परीक्षा-गुरु - प्रकरण-39 Lala Shrinivas Das द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-39

परीक्षा गुरू

प्रकरण - ३९

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प्रेत भय

लाला श्रीनिवास दास

पियत रूधिर बेताल बाल निशिचरन सा थि पुनि ।।

करत बमन बि कराल मत्त मन मुदित घोर धुनि ।।

सा द्य मांस कर लि ये भयंकर रूप दिखावत ।।

रु धिरासव मद मत्त पूतना नाचि डरावत ।।

मांस भेद बस बिबस मन जोगन नाच हिं बिबिध गति ।।

बीर जनन की बीरता बहु विध बरणैं मन्‍द मति ।। [22]

रसिकजीवनें.

सन्ध्या का समय है कचहरी के सब लोग अपना काम बन्‍द करके घर को चलते जाते हैं. सूर्य के प्रकाश के साथ लाला मदनमोहनके छूटनें की आशा भी कम हो जाती है. ब्रजकिशोर नें अब तक कुछ उपाय नहीं किया. कचहरी बन्‍द हुए पीछे कल तक कुछ न हो सकेगा. रात को इसी छोटीसी कोठरी मैं अन्धेरे के बीच जमीन पर दुपट्टा बिछा कर सोना पड़ेगा. कहां मित्र मिलापियों के वह जल्‍से ! कहां पानी प्‍यानें के लिये एक खिदमतगार तक पास न हो ! इन बातों के बिचार सै लाला मदनमोहन का व्‍याकुल चित्त अधिक अकुलानें लगा.

इसी बिचार मैं सन्‍ध्‍या हो गई चारों तरफ़ अंधेरा फैल गया. मकान मनुष्‍य शून्‍य होगया. आस पास सब चीजें दिखनी बन्‍द हो गईं.

लाला मदनमोहन के मानसिक बिचारों का प्रगट करना इस्समय अत्‍यन्‍त कठिन है. जब वह अपनें बालकपन सै लेकर इससमय तक के बैभव का बिचार करता है तो उस्‍की आंखों के आगे अन्धेरा आ जाता है ! लाला हरदयाल आदि रंगीले मित्रों की रंगीली बातें, चुन्‍नीलाल शिंभूदयाल आदि की झूंटी प्रीति, रात एक, एक बजे तक गानें नाचनें के जल्‍से, खुशामदियों का आठ पहर घेरे रहना, हर बात पर हां मैं हां, हर बात पर वाह वाह, हर काम में प्राण देनें की तैयारी के साथ अपनी इस्‍समय की दशा का मुकाबला करता है और उन लोगों की इन दिनों की कृतघ्नता पर दृष्टि पहुँचाता है तो मन मैं दुख की हिलोरें उठनें लगती हैं ! संसार केवल धोके की टट्टी मालूम होता है जिन्‍के ऊपर अपनें सब कार्य व्‍यवहार का आधार था, जिन्को बारबार हजारों रुपे का फायदा कराया गया था, जो हर बात मैं पसीनें की जगह खून डालनें को तैयार रहते थे वह सब इस्‍समय कहां हैं ? क्‍या उन्‍मैं सै इस थोड़े से कर्ज को चुकानें के लिये कोई भी आगे नहीं आ सकता ? जिन्‍की झूंटी प्रीति मैं आ कर अपनी पतिब्रता स्‍त्री की प्रीति भूल गया, अपनें छोटे, छोटे बच्‍चों के लालन पालन का कुछ बिचार नहीं किया वह मुफ़्त मैं चैन करनेंवाले इस्‍समय कहां हैं ?

"मेरी इज्‍जत गई, मेरी दौलत गई, मेरा आराम गया, मेरा नाम गया, मैं लज्‍जा सै किसी को मुख नहीं दिखा सक्‍ता, किसी सै बात नहीं कर सक्ता, फ़िर मुझको संसार मैं जीनें सै क्‍या लाभ है ? ईश्‍वर मोत दे तो इस दु:ख सै पीछा छुटे परन्‍तु अभागे मनुष्‍य को मोत क्‍या मांगेसै मिल सकती है ? हाय ! जब मुझको तीस वर्ष की अवस्‍था मैं यह संसार ऐसा भयंकर लगता है तौ साठ वर्ष की अवस्‍था मैं न जानें मेरी क्‍या दशा होगी ?"

"हा ! मोत का समय किसी तरह नहीं मालूम हो सक्ता. सूर्य के उदय अस्‍त का समय सब जान्‍ते हैं, चन्‍द्रमा के घटनें बढ़नें का समय सब जान्‍ते हैं, ऋतुओं के बदलनें का, फूलों के खिलनें का, फलों के पकनें का समय सब जान्‍ते हैं परन्‍तु मोत का समय किसी को नहीं मालूम होता. मोत हर वक्‍त मनुष्‍य के सिर पर सवार रहती है उस्‍के अधिकार करनें का कोई समय नियत नहीं है. कोई जन्‍म लेते ही चल बसता है, कोई हर्ष बिनोद मैं, कोई पढ़नें लिखनें मैं, कोई खानें कमानें मैं, कोई जवानी की उमंग मैं, कोई मित्रों के रस रंग मैं अपनी सब आशाओं को साथ लेकर अचानक चल देता है परन्‍तु फ़िर भी किसी को मोत की याद नहीं रहती कोई परलोक का भय करके अधर्म नहीं छोड़ता ? क्‍या देखत भूली का तमाशा ईश्‍वर नें बना दिया है ?"

लाला मदनमोहन के चित्त मैं मोत का बिचार आते ही भूत प्रेतादि का भय उत्‍पन्‍न हुआ. वह अंधेरी रात, छोटी सी कोठरी, एकान्‍त जगह, चित्त की व्‍याकुलता मैं यह बिचार आते ही सब सुधरे हुए बिचार हवा मैं उड़ गए. छाती धड़कनें लगी, रोमांच हो आए, जी दहला गया और मोत की कल्‍पना शक्ति नें अपना चमत्‍कार दिखाना शुरू किया.

कोई प्रेत उन्‍की कोठरी मैं मोजूद है. उस्‍के चलनें फ़िरनें की आवाज सुनाई देती है बल्कि क़भी, क़भी अपनी लाल, लाल आंखों सै क्रोध करके मदनमोहन को घुरकता है, क़भी अपना भट्टीसा मुंह फैला कर मदनमोहन की तरफ़ दौड़ता है, क़भी गुस्‍सेसै दांत पीसता है, क़भी अपना पहाड़सा शरीर बढ़ाकर बोझसै मदनमोहन को पीस डाला चाहता है, क़भी कानके पर्दे फाड़ डालनें वाले भयंकर स्‍वरसै खिल खिलाकर हंसता है, क़भी नाचता है, क़भी गाता है, क़भी ताली बजाता है, और क़भी जम-दूत की तरह मदनमोहन को उस्‍के कुकर्म्मों के लिये अनेक तरहके दुर्बचन कहता है ! लाला मदनमोहननें पुकारनें का बहुत उपाय किया परन्‍तु उन्‍के मुख सै भयके मारे एक अक्षर न निकल सका वह प्रेत मानों उन्की छातीपर सवार होकर उन्‍का गला घोटनें लगा उस्‍के भयसै मदनमोहन अधमरे होगए उन्‍होंनें हाथ पांव चलानें का बहुत उद्योग किया परन्‍तु कुछ न हो सका. इस्समय लाला मदनमोहन को परमेश्‍वर की याद आई.

जो मदनमोहन परमेश्वर की उपासना करनें वालों को और धर्मकी चर्चा करनें वालों पर नास्तिक भाव सै हंसा करता था और मनुष्‍य देह का फल केवल संसारी सुख बताता था किसी तरह सै छल छिद्र करकै अपना मतलब निकाल लेनें को बुद्धिमानी समझता था वही मदनमोहन इस्‍समय सब तरफ़सै निराश होकर ईश्‍वर की सहायता मांगता है ! हा ! आज इस रंगीले जवान की क्‍या दशा हो गई ! इस्‍का अभिमान कहां जाता रहा ! जब इस्‍का कुछ बस न चल सका तो यह मूर्छित होकर पृथ्‍वी पर गिर पड़ा और कुछ देर यों ही पड़ा रहा.

जब थोड़ी देर पीछे इसै होश आया चित्त का उद्वेग कुछ कम हुआ तो क्‍या देखता है कि उस भयंकर प्रेतके बदले एक स्‍त्री इस्‍का सिर अपनें गोदमैं लिये बैठी हुई धीरे धीरे इस्‍के पांव दबा रही है अन्‍धेरेके कारण मुख नहीं दिखाई देता परन्‍तु उस्‍की आंखोंसै गरम, गरम आंसुओं की बूंदें उस्‍के मुख पर गिर रहीं हैं और इन आंसुओं ही सै मदनमोहन को चेत हुआ है.

इस्‍समय लाला मदनमोहन के व्‍याकुल चित्त को दिलासा मिलनें की बहुत ज़रूरत थी सो यह स्‍त्री उन्हैं दिलासा देनेंके लिये यहां आ पहुँची परन्‍तु मदनमोहन को इस्‍सै कुछ दिलासा न मिला वह इसै देखकर उल्‍टे डरगए.

"प्राणनाथ अब कैसै हो ! आपके चित्तमैं इस्‍समय अत्‍यन्‍त व्‍याकुलता मालूम होती है इसलिये अपनें चित्तका जरा समाधान करो, हिम्‍मत बांधो मैं आपके लिये भोजन लाई हूँ सो कुछ भोजन करके दो घूंट पानी के पिओ जिस्‍सै आपके चित्तका समाधान हो इस छोटीसी कोठरीमैं अन्धेरेके बीच आपको जमीन पर लेटे देखकर मेरा कलेजा फटता है" उस स्‍त्रीनें कहा.

"यह कोन ? वह मेरी पतिव्रता स्‍त्री है जिस्‍नें मुझसै सब तरह का दु:ख पानेंपर भी क़भी मन मैला नहीं किया ? आवाज सै तो वैसी ही मालूम होती है परन्‍तु उस्‍का आना संभव नहीं रातके समय कचहरी के बन्‍द मकान मैं पुलिस की पहरे चोकी के बीच वह बिचारी कैसे आ सकैगी ! मैं जानता हूँ कि मुझको कोई छलावा छलता है" यह कह कर लाला मदनमोहन नें फ़िर आंखैं बन्‍द करलीं.

"मेरे प्राण पतिके लिये यहां क्‍या ? मुझको नर्क मैं भी जाना पड़े तो क्‍या चिन्‍ता है ? सच्‍ची प्रीतिका मार्ग कोई रोक सक्‍ता है ? स्‍त्रीको पति के संग कैद, जंगल, या समुद्रादि मैं जानें सै कुछ भी भय नहीं है परन्‍तु पति के बिना सब संसार सूना है. यदि सुख दु:ख के समय उस्‍की विवाहिता स्‍त्री उस्‍के काम न आवैगी तो और कौन आवैगा ?" उस स्‍त्री नें कहा

लाला मदनमोहन सै थोड़ी देर कुछ नहीं बोला गया न जानें उन्‍के चित्तमैं किसी तरहका भय उत्‍पन्‍न हुआ, अथवा किसी बात के सोच बिचार मैं अपना आपा भूल गए, अथवा लज्‍जा सै कुछ न बोल सके, और लज्‍जा थी तो अपनी मूर्खता सै इस दशा मैं पहुँचनें की थी, अथवा अपनी स्‍त्रीके साथ ऐसे अनुचित व्‍यवहार करनें की थी ? परन्‍तु लाला मदनमोहन के नेंत्रों के आंसू निस्‍सन्‍देह टपकते थे वह उसी स्‍त्री की गोद मैं सिर रख; फूट, फूटकर रो रहे थे.

"मेरे प्राण प्रीतम ! आप उदास न हों जरा हिम्‍मत रक्‍खो जो आप की यह दशा होगी तो हम लोगोंका पता कहां लगेगा ? दु:ख सुख वायु के समान सदा अदलते बदलते रहते हैं इसलिये आप अधैर्य न हों आप के चित्त की स्थिरता पर हम सब का आधार है" उस स्‍त्री नें कहा.

"मुझ सै इस्‍समय तेरे सामनें आंख उठाकर नहीं देखा जाता, एक अक्षर नहीं बोला जाता, मैं अपनी करनी सै अत्‍यन्‍त लज्जित हूँ जिस्‍पर तू अपनी लायकी सै मेरे घायल ह्रदय को क्‍यों अधिक घायल करती है ? मुझको इतना दु:ख उन कृतघ्न मित्रों की शत्रुता सै नहीं होता जितना तेरी लायकी और अधीनता सै होता है. तू मुझको दु:खी करनें के लिये यहां क्‍यों आई ? तैनै मेरे साथ ऐसी प्रीति क्‍यों की ? मैनें तेरे साथ जैसी क्रूरता की थी वैसी ही तैनें मेरे साथ क्‍यों न की. मैं निस्‍सन्‍देह तेरी इस प्रीति के लायक नहीं हूँ फ़िर तू ऐसी प्रीति करके क्‍यों मुझको दु:खी करती है ?" लाला मदनमोहन नें बड़ी कठिनाई सै आंसू रोककर कहा.

"प्‍यारे प्राणनाथ ! मैं आपकी हूँ और अपनी चीज पर उस्‍के स्‍वामी को सब तरह का अधिकार होता है जिस्‍पर आप इतनी कृपा करते हैं यह तो बड़े ही सौभाग्‍य की बात है" वह स्‍त्री मदनमोहन की इतनी सी बात पर न्योछावर होकर बोली. "महाभारत मैं एक कपोती नें एक बधिक के जाल मैं अपनें पतिके फंसे पीछे उस्‍के मुख सै अपनी बड़ाई सुन्‍कर कहा था कि "आहा ! हम मैं कोई गुण हो या न हो जब हमारे पति हम सै प्रसन्‍न होकर हमारी बड़ाई करते हैं तो हमारे बड़ भागिनी होनें मैं क्‍या संदेह है ? जिस स्‍त्री सै पति प्रसन्‍न नहीं रहते वह झुल्‍सी हुई बेलके समान सदा मुर्झाई रहती है."

"तेरी ये ही तो बातें ह्रदय विदीर्ण करनेंवाली हैं. मुझको क्षमा कर मेरे पिछले अपराधों को भूल जा. मैं जानता हूँ कि मुझसै अबतक जितनी भूलें हुई हैं उन्‍मैं सब सै अधिक भूल तेरे हक़ मैं हुई है. मैं एक हीरा को कंकर समझा, एक बहुमूल्‍य हार को सर्प समझकर मैंनें अपनें पास सै दूर फैंक दिया, मेरी बुद्धिपर अज्ञानता का पर्दा छा गया परन्‍तु अब क्‍या करूं ? अब तो पछतानें के सिवाय मेरे हाथ कुछ भी नहीं है" लाला मदनमोहन आंसू भरकर बोले.

"मुझको तो ऐसी कोई बात नहीं मालूम होती जिस्‍सै मेरे लिये आपको पछताना पड़े. मैं आपकी दासी हूँ फ़िर ऐसे सोच बिचार करनें की क्‍या ज़रूरत है ? और मैं आपकी मर्जी नहीं रख सकी उस्मैं तो उल्‍टी मेरी ही भूल पाई जाती है" उस स्‍त्रीनें रुके कंठ सै कहा.

"सच है सोनें की पहचान कसोटी लगाये बिना नहीं होती परन्‍तु तू यहां इस्‍समय कैसे आ सकी ? किस्‍के साथ आई ? कैसे पहरेवालोंनैं तुझे भीतर आनें दिया ? यह तो समझाकर कह" लाला मदनमोहन नें फ़िर पूछा.

"मैं अपनी गाड़ी मैं अपनी दो टहलनियों के साथ यहां आई हूँ और मुझको मेरे भाई के कारण यहां तक आनें मैं कुछ परिश्रम नहीं हुआ. मैं विशेष कुछ नहीं कह सक्ती वह आप आकर अभी आपसै सब वृत्तान्त कहैंगे" यह कहते, कहते वह स्‍त्री दरवाजे के पास जाकर अन्‍तर्धान होगई ! ! !