आइना सच नहीं बोलता
कथाकड़ी
लेखिका प्रोमिला क़ाज़ी
सूत्रधार नीलिमा शर्मा निविया
पिताजी की खराब तबियत का सुन माँ उदास रहने लगी थी , लेकिन नंदनी को इसका एहसास न हो यह प्रयत्न भी कर रही थी। एक अनचाही चिंता उन्हें वापिस जाने से रोक रही थी. कैसे इस बच्ची को अकेले छोड़ दे ?हालाँकि नंदनी ने कोई शिकायत कभी नहीं की थी पर उसका दुख इतना पारदर्शी था कि बार बार उनका दिल काँप जाता। उन्हे लगता कि शायद इस बच्ची का जीवन खराब करने मे उनकी भी एक भूमिका तो है ही !
अपने जीवन का अकेलापन उन्होंने खूब जिया था वो भी उस समय जब वह भी नंदनी वाली स्तिथि में थी। मायके जाने नहीं दिया जाता वर्ना मन हल्का करने के लिए उस से अच्छा क्या होता ? अपने समय जो साहस वह ना दिखा पायी अब तो दिखा सकती है। नंदनी तो अपने मायके जा सकती है, ‘मै भेजूंगी उसे’ यह सोचते ही उनके पैरो में मानो पंख लग गए , हां यही ठीक रहेगा वह कुछ दिन वहाँ रह लेगी तो उसका भी मन बहल जायेगा !
अपने ही बेटे से बात करना अचानक उन्हे कठिन लाग्ने लगा, मन को कडा करके वह उसके कमरे कि तरफ चल पड़ी । दीपक की प्रतिक्रिया का उन्हें अंदाज़ा तो था फिर भी एक आस थी कि वह बात समझेगा , इसीलिए पहले उससे बात करके ही वह नंदनी को यह बताना चाह रही थी।
"बेटा, तेरे पापा ठीक नहीं, कुछ दिन देख आती हूँ"
"हां माँ, मुझे भी चिंता हो रही है"
"तो ऐसा कर दो टिकट करवा दे, मेरा घर के लिए और नंदू का उसके मायके के लिए, लेकिन सुन उसका हवाई जहाज़ से ही करवाना, ऐसी हालत में इतना लम्बा सफर रेल से ना कर पायेगी”
"नंदनी का क्यों? उसे क्यों जाना है वहां ? “ दीपक कि आवाज़ मे एक कड़ापन था।
"अरे कैसी बच्चों सी बात कर रहा है, बहु का घर है, मन ना करता होगा उसका, अपने माँ बाप से मिलने का ?
“नहीं माँ, नंदनी नहीं जाएगी” दीपक ने बिना सोचे ही फैसला थमा दिया था। लेकिन माँ के बार बार समझने पर उसने सोच कर बताने की हामी भर दी ।
दीपक के मन में एक अंतर्द्वंद सा शुरू हो गया था : एक मन खुश था कि नंदू चली जायेगी, कुछ देर शान्ति की सांस ले पाएगा, पहले जैसी स्वतंत्रता से कुछ दिन और जी पाएगा, मन में कभी जो अपराधबोध आकर उसे परेशान करता है वह उस से बचा रहेगा , लेकिन ; मन के किसी कोने में एक बौखलाहट सी थी , नंदू नहीं रहेगी को कैसा लगेगा ? नहीं, उसे इस हालत में मेरे पास होना चाहिए , कही और नहीं ! एक अजीब सी मनस्थिति से वो उलझता रहा, उसका जाना एक मुक्ति की राह थी
लेकिन उसके जाने से होने वाला विचित्र सा दुःख उसे विचलित भी कर रहा था। एक अजीब कश्मकश से दो चार होता दीपक समझ ही नहीं पा रहा था कि कैसे उसके भीतर का कुछ नंदनी के बारे मे सोच सोच कर टूट रहा था॰ कभी कभी अपना मन भी अजनबी हो जाता है ,अपने मन से हैरान दीपक को फैसला लेने में दो दिन लग गए। आखिर दो दिन के सोच विचार के बाद पहला मन जीत गया !
नंदनी को मानो विश्वास ही नहीं हो रहा था ! वो बार बार अपने को चिकोटी काटती और स्वयं को यकीन दिलाती क्या सच-मुच ? उसके मन को पंख लग गए थे , घर!!! पेकिंग करते हुए भी वह बार बार आ कर अपनी सासु माँ से लिपट जाती, और उनकी आँखे भर आती , ख़ुशी का यह कौन सा रहस्य था , जो दो स्त्रियां आंसू बहा बहा कर और हंस हंस कर एक दूसरे से बाँट रही थी ? यह कैसा अनुराग था उनके बीच जो रिश्तो से परे था, यह कैसा बंधन था जिसमे दोनों खुशी खुशी, बिना शिकायतों के बंध गयी थी .
सुबह पांच बजे की फ्लाइट थी और घर से दो घंटे पहले निकलना होगा, ख़ुशी के मारे नंदनी को नींद ही नहीं आ रही थी, दीपक गहरी नींद में था, वह नाईट लैंप की हलकी रौशनी में उसे एकटक देखने लगी, कितना अच्छा लग रहा था. अचानक उसकी आँखे भर आई और आँखों से लाख रोकते रोकते भी आंसू टपकने लगे , उसका जी चाहा की उससे कस कर लिपट उसे खूब प्यार करे, लेकिन प्रेम से अधिक उस पर डर हावी था. कितना बिगड़ेगा कि उसकी नींद खराब कर दी ! उसने एक लम्बी सांस भर आंसू पोंछे और चौंक पड़ी,
दीपक उसे अजीब नज़रो से देख रहा था और उसकी आँखे भी गीली थी ! सांस रोके वो उस नमी का अर्थ समझने की कोशिश करने लगी ! दीपक ने उसे कोमलता से अपने सीने में छुपा लिया और बिना कुछ कहे हौले हौले उसके बाल सहलाता रहा। उसका दिल ज़ोर ज़ोर से धडक रहा था, मगर उसमे एक दिव्य शांति सा कुछ था।
यह उनके विवाहित जीवन का सबसे रेशमी पल था, दोनों कभी इस तरह की मनस्थिति से नहीं गुजरे थे, यह प्रेम का ऐसा अंकुर था जो पल भर में बड़ा सा पेड़ बन गया था और फलों से लद गया था ! नंदू आँखे बंद किये उस स्वर्गिक आनंद में डूब रही थी , जहाँ मायका भी अचानक उसे पराया लगने लगा, आज दीपक का जो रूप वह देख रही थी , उसमे मानो उसे सब मिल गया था. और दीपक वह स्वयं चकित था, यह क्या था उसके भीतर जो आंसू बन कर नंदनी के बालों को कम उसके मन को ज्यादा भिगो रहा था ? उसे लग रहा था , वो इस तरह नंदनी को बाहों में भर पूरी उम्र बिता सकता है ! दीपक को लगा एक दम घोंटने वाली रुलाई जो कब से उसके अंदर दबी थी , इस पल सारे बांध तोड़ कर बाहर आ जाएगी। एक पश्चाताप था, एक अपराधबोध जो इस पल उससे भी बड़ा होकर उसके सामने आ गया था। उसने नंदनी को और कस कर भीच लिया, मानो कभी अलग न करना चाह रहा हो ।
"सुनो, मुझे नहीं जाना घर" स्वयं को रोकते रोकते भी बेसाख्ता नंदनी के मुँह से निकल गया, जाने क्या था उन पलो में कि दीपक से एक पल भी दूर रहना उसे असम्भव लगने लगा। दीपक उसे अपने में और भींचते कुछ कहने ही वाला था कि अचानक दोनों एक तीखी आवाज़ से चौंक गए! मानो कोई सूंदर सपना गिर कर टूट गया हो ! घड़ी के अलार्म ने पल भर में सारी मधुरता धो-पोंछ दी ! अचानक बर्फ सा ठंडापन दोनों के बीच पसर गया ।दीपक ने अपनी बाहें खींच ली थी और नंदनी? उसे लगा जैसे उसके प्राण ही किसी ने खींच लिए और वह बस एक देह भर रह गयी हो ! अभी जो कमरा स्वर्ग सा था अब यकायक जैसे वीरान हो गया हो !
जाते समय जब नंदनी सासु माँ के पैर छूने झुकी तो उसे गले से लगा दोनों ही रो पड़ी। हिदायतों की लम्बी लिस्ट उसे समझते हुए उन्होंने उसकी झोली आशीषो से भर दी। दीपक इतने में ही चिढ़ गया था .....
"जल्दी करो वैसे ही देर हो गयी है"
गाड़ी में बैठ नंदनी अपने आँसू बार बार पोंछती रही, और दीपक निर्लिप्त सा चुपचाप गाड़ी चलाता रहा. एयरपोर्ट पहुंच जब दीपक ने उसका सामान ट्राली पर रखा तो नंदनी का मन अचानक घबराने लगा. जीवन का पहला सफर था जो उसे अकेले करना था, शायद कोई शक्ति उसका हाथ थामे जीवन के समीकरण सीखा रही थी. डबडबाई आँखों से उसने दीपक की ओर देखा तो जाने वह कहाँ ग़ुम था? कुछ देर पहले का दीपक तो वो क़तई नहीं था ! ट्राली धकेलती नंदनी बार बार पीछे मुड़ती, बार बार आँखे पोंछती , उसे लगा उसके मन के दो टुकड़े हो गए है एक घर की तरफ जल्दी से जल्दी भाग रहा था और दूसरा एक कदम भी आगे चलने से इंकार कर रहा था !
पसीने पसीने नंदनी ने जब बोर्डिंग पास लिया तब उसे कुछ चैन पड़ा. लाउन्ज में आकर पड़ी कुर्सियों में एक पर वह ढह गयी और फूट -फूट कर रो पड़ी। आस पास की भीड़ से उसे कोई मतलब नहीं था, जैसे सारा संसार काला हो गया था और उस में कुछ दिख रहा था तो केवल दीपक !
बोर्डिंग शुरू हो गयी थी, अपने आप को सँभालते वह उठ खड़ी हुई. अपनी सीट पर आकर शांति से आँखे बंद कर अपने विवाहित जीवन का आंकलन करने लगी। दीपक के कई रूप थे, और हर रूप में उसे एक अलग नंदनी बनकर क्या पूरा जीवन यह खेल खेलना होगा ? वह खुश तो क्या उसे भी बेमतलब खुश होना होगा ? कब किस बात पर वह क्या बोल दे , और उसे जवाब में केवल खामोश रहना होगा ? जी पाएगी वह ऐसे ? एक घुटन थी जिसमे उसका अस्तित्व ही विलीन हो रहा था. पल में एकदम अपना हो जाता है और दूसरे ही पल अजनबी ?क्या करे वह ? उसे कोई रास्ता तो तलाशना ही होगा, ऐसे कोई कैसे जी सकता है ? अब कुछ समय बाद वो दो से तीन हो जाएंगे तब क्या अपने बच्चे को इस तरह के माहौल में बड़ा कर पाएगी ? उसे स्वयं को मजबूत बनाना ही होगा! यह सफर शायद उसके आने वाले अच्छे दिनों की नींव साबित हो, यह सफर शायद उसे कोई ऐसी शक्ति दे दे जिससे सब ठीक हो जाए !
जानती थी घर सब उससे दीपक के बारे में कुरेद कुरेद कर पहुंचेंगे, क्या जवाब दे पाएगी ? कितना झूठ और कितना सच ; यह समय क्या ऐसी ही सच्ची -झूठी कहानियों में गुजारना होगा उसे ! उसे मालूम था, माँ से कुछ कहेगी तो वह अपने प्रश्न शुरू कर देगी –
“प्यार करता है ना तुझ से ?”
“दीपक हाथ उठाता है तुझ पर ?”
“साथ नहीं सोता ?”
मानो पति के साथ बिस्तर पर जाना सुख का अंतिम पड़ाव हो ! मानो पति यदि साथ सो रहा है तो उसके सारे दुखो का अंत हो गया हो , इसके अतिरिक्त स्त्री को और क्या चाहिए होगा ? कैसे बता पाएगी कि कैसा होता है एक अजनबी के साथ सोना? एक ऐसे व्यक्ति के साथ जो वहाँ उपस्थित होकर भी नहीं होता ? कैसे बता पाएगी कि उसके बिना हाथ उठाए भी उसके मन का पोर पोर दुखता है ! कैसे सच बोल पाएगी नंदनी उस औरत से जो जीवन भर स्वयं ऐसे ही रिश्ते मे बरसो से बिना शिकायतों के खुश रह रही है ? उस औरत से जिसके लिए इतना ही काफी है कि उसका पति उस पर हाथ नहीं उठाता, साथ सुलाता है? बात बात पर अपमानित होना मानो कोई दुख नहीं, मन का अनकहा रह जाना जैसे कुछ भी नहीं !
माँ से तो नहीं पर हां भाभी से सच बोलना होगा उसे, शायद कोई रास्ता दिखाई दे !
साथ वाली सीट पर एक नन्हा सा बच्चा अपने माँ पिता के साथ आ बैठे थे, उसका हाथ धीरे से अपने पेट पर चला गया , ममता का एक समुंदर उसके भीतर हिलोरे मारने लगा , और उस अंजान बच्चे के प्रति उसमे ढेर स्नेह उमड़ आया। एक उम्मीद की किरण भी कि शायद इस के आने के साथ ही सब ठीक हो जाए ! शायद दीपक अपने अंश को देख रिश्तो की महत्ता समझ पाये! जहाज़ के उड़ान भरते ही उसे नींद की मीठी झपकी ने आ घेरा और उसके होंठो पर शांति की मुस्कान बिखर गयी।
नींद मे भी प्रश्नो का भवंडर उसके भीतर उठता रहा, हर प्रश्न का एक उत्तर ढूंढती, तो और दस प्रश्न खड़े हो जाते ! नंदनी को शादी के बाद पहली बार इतना सोचने का मौका मिला था, पहली बार वह प्रेम के कोमल तंतुओ से निकल कर तर्क से सोच पा रही थी । पहली बार उसे अपने रिश्ते की सारी दरारे साफ दिखाई दे रही थी , और बार बार वह उनमे गिरती जा रही थी ! उसे कुछ तो सोचना ही होगा, कुछ तो करना ही होगा, इसे पहले कि यह दरारे उसे समूचा ही निगल ले !
तीन घंटे कैसे बीत गए पता ही नहीं चला । कैप्टन की लैंडिंग कि घोषणा से उसकी तंद्रा टूटी। घर! उसका मन भर आया। बस कुछ ही देर में वह माँ -पिता के पास होगी, भाई भाभी से मिलेगी, अपना कमरा ,अपनी किताबें!उसे लगा अचानक वह फिर से जी उठी हो, यहा उसे अब कुछ दिन तक कोई अभिनय नहीं करना होगा।
प्रोमिला क़ाज़ी
परिचय - मनोविज्ञान में परस्नातक। हिंदी और अंग्रेजी में तीस से ज्यादा कहानी और कविता संकलन के साथ साथ अपना पहला कविता संग्रह "मन उगता ताड़ सा, मन होता उजाड़ भी " इसी वर्ष प्रकाशित। विभिन्न पत्र पत्रिकाओ, ई मैगज़ीन्स, ब्लॉग्स पर कविताये प्रकाशित । स्वतंत्र लेखन के अतिरिक्त अनुवाद में संलग्न , इस समय आकाशवाणी दिल्ली के एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही है।