलाई से चूक जाते हैं ।
२-चौ० -आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी ॥
सीय राममय सब जग जानी । करऊँ प्रनाम ज़ोरि जुग पानी ॥ (बालकाण्ड १० ,१ )
चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज ,अंडज ,उद्भीज्ज,जरायुज )जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं ,उन सबसे भरे हुए इस जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करता हूँ ।
३-चौ ० -आखर अरथ अलंकृति नाना । छंद प्रबंध अनेक विधाना ॥
भाव भेद रस भेद अपारा । कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा ॥ (बालकाण्ड १२ ,५ )
नाना प्रकार के अक्षर ,अर्थ और अलंकार ,अनेक प्रकार की छंद रचना ,भावों और रसों के अपार भेद और कविता के अनेक गुणदोष होते हैं ।
४ –दोहा० –अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहीं।
चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं ॥ (बालकाण्ड १६ ,१३ )
जो अत्यंत बड़ी नदियां हैं ,यदि राजा उन पर पुल बंधा देता है तो अत्यंत छोटी चींटियाँ भी उस पर चढ़कर बिना परिश्रम के पार चलीं जातीं हैं ।
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१चौ० - इहाँ संभु अस मन अनुमाना।दच्छसुता कहुं नहींकल्याना।।
मोरेहु कहें न संसय जाहीं । बिधि बिपरीत भलाई नाहीं ॥ बालकाण्ड ५१ ,३ )
(सती को श्री राम के अवतार होने पर संदेह हुआ था ) इधर शिवजी ने मन में सोचा कि सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने पर भी संदेह दूर नहीं होता तब विधाता ही उल्टे हैं,अब सती की कुशल नहीं ।
२-चौ० -इच्छामय नरवेश संवारें । होईहऊं प्रगट निकेत तुम्हारें ॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता।करिहऊं चरित भगतसुखदाता॥ (बालकाण्ड १२५ ,१ )
(श्री हरि ने राजा मनु से कहा कि जब वो अवध के राजा होंगे) इच्छानिर्मित मनुष्यरूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊंगा। हे तात! मैं अपने अंशों सहित देह धारण कर भक्तों को सुख देने वाले चरित्र करूंगा ३ चौ० -इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ । सो सब जनु पहेलहिं करि रहेऊ ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुं आयसु दीन्हा।तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥ (बालकांड १४७ ,१ )
(रावण ने मेघनाद को देवताओं को युद्ध में जीत कर बांध लाने को कहा था) मेघ नाथ से उसने जो कुछ कहा ,उसे उसने मानो पहले से ही कर रखा था अर्थात रावण के कहने भर की देर थी ,उसने आज्ञापालन में तनिक भी देर नहीं की । जिनको (रावण ने मेघनाद को )पहले ही आज्ञा दे रक्खी थी उन्होने जो किया वो सुनो ।
४ –चौ० -इहाँ उहाँ दुई बालक देखा । मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा ॥
देखि राम जननी अकुलानी । प्रभु हंसि दीन्ह मधुर मुसुकानी ॥ (बालकांड १६२,४ )
(माता कौसल्या ने एकबार एक ही समय में बालक राम को दो जगह देखा ) वह सोचने लगी –यहाँ और वहाँ मैंने दो बालक देखे ये मेरी बुद्धि का भ्रम है या और कोई विशेष कारण है ?प्रभु राम माता को घबड़ाई हुई देख कर मधुर मुस्कान से हंस दिये ।
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१ -श्लोक –
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीम क्लेशहारिणीम ।
सर्वश्रेयस्करिम सीतां नतोsहं रामवल्लभाम । (बालकाण्ड १ ,५ )
उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करनेवाली ,क्लेशोंकी हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणोंकी करनेवाली श्रीरामचंद्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमसकर करता हूँ ।
२-चौ० -उमा महेस बिबाह बराती । ते जलचर अगनित बहुभांती ॥
रघुबर जनम अनंद बधाई । भवंर तरंग मनोहरताई ॥ (बालकांड ४२,४ )
(रामचरितमानस)श्री पार्वतीजी और शिव के विवाह के बराती इस नदी में बहुत प्रकार के असंख्य जलचर जीव हैं । श्रीरघुनाथजी के जन्म की आनंद बधाइयाँ ही इस नदी के भंवर और तरंगों की मनोहरता है।
३-चौ० -उपजेउ सिव पद कमल सनेहू । मिलन कठिन मन भा संदेहू ॥
जानि कुअवसर प्रीति दुराई । सखी उछंग बैठी पुनि जाई ॥
उन्हें (पार्वतीजी को )शिवजी के चरणकमलों में स्नेह उत्पन्न हो आया ,परन्तु मन में यह संदेह हुआ कि उनका मिलना कठिन है । अवसर ठीक न जानकर उमा ने अपने प्रेम को छुपा लिया और फिर वे सखी की गोद में जाकर बैठ गयीं ।
४-चौ० -उभय घरी अस कौतिक भयऊ।जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू । भयउ जथाथिति सबु संसारू ॥ (बालकांड ७४,१)
(कामदेव के प्रभाव से संसार में )दो घड़ी तक एसा तमाशा हुआ (संसार कामवश हो गया ),जबतक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया । शिवजी को देखकर कामदेव डर गया ,तब सारा संसार फिर जैसा का तैसा स्थिर हो गया
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१-चौ० -एहि महँ रघुपति नाम उदारा । अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥
मंगल भवन अमंगल हारी । उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥ (बालकांड १२ ,१)
इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है ,जो अत्यंत पवित्र है ,वेद-पुराणों का सार है ,कल्याण का भवन और अमंगल को हरने वाला है ,जिसे पार्वतीजी सहित शिवजी सदा जपा करते हैं ।
२-चौ० –एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानंद पर धामा ॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना । तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ॥(बालकांड१६,२ )
जो परमेश्वर एक है ,जिनके कोई इच्छा नहीं है ,जिनका कोई रूप और नाम नहीं है ,जो अजन्मा ,सच्चिदानंद और परमधाम हैं और जो सबमें व्यापक एवं विश्वरूप हैं,उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धरण करके नाना प्रकार की लीला की है ।
३-चौ० –एहि प्रकार बल मनहि देखाई । करिहऊं रघुपति कथा सुहाई ॥
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना । जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥(बालकांड१७ ,१ )
इसप्रकार मन को बल दिखाकर (कि मुनियों के वर्णन के सहारे मैं भी श्री रामचरित्र का वर्णन सहज ही कर सकूँगा ) मैं श्री रघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूंगा । व्यास आदि अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गये हैं ,जिन्होने बड़े आदर से श्रीहरि का सुयश वर्णन किया है ।
४ –दोहा० –एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ ॥( बालकांड २३ ,२०) तुलसीदासजी कहते हैं –श्री रघुनाथजी के नाम के दोनों अक्षर बड़ी शोभा देते हैं ,जिनमें से एक(रकार )छत्र रूप (रेफ र्) और दूसरा (मकार)मुकुटमणि (अनुस्वार )रूप से सब अक्षरों से ऊपर हैं ।
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१ –सो० –कुंद इन्दु सम देह उमा रमन करुना अयन ।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन ॥ (बालकांड २ ,४ )
जिनका कुंद के पुष्प और चंद्रमा के समान गौर शरीर है ,जो पर्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है ,वे कामदेव का मर्दन करनेवाले शंकरजी मुझ पर कृपा करें ।
२-चौ० –किएहुं कुबेश साधु सनमानू।जिमि जग जामवंत हनमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू । लोकहुं वेद बिदित सब काहू ॥ (बालकांड ९ ,४ )
बुरा वेष बना लेने पर भी साधू का सम्मान ही होता है ,जैसे जगत में जामवंत और हनुमानजी का हुआ । बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है ,यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं ।
३-चौ० –करन चहऊँ रघुपति गुन गाहा।लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ॥ (बलकाण्ड ११ ,३ ) तुलसीदासजी कहते हैं –मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ ,परंतु मेरी बुद्धि छोटी है और श्रीरामजी का चरित्र अथाह है इसके लिये उपाय का एक अंग अर्थात कुछ भी उपाय नहीं सूझता । मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं ,किन्तु मनोरथ राजा है ।
४-चौ०-कबित रसिक न राम पद नेहू । तिन्ह कहं सुखद हास रस एहू ॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी । ह्ंसिबे जोग हंसें नहीं खोरी ॥ (बालकांड १२ ,२ )
जो न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका श्री रामचन्द्र जी के चरणों में प्रेम है ,उनके लिए भी ये कविता सुखद हास्य रस का काम देगी । प्रथम तो यह भाषा की रचना है ,दूसरे मेरी बुद्धि भोली है ;इससे यह हंसने के योग्य ही है ,हंसने में उन्हें कोई दोष नहीं ।
ख
१-चौ० –खल अघ अगुन साधु गुन गाहा । उभय अपार उदधि अवगाहा ॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने । संग्रह त्याग न बिनु पहचाने ॥(बलकाण्ड ८ ,१ )
दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं । इसीसे कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है ,क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता ।
२-चौ० –खल परिहास होइ हित मोरा।काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
हंसहि बक दादुर चातकही । हंसहिं मलिन खल बिमल बतखही॥ (बलकाण्ड ११ ,९ )
३ –दो० –खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत ।
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत ॥
बहुत परिश्रम करने से थका हुआ और घोड़े समेत भूख प्यास से व्याकुल राजा (भानुप्रताप)नदी तालाब खोजता खोजता पानी बिना बेहाल हो गया ।
४- दो० -खाई सिंधु गंभीर अति चारिहुं दिसि फिरि आव।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव ॥ (बलकाण्ड १४३,१७८क )
उसे(लंका को )चारों ओर से समुद्र की अत्यंत गहरी खाई घेरे हुए है । उसके (दुर्ग )मणियों से जड़ा परकोटा है ,जिसकी कारीगरी का वर्णन नहीं किया जा सकता
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१-चौ० –गगन चढ़ई रज पवन प्रसंगा । कीचहि मिलई नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं सुमिरहीं राम देहिं गिन गारीं ॥ (बालकांड९ ,५ )
पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले )जल के संग से कीचढ़ में मिल जाती है । साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता मैना गिन-गिन कर गालियां देते हैं ।
२ –दो० –ग्रह भेषज जल पवन पट पाई कुजोग सुजोग।
होंहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ॥ (बलकाण्ड १० ,७ क )
ग्रह ,औषधि ,जल ,वायु और वस्त्र –ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार में बुरे और अच्छे पदार्थ हो जाते हैं । चतुर और विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं ।
३-चौ० –गई बहोर गरीब नेवाजू । सरल सबल साहिब रघुराजू ॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी । करहिं पुनीत सुफल निज बानी ॥ (बलकाण्ड १६ ,४ )
वे प्रभु श्री रघुनाथजी गयी हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले ,गरीबनिवाज़ (दीनबंधु ),सरलस्वभाव,सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं । यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और भगवत्पेम)देने वाली बनाते हैं ।
४-चौ० -गुरु पितु मात महेस भवानी । प्रनवऊँ दीनबंधु दिन दानी ॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के । हित निरुपधि सब बिधि तुलसीके ॥ (बलकाण्ड १९ ,२ )
श्री महेश और पर्वतीजी को मैं प्रणाम करता हूँ ,जो मेरे गुरु और माता पिता हैं,जो दीनबंधु और नित दान करने वाले हैं ,जो सीतापति श्रीरामचंद्रजी के सेवक,स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसी दास का सब प्रकार से कपट रहित सच्चा हित करने वाले हैं ।
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१-चौ० –घेरेन्हि नगर निसान बजाई । बिबिध भांति नित होइ लराई ॥
जूझे सकल सुभट करि करनी । बंधु समेत परेउ नृप धरनी ॥ (बालकाण्ड,१४१ ,३ )
(कालकेतु व वैरी राजाओं ने ) डंका बजाकर राजा भानुप्रताप के नगर को घेर लिया । नित्य प्रति अनेक प्रकार से लड़ाई होने लगी । भानुप्रताप के सब योद्धा शूरवीरों की करनी करके रण में जूझ मरे । राजा भी भाई सहित खेत रहा ।
२-चौ० –घटई बढ़इ बिरहिनि दुखदाई । ग्रसइ राहु निज संदिहि पाई ॥
कोक सोकप्रद पंकज द्रोही । अवगुन बहुत चंद्रमा तोही ॥ (बलकाण्ड १८९ ,१ )
(श्रीरामजी चंद्रमा को देखकर सीताजी के मुख को स्मरण करते हैं किन्तु फिर सोचते हैं)यह घटता बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियों को दुख देने वाला है ,राहू अपनी सन्धि में पाकर इसे ग्रस लेता है । चकवे को (चकवी के वियोग का)शोक देने वाला और कमाल का वैरी (उसे मुरझा देने वाला है )हे चंद्रमा !तुझमें बहुत से अवगुण हैं (जो सीताजी में नहीं हैं ।
३-चौ० –घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं । सरव करहिं पाइक फहराहीं ॥
करहिं बिदूषक कौतुक नाना । हास कुसल कल गान सुजाना ॥ (बालकांड ,२३६ ,४ )
(श्री रामजी की बारात में)घंटे घण्टियों की ध्वनि का वर्णन नहीं हो सकता । पैदल चलने वाले सेवकगण अथवा पट्टेबाज कसरत के खेल कर रहे हैं और फहरा रहे हैं । (आकाश में ऊंचे उछलते हुए जा रहे हैं)। हंसी करने में निपुण और सुंदर गाने में चतुर विदूषक तरह तरह के तमाशे कर रहे हैं ।
४-चौ० –घर मसान परिजन जनु भूता । सुत हित मीत मनहुं जमदूता ॥
बागन्ह बिटप बेलि कुम्हलाहीं । सरित सरोवर देखि न जाहीं ॥ (अयोध्याकाण्ड ३४८ ,४ )
(श्रीराम के वन गमन पर) घर श्मशान ,कुटुम्बी भूत प्रेत और पुत्र ,हितैषी और मित्र यमराज के दूत हैं । बगीचों में बेलें कुम्हला रहीं हैं । नदी और तालाब ऐसे भयानक लगते हैं कि उनकी ओर देखा भी नहीं जाता ।
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१-चौ० –चरन कमल बंदऊँ तिन्ह फेरें । पूर्वहुं सकाल मनोरथ मेरे ॥
कलि के कबिन्ह करऊँ परनामा । जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा ॥ (बालकांड १७ ,२ )
मैं (तुलसीदास )उन सब (श्रेष्ठ कवियों )के चरन कमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें । कलियुग के भी उन कवियों को मैं प्रणाम करता हूँ जिन्होंने श्री रघुनाथ जी के गुण समूहों का वर्णन किया है ।
२-चौ० –चहू चतुर कहुं नाम अधारा । ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा ॥
चहुं जुग चहुं श्रुति नाम प्रभाऊ कलि बिसेषि नहीं आन उपाऊ ॥ (बालकांड २५ ,४ )
(अर्थार्थी ,आर्त, जिज्ञासु एवं ज्ञानी )चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है; इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं । यों तो चारों योगों में और चारों वेदों में नाम का प्रभाव है ,परन्तु कलयुग में विशेष रूप से है । इसमें तो (नाम को छोड़ कर )दूसरा कोई उपाय ही नहीं हैं ।
३-चौ० –चली सुभग कबिता सरिता सो । राम बिमल जस जल भरिता सो ॥
सरजू नाम सुमंगल मूला । लोक बेद मत मंजुल कूला ॥ (बालकांड ,४१ ,६ )
(श्री रामचरित )उससे वह सुंदर कविता रूपी नदी बह निकली ,जिसमें श्रीरामजी का निर्मल यशरूपी जल भरा है । इस कविता रूपिणी नदी का नाम सरयू है ,जो सम्पूर्ण सुंदर मंगलों की जड़ है । लोकमत और वेदमत इसके दो सुंदर किनारे हैं ।
४ दो० –चिदानंद सुखदाम सिव बिगत मोह मद काम ।
बिचरहिं महि धरि हृदयं हरि सकल लोक अभिराम ॥ (बालकांड ६७ ,७५ )
(सती के शरीर त्यागने के बाद )चिदानंद ,सुख के धाम ,मोद ,मद और काम से रहित शिवजी सम्पूर्ण लोकों को आनन्द देने वाले भगवान श्री हरि (श्रीरामचंद्रजी )को हृदय में धारण कर (भगवान के ध्यान में मस्त हुए )पृथ्वी पर विचरने लगे ।
छ
१-चौ० -छंद सोरठा सुंदर दोहा । सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा ॥
अरथ अनूप सुभाव सुभासा । सोइ पराग मकरंद सुबासा ॥ (बालकाण्ड ३८ ,३ )
(श्री रामचरितमानस रूपी मानसरोवर में ) जो सुंदर छंद ,सोरठा और दोहे हैं ,वही बहुरंगे कमलों के समूह सुशोभित हैं । अनुपम अर्थ ,ऊंचे भाव और सुंदर भाषा ही पराग(पुष्परज ),मकरंद (पुष्परस )और सुगन्ध है ।
२-चौ० –छाड़े बिषम बिसिख उर लागे । छूटि समाधि संभू तब जागे ॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी । नयन उघारि सकल दिसि देखी ॥ (बालकाण्ड ७६ ,२ )
कामदेव ने तीक्ष्ण पाँच बान छोड़े ,जो शिवजी के हृदय में लगे । तब उनकी समाधि टूट गयी और वे जाग गये । ईश्वर (शिवजी ) के मन में बहुत क्षोभ हुआ । उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा ।
३-चौ० –छत्रबंधु तै बिप्र बोलाई । घालै लिए सहित समुदाई ॥
ईस्वर राखा धरम हमारा । जैहसि तै समेत परिवारा ॥ (बालकाण्ड १४० ,१ )
(संदर्भ –प्रतापभानु और कलकेतु का प्रसंग )रे नीच क्षत्रिय !(ब्राह्मणों ने कहा) तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था ,ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की ।अब तू सपरिवार नष्ट होगा ।
४-चौ० –छलु तजि करहि समरू सिवद्रोही । बंधु सहित न त मारहुं तोही ॥
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ । मन मुसुकाहिं रामु सिर नाएँ ॥ (बालकाण्ड २२९ ,२ )
(प्रसंग –परशुराम –लक्ष्मण संवाद, परशुराम ने क्रोध में राम से कहा )अरे शिवद्रोही !छल त्याग कर मुझसे युद्ध कर । नहीं तो भाइयों सहित तुझे मार डालूँगा । इसप्रकार परशुरामजी कुठार उठाये बक रहे हैं और श्री राम सिर झुकाये मन ही मन मुस्करा रहे हैं ।
ज
१ –दो० –जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात ॥
जोरि पानि बोले बचन हृदयं न प्रेमु अघात ॥ (बालकाण्ड २२४ ,२८४ )
तब उन्होंने श्री रामजी का प्रभाव जाना(जिसके कारण )उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ जोड़ कर वचन बोले –प्रेम उनके हृदय में समाता न था ।
२-चौ० –जय रघुबंस बनज बन भानू । गहन दनुज कुल दहन कृसानू ॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी । जय मद मोह कोह भ्रम हारी ॥ (बालकाण्ड २२४ ,१ )
हे रघुकुल रूपी कमलवन के सूर्य !हे राक्षसों के कुल रूपी घने जंगल को जलाने वाले अग्नि !आपकी जय हो !हे देवता ब्राहमण और गौ का हिट करने वाले ! आपकी जय हो । हे मद , मोह , क्रोध और भ्रम को हरने वाले ! आपकी जय हो ।
३-चौ० –जनक कीन्ह कौसिक प्रनामा । प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा ॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाई । अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं॥ (बालकाण्ड २२५ ,३ )
जनक जी ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया (और कहा -)प्रभुही की कृपा से श्री रामचन्द्र जी ने धनुष तोड़ा है । दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया । हे स्वामी !अब जो उचित हो सो कहिये ।
४-चौ० –जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी । तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारि ॥
जो संपदा नीच गृह सोहा । सो बिलोकि सुरनायक मोहा ॥ (बालकाण्ड २२७ ,४ )
उस समय (श्रीराम के विवाह के समय )जिसने तिरहुत को देखा ,उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पड़े । जनकपुर में नीच के घर भी उस समय जो सम्पदा सुशोभित थी;उसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जाता था ।
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१-चौ०-झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहचाने ॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई । जागें जथा सपन भ्रम जाई ॥ (बालकाण्ड ९६ ,१ )
जिस (श्रीराम ) के बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है ,जैसे रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है; और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है ,जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है ।
२-चौ० –झांझि मृदंग संख सहनाइ । भेरि ढ़ोल दुंदुभी सुहाई ॥
बाजहिं बहु बाजने सुहाए । जहं तहं जुबतिन्ह मंगल गाए ॥ (बालकाण्ड २०८ ,१ )
(श्रीराम द्वार धनुष तोड़ने पर ) झांझ, मृदंग ,शंख, शहनाई,भेरी ,ढ़ोल और सुहावने नगाड़े बज रहे हैं । जहाँ तहां युवतियाँ मंगल गीत गा रहीं हैं ।
३-चौ० – झूठइ लेना झूठइ देना । झूठइ भोजन झूठ चबेना ॥
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा । खाइ महा अहि हृदय कठोरा ॥ (उत्तरकाण्ड ८२९ ,४ )
उनका (दुष्टों का )उनका लेन दन ,भोजन ,चबेना सब झूठा होता है। जैसे मोर (बहुत मीठा बोलता है ,परंतु उसका हृदय एसा कठोर होता है कि विषैले साँपों को भी खा जाता है । वैसे ही वे ऊपर से मीठे वचन बोलते हैं (परंतु हृदय के बड़े निर्दयी होते हैं ।
ट
टूटे सूजन मनाइए जो टूटें सौ बार ।रहिमन फिर फिर पोइए जो टूटे मुक्ता हार –रहीम
ठ
१-चौ०-ठाड़े जहँ तहँ आयसु पाइ । कह सुग्रीव सबहिं समुझाई ॥
राम काज अरु मोर निहोरा । बानर जूथ जाहु चहुं ओरा ॥ (किष्किंधाकांड ६०५ ,३) आज्ञा पाकर सब जहां तहां खड़े हो गये । तब सुग्रीव ने सबको समझा कर कहा कि हे वानरों के समूहो !यह श्रीरामचंद्र जी का कार्य है ,और मेरा अनुरोध है ; तुम चारों ओर जाओ ।
2- सवैया -ठाढ़े हैं नवद्रुमडार गहें,
धनु काँधे धरें, कर सायकु लै।
बिकटी भृकुटी, बड़री अँखियाँ,
अनमोल कपोलन की छबि है॥
तुलसी अस मूरति आनु हिएँ,
जड! डारू धौं प्रान निछावरि कै॥ कवितावली
श्रमसीकर साँवरि देह लसै,
मने रासि महा तम तारकमै।13।
ड
१ –चौ ०- डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥ (बालकाण्ड ११४ ,२ ) सब को ठग –ठग कर परक गए हो और अत्यंत निडर हो गए हो । इसीसे मन में सदा उत्साह रहता है । शुभ अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते । अब तक तुमको किसी ने ठीक नहीं किया था ।
२ –चौ ० -डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥(लंकाकाण्ड ७६१ ,३ ) रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गयी । समुद्र ,नदियां ,दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्द हो उठे । रावण धड़ के दोनों टुकड़ों को फैला कर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा ।
ढ
१-छंद०-ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले ।
घहरात जिमि पबि पात गर्जत जनु प्रलय के बादले ॥
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए ।
गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहं सो तहँ निसिचर हए ॥ (लंकाकाण्ड ७०८ ,छंद )
उन्होंने पर्वतों के करोड़ों शिखर ढहाये ,अनेक प्रकार के गोले चलने लगे । वे गोले एसे घहराते हैं जैसे वज्रपात हुआ हो और योद्धा एसे गरजते मानो प्रलयकाल के बादल हों । विकट वानर योद्धा भिड़ते हैं ,घायल होते हैं तब भी वे हिम्मत नहीं हारते । वे पहाड़ उठाकर किले पर फेंकते हैं । राक्षस जहाँ के तहाँ मारे जाते हैं ।
त
१-चौ०- तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई । सुमिरत सारद आवति धाई ॥ (बालकाण्ड १४ ,२ )
इसी तरह बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है(अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न कविता वहाँ शोभा पाती है जहां उसका विचार ,प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण एवं अनुशरण होता है । कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रहमलोक को छोड़ कर दौड़ी आती हैं ।
२ दो० –तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु ।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु (बालकाण्ड २२५ ,२८६ )
(विश्वामित्र ने श्रीराम द्वारा शिव धनुष तोड़ने पर श्री जनक द्वारा आज्ञा पूछने पर कहा –यों तो विवाह धनुष के आधीन था ;धनुष टूटते ही विवाह हो गया ) तथापि तुम जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो ,ब्राह्मणों ,कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछ कर और वेदों में वर्णित जैसा आचार हो वैसा करो ।
३-चौ०-तब नरनाहं बसिष्ठु बोलाए । रामधाम सिख देन पठाए ॥
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा । द्वार आई पद नायउ माथा ॥ (अयोध्याकाण्ड २९३, १ )
(श्री राम के राज्याभिषेक की घोषणा करने के पश्चात ) तब राजा ने वशिष्ठ जी को बुलाया और शिक्षा (समयोचित उपदेश )देने के लिये श्री रामचन्द्र जी के महल में भेजा । गुरुका आगमन सुनते ही श्री रघुनाथ जी ने दरवाजे पर आकर उनके चरणों में मस्तक नवाया ।
४ –दो० –तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद ।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥ (अयोध्याकाण्ड २९५,१० )
उसी समय प्रेम और आनंद में मग्न लक्ष्मण जी आये । रघुकुलरूपी कुमुद के खिलाने वाले चंद्रमा श्रीरामचंद्र जी ने प्रिय वचन कहकर उनका सम्मान किया ।
थ
१ चौ० -थके नारि नर प्रेम पिआसे । मनहुं मृगी मृग देखि दिआ से॥
सीय समीप ग्रामतिय जाहीं । पूंछत अति सनेह सकुचाहीं ॥ (अयोध्याकाण्ड ३७३ ,२ )
प्रेम के प्यासे स्त्री पुरुष ( श्री राम ,सीता व लक्ष्मण के सौंदर्य –माधुर्य को देख कर )थकित रह गये जैसे दीपक को देखकर हिरनी और हिरन (निस्तब्ध रह जाते हैं)। गाँव की स्त्रियाँ सीताजी के पास जातीं हैं ;परंतु अत्यंत स्नेह के कारण पूंछते सकुचाती हैं ।
२-चौ० –थके नयन रघुपति छबि देखें । पलकन्हिहुं परिहरीं निमेषें। अधिक सनेहँ देह भै भोरी । सरद ससिहि जनु चितव चकोरी ॥ (बालकाण्ड १८५ ,३ )
श्री रघुनाथजी की छबि देखकर नेत्र निश्चल हो गये । पलकों ने गिरना छोड़ दिया । अधिक स्नेह के कारण शरीर विह्वल हो गया । मानो शरद ऋतु के चंद्रमा को चकोरी देख रही हो ।
३ –चौ० –थर थर कांपहिं पुर नर नारी । छोट कुमार खोट बड़ भारी ॥ भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी । रिस तन जरइ होइ बल हानी ॥ (बालकाण्ड २१९ ३ ) जनकपुर के स्त्री पुरुष थर थर काँप रहे हैं (और मन में कह रहे हैं कि छोटा कुमार बड़ा ही खोटा है । लक्ष्मणजी की निर्भय वाणी सुन सुन कर परशुराम जी का शरीर क्रोध से जला जा रहा है और उनका बल घट रहा है ।
४-चौ० –थोरेहिं महँ सब कहऊँ बुझाई । सुनहु तात मति मन चित लाई ॥ मैं अरु मोर तोर तैं माया । जेहि बस कीन्हे जीव निकाया ॥ (अयोध्याकाण्ड ५४८ ,१ ) श्रीरामजी ने कहा –मैं थोड़े में ही सब समझा कर कह देता हूँ । तुम मन चित्त और बुद्धि लगा कर सुनो ! मैं और मेरा तू और तेरा –यही माया है जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है ।
द
१ -दो0 –देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल ।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल ॥(बालकाण्ड २२४,२८५)
देवताओं ने नगाड़े बजाये ,वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे । जनक पुर के स्त्री –पुरुष सब हर्षित हो गये । उनका मोहमय शूल मिट गया ।
२ चौ० –दीन्ही असीस सासु मृदु बानी । अति सुकुमारि देखि अकुलानी ॥ बैठि नमित मुख सोचति सीता । रूप रसि पति प्रेम पुनीता ॥ (अयोध्याकाण्ड ३३०,१ ) सास ने कोमल वाणी से आशीर्वाद दिया । वे सीता जी को अत्यंत सुकुमारी देखकर व्याकुल हो उठीं । रूप की राशि और पति के साथ पवित्र प्रेम करने वाली सीताजी नीचा मुख किये बैठी सोच रहीं हैं ॥
३-चौ० - देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना । उठि रघुबीर सुधारे बाना ॥
जटा जूट दृढ़ बाँधें माथे ।सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे ॥(लंकाकाण्ड ७४३ ,४ ) देवताओं के वचन सुनकर प्रभु मुसकराये । फिर रघुवीर ने उठकर बाण सुधारे । मस्तक पर जटाओं के जूड़े को कसकर बांधे हुए हैं । ,उसके बीच बीच में पुष्प गूँथे हुए शोभित हो रहे हैं ।
४ –चौ०-दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा । बज़्रपात जनु बारहिं बारा ॥
रघुपति कोपि बान झरि लाई । घायल भै निसिचर समुदाई ॥ (लंकाकाण्ड ७४३ ,४ ) दोनों तरफ से योद्धा पर्वतों से प्रहार करते हैं । मानो बारंबार बज्रपात हो रहा हो । श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके बाणों की झड़ी लगा दी , जिससे राक्षसों की सेना घायल हो गयी ।
ध
१ छंद – धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुं चीन्हा रघुपति कृपा भगति पाई । अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ज्ञानगम्य जय रघुराई ॥
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई ।
राजीव बिलोचन भवभय मोचन पाहि पाहि सरनहि आई ॥ (बालकाण्ड १६९ ,२ ) (अहिल्या ने ) फिर उसने मनमें धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथ जी की कृपा से भक्ति प्राप्त की । तब अत्यंत निर्मल वाणी से स्तुति प्रारम्भ की –हे ज्ञान से जानने योग्य
२-दो ० –धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल ।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल । (बालकाण्ड २४३ ,३१२ ) निर्मल और सभी सुंदर मंगलों की मूल गोधूलि की पवित्र वेला आ गयी और अनुकूल सकुन होने लगे ,यह जानकार ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा ।
३-चौ ० –धूप धूम नभु मेचक भयऊ । सावन घन घमंडु जनु ठयऊ ॥ सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुं बलाक अवलि मन करषहिं॥(बालकाण्ड २७४ ,१ )
धूप के धुएं से आकाश एसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड़ घुमड़ कर छा गये हों । देवता कल्प वृक्ष के फूलों की मालाएँ बरसा रहे हैं वे एसी लगती हैं मानो बगुलों की पांति मन क खींच रही हो ।
४ चौ ० –धूप दीप नैबेद बेद बिधि । पूजे बर दुलहिनि मंगल निधि ॥ बारहिं बार आरती करहीं ।ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं ॥ (बालकाण्ड २७६ ,२ )
वेद विधि के अनुसार मंगलों के निधान दूलह दुल्हिनों की धूप ,दीप और नैवेद्य आदि के द्वारा पूजा की ।माताएँ बारंबार आरती कर रहीं हैं और वर वधुओं के सिरों पर सुदर पंखे और चँवर ढल रहे हैं ।
न
१ श्लोक –
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद् रामायणे निगदितं क्वचिद न्यतोअपि । स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबन्धमतिमंजुलमातनोति ॥ (बालकाण्ड २ ,७ )
अनेक पुराण ,वेद और (तंत्र )शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित हैं और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथ जी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तः करण के सुख के लिये अत्यंत मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है ।
२ चौ०-नाहीन रामु राज के भूखे ।धरम धुरीन बिषय रस रूखे । गुरु गृह बसहुं रामु तजि गेहू । नृप सन अस बरु दूसर लेहू ॥ । (अयोध्याकाण्ड ३२४ ,२ )
श्री रामजी राज्य के भूखे नहीं हैं । वे धर्म की धुरी को धारण करने वाले और उनमें विषयासक्ति नहीं है फिर भी मन न माने तो राजा से दूसरा वर लेलों कि श्री राम घर छोड़कर गुरु के घर रहें ।
३-दो०-नव गयन्दु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान ॥ (अयोध्याकाण्ड ३२६ ,५१ )
श्री रामचंद्रजी का मन नये पकड़े हुए हाथी के समान और राजतिलक उस हाथी के बांधने की काँटेदार बेड़ी के समान है । वन जाना है सुनकर अपने को बंधन से छूटा जानकर ,उनके हृदय में आनंद बढ़ गया है ।
४ –दो०-निरखि राम रुख सचिव सुत कारनु कहेउ बुझाइ।
सुनि प्रसंग रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ ॥ (अयोध्याकाण्ड ३२८ ,५४ ) तब श्रीरामचंद्रजी का रुख देखकर मंत्री के पुत्र ने सब कारण समझा कर कहा । उस प्रसंग को सुनकर वे गूंगी जैसी रह गयीं ,उनकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता ॥
प
१ –छंद –पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं ।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब सांची कहौं॥
बरु तीर मारहुं लखन पै जब लगि न पाय पखारिहौं ।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपालु पारु उतारिहौं ॥ (अयोध्याकाण्ड ३६१ )
(केवट ने कहा ) हे नाथ !मैं चरणकमल धोकर आपलोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा ; मैं आपसे कुछ उतराई नहीं चाहता । हे राम ! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है , मैं सब सच कहता हूँ । लक्ष्मण भले ही मुझे तीर मारें , पर जब तक मैं पैरों को पाखर न लूँगा ,तब तक हे तुलसी दास के नाथ ! हे कृपालु ! मैं पार नहीं उतारूँगा ।
२-चौ0 -पद नख निरखि देवसरि हरषी । सुनि प्रभु बचन मोहँ मति करषी ॥ केवट राम रजायुस पावा । पानि कठवता भरि लेइ आवा ॥ (अयोध्याकाण्ड ३६२ ,३)
प्रभु के बचनों को सुनकर गंगाजी की बुद्धि मोह से खिंच गयी थी (कि ये भगवान होकर भी पार उतारने के लिये केवट का निहोरा कैसे कर रहे हैं)। परंतु (समीप आने पर अपनी उत्पत्ति के स्थान )पदनखों को देखते ही (उन्हें पहचान कर ) देवनदी गंगाजी हर्षित हो गयीं । केवट श्री रामजी की आज्ञा पाकर कठौते में जल ले आया ।
३ दो० –पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार ।
पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार ॥(अयोध्याकाण्ड ३६२ ,१०१ )
चरणों को धोकर और सारे परिवार सहित स्वयम उस जल को पी कर पहले अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनंद पूर्वक प्रभु श्री रामचंद्र जी को गंगा जी के पार ले गया ।
४-चौ0 –पिय हिय की सिय जाननिहारी । मनि मुदरी मन मुदित उतारी ॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई । केवट चरन गहे अकुलाई ॥ (अयोध्याकाण्ड ३६२ ,२ )
पति के हृदय को जानने वाली सीताजी ने आनंद भरे मन से अपनी रत्न जड़ी अंगूठी उतारी । कृपालु श्री रामजी ने केवट से नाव की उतराई लेने को कहा । केवट ने व्याकुल होकर प्रभु के चरण पकड़ लिये ।
फ
१-चौ०-फिरत लाज कछु करि नहीं जाई ।मरनु ठानि मन रचेसि उपाई ॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा । कुसुमित नव तरु राजि बिराजा ॥ (बालकांड ७५ ,३ ) (कामदेव शिवजी से भयभीत हो गया था) लौट जाने में लज्जा मालूम देती है और करते कुछ बनता नहीं । आखिर मन में मरने का निश्चय कर उसने उपाय रचा । तुरंत ही सुंदर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया । फूले हुए नये नये बृक्षों की कतारें सुशोभित हो गयीं ।
२-चौ०-फिरत बिपिन आश्रम एक देखा । तहं बस नृपति कपट मुनिवेषा । जासु देस नृप लीन्ह छ्ड़ाई । समर सेन तजि गयउ पराई ॥ (बालकाण्ड १२९ ,१ )
वन में फिरते –फिरते उसने (राजा प्रतापभानु )एक आश्रम देखा ; वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाये एक राजा रहता था ,जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़ कर युद्ध से भाग गया था ।
३-सो०-फ़ूलइ फ़रइ न बेत जदपि सुधा बरसहिं जलद ।
मूरख हृदयं न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम ॥ (लंकाकाण्ड ६७९ ,१६ ख ) यद्यपि बादल अमृत सा जल बरसाते हैं ,तो भी बेत फूलता फलता नहीं । इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के समान भी गुरु मिलें तो भी मूर्ख के हृदय मे चेत (ज्ञान )नहीं होता ।
४-चौ०-फिरत बिपिन नृप दीख बराहू । जनु बन दूरेउ ससिहि ग्रसि राहू ॥
बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं । मनहु क्रोध बस उगिलत नाहीं ॥ (बालकांड १२८ ,३ ) राजा (प्रताप भानु ) ने वन में फिरते हुए एक सुअर को देखा ।(दांतों के कारण वह एसा दिख रहा था )मानो चंद्रमा को ग्रस कर राहू वन में आ गया हो । चंद्रमा बड़ा होने से उसके मुंह में समाता नहीं और मानो क्रोध वश वह भी उसे उगलता नहीं ।
ब
१ –दो०-बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार ।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥ (बालकाण्ड १५५ ,१९२ )
ब्राह्मण ,गौ ,देवता और संतों के लिए भगवान ने मनुष्य अवतार लिया ।वे (अज्ञानमयी )माया और उसके गुण(सत ,रज ,तम )और (बाहरी तथा भीतरी ) इंद्रियों से परे है । उनका (दिव्य )शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बंधन से परबश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं ।
2-छंद-ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रॉम रॉम प्रति बेड कहै। मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै । उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै । कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै ॥ (बालकाण्ड 155 ,3 ) वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्मांड समूह हैं । वे तुम मेरे गर्भ में रहे –इस हंसी की बात सुनने पर विवेकी पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती । जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ तो प्रभु मुसकराये । वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं । अतः उन्होंने सुंदर कथा कहकर माता को समझाया जिससे उन्हें वात्सल्य प्रेम प्राप्त हो (भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाये ।
3-चौ०-बृंद बृंद मिलि चलीं लोगाईं । सहज सिंगार किएँ उठि धाईं ॥ कनक कलस मंगल भरि थाला । गावत पैठहिं भूप दुआरा ॥ (बालकाण्ड १५६ ,२ )
(श्री राम के जन्म के समय) स्त्रियाँ झुंड की झुंड मिलकर चलीं । स्वाभाविक श्रुंगार किये ही वे उठि दौड़ी । सोने का कलश लेकर और थालों में मंगल द्रव्य भरकर गाती हुईं राज द्वार में प्रवेश करती हैं ।
४ –चौ०-बुध पुरान श्रुति सम्मत बानी । कही बिभीषन नीति बखानी ॥
सुनत दसानन उठा रिसाई । खल तोहि निकट मृत्यु अब आई ॥ (सुंदरकाण्ड ६४८ ,१ )
(श्रीराम-रावण युद्ध के पूर्व) विभीषण ने पंडितों ,पुराणों और वेदों द्वारा सम्मत वाणी से नीति बखान कर कही । पर उसे सुनते ही रावण क्रोधित हो उठा और बोला कि रे दुष्ट !अब मृत्यु तेरे निकट आ गयी है ।
भ
१-चौ0 -भुवन चारि दस भरा उछाहू ।जनकसुता रघुबीर बिआहू ॥
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे । मग गृह गलीं संवारन लागे ॥ (बालकाण्ड २३१ ,२)
चौदह लोकों में उत्साह भर गया कि जानकी जी और श्री रघुनाथजी का विवाह होगा । यह शुभ समाचार सुन पाकर लोग प्रेममग्न हो गये और रास्ते ,घर गलियाँ सजाने लगे ।
२-चौ0 -भरत बचन सब कहं प्रिय लागे । राम सनेह सुधाँ जनु पागे ॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे । मंत्र सबीज सुनत जनु जागे ॥(अयोध्याकाण्ड ४२२ ,१ )भरतजी के वचन सब को प्रिय लगे ।मानो वे श्रीरामजी के प्रेमरूपी अमृत में पगे थे । श्रीरामरूपी भीषण बिष से लोग जले हुए थे । वे मानो सबीज मंत्र को सुनकर जाग गये ।
३-चौ0 –भाँय कुभायं अनख आलसहूँ ।नाम जपत मंगल दिसि दसहुं ॥
सुमरि सो नाम राम गुन गाथा । करऊँ नाइ रघुनाथहि माथा ॥ (बालकाण्ड २९ ,१ )
अच्छे भाव से (प्रेम से) बुरे भाव से (वैर से),क्रोध से या आलस्य में ,किसी तरह से भी (राम) नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है । उसी रामनाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ ।
४ –छंद –भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी ।
हरर्षित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी ॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी ।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभा सिंधु खरारी ॥ (बालकाण्ड १५४ ,१ )
दीनों पर दया करने वाले ,कौसल्या जी के हितकारी कृपालु प्रभु पैदा हुए । मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गयीं । नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था ;चारों भुजाओं में अपने (खास )आयुध धारण किये हुए थे ,दिव्य आभूषण और बनमाला पहने थे ;बड़े बड़े नेत्र थे । इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए ।
म
१-सो० –मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ गिरिबर गहन ।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन ॥ (बालकाण्ड २ ,२ ) जिनकी कृपा से गूंगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लंगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है ,वे कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु भगवान मुझ पर द्रवित हों ।
२ –दो० –मगन ध्यान रस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह ।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह ॥ (बालकांड १६ ,१११ ) शिवजी दो घड़ी तक ध्यान के रस में डूबे रहे । ;फिर उन्होंने मन को बाहर खींचा और तब रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे ।
३ –चौ० -महिमा नाम रूप गुन गाथा । सकल अमित अनंत रघुनाथा ॥
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं॥ (उत्तरकाण्ड ८६२ ,२ ) श्री रघुनाथजी की महिमा ,नाम ,रूप और गुणों की कथा सभी अपार एवं अनंत हैं ,तथा श्री रघुनाथजी स्वयं भी अनंत हैं । मुनिगण अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार श्री हरि के गुण गाते हैं ।
४ –चौ० –मन गोतीत अमल अबिनासी । निर्बिकार नीरवधि सुख रासि ॥
सो तैं ताहि तोहि नहीं भेदा । बारि बीचि इव गावहिं बेदा ॥ (उत्तराखंड ८६३ ,३ ) वह मन इंद्रियों से परे ,निर्मल ,विनाशरहित ,निर्विकार ,सीमारहित और सुख की राशि हैं । वेद एसा गाते हैं कि वही तू है (तत्वमसि )जल और जल की लहर की भांति उसमें और तुझमें कोई भेद नहीं है ।
य
१ श्लोक
यस्याङ्के च विभाति भूधरसुता देवा पगा मस्तके भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि व्यालराट्। सोअयं भूतिविभूषण: सुरवरः सर्वाधिप: सर्वदा शर्व: सर्वगतः शिव : शशिनिभ: श्रीशंकर: पातु माम्॥ (अयोध्याकाण्ड २८७ ,१ )
जिनकी गोद में हिमाचल सुता पार्वतीजी ,मस्तक पर गंगाजी ,ललाट पर द्वितीय का चंद्रमा ,कंठ में हलाहल विष और वक्षस्थल पर सर्पराज शेष जी सुशोभित हैं ,वे भस्म से विभूषित ,देवताओं में श्रेष्ठ ,सर्वेश्वर ,संहार कर्ता ,सर्व व्यापक ,कल्याण रूप ,चंद्रमा के समान शुभ्रवर्ण श्री शंकरजी सदा मेरी रक्षा करें ।
र
१ –चौ० -राम सखा सुनि संदनु त्यागा । चले उतरि उमगत अनुरागा ॥
गाउँ जाति गुहं नाऊँ सुनाई । कीन्ह जोहारू माथ महि लाई ॥ (अयोध्याकाण्ड ४२९ ,४ ) यह (निषाद राज )श्री राम का मित्र है ,इतना सुनते ही भरतजी ने रथ त्याग दिया ।वे रथ से उतरकर प्रेम में उमगते हुए चले। निषाद राज ने अपना गाँव जाति और नाम सुनाकर पृथ्वी पर माथा टेक कर जौहर की ।
२ चौ ०- राम सखहि मिलि भरत सप्रेमा । पूंछी कुसल सुमंगल खेमा ॥
देखि भरत कर सीलु सनेहू । भा निषाद तेहि समय बिदेहू ॥
(अयोध्याकाण्ड ४३०,२)
रामसखा निषाद राज से प्रेम पूर्वक मिलकर भरतजी ने कुशल ,मंगल और क्षेम पूंछी । भरतजी का शील और प्रेम देख कर निषाद उस समय विदेह हो गया (प्रेम मुग्ध होकर देह की सुध भूल गया ।
३चौ० –राम जनमि जगु कीन्ह उजागर । रूप सील सुख सब गुन सागर ॥
पुरजन परिजन गुरु पितु माता । राम सुभाउ सबहिं सुख दाता ॥(अयोध्याकाण्ड ४३४ ,३ ) श्री रामजी ने जन्म लेकर जगत को प्रकाशित कर दिया । वे रूप शील सुख और समस्त गुणों के सागर हैं । पुरवासी ,कुटुंबी ,गुरु ,माता –पिता सभी को श्रीरामजी का स्वभाव सुख देने वाला है ।
४-चौ० रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई । बोली बचन बहुत मुसकाई ॥
तुम सम पुरुष न मो सम नारी । यह संजोग बिधि रचा बिचारी ॥
(अरण्यकाण्ड ५०१ ,४ )
वह (शूर्पणखा )सुंदर रूप धरकर प्रभु के पास जाकर बहुत मुसकरा कर बोली –न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है, न मेरे समान स्त्री । विधाता ने यह संयोग बहुत विचार कर रखा है ।
ल
१-चौ ० -लालन जोगु लखन लघु लोने । भे न भाइ अस अहहिं न होने ॥
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे । सिय रघुबीरहि प्रानपिआरे ॥
(अयोध्याकाण्ड ४३४ १ )
मेरे छोटे भाई लक्ष्मण बहुत सुंदर और प्यार करने योग्य हैं । एसे भाई न तो किसी के हुए ,न हैं ,न होने को हैं । लक्ष्मणजी अवध के लोगों के प्यारे ,माता पिता के दुलारे और श्री सीतारामजी के प्राणप्यारे हैं ।
२-चौ०-लखन हृदय लालसा बिसेषी । जाइ जनकपुर आइअ देखी ।
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहि मुसुकाहीं ॥ (बालकाण्ड १७५ ,१ )
(जनकपुर में )लक्ष्मण जी के मन में लालसा है कि जनकपुर देख आवें। परंतु श्री रामजी का डर है और मुनि से भी सकुचाते हैं । इसलिये प्रगट में कुछ नहीं कहते ;मन ही मन मूसकरा रहे हैं ।
३ –दो0 – लता भवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ ॥ (बालकाण्ड१८५२३२)
उसी समय दोनों भाइ लता मंडप में से प्रगट हुए । मानो दो निर्मल चंद्रमा बादलों के पर्दे को हटा कर निकले हों ।
४ –चौ० –लखन कहा हँसि हमरे जाना । सुनहु देव सब धनुष समाना ॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें ॥ (बालकाण्ड २१४ ,१ )
लक्ष्मण जी ने (श्री परशुराम से ) हँस कर कहा –हे देव !सुनिये ,हमारे जान में तो सभी धनुष एक से हैं । पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि लाभ श्री रामजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था ।
व
१ व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर । लक्षिमन कहाँ बूझ करुनाकर ॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना । अनुज देखि प्रभु अति दुख माना ॥ (लंकाकाण्ड ७१२ ,३ )
श
श्लोक
शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं ब्रह्माशंभुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यम विभुम। रामाख्यं जगदीश्वरम सुरगुरुं माया मनुष्य हरि वंदेअहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम ॥(सुंदरकाण्ड १ )
स
१ –श्लोक
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ ॥ (बालकांड १,४ )
श्री सीतारामजी के गुण समूह रूपी वन में विहार करने वाले ,विशुद्ध विज्ञानसम्पन्न कवीश्वर श्री वाल्मीकि जी और कपीश्वर श्री हनुमान जी की मैं वंदना करता हूँ ।
२-चौ ०-सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही ।तव प्रभाउ जग बिदित न केही ।
लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें ॥ (अयोध्याकाण्ड ३६३ ,३ ) हे रघुवीर की प्रियतमा जानकी ! सुनो तुम्हारा प्रभाव जगत में किसे नहीं मालूम है ?तुम्हारे देखते ही (कृपा दृष्टि से )लोग लोकपाल हो जाते हैं । सब सिद्धियाँ हाथ जोड़े तुम्हारी सेवा करती हैं ।
३-चौ०-सगुनु खीरु अवगुन जलु ताता । मिलइ रचइ परपंच बिधाता ॥
भरतु हंस रबिबंस तड़ागा । जनम कीन्ह गुन दोष बिभागा ॥ (अयोध्याकाण्ड ४५९ ,३ ) (श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा ) हे तात !गुण रूपी दूध और अवगुण रूपी जल को मिला कर बिधाता इस जगत को रचता है । परंतु भरत ने सूर्य वंश रूपी तालाब में हंस रूप जन्म लेकर गुण और दोष दोनों को अलग अलग कर दिया ।
४-दो०- सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहि सनाथ । नतरु फेरिअहिं बंधु दोउ नाथ चलौं मैं साथ ॥ (श्री भरतजी ने राम से कहा) छोटे भाई शत्रुघ्न समेत मुझे वन में भेज दीजिये नहीं तो हे नाथ !लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों भाइयों को लौटा दीजिये और मैं आपके साथ चलूँ ॥
ह
१-चौ०-होइहि भजन न तामस देहा । मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ॥ जौं नररूप भूपसुत कोऊ । हरिहऊं नारि जीति रन दोऊ ॥ (अरण्यकाण्ड ५५९ ,३ ) (रावण ने सोचा) इस तामस शरीर से भजन तो होगा नहीं ;अतएव मन वचन कर्म से यही निश्चय है । यदि वे मनुष्य रूप कोई राजकुमार होंगे तो ऊं दोनों को रण में जीतकर उनकी स्त्री को हर लूँगा ।
२ –चौ० हृदयं दाहु अति बदन मलीना । कहकर जोरि बचन अति दीना ॥
नाथ कहेउ अस कोसलनाथा । लै रथु जाहु राम के साथा ॥ (अयोध्याकाण्ड ३५६ ,३ )
उनका (सुमन्त्र्जी का ) हृदय अत्यंत जलने लगा ,मुँह उदास हो गया । वे हाथ जोड़ कर अति दीन वचन बोले –हे नाथ !मुझे दशरथ जी ने एसी आज्ञा दी थी कि तुम रथ लेकर श्रीरामजी के साथ जाओ ।
3 –चौ 0 -हियं हरषे सुर सेन निहारी । हरिहि देख अति भये सुखारी । सिव समाज जब देखन लागे ।बिडरि चले बाहन सब भागे ॥ (बालकाण्ड ८२ ,२ )
देवताओ के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु जी को देख कर तो बहुत ही सुखी हुए । किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन दर कर भाग चले ।
४ –चौ०-हरिहर बिमुख धर्म रति नाहीं । ते नर तहँ सपनेहुं नहिं जाहीं ॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला । नित नूतन सुंदर सब काला ॥ (बालकाण्ड ९१ ,१ ) जो भगवान विष्णु और महादेव से विमुख है और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है,वे लोग स्वप्न में भी वहाँ (कैलास पर्वत )नहीं जा सकते । उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड़ है जो नित्य नवीन और सब काल में सुंदर रहता है ।
क्ष
१ –पदयांश - क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
रामधारी सिंह "दिनकर"
त्र
१ दो० –त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि ।
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयं बिचारि ॥ (बालकाण्ड ६१ ,६६ ) (हिमाचल -)हे मुनिवर (नारद )!आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं ,आपकी सर्वत्र पहुँच है । अतः आप हृदय में विचार कर कन्या (पार्वती )के दोष गुण कहिये ।
२-चौ ० -त्रिजग देव नर जोइ तनु धरऊँ । तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ ॥
एक सूल मोहि बिसर न काऊ । गुर कर कोमल सील सुभाऊ ॥ (उत्तरकाण्ड ८८१ ,१ ) (काकभुशुंडी ने कहा) तिर्यक योनि (पशु पक्षी ),देवता या मनुष्य जो भी शरीर धारण करता ,वहाँ वहाँ मैं श्री राम का भजन जारी रखता (इस प्रकार मैं सुखी हो गया परंतु एक शूल मुझे बना रहा । गुरुजी का कोमल सुशील स्वभाव मुझे नहीं भूलता (जिंनका मेरे द्वारा अपमान हुआ था ।
३ –चौ०-त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी । मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ॥
तजौं देह करू बेगि उपाई । दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥
सीताजी हाथ जोड़ कर त्रिजटा से बोलीं –हे माता तू मेरी विपत्ति की संगिनी है । जल्दी कोई एसा उपाय कर जिससे मैं शरीर छोड़ सकूँ । विरह असह्य हो चला है ,अब यह सहा नहीं जाता ।
४ –चौ ० –त्रेतां ब्रह्म मनुज तनु धारिही । तासु नारि निसिचर पति हरिही ॥ तासु खोज पठइहि प्रभु दूता । तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता ॥ किष्किंधाकाण्ड ६१० ,४ )
त्रेता युग में परब्रहम मनुष्य शरीर धारण करेंगे । उनकी स्त्री को राक्षसों का राजा हर ले जायेगा । उस की खोज में प्रभु दूत भेजेंगे । उनसे मिलने पर तू (जटायु का भाई संपाती )पवित्र हो जायेगा ।
धन्यवाद