रेलगाड़ी
अजय कुमार गुप्ता
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रेलगाड़ी
यह जीवन तो एक रेलगाड़ी के सदृश्य है, जो एक स्टेशन से चलकर गंतव्य तक जाती है। न जाने कितने स्टेशनों से होकर गुजरती है। मार्ग में अगणित पथिक आपके साथ हो लेंगे और अगणित सहयात्री आपसे अलग हो जाएँगे। कुछ सहयात्री लंबी अवधि के लिए आपके साथ होंगे, जिन्हें अज्ञानवश हम मित्र—रिश्तेदार समझते हैं, परंतु शीघ्र ही वे भी अलग हो जाएँगे। लंबी अवधि की यात्रा भी सदैव मित्रतापूर्वक नहीं बीत सकती, तो कभी कोई छोटी—सी यात्रा भी आपके जीवन में परिवर्तन ला सकती है, संपूर्ण यात्रा को अविस्मरणीय बना सकती है।
विजय चेन्नई रेलवे स्टेशन पर बैठकर एक आध्यात्मिक पुस्तक के पन्ने पलटते हुए यह गद्यांश देख रहा था। चारो ओर जनसमूह, परंतु नीरव और सूना। एक वही अकेला नहीं था। उसने चारो ओर नजर दौडाई, सभी लोग भीड़ में, परंतु अकेले। किसी को किसी और की सुध नहीं। इधर—उधर देखा, चाय की दुकान, फल की दुकान, मैग्जीन कार्नर और दूर एक पानी पीने का नल, हर जगह विशाल जन समूह। सभी लड़ रहे हैं, झगड़ रहे हैं, क्यों? समय नहीं है किसी के पास, यह भी जानने के लिए।
उद्घोषणा हुई कि राप्ती सागर एक्सप्रेस निश्चित समय से दो घंटे विलंब से आएगी। विजय को इसी ट्रेन की प्रतीक्षा थी, सो समय पर्याप्त से भी ज्यादा उपलब्ध हो गया था। कैसे काटे वह ये समय!
पुस्तक को हैंडबैग में डालकर वह रेलवे स्टेशन के सूक्ष्म निरीक्षण में लग गया। सामान के नाम पर केवल एक हैंडबैग यात्रा को सहज बना देते हैं। सामान ज्यादा रहना, चिंता व मुश्किलों को आमंत्रण देने जैसा है। परंतु विजय के विपरीत, कई लोग विवश होकर अथवा शौकिया भारी भरकम सामान के साथ चलना पसंद करते हैं। उनके सामान को देखकर विजय ने अपने आप को काफी आरामदायक स्थिति में महसूस किया।
चेन्नई सेंट्रल विजय के लिए कोई नया न था, परंतु समय की उपलब्धता व अकेले रहने की विवशता, स्टेशन के प्रत्येक पहलू को जाँचने के लिए उसे निमंत्रण दे रहे थे। श्एक छोटा—सा भारत है, यह रेलवे स्टेशन। भारत की बहुत सारी भाषाएँ जैसे हिंदी, तमिल, तेलगु, कन्नड़, उडि़या, बंगाली, संथाली, मलयालम और अंग्रेजी आपके कान के पर्दे को छूकर निकल जाएँगी।श् विजय के मन में विचार आया।
पर वह भाषा कुछ अलग ही थी। एक दयनीयता एवं करुणा भरी आवाज।
सर, कल ही इस स्टेशन पर आया था। किसी ने सारा सामान लूट लिया, अभी हाथ में कुछ भी नहीं बचा। विजय पीछे मुड़ा।
श्श्क्या करूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा। मैं अकेला रहता तो किसी प्रकार से कुछ कर लेता, परंतु बच्चे और पत्नी के साथ किधर जाऊँ?श्श् रेलवे स्टेशन पर विजय ने ऐसे व्यक्ति कई बार देखे थे। उसकी उम्र चालीस के आसपास थी। बाल उलझे, चेहरे पर दयनीयता के भाव और आँखों में नमी। कपड़े किसी खाते—पीते परिवार के सदस्य से मेल खाते हुए, परंतु बातचीत का यह ढंग!, विजय इससे पिघलनेवाला नहीं था।
व्यक्ति ने आगे जोड़ा, सर, कुछ मदद कीजिए। आप मुझे कुछ मत दीजिए, बस बच्चे के लिए कुछ इंतजाम कर दीजिए। सुबह से कुछ नहीं खाया इसने। पूरा दिन रोता रहा, अब इसकी हालत नहीं देखी जाती।श्श्
विजय ने देखा कि पीछे दीवार के सहारे एक महिला, गोद में बच्चे को लेकर बैठी थी। बच्चे का चेहरा लाल हो चुका था, जिस पर काजल की कालिमा फैली थी। वह उम्र में पैंतीस के आस—पास की औरत, विजय को आतुर निगाहों से देख रही थी। सभ्य ढंग से पहने वस्त्र, जो लड़के के अश्रु जल और असमंजसता के कारण अव्यवस्थित हो चले थे।
इस प्रकार के दृश्य सार्वजनिक स्थानों पर नए नहीं, विजय ने भी ऐसे दृश्य कई बार देखे थे। प्रायः सफल नाटककार, अभिनेता व रंगमंच कर्मी यहीं से प्रेरणा लेते हैं। सब ठग एक साथ समूह बनाकर आपके सम्मुख जीवंत अभिनय करेंगे, आप उनके अभिनय से प्रभावित ठोकर ठगे जाएँगे और कल फिर सभी पात्र मिलेंगे, नए दर्शकों के बीच, नया नाटक लेकर। न जाने कितनी बार विजय छला गया, उसके कटु अनुभव उसे कटु वचन बोलने के लिए बाध्य कर रहे थे। विजय पीछे एक खाली कुर्सी पर बैठ गया।
वह व्यक्ति फिर चुप हो गया आगे कुछ नहीं बोला और पत्नी के साथ दीवार को टेक कर बैठ गया। चेहरे पर हताशा व लाचारी के सारे अकथित संवाद स्पष्ट बोल रहे थे। महिला की आँख में भी आँसू छलक आए थे।
यह चेन्नई का प्रतिक्षालय है, हिंदी के संवाद, यहाँ कम होते है। अवश्य ही कहीं दूर से आया होगा,श्श् मन ने आवाज दी।
नहीं, इस बहुरुपिये के शब्दों पर मत जाओ। यह सब छलावा है।श्श् विजय ने मन को समझाया।
तभी मोबाइल की घंटी बज उठी।
हाय, किधर?...
चेन्नई सेंट्रल...अरे यार... बेस कैफे में वेज बर्गर और चाय जरूर लेना, बहुत बेहतरीन है। चेक करो! मस्त लगेगा। और समय अनुमति दे, तो प्ले कार्नर जाओ। पूल और बिलियर्डस के मजे ले सकते हो।श्श् मित्र का फोन था। विजय ने फिर से मोबाइल को जेब में डाल लिया।
यह सब चीजें केवल जुबाँ के लिए ही अच्छी है, इससे जठराग्नि की तृप्ति नहीं होती। परंतु स्वाद के लिए आदमी क्या—क्या नहीं करता? मेरे को तो बस रेलवे स्टेशन के दूसरे कोने में स्थित कैफे तक ही जाना है।श्श् विजय ने मन ही मन सोचा।
दूसरे कोने में चमकती विद्युत बल्बों की कतार के बीच विजय कैफे की रिक्त कुर्सी पर आसीन हो गया। अॉर्डर देने के करीब आधे घंटे बाद आधुनिक नारी की छोटे वस्त्रों के सामान थोड़ा सा भोज्य पदार्थ उसके सम्मुख रख दिया गया। श्श्इतना स्वादिष्ट तो नहीं था कि सौ रुपए खर्च किए जाए, परंतु नाम बिकता है और रेलवे स्टेशन पर ये चीजें उपलब्ध हो जाएँ, तो स्वयं को महँगा कर देती है।श्श् विजय ने विचार किया और डरते—डरते चाय का सिप लेना शुरू किया। बड़े होटलों में सब कुछ व्यवस्थित होता है। चाय के नाम पर गर्म पानी, दूध—चीनी अलग से आपके सामने रख दी जाएगी। अपने अनुभवों से आपको स्वयं अपने लिए चाय तैयार करना है। विजय आज तक यह सीख नही पाया। चाय बेकार बनी थी। विजय मुस्कराते हुए पच्चीस रुपए का चाय का सामान वहीं छोड़कर बाहर आ गया।
लौटकर विजय फिर से उसी खाली कुर्सी पर बैठ गया। तभी दूध के काउंटर पर शोर के कारण विजय उस ओर देखने के लिए बाध्य हो गया। एक बार फिर उसकी नजर उस व्यक्ति पर पड़ी, जो आधे घंटे पहले विजय से सहायता की याचना कर रहा था। दूध वाला चिल्ला रहा था, ष्तुम जैसे लोगों के लिए यहाँ कोई दूध—वूध नहीं है।श्श् वह छोटा लड़का फिर से रोने लगा था। उसकी माँ ने उसे कसकर गोद में ले लिया। वह भी शायद फूट—फूट कर रोना चाहती थी, परंतु मुँह से आवाज ने साथ छोड़ दिया था। बस आँख से गंगाजल सदृश्य अश्रुधारा फूट पड़ी थी।
हाँ, शोर के कारण कुछ ज्यादा लोग ही जुट गए थे। दूध के काउंटर वाला दुकानदार, तमिल में लोगों को बता रहा था कि ये लोग सुबह भी बच्चे का बहाना लेकर दूध ले गए थे और अब फिर आकर सामने खड़े हो गए। ये दुकान है, कोई धर्मालय नहीं। विजय ने देखा, वह आदमी बस हाथ जोड़े उसके सम्मुख खड़ा था। कुछ लोग, भीड़ से उसे कुछ कहने लगे।
मैं क्यों उधर देख रहा हूँ? अभी एक घंटा और है, चलो पूल भी हो जाए।श्श् विजय ने फिर मन को समझाया। वह इतना पूल तो खेलता नहीं था, फिर भी समय व्यतीत करने के लिए प्रयोग करने में कोई बुराई न थी। एक घंटे से भी कम समय में विजय वापस लौट आया। अभी आधा घंटा शेष था, ट्रेन के आने में। कुर्सी अभी तक खाली थी। विजय पुनः खाली कुर्सी पर बैठ गया। उसने इधर—उधर देखा, वे लोग भी वहाँ से जा चुके थे।
कुछ भोजन कर लिया जाए। ये बर्गर—चाय के भरोसे तो सफर का आरंभ नहीं किया जा सकता।श्श् विजय ने मन ही मन सोचा। परंतु भोजन के नाम पर उस छोटे बच्चे का चेहरा उसे वापस याद आ गया। उस बच्चे के बहते आँसू और उसकी माँ का उसे गोद में कसकर पकड़ना सांत्वना देना, उसे भूल पाने में विजय असमर्थ होता जा रहा था। फिर भी पग भोजन की दिशा में ही पड़ रहे थे।
एना वेणु (तमिल), क्या चाहिए, वॉट डू यू वांट सर? एक साथ समस्त भाषाओं का प्रयोग कर दुकानदार ने विजय की तंद्रा तोड़नी चाही।
खाने में क्या है? विजय इस समय किसी नये प्रयोग के पक्ष में नहीं था।
वेज बिरयानी, दोसा, इडली, बड़ा, चपाटी... दक्षिण भारतीय आहारों के मुख्य समस्त अवयव उपलब्ध थे।
एक वेज बिरयानीश्श् जाँचा परखा भोजन ही करना उपयुक्त था।
बाईस रुपए कहते हुए दुकानदार ने एक प्लेट विजय की तरफ आगे बढ़ा दी। विजय ने जेब से बाइस रुपए निकालकर दुकानदार को दे दिये।
प्लेटफार्म नंबर एक पर थोड़ा अंधेरा था। विजय ने सोचा कि भीड़ न होगी, वहीं पर भोजन कर लेना उचित होगा। खाली पड़ी लंबी बेंच पर विजय बैठ गया। अभी प्लेट का कवर ही हटा रहा था कि आगे बेंच पर किसी के सिसकने की आवाज ने उसे रोक दिया।
हम बिना टिकट लिए ही वापस चले जाएँगे। अपने घर, बस इसके लिए फिर एक बार किसी से कहिए ना। मैं दूधवाले के पाँव पर गिर जाऊँगी। वही औरत की आवाज थी, श्श्अब मेरी चिंता मत करो। मैं चलूँगी। बस एक बार यह कुछ खा लेगा, तो यह भी चलेगा। हम अब एक पल भी न रहेंगे।श्श् आदमी निःशब्द था। बच्चा भी निःशब्द था। शायद अब कुछ करने व कहने की सामर्थ्य वह खो चला था।
विजय ने खुला हुआ कवर बंद किया और उनकी तरफ जाकर वेज बिरयानी का प्लेट उन्हें पकड़ा दिया।
श्श्........श्श् निःशब्द ने निःशब्दता को प्रणाम किया। सभी के चेहरे सारे भाव स्पष्ट प्रकट कर रहे थे, परंतु जिह्वा अचल। नेत्र जलमय थे।
तभी उद्धोषणा हुई कि राप्तीसागर प्लेटफार्म नंबर ६ पर आ रही है। विजय ट्रेन की दिशा में बढ़ गया।
सभी जल्दी में थे। यथाशीघ्र अपने बर्थ में बैठने की लालसा। विजय भारी कदमों से धीरे धीरे अपने डिब्बे की ओर बढा। परंतु समय से अपनी बर्थ पर पहुँच गया। अपने के व्यवस्थित कर खिड़की से बाहर झाँका। वह व्यक्ति अपनी पत्नी व बच्चे के साथ अनारक्षित कोच की तरफ जा रहा था। हाथ में वेज—बिरयानी का प्लेट अभी भी बच्चे के साथ था।
थोड़ी देर में ट्रेन ने चेन्नई सेंट्रल छोड़ दिया। विजय ने हैंडबैग से किताब निकाली।
यह जीवन तो एक रेलगाड़ी के सदृश्य है, जो एक स्टेशन से चलकर गंतव्य तक जाती है...।
किताब पढ़ते—पढ़ते विजय बर्थ पर सो गया था।