एक देह एक आत्मा - 3 sangeeta sethi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वर : एक संगम या जंग

    एक लड़की पीले रंग का कुर्ता और सलवार पहने माता सरस्वती के मन...

  • जंगल - भाग 1

    "चलो " राहुल ने कहा... "बैठो, अगर तुम आयी हो, तो मेमसाहब अजल...

  • दीपोत्सव

    प्रभु श्री राम,सीता जी और लक्ष्मण जी अपने वनवास में आजकल दंड...

  • बैरी पिया.... - 47

    शिविका जाने लगी तो om prakash ne उसका हाथ पकड़ लिया ।" अरे क...

  • राइज ऑफ ज्ञानम

    ज्ञानम (प्रेरणादायक एवं स्वास्थ्य ज्ञान)उपवास करने और मन्दिर...

श्रेणी
शेयर करे

एक देह एक आत्मा - 3

कहानी

भ्रूण बचाओ डॉट मनुज एट पृथ्वी डाट काम

नर्सिंग होम के हरे परदों से ढके कमरों के बीच अहाते से गुजर कर जया डोम में जा खड़ी हुई ।गर्भवती स्त्रियों के जमावड़े में माँ , सास, ननद, मौसी, बुआ की जमात का हिस्सा ना बनने की कोशिश करती हुई उस हरे परदे के पीछे झांकने लगी । डा.सुलोचना के चेहरे की झलक उसके चेहरे पर स्मित रेखा खींच गई । आज तीस साल बाद भी वही चेहरा...वही मुस्तैदी...वही खनक दिखाई दी । नर्सिंग होम संस्कृति ने शहर की भीड़ को ब्राण्डड कोल्ड ड्रिंक की तरह सिप किया है । वरना यही भीड शहर के भीड़भाड़ भरे इलाके में सरकारीs अस्पताल में लगा करती थी । परदे की झिर्री में से झांकते हुए डा.सुलोचना से नज़रें मिली तो नर्स को आवाज़ देकर बोली " सिस्टर ! इन्हें अन्दर बुलाओ । ये लोगों की बहुत हैल्प करती है । सोशल एक्टिविस्ट है । इनको पहले देखना है।" जया गर्व से भर उठी । इतने लम्बे समय बाद भी डॉक्टर साहिबा को मेरी याद है । आज भी मैं अपने पड़ौस की बेटी को लेकर ही गई थी । ससुराल वाले तो ज़रा से दिन ऊपर चढते ही छोड़ जाते हैं पीहर में । भई तुम्ही दिखाओ अपनी बिटिया को । तुम्हीं चैक अप करवाओ ।

दीप्ति भाभी बोली जया से " दीदी ! इस शहर में किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाना है । आरुषी बिटिया को आप लेकर चलो न ! " जया तो वैसे ही ऐसे सोशल कामों की तलाश मे रहती है । फिर डा.सुलोचना तो आज तक कड़ी दर कड़ी उसके परिवार की डाक्टर बनी रही । पर जब से डा.सुलोचना रिटायर हुई तब से जया का कोई काम नही पड़ा है । आरुषी को लेकर अन्दर पहुँची तो डा.सुलोचना भी खिल उठी । कितने प्यार से आरुषी का हाथ थाम कर ब्लड प्रैशर चैक किया....उसका हाथ पकड़ कर हरे परदे के पीछे ले गई । दवाईयाँ...हिदायतें....नुस्खे बताते हुए उनके चेहरे पर एक स्मित रेखा खिंची रही । बरसों पुरानी माथे की शिकन का कहीं नामोनिशान भी नहीं था । जया और दीप्ति भाभी आरुषी को लेकर बाहर आ गये । डॉक्टर की तारीफ आरुषी और दीप्ति भाभी की आँखों मे झलक रही थी और जया की आँखों में उनसे परिचित होने का सुकून व्याप्त था । पर उसके मन में डा.सुलोचना की पिछ्ली बातों को लेकर फ्लैश बैक की तरह कुछ गड्मगड चल रहा था ।

डा.सुलोचना और जया का संबंध कब इतने परवान पर चढा जया खुद भी नहीं जानती । 30 बरस पहले जब उसे भुआ सास डा.सुलोचना के पास ले गई थी तब वह खुद भी नहीं जानती थी कि उसे क्यों ले जाया जा रहा है । हाथ पकड़ कर सरकारी सीढीयाँ चढते हुए भी जया को अह्सास नहीं था कि वह क्यों डाक्टर के पास जा रही है । डाक्टर के चैम्बर में जाकर भुआ सास बोली थी " डॉक्टर साहब ! एक बरस हो गया इसकी शादी को पर अभी तक कोई खबर नही मिली । " डा.सुलोचना ने पर्चा लिखते आँखें भी ऊपर नहीं की थी और रोष भरे शब्दों में बोली थी "इतनी जल्दी क्या ज़रूरत है माँजी-सा ! आ जायेगा बच्चा भी । इस पृथ्वी पर बच्चे ही बच्चे हैं ।" फिर डा.सुलोचना बेमन से जया से कुछ सवाल करने लगी थी । जया एक साथ इतने भावों को संभालने में कभी अवाक् थी तो कभी हतप्रभ और कभी डाक्टर के सवालों की झड़ी में लाज से दुहरी हुई जा रही थी ।

वो घड़ी…..और फिर इलाज दर इलाज में लम्बा समय चलते जया कब डा.सुलोचना के इतने करीब हो गई कि उसे खुद भी पता नही चला । जया के इलाज की लम्बी प्रक्रिया से गुजरने की तड़पन को डा.सुलोचना के तीखे जुमले और भी बढा देते जब जुमलों की धार वो अपने हर मरीज़ पर चलाती-

" अरे कहाँ जरूरत थी इतनी जल्दी बच्चे की "

''आगे ही बहुत किर-किर है इस पृथ्वी पर "

" रेंग रहे हैं बच्चे कीड़ों की तरह “““

””” "फिर चली आई पेट लेकर "

"बस सुलोचना अब बस कर । अपनी भड़ास मरीज़ों पर क्यों निकालती है "“उसकी साथी डाक्टॅर देवकी कहती । पर डा.सुलोचना के जुमले चलते रहते ।

कल सुबह जया को अगले चैक अप के लिये बुलाया था । लम्बी कतार से निकल कर जया अपनी भुआ सास के पीछे हो ली थी । मोटे हरे परदे के पीछे झाँका तो डा.सुलोचना अपनी तीखी आवाज़ में किसी मरीजा को निखिद रही थी "पाँचवा बच्चा है ना तुम्हारा । क्या करोगी पाँच-पाँच बच्चों का । आपरेशन करवा लो तुम या तुम्हारा मर्द " हिलते हुए हरे परदे के पीछे मेरी शक्ल देखकर बोली-“”चलो तुम थियेटर मे, मैं आई ।" जया ने पीठ की तो उसे डा.सुलोचना की आँखें उसकी पीठ पर चुभती-सी लगी जैसे कह रही हो "क्या जल्दी है बच्चा पैदा करने की ।" पर डा.सुलोचना जया की मन:स्थिति नहीं जानती । शादी को दूसरा साल लग गया है और सबके प्रश्न् प्रति प्रश्न उसे व्याकुल किए हैं । जया सोचती है क्या डा.सुलोचना की दुनिया उसकी दुनिया से अलग है ? जया का अपरिपक्व मन कुछ और आगे सोच नहीं पाता । उसे तो अभी वही करना है जो उसका समाज कह रहा है । जया को तो अपने इलाज के बारे मे भी नही पता। वो तो सास और भुआ सास की बातों से थोड़ा अन्दाज़ लगा लेती है । डी.एन.सी. की रिपोर्ट 15 दिन बाद आएगी तब ही आगे इलाज होगा । अभी तो पाँच दिन एंटीबायोटिक खा लो । नीरज का भी टेस्ट हुआ है । उसे भी दवाई दी है ना कुछ बढाने के लिये । पर नीरज ने तो जया से चर्चा भी नही की इस बारे में । भोली जया यह भी नहीं जानती कि ये भी तो मैन ईगो होता है...पुरुष दंभ ।

जो भी हो इलाज की लम्बी प्रक्रिया के बाद जया की बंजर धरती पर जब कोंपल फूटने का अह्सास हुआ था जया की खुशी का पारावार ना रहा । पूरे परिवार में एक खुशी की लहर दौड़ गई । पल-पल बढते भ्रूण में जया को कभी आँखें चमकती दिखाई देती तो कभी गुलाबी होंठ...कभी पैर तो कभी हाथ की मुठियाँ नजर आती । कभी भ्रूण का लिंग दिखाई देता तो कभी योनि । वह नही जानती थी कि उसके अन्दर बढता भ्रूण क्या है । लड़का है या लड़की ..काला है या गोरा....लम्बा है या छोटा...। "हाय ! भगवान ने भी कितना परदा रख है हम मनुजों से । ना जाने क्या गढ रहा है इस अन्ध-कूप में ।“ वो बार बार अपने शरीर हाथ लगाती और आँखें बन्द करके मन्द-मन्द मुस्कुराती रहती ।

पर जब भी डा.सुलोचना के चैम्बर के बाहर चैक-अप करवाने खड़ी होती तो उन गर्भवती स्त्रियों की धक्कमपेल में उसके सारे अह्सास काफूर हो जाते । डा.सुलोचना की अन्दर से आती आवाज़ जया को और भी अपराध बोध से भर देती ।“

"अरे ! क्यों चली आ रही हो अन्दर....सीधी खड़ी रहो..पैरों मे सूजन तो आएगी...कमर तो दुखेगी...किसने कहा था इतने बच्चे पैदा करो ।"ये जुमले जया के कानों में सीसा उड़ेलते हुए लगते । वो सोचती ये डाक्टर क्या जाने भ्रूण के स्पन्दन का अह्सास...कितना सुख भर देता है.....ईश्वरीय अह्सास देता है हमें । अरे ! शादी नहीं की ना..बस डाक्टरी की पढाई मे इन भ्रूणों को बोझ समझने लगी है। इन्हे क्या पता क्या कीमत होती है इन भ्रूणो की एक औरत के लिए ।

विचारों की इन लम्बी रेलमपेल में जया ने रुई सी गुड़िया को जन्म दिया था । प्रसव पीड़ा का सुख जाना था जया ने । उसे लगा इससे सुखद पीड़ा कोई नही है इस दुनिया में । नीरज ने इस प्यारी सी गुड़िया को "परी" नाम दिया था । रुई की माफिक गोद मे लेते-लेते परी कब ठुमक-ठुमक कर चलने लगी थी पता ही नही चला । और इसी दौरान जया की गोद फिर से कब हरिया गई उसे भी पता नही चला । जया के मन मे एक चाह उभरी " अभी नहीं " फिर डा.सुलोचना के पास जाने का क्रम...जया को याद आने लगा डा.सुलोचना का ठसका..वही कड़क आवाज़...वही भ्रूणों के प्रति वितृष्णा.. इस बार डा.सुलोचना मेरे विचार से खुश हो जाएगी । पर डा.सुलोचना की वही कड़क आवाज़ किसी मरीज़ा को डांट रही थी "मै नही करूँगी एम.टी.पी.....पहले चाहते है बच्चा हो फिर चहते है अब ना हो..अरे कोई खेल है..एम.टी.पी तभी करुँगी जब तुम बच्चा बन्द करने का आपरेशन करवाओ ।" डा.सुलोचना के चैम्बर के बाहर गलियारे तक गूँजती आवाज़ ने जया को फिर अपराध बोध से हर दिया था । वो क्या कहने आई थी डाक़्टर को पर चैम्बर में जाने की हिम्मत ही नहीं कर पाई । सच ही तो है डाक्टर की बात । कल तक तो बच्चे पैदा करने की मशक्कत कर रही थी और आज उसे....छि: ! साथ ही जया के मन मे अंतर्द्वन्द्व चल रहा था । वह डाक्टर से व्यंग्यात्मक शैली में सवाल जवाब कर रही थी -"कल तक तो डाक्टर साहब आपको पृथ्वी कीड़ों से बिलबिलाती नज़र आ रही थी । आपको ये बच्चे रेंगते नज़र आ रहे थे । और आज....." पर प्रत्यक्ष रूप से वह कुछ भी नही कह पाई और वह डा.सुलोचना से मिले बिना ही लौट आई ।

नीरज के विचार को नीरज पर ही ला छोड़ा । माँजी से बात की..ननद से भी... सब फिर खुश थे । "क्या हुआ परी छोटी है...हम पालेंगे उसे.." छोटी ननद बोली थी ।"अरे हम कौन होते हैं पालने वाले..पालनहार तो वो ऊपर वाला है । जो देता है वो पालने का इंतज़ाम भी करता है ।" मांजी बोली थी ।

अब जया की गोद मे कान्हा आ गया था । इस खुशी के नीचे अपराध बोध हिलोरें मारता था । "इस भ्रूण को तो मैं...." इससे आगे सोचते ही जया की आँखों के कोर चू जाते ।

मन ही मन डा.सुलोचना को नमन करती । उसकी कड़कती डाँट ने पृथ्वी का एक भ्रूण बचा लिया था । कुँआ पूजन करवाया गया...कितने जच्चा गए...धात्री होने के कितने शगुन मनाए गए। अपनी सृजनशीलता पर इठला उठी जया । ईश्वरीय सत्ता के सामने नतमस्तक थी । ना जाने कितनी सहेलियों की मार्गदर्शिका बनी...ना जाने कितने लोगों को सलाह दे बैठी "भ्रूण बचाओ "

एक अंतराल के बाद अपनी मौसी की बेटी निर्मला को डा.सुलोचना के पास ले गई । मैने संकोच स्वर में ही कहा -"डाक्टर साहब ! शादी के सात वर्ष हो गये है पर कोई फूल नही खिला " मैं उनके पुराने रुख वाले शब्दों का इंतज़ार कर रही थी पर डा.सुलोचना ने बड़े प्यार से निर्मला का गाल थपथपा कर कहा-“"अरे चिंता नही ! हो जाएगा ! फूल खिलने मे वक़्त लगेगा ।“" निर्मला का हाथ पकड़ कर परदे के पीछे ले गई थी । चैक-अप करने के बाद बोली –"तुम बच्चा गोद लेने का विचार बना लो तो अच्छा है ।"aऔर यह कह कर डाक्टर ने पीठ मोड़ ली । जैसे यह बात कहने का साहस नहीं कर पा रही हो ।

डाक्टर का यह रुख देख कर मैं चौंकी थी ।क्या यह वही डाक्टर है जो कल तक बच्चों के चलने को रेंगना और बिलबिलाना कहती थी आज उसे वही फूल नज़र आ रहे है । वही डाक्टर निर्मला

को बच्चा गोद लेने की सलाह दे रही थी ।

बाहर निकल कर निर्मला मेरा हाथ पकड़ने की कोशिश करने लगी । मैने देखा वो मेरा कंधा चाह रही है । मै नज़दीक हुई तो मेरे कंधे पर सिर रख कर फफक पड़ी -"जिज्जी ! मैं नही जानती थी कि मुझे यह दिन भी देखना पड़ेगा । मेरे सोलहवें साल में जब मेरी माँ गर्भवती हुई थी तब मैं कितना चिल्लाई थी । कितना ऊल-जुलूल बोला था अपने माँ-पापा को । माँ की उबकाइयों पर ठट्ठा मार कर हँसती थी । घर की सारी खट्टी चीज़ों को नाली मे बहा आई थी । माँ ने तब एक भाई को जन्म दिया था । तब मैं नही जानती थी कि ईश्वरीय सत्ता क़्या है ? ईश्वर क्या रंग दिखाता है ? मैं नही जानती थी कि जिन बातों की मैं हँसी उड़ा रही हूँ उन अह्सासों के लिये मैं तरस जाऊँगी । आज उसी हँसी का बदला दिया है ईश्वर ने....." मेरा कंधा निर्मला के आँसुओं से भीग गया था ।

पल-पल बदलते वक़्त को मैं बड़ी शिद्दत से मह्सूस कर रही थी । मामी सास की पोती के जन्म पर गाँव जाना पड़ा था । जितने मंगल काम देखे उनसे मह्सूस हुआ कि मनुज संस्कृति मे जन्म देने वाली धात्री को सृजनकर्ता की तरह सम्मानित किया जाता है । हर मंगलगीत में जच्चा को उच्च ठहराया जाता है । हर शिशु के स्वागत मे मंगलगीत गाए जाते है । पर ये कैसी संस्कृति जो शहरों में भ्रूणों की मौत ले आई थी । इस पृथ्वी के लिये तो आने वाला हर एक भ्रूण महत्वपूर्ण है ।

जया के कानों में आज भी पड़ौस की लक्ष्मी की चीखें गूँज रही थी । जब उसके चार माह के भ्रूण का गर्भपात हो गया था । वह भाग कर गई और लक्ष्मी को बाथरूम से निकाला। लाल सैलाब के बीच औंधे मुँह पड़े लोथड़े का नज़ारा याद करके आज भी जया की रूह काँप उठती है।

आफिस में शोकसभा को लेकर मुद्दा था । नेता रूपी कर्मचारी शोकसभा की रणनीति तय की जा रही थी "भई किस रिश्ते पर शोक सभा करें और किस पर ना करें । खून के रिश्ते माँ, बाप, भाई, बहन तो जरूरी है ।"

"भई महिलाओं के तो बहुत से रिश्ते खड़े हो जाते है । अब सास ससुर देवर जेठ ....." एक अक्खड़ सा कर्मचारी बोला था ।

"....और कल को तो ये कहेंगी हमारे भ्रूणपात पर भी शोकसभा करें“" एक खूसट सी आवाज़ के साथ ही आगे की बात सामूहिक हो-हो में दब गई थी । जया का मन हाहाकार कर उठा । वो मर्द क्या जाने कि दुनिया कैसे बनती है...कैसे चलती है...क्या होते है रिश्ते....और क्या होती है रिश्तों की गरिमा ।

जया सोशल काम करते-करते डाक्टर सुलोचना के इतने करीब हो चुकी थी कि वो उसकी सब डाँट-फट्कार भूल चुकी थी । किशोरियों, युवतियों, प्रोढाओं की स्त्रैण समस्याओं को लेकर डा.सुलोचना के पास ले जाती । उनका निदान पाकर मरीजाओं को जो संतुष्टि मिलती उससे जया दुगुने संतोष सुख से भर उठती ।

जया सोच भी नही सकती थी कि सोशल एक्टिविस्ट का काम करते-करते उसके पास यह काम भी आयेगा । वो भी उसकी प्रिय सहेली की बेटी का । शिल्पा की 19 वर्षीय बिटिया सुकृति ऐसा काम कर बैठेगी कि जिसका निदान ही मुश्किल हो जाएगा । शिल्पा ने उसे अपने घर बुलाया था और रो-रो कर सब बता दिया था । शिल्पा ने कहा था कि अब तू ही कुछ कर सकती है वर्ना इस घर की इज्जत पीढीयों तक नहीं धुल पाएगी । जया के पास डा.सुलोचना के अलावा और कोई चारा नहीं था । पर उसे यह भी मालूम था कि वो किसी भी कीमत पर एम.टी.पी. नही करेगी । तो फिर..??? फिर भी जया के कदम डा.सुलोचना के घर की तरफ बढ गए ।

बड़े से गेट से एक संकरी दीर्घा से निकल कर जया बड़े से दालान मे आ गई थी । डा.सुलोचना वैसे ही अपनी सूती साड़ी में बिना किसी जेवरात के भी ओज़मयी लग रही थी । बस उनके बालों की सफेदी बढ गई थी । मुँह पर कुछ लकीरों का इज़ाफा हुआ था और् हाथों की त्वचा ने अपना स्थान छोड़ा था । पर चेहरे का तेज़ फीका नही हुआ था ।

" आओ जया कैसी हो ! आज तो बहुत दिनों के बाद ?...”" जैसे डा.सुलोचना जया पर सारे जहाँ का प्यार उड़ेलना चाहती है ।

"“डाक्टर साहब ! एक परेशानी मे फंस गई हूँ“" जया डा.सुलोचना से बात की शुरुआत करते हुए झिझक रही थी । किसी की ज़िन्दगी और मौत का सवाल लेकर आई हूँ । कुंवारी लड़की है और चार माह...." आगे की बात जया बोल ही नहीं पाई ।

" ना जया ना ! सोचना भी मत । देखो पृथ्वी पर भ्रूण वैसे ही कम हो रहे हैं उस पर ये हत्या...ना...ना...। मालूम है आजकल मैं भ्रूण बचाओ थीम पर काम कर रही हूँ । पृथ्वी पर आए दिन कोई ना कोई प्रलय आ रही है और जो लोग बच्चा पलने मे सक्षम है उन्ही के बच्चे कम हो रहे है ...देखो यही आलम रहा तो एक दिन इस पृथ्वी से बच्चे लुप्त ही हो जायेंगे । "

" तो फिर क्या करें "

"बहुत से उपाय हैं...."

" पर यहाँ कौंनसा उपाय अपनाएँगे डाक्टर साहब । उस बच्चे का क्या करेंगे हम ।"

अरे ! दुनिया में ऐसे लोग भी है जो बच्चों से महरूम है । वो लोग मेरे पास आते है डाक्टर साहब बच्चा दिलाओ।बस बच्चा ऐसे ही लोगों को दे देंगे । किसी को कानों-कान खबर भी नही होगी ।"

जया अवाक् थी डा.सुलोचना को देखकर उसे आज से 25-30 साल पहले वाली डाक्टर साहिबा भ्रूण बचाने की अपील कर रही थी । नियत समय पर सुकृति ने रुई से मुलायम गुलाबी रंगत वाले बेटे को जन्म दिया । लेबर रूम के बाहर डा.सुलोचना सफेद तौलिये में लेकर आई । मुझे और मेरी सहेली शिल्पा को वो भ्रूण दिखाकर बोले -" ये मैं इन्हें सौंप रही हूँ । और धीमी आवाज़ मे उस दम्पत्ति को बोली-" भाग जाओ ! अब भाग जाओ "

मैं और शिल्पा सूनी आँखों से देख रहे थे । हमने अपना भ्रूण बचा लिया था पर किसी और के लिए ।“

संगीता सेठी

1/242 मुक्ता प्रसाद नगर

बीकानेर (राजस्थान)