कहानी
दो औरतें
कस्बे का अंतिम छोर की बन्द मुँह की गली में सन्नाटा पसरा था । गली तो क्या पूरा कस्बा ही सन्न रह गया था । सब एक दूसरे की तरफ खामोश प्रश्न लिए देख रहे थे । बीबी दलजीत कौर का करुण विलाप ही कस्बे के सन्नाटे और खामोश प्रश्नों को तोड़ रहा था । कस्बाई संस्कृति के इस शहर में जहाँ साम्प्रदायिक सदभाव कूट-कूट कर भरा था बीबी दलजीत कौर का बेटा अपराधियों के नुकीले हथियार का इस कदर शिकार हो गया कि अंतिम साँस के साथ खत्म हो गया ।
दलजीत कौर के घर मेरा आना जाना बरसों से रहा । ना कोई रिश्तेदारी ना कोई दोस्ती फिर भी सब रिश्तों-धर्मों से ऊपर उनके घर आने-जाने की आदत इस कदर कि ना जाओ तो लगता कुछ अधूरा ही रहा । मैं ठहरी ठेठ बिहारन और दलजीत कौर ठेठ पंजाबन । कोई मेल होता है भला । पर कोई मुझसे बड़ी-मंगौड़ी सीखे तो मैं क्यों ना सीखूँ उससे स्वेटर बनाना ....?? बस इसी हंसी ठिठोली के बीच हमारा आने-जाने का क्रम हमें बरसों-बरस बाँधे रहा । और आज उसकी चीत्कार मेरा कलेजा चीर रही थी ।
कल रात दलजीत कौर के बेटे प्रभमीत के बंगले पर ना जाने कौन आए जो बस चाकू की नोक दिखाई और फिर गहरे में धंसा दिया । ना कोई लूट-पाट ना कोई छेड़छाड़.......... । ना जाने क्या उद्देश्य था उनका सबकी समझ से बाहर था । मैं दलजीत कौर को सम्भालती हुई खुद भी बेहाल हुए जा रही थी । अपने बेटे लिपट कर बिलखती दलजीत के सूट पर लगे खून के छींटे मुझे तरकश-सा बाँधे जा रहे थे ।
कस्बे की इस अपराधिक घटना का खुलासा आज अखबार नहीं कर पाई । रात 12 बजे की यह घटना अखबार छपने की खटखटाहट में ही दब गई तो भला तवज्जो कैसे मिलती । लहुलुहान कस्बे की एक भी छींट अखबार पर नहीं पड़ सकी और इस हत्या की बड़ी खबर से बेखबर फिल्म फेयर अवार्ड की मुस्कुराती खबरों से सजा हुआ अखबार मेरी दालान में हॉकर ने पटक दिया ।
प्रभमीत की अर्थी के पीछे गमगीन लोगों की पदचाप भी बीबी दलजीत कौर के करुण विलाप से धीमी पड गई । प्रभमीत की पत्नी के पास सुबकियों के अलावा कुछ ना था । वो दिन ऐसा बीता जैसे एक युग हो जो बीत ना रहा हो ।
अगला दिन एक और नारकीय युग की शुरुआत-सा उगा । कल अखबार की खटखटाहट भले ही इस हत्या की आहट नहीं सुन सका पर आज हत्या के खुलासे के साथ दालान में रक्त-रंजित सी पड़ी थी । “ कस्बे के ही एक डॉक्टर के पुत्र ने की हत्या ” और पूरी खबर पढते ही साँस धौंकनी-सी चलने लगी थी ।
“ अरे ! यह तो अपनी शारदा का बेटा अनुज ही तो है जिसने बीता रात प्रभमीत की हत्या कर दी ” मन हाहाकार कर उठा ।
हाँ शारदा ! जो मेरे स्कूल में समाज-शास्त्र की अध्यापिका है...मेरी सखी कहें या मददगार भी । जब-जब मुझे नन्हीं प्रियंका को दिखाने अस्पताल ले जाती तो वो मेरा पीरियड चुपचाप ले लेती । कभी मुझे अपने स्कूटर पर लिफ्ट देती तो पूरे रास्ते बतियाती जाती । कभी समाज की नब्ज पकड़ती तो कभी जाने-अनजाने दुखती रग पर हाथ रख कर हौले से सहला भी देती । कभी समाज की गर्त में छिपे नए विचार लाकर सामने रख देती । उसकी यही बातें तो मुझे उसके और करीब खड़ा कर देती । उसी के बेटे अनुज ने ऐसा घृणित काम किया । अरे ! वही अनुज जो मुझे मौसी-मौसी कहते ना अघाता था । जब भी मिलता मेरे पैरों पर झुकना नहीं भूलता था । पिछ्ले साल प्री-मेडिकल में चयन नहीं हुआ तो मैंने ही उसे सम्भाला था और वेटेनरी में जाने के लिए प्रेरित किया था ।
“ क्या यह वही अनुज है ?? ”
“ नहीं-नहीं ! वो ऐसा नहीं हो सकता ...” मेरा मन इस खबर को स्वीकार नहीं कर पा रहा था । पूरे कस्बे की सहानुभूति दलजीत कौर के घर की तरफ देखते हुए मेरे कदम शारदा के घर की ओर भागते हुए भी थम गए थे । भले ही शारदा का घर दलजीत कौर के घर से बहुत दूर था फिर भी कस्बाई संस्कृटि में हर आहट की भनक सबके कानों में पड़ जाती है । फिर ऐसे माहौल में एक अपराधी के घर जाना...ना बाबा ना...पर नहीं...मेरा मन नहीं थम रहा था । मैं अखबार की खबर को परखना चाहती थी । दालान से बाहरी गेट की तरफ भागते कदम अन्दर गैलरी की तरफ मुड़ गए और हाथ खटाखट फोन पर शारदा के नम्बर मिलाने लगे ।
“ शारदा जी से बात करनी है ” दबी और काँपती जुबान में मैने पूछा ।
“ नहीं वो नहीं हैं घर पर ” एक अपरिचित रौबीली मर्दानी आवाज थी और फोन पर अगली कोई बात सुने बिना ही झटक कर रख दिया ।
एक ओर दलजीत कौर का घर दिख रहा था जहाँ कस्बे के तमाम लोगों की आवाजाही मुझे अपने दालान से ही दिख रही थी और दूसरी ओर मेरे कदम शारदा के घर जाने को आतुर थे । मेरे पति भी इस पक्ष में नही थे कि कि मैं शारदा के घर जाऊँ । प्रियंका और कार्तिक तो चिल्ला ही उठे “ मम्मा ! आप उस घर में जाओगे जिस घर में हमारे प्रभमीत भैया का कातिल रहता है ? ” दिल की बेचैनी क्या होता है ये मैने उस दिन जाना । मैं शाम के गहराने का इंतज़ार करने लगी । सब्ज़ी का थैला ही एकमात्र बहाना था घर से बाहर निकलने का ।
ओटते-छिपते शारदा के घर पहुँची । बिना चूँ किए लोहे के फाटक की कुण्डी सरकाई और कदमों की आहट को दबाते हुए दालान पार कर अहाते के जाली वाले दरवाजे से झाँका तो शारदा के पति दिख गए । मैंने फुसफुसाते हुए पूछा-“ शारदा कहाँ है ? ”
उनके चेहरे की हवाईयाँ बता रही थी खबर सच है । नम आँखों से बोले- “ये क्या हुआ जिज्जी ? सब लुट गया ” फिर बोले –“ शारदा तो महामृत्युँजय का पाठ कर रही है ”
मैं अन्दर भागी तो दो मोटे गाव तकियों का सहारा लिए अधमुँदी आँखों से बेहाल हुई शारदा के होंठ कुछ बुदबुदा रह थे । उसके माथे पर लगी बड़ी सी बिन्दी फीकी नज़र आ रही थी । आँखों की कज़रारी रेखा अश्रुधार से धुली हुई लग रही थी और चेहरे का सारा लावण्य धूल के साथ धूमिल होने को आतुर था । मेरी आहट से उसकी आँखें खुली । मैं लिपट गई उसके गले से । हम दोनों गम में बेहाल ज़मीन पर लोट-पोट हो गए थे । “ मर जाता .....इससे तो मर जाता....कलंक लगा गया पूरी सात पीढी को....” शारदा के विलाप में शब्द गूँज रहे थे । मैं दिल के हर कोने से यह मह्सूस कर रही थी कि इस माँ की हालत उस माँ से भी बदतर है जो एक ओर तो अपने बेटे के मरने की कामना कर रही है तो दूसरी ओर महामृत्युँजय का जाप भी कर रही थी । मैं भी जानती हूँ कि महामृत्युँजय का जाप तो लम्बी आयु के लिए किया जाता है मृत्यु को जीतने के लिए किया जाता है । हाँ सच ही तो कह रही थी शारदा कि इससे तो बेहतर था कि अनुज को मौत मिलती । कम से कम लोगों की सहानुभूति तो उसके साथ होती । मौत पर तो एक बार का ही रोना था पर ऐसा काम करके तो अनुज ने अपनी माँ को तिल-तिल रुला दिया था । अब तो शारदा ता-उम्र रोती रहेगी ।
लम्बी अश्रुधार और दिल पर चट्टानों का बोझ लिए मैं घर की तरफ मुड़ी तो रास्ते में खाली थैले में कुछ आलू प्याज़ बेवजह ही भर कर जल्दी-जल्दी ही रास्ता नापने लगी थी ।
13 दिन दलजीत कौर के गम को करने के लिए पर्याप्त नहीं थे । फिर भी विलाप कम नहीं हुआ था । उधर 13 दिन शारदा के गम में लगातार इज़ाफा करने में लगे थे । अखबार प्रतिदिन अनुज के बार में कोई नई खबर लेकर आता और शारदा के ज़खमों पर नमक छिड़क जाता । अंतत: वही होना था जो एक अपराधी के साथ होता है उसे गिरफ्तार कर लिया गया था । बचने की कोई गुंजाइश भी कहाँ थी । रिमाण्ड ,केस,वकील और फिर उम्रकैद के साथ अनुज सलाखों के पीछे था । अलिखित नियम और अघोषित घोषणा के साथ शारदा के घर मेरा जाना वर्जित हो गया था । शारदा ने स्कूल आना भी छोड़ दिया था । स्थानांतरण की अर्जी दे दी थी स्कूल में और अब तक जो शारदा गाँवों में जाने से डरती थी और जब-तब गाँवों की पोस्टिंग को छुट्टियों में ही पार लगा आई थी आज वही शारदा सुदूर किसी भी ढाणी के स्कूल में जाने को तैयार थी । उसके पति तो अवकाश प्राप्ति की ओर थे और बेटी अनन्या का विवाह हो चुका था ।
मैं उससे मिलना चाहती थी कि आखिर क्या कमी रह गई उसके पालन-पोषण में जो अनुज ने ऐसा काम कर डाला । अखबार के अनुसार तो अनुज ने पैसों की खातिर ऐसा काम किया था पर मेरा मन इस बात के लिए बिल्कुल गवाही नहीं दे रहा था ।
एक दिन दलजीत कौर के साथ निकली थी प्रभमीत की बरसी का कुछ सामान लेने । कस्बे की चौपड़ पर कटले की तंग मुँह की गली पर शारदा का सामना हो गया । एक दबी-दबी सी डरी हुई मुस्कान के साथ से देखा उसने ।
“ कैसी है ? ....और.....” मैं पूछना चाहती थी कि अनुज कैसा है ? पर पीछे मुड़कर देखा दलजीत कौर मुझ से चार कदम पीछे थी ।
“ कमज़ोर हो गया है जेल में । हर समय बड़बड़ाता है कि मैं रावण जैसा भाई हूँ...हाँ ! मैं रावण जैसा भाई हूँ । ” जैसे शारदा मेरे खामोश प्रश्न को समझ गई थी ।
मैंने उसका हाथ पकड़ कर हौले से सहला दिया । दलजीत कौर मेरे बराबर आकर खड़ी हुई तो शारदा से उसकी आँखें भी चार हुई । आग्नेय नेत्रों से दलजीत ने शारदा को देखा जैसे अभी निगल जाएगी और शारदा की हाल ऐसी कि मानों काटो तो खून नहीं । उसका दिल जैसे दुआ कर रहा था कि धरती फट जाए और वो उसमें समा जाए ।
मैंने दलजीत कौर का हाथ पकड़ा और कटले की चौपड़ से तंग गली में खींच कर अपने आप को भीड़ में गुम कर लिया जैसे कि मैं शारदा को जानती ही नहीं । दलजीत कौर बड़बड़ाने लगी-“ इसी के बेटे ने तो मेरे बेटे को खाया...यही है उस कातिल की माँ । देखो कैसे घूम रही है खुले आम । “ अरे ! इसनूं वी बन्द कर देना चहिए दा सी जेल विच ” मेरे दिल पर हथौड़े चल रहे थे ।
जल्दी से बाज़ार का काम निपटा कर मैं घर चली आई । रजाई में मुँह डाल कर सोई तो घण्टों अश्रुधार में भीगी रही । ऐसा क्या था अनुज के साथ जो वो इस तरह से बड़बड़ाता है कि वो रावण जैसा भाई है......।
“ तो जेल में क्यों नहीं चली जाती मिलने ...”
“ पर कैसे जाऊँ ये समाज....”
“ क्या तेरा बेटा होता तो तू ना जाती उससे मिलने...” मन की बातों का सिलसिला अनंत था । एक ओर दलजीत तो दूसरी ओर शारदा । किसे मानूँ...कौन सही.....एक का बेटा मर गया और एक का बेटा जेल में था । मनोविज्ञान को कितना भी समझूँ पर अपराधी का साथ तो कोई नहीं देता ना ! गई थी एक दिन जेल ....दुस्साहस करके छिपते-छिपाते दुनिया से....यह जानने के लिए कि अनुज क्या कहता है । वही बॉर्न-बॉर्न के बिस्किट पर्स में छिपा कर ले गई थी जो उसे बचपन से पसन्द थे । जेलर ने मेरा पर्स तो बाहर ही रखवा लिया था पर बिस्किट का पैकेट खोल कर बिस्किट ले जाने की इज़ाज़त दे दी थी । उसने कितने पसन्द किए थे वो बिस्किट । कितना पतला हो गया था अनुज । मैने पूछा था –“ मुझे कुछ बताओगे अनुज क्या हुआ ? ”
“ नहीं मौसी ! मैने अपना उद्देश्य पूरा कर दिया ....अब है इस ज़िन्दगी से कोई शिकवा नहीं....! ” और मैं बहुत सारे रहस्यों से पर्दा भी नहीं उठाए बिना हे घर लौट आए और किसी से अपनी बात सांझा भी नहीं कर पाई ।
शारदा का स्थानांतरण दूर किसी 500 की आबादी वाले गाँव में हो गया था और दलजीत तो बस अपनी ज़िन्दगी के दिन गिन-गिन कर निकाल रही थी । स्कूल में शारदा के प्रकरण पर चुप्पी थी । बस यही सहमति थी कि उसका स्थानांतरण का निर्णय सही है । वह यहाँ किस-किस को जवाब देगी ।
कस्बा अपनी सामान्य ज़िन्दगी पर आ गया था । हर साल अखबार में प्रभमीत की पुण्यतिथि उसके परिजनों की श्रद्धांजलि उस लहुलुहान दिन की याद करवा जाती । जब-तब शारदा आती ही होगी अनुज से जेल में मिलने । बस औरों से ही खबर मिलती थी उसके आने की । अपने दिल पर पत्थर रख कर मैं उसके साथ बिताये दिनों को भुलाने की कोशिश कर रही थी । समय दिल के बड़े-बड़े घाव भर देता है पर माँ के दिल को लगे घावों को भला कौन भर पाया है । ये सिर्फ मैं ही जनती हूँ कि दलजीत के घावों पर लोग बेशक मरहम लगा जाते होंगे पर शारदा के घाव पर तो लोग मरहम लगाने की बजाय कुरेद जाते होंगे और शारदा का घाव और हरा हो जाता होगा ।
एक दिन अखबार की खबर ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया था । यूँ भी मैं जेल की खबरों को ध्यान से ही देखती थी । कभी जेल में राखी का आयोजन तो कभी जेल में प्रवचन , कभी जेल में नशामुक्ति का सन्देश तो कभी जेल में योगा, कभी जेल में कैदी का फरार होना तो कभी जेल में किसी कैदी का उत्पात । और हर खबर में मुझे अनुज का चेहरा दिखाई देता । पर इस खबर ने तो मेरे दिल की धड़कन को थमा ही दिया था “ जेल में एक कैदी की मौत ” .....हत्या के आरोप में जेल में उम्र कैद की सजा काट रहे अनुज झा की कल बुखार के बाद मौत हो गई ....आगे की लानें मैं नहीं पढ पाई और चश्मा उतार कर नम हो आई आँखों को पौंछते हुए अखबार रख दिया ।
इस खबर पर रोऊँ या सुकून मह्सूस करूँ..... शारदा को फोन करूँ या दलजीत को फोन करूँ । मन की उथल-पुथल भुज में आए भूकम्प सी हिचकोले खा रही थी । मैंने इस खबर का ज़िक्र ना अपने पति से किया ना ही बच्चों से । इस भय से कि ना जाने उनकी क्या प्रतिक्रिया हो । क्या मालूम उनके मुँह से ऐसा कोई व्यंग्य बाण निकल पड़े जिसे मेरे लिए सहना मुश्किल हो ।
दो-चार दिन की अकेले ही मातम पुर्सी के बाद अपने घर से बाहर निकली थी दलजीत के घर जाने को । नाती के स्वेटर का डिज़ाइन सीखना था मुझे । बाहर दालान पार करके गेट खोला ही था कि दलजीत बाहर ही मिल गई । “ चल आज गुरुद्वारे जा आइए । प्रभ (प्रभमीत) दा जन्मदिन हैगा ” मैं स्वेटर की सलाईयाँ हाथ में दबाए उसकी आज्ञा के पालन में मुख्य सड़क पर मुड़ गई । मेरे मुँह पर बार-बार अनुज की मौत का ज़िक्र आता था । मैं दलजीत से पूछना चाहती थी “ तुमने वो खबर पढी ” पर फिर सोचती कि सीधे ही बताऊँ पर मेरा दिल किसकी भावनाओं के साथ होगा । दलजीत की खुशी में या शारदा के गम में .... यही सब कुछ सोच कर दिल की खोल में वापिस चल जाता था ।
गुरुद्वारे के लिए सड़क पार ही की थी कि सामने से शारदा आती दिखी । “हे भगवान ! कहाँ छिपूँ ? ” ऐसा लग रहा था वो मुझे ही मिलने आ रही थी । पर उसके कदम तो चाप-दर-चाप दलजीत की तरफ बढ रही थे । मैं उससे आँखें चुराने की कोशिश कर रही थी पर वो मुझसे आँखें मिला ही कब रही थी ।
दलजीत के कदम शारदा को देख कर थम गए थे । शारदा ने कातर निगाहों से देखा था जैसे पूछ रही हो कि अब नही पूछोगी मेरे बेटे का हाल ? मैं शारदा से लिपट कर रोना चाहती थी...अनुज की मौत का विलाप करना चाहती थी पर शारदा तो मुझे आज अजनबी नज़र आ रही थी । मैंने दलजीत का हाथ पकड़ कर खींचना चाहा पर वो तो टस-से मस नहीं हुई । वो भी शारदा को करुण निगाहों से देख रही थी । शारदा की आँखें जैसे पूछ रही थी –“ अब तो खुश हो ना बीबी ! मेरा बेटा भी चला गया । तेरा बेटा तो शहीद कहलाया और मेरा बेटा तो कुत्ते की मौत मरा । ”
दलजीत की खामोश जुबान शारदा से मानो सवाल कर रही थी –“ अब पता चला ना कि बेटे की मौत का दुख क्या होता है । ”
मैं दोनों के बीच खड़ी एक दूसरे की खामोशी को पढने का प्रयास कर रही थी । दलजीत कौर के हाथ पर मेरी पकड़ कसती जा रही थी । मेरा दूसरा हाथ शारदा के हाथों को भी पकड़ने को कसमसा रहा था ।
इससे पहले कि मैं दलजीत को खींचती वो तेजी से शारदा से जा लिपटी । दलजीत कौर की बाहों का घेरा शारदा की पीठ पर कस गया था और मैंने उन दोनों के कन्धों के बीच अपना सिर रखकर दोनों की पीठ पर हाथ रख दिए थे । दलजीत कौर शारदा के गले लग कर फूट-फूट कर रो पड़ी आज दोनों औरतों के दुख एक हो गए थे ।
संगीता सेठी
1/242 मुक्ता प्रसाद नगर
बीकानेर (राजस्थान)
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