परीक्षा-गुरु - प्रकरण-41 Lala Shrinivas Das द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-41

परीक्षा गुरू

प्रकरण ४१

-----×-----

सुखकी परमावधि.

लाला श्रीनिवास दास

जबलग मनके बीच कछु स्‍वारथको रस होय ।।

सुद्ध सुधा कैसे पियै ? परै बी ज मैं तोय ।।

सभाविलास

"मैंनें सुना है कि लाला जगजीवनदास यहां आए हैं" लाला मदनमोहननें पूछा.

"नहीं इस्‍समय तो नहीं आए आपको कुछ संदेह हुआ होगा" लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया.

"आपके आनें सै पहलै मुझको ऐसा आश्‍चर्य मालूम हुआ कि जानें मेरी स्‍त्री यहां आई थी परन्‍तु यह संभव नहीं कदाचित् स्‍वप्‍न होगा" लाला मदनमोहननें आश्‍चर्य सै कहा.

"क्‍या केवल इतनी ही बात का आपको आश्‍चर्य है ? देखिये चुन्नीलाल और शिंभूदयाल पहलै बराबर मेरी निन्‍दा करके आपका मन मेरी तरफ़सै बिगाड़ते रहे थे बल्कि आपके लेनदारों को बहकाकर आपके काम बिगाड़नें तकका दोषारोप मुझपर हुआ था परन्‍तु फ़िर उसी चुन्‍नीलालनें आपसै मेरी बड़ाई की, आपसै मेरी सफाई कराई, आपको मेरे मकान पर लिवा लाया आपकी तरफ़ सै मुझसै क्षमा मांगी मुझे फ़ायदा पहुँचाकर प्रसन्‍न रखनें के लिये आपको सलाह दी और अन्‍तमैं मेरा आपका मेल करवाकर चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल दोनों अलग हो गए ! उसी समय मेरठ सै जगजीवनदास आकर आपके घरकों लिवा ले गया ! मैंनें जन्‍म भर आपसै रुपे का लालच नहीं किया था सो तीन दिन मैं ऐसे कठिन अवसर पर ठगोंकी तरह पाकटेचेन, हीरे की अंगूठी और बाली ले ली ! एक छोटेसे लेनदार की डिक्री मैं आपको इतनी देर यहां रहना पड़ा क्‍या इन बातों से आपको कुछ आश्‍चर्य नहीं होता ? इन्मैं कोई बात भेद की नहीं मालूम होती ?" लाला ब्रजकिशोर नें पूछा.

"आपके कहनें सै इस मामले मैं इस्‍समय निस्‍सन्‍देह बहुत सी बातें आश्‍चर्य की मालूम होती हैं और किसी, किसी बात का कुछ, कुछ मतलब भी समझ मैं आता है परन्‍तु सब बातों के जोड़ तोड़ पूरे नहीं मिल्‍ते और मन भरनें के लायक कोई कारण समझ मैं नहीं आता यदि आप कृपा करके इनबातों का भेद समझा देंगे तो मैं आपका बड़ा उपकार मानूंगा" लाला मदनमोहन नें कहा.

"उपकार मान्नें के लायक मुझ सै आपकी कौन्‍सी सेवा बन पड़ी है ?" लाला ब्रजकिशोरनें जवाब दिया और अपनी बगल सै बहुत से कागज और एक पोटली निकाल कर लाला मदनमोहन के आगे रखदी. इन कागजों मैं मदनमोहन के लेनदारों की तरफ़ सै अन्‍दाजन् पचास हजार रुपे के राजी नामे फारखती, और रसीद वगैरे थीं और मिस्टर ब्राइट का फैसलानामा था जिस्मैं पैंतीस हजार पर उस्‍सै फैसला हुआ था और मिस्‍टर रसल की रकम उस्के देनें में लगादी थी, और मिस्टर ब्राइट की बेची हुई चीजोंमैं सै जो चीज फेरनी चाहें बराबर दामोंमैं फेर देनें की शर्त ठैर गई थी. उस पोटली मैं पन्दरह बीस हजार का गहना था !लाला मदनमोहन यह देखकर आश्‍चर्य सै थोड़ी देर कुछ न बोल सके फ़िर बड़ी कठिनाई सै केवल इतना कहा कि "मुझको अबतक जितनी आश्‍चर्य की बातें मालूम हुई थीं उन सब मैं यह बढ़कर है !"

जितना असर आपके चित्तपर हौना चाहिये था परेश्‍वर की कृपा सै हो चुका इसलिये अब छिपानें की कुछ ज़रूरत नहीं मालूम होती" लाला ब्रजकिशोर कहनें लगे "आप किसी तरह का आश्‍चर्य न करैं, इन सब बातों का भेद यह है कि मैं ठेठसै आपके पिताके उपकार मैं बंधरहा हूँ जब मैंनें आपकी राह बिगड़ती देखी तो यथा शक्ति आपको सुधारनें का उपाय किया परन्‍तु वह सब वृथा गया. जब हरकिशोर के झगड़े का हाल आपके मुखसै सुना तो मुझको प्रतीत हुआ कि अब रुपे की तरी नहीं रही लोगों का विश्‍वास उठता जाता है और गहनें गांठें के भी ठिकानें लगनें की तैयारी है, आपकी स्‍त्री बुद्धिमान होनें पर भी गहनें के लिये आपका मन न बिगाड़ेगी लाचार होकर उसे मेरठ लेजानें के लिये जगजीवनदास को तार दिया और जब आप मेरे कहनें सै किसी तरह न समझे तो मैंनें पहलै बिभीषण और बिदुरजी के आचरण पर दृष्टि करके अलग हो बैठनें की इच्‍छा की परन्‍तु उस्‍सै चित्तको संतोष न हुआ तब मैं इस्बात के सोच बिचार मैं बड़ी देर डूबा रहा तथापि स्‍वाभाविक झटका लगे बिना आपके सुधरनें की कोई रीत न दिखाई दी और सुधरे पीछे उस अनुभव सै लाभ उठानें का कोई सुगम मार्ग न मिला. अन्‍तमैं सुग्रीव को धमकी देकर रघुनाथ जी जिस्‍तरह राह पर ले आये थे इसी तरह मुझको आपके सुधारनें की रुचि हुई और मैं आपके वास्‍तै आपही सै कुछ रुपया लेकर बचा रखनें के बिचार किया पर यह काम चुन्‍नीलाल के मिलाये बिना नहीं हो सक्ता था इसलिये तत्‍काल उस्‍के भाई (हीरालाल) को अपनें हां नोकर रख लिया. परन्‍तु इस अवसर पर हरकिशोर की बदोलत अचानक यह बिपत्ति सिर पर आपड़ी. चुन्‍नीलाल आदिका होसला कितना था ? तत्‍काल घबरा उठे और उस्‍सै मेल करनें के लिये फ़िर मुझको कुछ परिश्रम न करना पड़ा. वह सब रुपे के गुलाम थे जब यहां कुछ फ़ायदे की सूरत न रही, उधर लोगोंनें आप पर अपनें लेनें की नालशैं कर दीं और आपकी तरफ़ सै जवाब दिही करनें मैं उन्‍को अपनी खायकी प्रगट होनें का भय हुआ तत्‍काल आपको छोड़, छोड़ किनारे हो बैठै. मैंनें आप सै कुछ जो इनाम पाया था उस्‍की कीमत सै यह सब फैंसले घटा, घटा कर किये गए हैं. अब दिशावर वालों का कुछ जुज्वी सा देना बाकी होगा सो दो, चार हजार मैं निबट जायगा परन्‍तु मेरे मनकी उमंग इस्‍समय कुछ नहीं निकली इस्सै मैं अत्‍यन्‍त लज्जित हूँ" लाला ब्रजकिशोर नें कहा.

आपनें मेरे फ़ायदे के लिये बिचारे लेनदारों को वृथा क्‍यों दबाया" लाला मदनमोहन बोले.

"न मैंनें किसी को दबाया न धोका दिया न अपनें बस पड़ते कसर दीं उन लोगोंनें बढ़ा, बढ़ा कर आप के नाम जो रकमैं लिख लीं थीं वही यथा शक्ति कम की गई हैं और वह भी उन्‍की प्रसन्‍नता सैं कम की गई हैं" लाला ब्रजकिशोर नें अपना बचाव किया.

"इन सब बातों सै मैं आश्‍चर्य के समुद्र मैं डूबा जाता हूँ. भला यह पोटली कैसी है ?" लाला मदनमोहन नें पूछा.

"आपकी हवालात की खबर सुन्‍कर आपकी स्‍त्री यहां दौड़ आई थी और जिस्‍समय मैं आप सै बातें कर रहा था उस्‍समय उसी के आनें की खबर मुझको मिली थी मैंनें उसै बहुत समझाया परन्‍तु वह आपकी प्रीति मैं ऐसी बावली हो रही थी कि मेरे कहनें सै कुछ न समझी, उस्नें आपको हवालात सै छुड़ानें के लिये यह सब गहना जबरदस्‍ती मुझै दे दिया. वह उस्‍समय सै पांच फेरे यहां के कर चुकी है उस्नें सवेरे सै एक दाना मुंहमैं नहीं लिया उस्‍का रोना पलभर के लिये बन्‍द नहीं हुआ रोते, रोते उस्‍की आंखें सूज गईं हा ! उस्की एक, एक बात याद करनें सै कलेजा फटता है. और आप ऐसी सुपात्र स्‍त्री के पति होंनें सै निस्‍सन्‍देह बड़े भाग्‍य शाली हो" लाला ब्रजकिशोर नें आंसू भरकर कहा.

"भाई जब उस्नें उसी समय तुमको यह गहना देदिया था तो फ़िर मेरे छुड़ानें मैं देर क्‍यों हुई ?" लाला मदनमोहननें संदेह करके पूछा.

"एक तो दो एक लेनदारों का फैसला जब तक नहीं हुआ था और हरकिशोर की डिक्री का रुपया दाखिल कर दिया जाता तो फ़िर उन्‍के घटनें की कुछ आशा न थी, दूसरे आपके चित्तपर अपनी भूलों के भली भांति प्रतीत हो जानें के लिये भी कुछ ढ़ील की गई थी परन्‍तु कचहरी बरखास्‍त होनेंसै पहले मैंनें आपके छुड़ानें का हुक्‍म ले लिया था और इसी कारण सै मेरी धर्मकी बहन आपकी सुशीला स्‍त्री को आपके पास आनेंमैं कुछ अड़चन नहीं पड़ी थी. हां मैंनें आपका अभिप्राय जानें बिना मिस्‍टर ब्राइट सै उस्‍की चीजैं फेरनें का बचन कर लिया है यह बात कदाचित् आपको बुरी लगी होगी" लाला ब्रजकिशोरनें मदनमोहन का मन देखनें के लिये कहा.

"हरगिज नहीं, इस बातको तो मैं मनसें पसन्‍द करता हूँ झूंटी भड़क दिखानें मैं कुछ सार नहीं 'आई बहू आए काम गई बहू गए काम' की कहावत बहुत ठीक है और मनुष्‍य अपनें स्‍वरूपानुरूप प्रामाणिकपनेंसै रहक़र थोड़े खर्च मैं भली भांति निर्वाह कर सकता है" लाला मदनमोहन नें संतोष करके कहा.

"अब तो आपके बिचार बहुत ही सुधर गए. एबडोलोमीन्‍स को गरीबी सै एकाएक साइडोनिया के सिंहासन पर बैठाया गया तब उस्‍नें सिकन्‍दरसै यही कहा था कि "मेरे पास कुछ न था जब मुझको विशेष आवश्‍यकता भी न थी अब मेरा वैभव बढ़ेगा वैसी ही मेरी आवश्‍यकता भी बढ़ जायगी" कच्‍चे मन के मनुष्‍यों को अपनें स्‍वरूपानुरूप बरताव रखनेंमैं जाहिरदारी की झूंटी झिझक रहती है इसीसै वह लोग जगह, जगह ठोकर खाते हैं परन्‍तु प्रामाणिकपनें सै उचित उद्योग करकै मनुष्‍य हर हालत मैं सुखी रह सक्ता है" लाला ब्रजकिशोर नें कहा.

"क्‍या अब चुन्‍नीलाल और शिंभूदयाल आदिको उन्‍की बदचलनी का कुछ मजा दिखाया जायगा ?" लाला मदनमोहननें पूछा.

"किसी मनुष्य की रीति भांति सुधरे बिना उस्‍सै आगे को काम नहीं लिया जा सक्ता परन्‍तु जिन लोगों का सुधारना अपनें बूते सै बाहर हो उन्सै काम काजका सम्बन्ध न रखना ही अच्‍छा है और जब किसी मनुष्‍य सै ऐसा सम्बन्ध न रखा जाय तो उस्‍के सुधारनें का बोझ सर्व शक्तिमान परमेश्‍वर अथवा राज्याधिकारियों पर समझकर उस्सै द्वेष और बैर रखनें के बदले उस्‍की हीन दशा पर करुणा और दया रखनी सज्‍जनों को विशेष शोभित करती हैं" लाला ब्रजकिशोर नें जवाब दिया.

"मेरी मूर्खता सै मुझपर जो दुख पड़ना चाहिये था पड़ चुका अब अपना झूंटा बचाव करनें सै कुछ फायदा नहीं मालूम होता मैं चाहता हूँ कि सब लोगों के हित निमित्त इन दिनों का सब वृत्तान्‍त छपवा कर प्रसिद्ध कर दिया जाय" लाला मदनमोहन नें कहा.

"इस्‍की क्‍या ज़रूरत है ? संसार मैं सीखनें वालों के लिये बहुत सै सत्शास्‍त्र भरे पड़े हैं" लाला ब्रजकिशोरनें अपना सम्बन्ध बिचार कर कहा.

"नहीं सच्‍ची बातों मैं लजानें का क्‍या काम है ? मेरी भूल प्रगट हो तो हो मैं मन सै चाहता हूँ कि मेरा परिणाम देखकर और लोगों की आंखैं खुलैं इस अवसर पर जिन, जिन लोगों सै मेरी जो, जो बात चीत हुई है वह भी मैं उस्‍मैं लिखनें के लिये बता दूंगा" लाला मदनमोहननें उमंगसै कहा.

"धन्‍य ! लालासाहब ! धन्य ! अब तो आपके सुधरे हुए बिचार हद्द के दरजें पर पहुँच गए" लाला ब्रजकिशोरनें गद्गद बाणी सै कहा "औरों के दोष देखनें वाले बहुत मिल्‍ते हैं परन्‍तु जो अपनें दोषों को यथार्थं जान्‍ता हो और जान बूझकर उन्‍का झूंटा पक्ष न करता हो बल्कि यथाशक्ति उन्‍के छोड़नें का उपाय करता हो वही सच्‍चा सज्‍जन है"

"सिलसिले बन्‍द सीधा मामूली काम तो एक बालक भी कर सक्‍ता है परन्‍तु ऐसे कठिन समय मैं मनुष्य की सच्‍ची योग्‍यता मालूम होती है आपनें मुझको इस अथाह समुद्र मैं डूबनें सै बचाया है इस्‍का बदला तो आपको ईश्‍वर के हां सै मिलैगा मैं सो जन्‍म तक लगातार आपकी सेवा करूं तो भी आपका कुछ प्रत्‍युपकार नहीं कर सक्ता परन्‍तु जिस्‍तरह महाराज रामचन्‍द्र नें भिलनी के बेर खाकर उसे कृतार्थ किया था इसी तरह आप भी अपनी रुचिके विपरीत मेरा मन रखनें के लिये मेरी यही प्रेम भेंट अंगीकार करैं" लाला मदनमोहन ब्रजकिशोर को आठ दस हजार का गहना देनें लगे.

"क्‍या आप अपनें मनमैं यह समझते हैं कि मैंनें किसी तरह के लालच सै यह काम किया ?" लाला ब्रजकिशोर रुखाई सै बोले "आगे को आप ऐसी चर्चा करके मेरा जी बृथा न दुखावैं. क्‍या मैं गरीब हूँ इसी सै आप ऐसा बचन कहक़र मुझको लज्जित करते हैं ? मेरे चित्त का संतोष ही इस्‍का उचित बदला है. जो सुख किसी तरह के स्‍वार्थ बिना उचित रीति सै परोपकार करनें मैं मिल्‍ता है वह और किसी तरह नहीं मिल सक्‍ता. वह सुख, सुख की परमावधि है इसलिये मैं फ़िर कहता हूँ कि आप मुझको उस सुख सै वंचित करनें के लिये अब ऐसा बचन न कहैं."

"आप का कहना बहुत ठीक है और प्रत्‍युपकार करना भी मेरे बूते सै बाहर है परन्‍तु मैं केबल इस्समय के आनन्द मैं-"

"बस आप इस विषय मैं और कुछ न कहैं. मुझको इस्‍समय जो मिला है उस्‍सै अधिक आप क्‍या दे सक्‍ते हैं मैं रुपे पैसे के बदले मनुष्‍य के चित्त पर विशेष दृष्टि रखता हूँ और आपको देनें ही का आग्रह हो तो मैं यह मांगता हूँ कि आप अपना आचरण ठीक रखनें के लिये इस्‍समय जैसे मजबूत हैं वैसे ही सदा बनें रहैं और यह गहना मेरी तरफ़ सै मेरी पतिब्रता बहन और उस्‍के गुलाब जैसे छोटे, छोटे बालकों को पहनावें जिन्‍के देखनें सै मेरा जी हरा हो" लाला ब्रजकिशोर नें कहा.

"परमेश्‍वर चाहेंगे तो आगे को आप की कृपा सै कोई बात अनुचित न होगी" लाला मदनमोहन नें जवाब दिया.

"ईश्‍वर आप को सदा भले कामों की सामर्थ्‍य दे और सब का मंगल करे !" लाला ब्रजकिशोर सच्‍चे सुख मैं निमग्‍न होकर बोले.

निदान सब लोग बड़े आनन्‍द सै हिल मिलकर मदनमोहन को घर लिवा ले गए और चारों तरफ़ सै "बधाई" "बधाई" होनें लगी.जो सच्‍चा सुख, सुख मिलनें की मृगतृष्‍णा से मदनमोहन को अब तक स्‍वप्‍न मैं भी नहीं मिला था वही सच्‍चा सुख इस्‍समय ब्रजकिशोर की बुद्धिमानी से परीक्षागुरु के कारण प्रामाणिक भाव से रहनें मैं मदनमोहन को मिल गया ! ! !