एक देह एक आत्मा - 2 sangeeta sethi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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एक देह एक आत्मा - 2

कहानी

आज्ञा-चक्र

ओजस्वी चेहरा...हिरणी से आँखें...तेजस्वी माथा....और उस पर गोल मैरून बिन्दी दीपा को हमेशा आकर्षित करती थी । दीपा के कॉलेज में बॉटनी की प्रोफेसर वालिया जब पढाते हुए अपने चेहरे के भाव व्यक्त करती थी तो उनके माथे पर कभी आड़ी सिल्वटें तो कभी खड़ी शिकन पड़ती और उसका असर उनकी गोल बिन्दी पर पड़ता जो आड़ी सिलवटों से ऊपर नीचे हिण्डौले लेती तो खड़ी शिकन के साथ दाँए से दब कर बाएँ तरफ खड़ी हो जाती । ऊपर-नीचे, दाँए-बाएँ इस पूरे खेल में दीपा को मह्सूस होता कि यह बिन्दी कहीं गिर ना जाए और वो अपनी चुन्नी की झोली फैलाए उनके चेहरे के नीचे उनकी बिन्दी लपक ले और गिरने दे । उनकी मैरून बिन्दी अक्सर मैरून ही होती । कभी कभार वो सुर्ख लाल बन जाती और बहुत कम अवसरों पर साड़ी से मैच करती हुई हरी नीली या जामुनी हो जाती । ...क्लास में प्रोफेसर वालिया के आते ही दीपा की नज़र सबसे पहले उनकी बिन्दी पर जाती । वो अपने नोट्स लेने से पहले कॉपी के दाईं तरफ बिन्दी का निशान बना लेती । एक दिन क्लास में उसके पास बैठी दीपा की सबसे खास सहेली प्रेरणा ने पूछ ही लिया कि तू क्या बनाती है ये गोल-गोल । वो बोली “बिन्दी-बिन्दी ” ये बिन्दी कभी नहीं उतरनी चाहिए और वो हा-हा करके बिन्दास अन्दाज़ में हँस पड़ी ।

कॉलेज की पढाई पूरी हुई तो दीपा के माता-पिता ने उसका विवाह रचा कर अपना दायित्व पूरा कर दिया । विवाह की खरीददारी में उसने ढेर सारी बिन्दिया खरीदी । हर साड़ी के साथ मैचिंग बिन्दिया हरी ,नीली, पीली, लाल,बैगनी उसकी कलेक्शन में सब रंग थे । कोई जगमगाती, तो कोई स्टोन वाली, कोई मोती वाली तो कोई दोहरे रंग वाली, कोई गोल तो कोई लम्बी तिलक के आकार में,कोई सितारा तो कोई चाँद के आकार में दीपा को तो बाज़ार में उपलब्ध हर वैरायटी चाहिए थी ।

प्रेरणा उसके दहेज में इतनी सारी बिन्दिया देखकर बोली थी “ ओ हो! क्या पूरे मोहल्ले में बाँटेगी बिन्दिया या शहर के नुक्कड़ पर अपनी बिन्दिया की दुकान खोलेगी । मुझे तो समझ नहीं आता क्या बिन्दियों का व्यापार खत्म होने जा रहा है ।”

“ नहीं ! नही ! प्रेरणा ! पर मैं चाहती हूँ बिन्दी कम नहीं होनी चाहिए...पूरा संसार बिन्दीमय हो...ये ले...और उसने बिन्दी के कार्ड से गुलाबी रंग की बिन्दी निकाल कर प्रेरणा के माथे पर रख दी। प्रेरणा झल्ला उठी “ ना..ना..मुझे नहीं लगानी ये बिन्दी-विन्दी....बहनजी लुक देता है...और हर समय ध्यान भी आँखों के बीच रहता है...इरिटेशन-सा लगता है ”

“ ना लाडो ना ! ऐसा नहीं कहते...बिन्दी तो सुहाग की निशानी होती है और कुँवारी लड़कियों के लिए अच्छे सुहाग की आशा भी । देख तेरा चेहरा बिन्दी लगाते ही कितना दमक उठा है ” दीपा की माँ चाय लेकर कमरे में आई और दोनों सहेलियों की बातचीत में दखल देते हुए बोली। और ना जाने क्या सोच कर प्रेरणा ने अपने माथे की बिन्दी हटाई नहीं ।

वरमाला के समय जब दीपा तैयार होकर आई तो उसकी नग वाली बिन्दी लशकारे मार रही थी और उसके दोनों और कमानीदार भौंहों के सहारे लाल और सफेद बिन्दियों की कतार कपाट पर जाकर समाप्त हो रही थी । प्रेरणा ने दीपा के कान में फुसफुसाते हुए कहा –“आज तो तेरी बिन्दियों की इच्छा खूब पूरी हुई ” दीपा लाज के मारे गुलाबी हो गई ।

दिव्यांश भी दीपा के बिन्दी के शौक से जल्दी ही वाकिफ हो गए थे । क्योंकि जब भी दिव्यांश दीपा को मोटर साइकिल पर लाँग ड्राइव पर ले जाते वो वापसी में तंग गलिय़ों वाले बाज़ार में चलने की चिरौरी ज़रूर करती क्योंकि तंग गलियों में बिन्दी के कार्ड अच्छे मिलते हैं । फैंसी स्टोर की जगमग में से बिन्दी का एक कार्ड हमेशा उसकी शॉपिंग का हिस्सा होता । कभी नुक्कड़ पर खड़े अस्थायी दुकान तो कभी थड़ी पर सजी-धजी दुकानें , कभी टोकरी में रंग-बिरंगा सामान उठाए महिलाएँ तो कभी राह से गुजरने वाले ठेले...दीपा कहीं भी बिन्दी की खरीददारी करने से नहीं चूकती ।

दिव्यांश कभी-कभी तो दीपा के इस शौक पर झल्ला उठता –“ अरे भई ! बिन्दी का इतना भी क्या शौक ! आखिर बिन्दी का ये झंझट पालते ही क्यों हो । ” दीपा पहले तो हो-हो करके हँसने लगी फिर आँखे मटकाते हुए बोली-“ दिव्य ! ये जो मस्तक पर आँखों के बीच और नाक के ऊपर जो ये स्थान है ना इसे आज्ञा चक्र कहते हैं और आज्ञा चक्र के पीछे हमारी ध्यान इन्द्रिय होती है । यहाँ लगाई गई बिन्दी हमें हमेशा अपने ईष्ट का ध्यान करवाती है । पण्डित लोग भी अपने माथे पर गोल या लम्बी बिन्दी लगाते हैं । उनका ईष्ट ईश्वर होता है और हमारा ईष्ट मालूम है कौन है.....हमारा ईष्ट है आप यानि दिव्यांश और दीपा ने दिव्यांश का नाक पकड़ कर अपने समीप खींच लिया और अपने होंठों का स्पर्श उसके माथे पर रख दिया ” दिव्यांश दीपा के दर्शन पर स्तब्ध था ।

“ दीपा तुम ये दर्शन कब से बघारने लगी ?”

हाँ! दीपा का ये बचकाना आकर्षण अब गहरे दर्शन में बदल गया था और दिव्यांश जब-तब इस दर्शन को लेकर छेड़ने लगा था । यूँ कभी तो दीपा का माथा बिन्दी के बिना सूना नही रहता था पर कभी अलसायी सुबह दीपा के सोकर उठने से लेकर नहाने तक कभी बिन्दी से महरूम माथा देखकर दिव्यांश कहता “ भई आज हम कहाँ गिर गए...” तो दीपा हँस पड़ती । कभी लम्बे तिलक की दिशा बदल जाती तो दिव्यांश कह उठते...भई आज हम उलटे कैसे लगे हैं...और कभी-कभी तो दिव्यांश बिन्दी के कार्ड से एक बिन्दी निकाल कर दीपा के माथे पर रख कर चुम्बन लेते हुए कहते...अरे भई हम यहाँ हैं । और दोनो एक साथ ठठा मार कर हँस पड़ते...हा....हा...हा !

उधर प्रेरणा की शादी भी हो गई थी । वो अपने प्रीत के साथ खुश थी । अपने कॉलेज की दोस्ती निभाने क्भी-कभार दीपा के घर आ जाती । दिव्यांश और प्रीत जितने संजीदा होते दीपा और प्रेरणा उतनी ही मुखर हो जाती । उनकी दोस्ती हर मुलाकात में एक और नया बन्ध बना लेती । रसायन शास्त्र की दोनों विद्यार्थी कभी ट्रेटा तो कभी पैण्टा बन्ध के साथ अपनी दोस्ती के बन्धन को और मजबूत करती जा रही थी ।

वर्ष दर वर्ष हँसी खुशी बीत रहे थे । पर प्रेरणा को बिन्दी का शौक विवाह के बाद भी नहीं था । वो परवाह भी नहीं करती थी कि बिन्दी लगी भी है या नहीं । एक दिन प्रेरणा दीपा के घर बिन्दी लगाये बिना ही चली गयी । वहाँ जाते ही दीपा ने उसे टोक दिया “ अरे बिन्दी कहाँ है तेरी ”

“इसका बिन्दी का ये ज़ुनून अब भी नहीं गया...क्यों जीजाजी ” प्रेरणा दिव्यांश की ओर रुख करती हुई बोली ।

“ हाँ ! पहले तो हमें माथे पर टाँगे-टाँगे फिरती है । और फिर ना जाने कौनसे आज्ञा चक्र का दर्शन हमारे सामने बघारने लगती है ”

.....और दीपा अपने ड्रेसिंग टेबल में सजे हुए ढेर सारे बिन्दी के कार्ड ले आई । और प्रेरणा के माथे पर उसके नीले सूट से मेल खाती नीली बिन्दी रखते हुए बोली- “अरे ज़िन्दगी में इन बिन्दियों की माफिक ना जाने कितने रंग बिखरे हैं । लाल, पीले, हरे, बैगनी, हमें हर रंग में रहना सीखना है । क्या पता कब कौनसा रंग इस ज़िन्दगी से खत्म हो जाए । ”

“अरे ! अरे! आप तो बड़ी दार्शनिक बातें कर लेती हैं ” प्रीत आज मुखर हो उठे थे ।

“ अरे ये तो बचपन से ही ऐसी बातें करती आई है । कॉलेज में कभी प्रोफेसर की बिन्दी निहारती थी तो कभी पड़ौस की आण्टी जी की ” प्रेरणा आज अपनी पूरी जानकारी दे देना चाहती थी । आज दिव्यांश भी बोलने में पीछे नहीं रहे थे । “ अरे प्रेरणा जी ! आपकी सहेली साहिबा ने तो बिन्दी के पीछे हमें ना जाने कहाँ-कहाँ घुमा दिया हैं । एक बार तो थ्री डी बिन्दी के पीछे सारा शहर ही छान मारा । अब साइंस स्टूडेण्ट का ये भी तो नुकसान है कि वो अपनी ही भाषा बोलते हैं । फिर मैंने ही दुकानदार को समझाया कि भैया ! वो बिन्दी जो चारों तरफ से लश्कारे मारे...और दुकान पर खड़े सारे ग्राहक हो-हो करके हँस पड़े । ” उस दिन तो दीपा के ड्राइंग-रूम में बिन्दी पर ऐसी रोचक परिचर्चा हुई कि दिव्यांश और प्रीत की भागीदारी भी बराबर रही ।

दिव्यांश लगातार बोल रहे थे –“अब कभी महारानी साहिबा को लिक्विड बिन्दी चाहिए तो कभी सिन्दूरी बिन्दी । अरे एक बार तो हम उदयपुर में सहेलियों की बाड़ी घूमने गए । वहाँ सिन्दूर जैसी रंग-बिरंगी बिन्दी बेच रहा था । हम तो आगे बढ गए । थोड़ी दूर जाकर बच्चों ने कहा “ अरे! मम्मा कहाँ है ” हमने पीछे मुड़कर देखा तो दूर-दूर तक नज़र नहीं आई । हम थोड़ा पीछे लौटे तो साहिबा बिन्दी वाले से लोहे के छोटे-छोटे साँचों से बिन्दी के पैट्रन लगाना सीख रही थी । मैने 50 रूपये देकर पीछा छुड़ाया । ” दिव्यांश की दिलचस्प चर्चा पर सब ठहाके लगा रहे थे ।

दिव्यांश के हर ज़ुमले पर प्रीत अपने चुटीली टिप्पणियाँ करने में नहीं चूक रहे थे । प्रीत यह कहने से भी बाज़ नहीं आए भई प्रेरणा को तो हमारी परवाह ही नहीं हम गिरें या उल्टे लटकें ।

अगले दिन प्रेरणा ने दीपा को फोन किया “ भई कल तो तेरे घर मज़ा ही आ गया । प्रीत भी खुश थे तेरे बिन्दी दर्शन पर । अब तो मुझे हर समय बिन्दी का ख्याल रखना पड़ेगा वरना प्रीत व्यंग्य करने से नहीं चूकेंगे । ”

“ हाँ ! हाँ ! बिन्दी लगाया कर तू । पता नहीं ज़िन्दगी में कितने दिन बिन्दी लगाना लिखा है ” दीपा फोन पर ही भावुक हो उठी ।

“अब ये तेरा कौनसा नया दर्शन है दीपा ” प्रेरणा ने मीठी झिड़की देते हुए कहा ।

“ना रे प्रेरणा तू नहीं समझेगी । पर तू बिन्दी ज़रूर लगाया कर । आर्ट ऑफ लिविंग के श्रीश्री रविशंकर जी कहते हैं महिलाओं को बिन्दी ज़रूर लगानी चाहिए । इससे उन महिलाओं को रोज़गार मिलता है जो बिन्दी के व्यापार में संलग्न हैं । ”

“ अब ये तेरा कौनसा नया फण्डा है । ”

अरे इससे भी ऊपर ! अपना आज्ञा चक्र है ना जो माथे पर वहाँ बिन्दी लगाने से अपने ईष्ट की तरफ ध्यान रहता है । हम महिलाएँ इसलिए तो हमेशा ज़िन्दगी की भागदौड़ में भी अपने दायित्वों के प्रति ध्यान मुद्रा में रहती हैं ।”

“लो भई ! ये दर्शन भी सुनो । ” प्रेरणा मंत्रमुग्ध हो गई थी दीप्ति के तर्कों से । “ अच्छा भई ज़रूर लगाउँगी बिन्दी । कभी मिस नहीं करूँगी । ”

समय चक्र कब रुका है....अनवरत चलता है वो...बिना किसी की परवाह किए...भावनाविहीन.....अपनी ही गति से चलते हुए समय के चक्र में कब....कौन....आ जाए...कोई नहीं जानता । 10 वर्ष बीत गए थे दीपा के सुखी वैवाहिक जीवन की सजी-धजी गाड़ी को चलते हुए । एक दिन प्रेरणा को खबर मिली कि दिव्यांश की दोनों किडनी फेल हो चुकी हैं । अस्पताल के आई.सी.यू में वेंटीलेटर पर रखा है । दीपा की हँसती खेलती ज़िन्दगी पर गाज़ गिरी थी । प्रीत और प्रेरणा खबर सुनकर अस्पताल भागे थे ।

दीपा का आँसुओं से तर चेहरा और उसके पीछे काँच की खिड़की से झाँकता दिव्यांश का टूटती-जुड़ती साँसों के बीच झूलता शरीर प्रेरणा को उद्वेलित कर रहा था । दीपा के मुँह में शब्द नहीं थे अपनी स्थिति बयान करने के लिए । कभी ना सूना रहने वाला उसका माथा आज आँसुओं के समुद्र में अपनी बिन्दी बहा चुका था और बिन्दी का कार्ड हर समय सामने लेकर खड़ा होने वाला दिव्यांश ज़िन्दगी से ज़ंग कर रहा था । प्रेरणा ने अपने छोटे से पर्स से गोल मैरून बिन्दी निकाल कर दीपा के माथे पर रख दी और भीगे स्वर में बोली “जब से तूने बिन्दी का दर्शन समझाया है ना तब से बिन्दी का कार्ड हमेशा अपने पास रखती हूँ । चलो हम दिव्यांश के लिए प्रार्थना करते हैं । ”

“ पर प्रेरणा डॉक्टर ने जवाब दे दिया है । वो इस स्टेज पर हैं कि कोई इलाज..कोई ट्रांसप्लांटेशन काम नहीं आएगा । ” दीपा के चेहरे पर बनती भंगिमाओं और भावनाओं के सैलाब के बीच में बिन्दी उठती गिरती मह्सूस हो रही थी । प्रेरणा को लगा कि वो अपनी झोली फैला ले और उसकी बिन्दी गिरने ना दे जैसे दीपा अपनी क्लास में प्रोफेसर वालिया के लिए सोचा करती थी ।

सच ! कोई प्रार्थना काम नहीं आई और दिव्यांश सदा-सदा के लिए सो गए । आँसुओं का सैलाब बाढ बन कर उतर आया । दीपा भाग कर दिव्यांश के गले लग गई । प्रेरणा ने देखा उसकी लगाई बिन्दी भी काम नहीं आई । दीपा का माथा सूना हो गया । प्रेरणा ने दीपा को दिव्यांश से अलग करते हुए अपने सीने से लगा लिया । कहाँ गई वो बिन्दी जो प्रेरणा ने लगाई थी । उसने देखा वो मैरून बिन्दी चिरनिद्रा में लीन दिव्यांश की कमीज़ के कॉलर से झाँक रही थी ।

वो समाज के दिखावे के 13 दिन और जीवन भर का अकेलापन...टूट-सी गई थी दीपा । प्रेरणा दीपा के घर अब ज्यादा जाने लगी थी। बच्चों का वास्ता देकर उसमें जीने की ललक पैदा करती । फिर से स्कूल में नौकरी करने के लिए तैयार करती । “जीना तो पड़ेगा ” जैसे दर्शन से रूबरू करवाती पर उसके ड्रेसिंग टेबल के सामने जाते ही प्रेरणा को जैसे काठ मार जाता । रंग-बिरंगे बिन्दी के पत्ते और सजने संवरने का सामान देख कर प्रेरणा का कलेजा मुँह को आता ।

संभल गई थी दीपा इन दो सालों में । अपनी स्कूल की नौकरी पर भी जाने लगी थी । वैभव दसवीं में और विपुल आठवीं में आ गया था । दीपा वैभव के कैरियर के बारे में सोचती- उसके पापा होते तो जैसा होता वैसा मुझे करके दिखाना है । यही उसके जीवन का उद्देश्य बन गया था ।

पर प्रेरणा को उसका सूना माथा बेहद खलता । प्रेरणा ने तो उसी की वजह से तो बिन्दी लगाना सीखा था । वो हर समय अपने आज्ञा चक्र पर उँगली का स्पर्श कर अपनी बिन्दी संभालती रहती । एक दिन स्कूल से लौटते हुए प्रेरणा ने दीपा को कहा था-“ दीपा एक बात पूछूँ ? तू बिन्दी क्यों नहीं लगाती ?”

“क्या ??? ” दीपा चौंकी थी ।

“बिन्दी कहाँ अब मेरे भाग्य में ??..”

“क्यों ??” प्रेरणा के स्वर में तल्खी थी ।

“ हमारे समाज में विधवाएँ बिन्दी नहीं लगाती ” बेहद कड़े शब्दों में दीपा का जवाब था । इतने कठोर शब्द सुनकर प्रेरणा का दिल छलनी हो गया था । फिर भी प्रेरणा ने हार नहीं मानी थी । वो बोली “ पर बिन्दी तो आज्ञा-चक्र पर लगाई जाती है ना ”

“तो ? ! ! ? ” दीपा स्कूल के मेन गेट से बाहर निकलने लगी ।

“ तो क्या ? आज्ञा-चक्र पर लगाने से ईष्ट का ध्यान होता है ना ” प्रेरणा ने दीपा का हाथ सख्ती से पकड़ लिया और उसे मेन गेट से बाहर निकलने नहीं दिया। इतने दिनों से मन में चल रहे चक्रवात को प्रेरणा आज मन के बाहर चलाना चाहती थी ।

“मतलब ??”

“ मतलब साफ है दीपा । तू ही तो कहती थी ना कि इस आज्ञा-चक्र के पीछे ईष्ट का ध्यान होता है और हम औरतें इसलिए ध्यान की मुद्रा में रहते हैं । सच बताना दीपा ! जब से दिव्यांश गए हैं क्या तू उन्हें एक मिनट के ले भी भुला पाई । वही थे ना तेरे ईष्ट ”

“ पर अपने समाज में यह प्रावधान नहीं है कि एक विधवा बिन्दी लगाए ।” दीपा बेहद सजग होकर जवाब दे रही थी ।

“ तू एक बार सोच कर देख दीपा ! दिव्यांश तेरे आस-पास ही रहते हैं, सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते वो हमेशा तेरे साथ होते हैं...फिर ये बिन्दी हटाकर तुम क्या बताना चाह्ती हो समाज को । ”

“हाँ प्रेरणा ! इस बात से इंकार नहीं कि मुझे हर समय दिव्यांश के अपने आस-पास होने का अह्सास होता है । मुझे लगता है वो अमर है । ”

“फिर ? ? बताओ दीपा एक बिन्दी हटाकर तुम दिव्यांश को पीछे क्यों करना चाहती हो । तुमने तो हमेशा बिन्दी को दिव्यांश का पर्याय माना है ना । फिर अपने माथे को बिन्दी से महरूम करके क्यों हमें भी कष्ट देती हो । ”

“ पर प्रेरणा बिन्दी तो सुहागन का प्रतीक होती है ना ! ”

“ हाँ होती है..पर दीपा कहाँ गया तुम्हारा वो दर्शन कि पण्डित भी अपने ईष्ट को याद करके आज्ञा चक्र पर तिलक लगाते हैं । उनका ईष्ट तो ईश्वर होता है ना जो दिखाई भी नहीं देता । कहाँ गया तुम्हारा वो दर्शन कि महिलाएँ अपने पति और दायित्वों को अपना ईष्ट मानकर आज्ञाचक्र पर बिन्दी लगाती हैं और हर समय ध्यान मुद्रा में रहती है ? क्या हुआ जो तुम्हारा दिव्यांश दिखाई नहीं देता । ”

“पर वो लोग....?? वो समाज.....??”

“कह देना उन लोगों को...उस समाज को...कि मेरा दिव्यांश यहीं-कहीं है...मेरे आस-पास...मेरी यादों में रचा-बसा है । चल मेरे साथ मन्दिर में ! ” प्रेरणा घसीटते हुए उसे मन्दिर में ले गई ।

“ देख वो मूरत देख ! जो पत्थर की है । हम उसकी पूजा करते हैं और पण्डित लोग इसी के नाम का तिलक लगाते हैं । हमारा दिव्यांश भी ऐसा है...ईश्वर हो गया है वो....चाहे आसमाँ का सितारा हो गया है....या अमर आत्मा या कोई देह बन गया है फिर से...। फिर ये रूप क्यों ?? ”

और प्रेरणा ने ईश्वर के साक्ष्य में दीपा के आज्ञा चक्र पर गोल मैरून बिन्दी रख दी। दोनों सहेलियाँ गले मिलकर फफक पड़ी । अश्रुधार के बीच दीपा के चेहरे पर स्मित-रेखा थी ।

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