परीक्षा-गुरु - प्रकरण-36 Lala Shrinivas Das द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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परीक्षा-गुरु - प्रकरण-36

परीक्षा गुरू

प्रकरण-३६

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धोके की टट्टी

लाला श्रीनिवास दास

बिपत बराबर सुख नहीं जो थो रे दिन होय

इष्‍ट मित्र बन्‍धू जिते जान परैं सब कोय ।।

लाला ब्रजकिशोर के गये पीछे मदनमोहन की फ़िर वही दशा हो गई. दिन पहाड़ सा मालूम होनें लगा. खास कर डाक की बड़ी तला मली लगरही थी. निदान राम, राम करके डाक का समय हुआ डाक आई. उस्‍मैं दो तीन चिट्ठी और कई अखबार थे.

एक चिट्ठी आगरे के एक जौहरी की आई थी जिस्‍मैं जवाहरात की बिक्री बाबत लाला साहब के रुपे लेनें थे और वह यों भी लाला साहब सै बड़ी मित्रता जताया करता था. उस्‍नें लाला साहब की चिट्ठी के जवाब मैं लिखा था कि "आप की ज़रूरत का हाल मालूम हुआ मैं बड़ी उमंग सै रुपे भेज कर इस्‍समय आपकी सहायता करता परन्‍तु मुझको बड़ा खेद है कि इन दिनों मेरा बहुत रुपया जवाहरात पर लग रहा है इसलिये मैं इस्‍समय कुछ नहीं भेज सक्ता. आपनें मुझकौ पहले सै क्‍यों न लिखा ? अब जिस्‍समय मेरे पास रुपया आवेगा मैं प्रथम आपकी सेवा मैं ज़रूर भेजूंगा. मेरी तरफ़ सै आप भलीभांति विश्‍वास रखना और अपनें चित्त को सर्वथा अधैर्य न होनें देना. परमेश्‍वर कुशल करेगा" यह चिट्ठी उस कपटी नें ऐसी लपेट सै लिखी थी कि अजान आदमी को इस्के पढ़नें सै लाला मदनमोहन के रुपे लेनें का हाल सर्वथा नहीं मालूम होसक्ता था. वह अच्‍छी तरह जान्‍ता था कि लाला मदनमोहनका काम बिगड़ जायगा तो मुझसै रुपे मांगनें वाला कोई न रहैगा इस वास्‍तै उस्‍नें केवल इतनी ही बात पर सन्‍तोष न किया बल्कि वह गुप्‍तरीति सै मदनमोहनके बिगड़नें की चर्चा फैलानें, और उस्‍के बड़े, बड़े लेनदारों को भड़कानें का उपाय करनें लगा. हाय ! हाय ! इस असार संसार मैं कुछ दिन की अनिश्चित आयु के लिये निर्भय होकर लोग कैसे घोर पाप करते हैं ! ! !

दूसरी चिट्ठी मदनमोहन के और एक मित्र (!) की थी. वह हर साल आकर महीनें बीस रोज मदनमोहन के पास रहते थे इसलिये तरह, तरह की सोगात के सिवाय उन्‍की खातिरदारी मैं मदनमोहन के पांच सात सौ रुपे सदैव खर्च हो जाया करते थे. उन्‍नें लिखा था कि "मैंनें बहुत सस्‍ता समझकर इस्‍समय एक गांव साठ हजार रुपे मैं खरीद लिया है. मेरे पास इस्‍समय पचास हजार अन्‍दाज मोजूद हैं इसलिये मुझको महीनें डेढ़ महीनें के वास्‍ते दस हजार रुपे की ज़रूरत होगी. जो आप कृपा करके यह रुपया मुझको साहूकारी ब्‍याजपर दे देंगे तो मैं आपका बहुत उपकार मानूंगा" यह चिट्ठी लाला मदनमोहन की चिट्ठी पहुँचते ही उस्‍नें अगमचेती करके लिख दी थी और मिती एक दिन पहलेकी डाल दी थी कि जिस्‍सै भेद न खुलनें पावै-

मदनमोहन के तीसरे मित्र की चिट्ठी बहुत संक्षेप थी. उस्‍मैं लिखा था कि "आपकी चिट्ठी पहुँची उस्के पढ़नें सै बड़ा खेद हुआ. मैं रुपे का प्रबन्‍ध कर रहा हूँ यदि हो सकेगा तो कुछ दिन मैं आपके पास अवश्‍य भेजूंगा" इस्‍के पास पत्र भेजनें के समय रुपया मोजूद था परन्‍तु इस्‍नें यह पेच रक्‍खा था कि मदनमोहन का काम बना रहैगा तो पीछे सै उस्‍के पास रुपया भेज कर मुफ्तमैं अहसान करेंगे और काम बिगड़ जायगा तो चुप हो रहैंगे अर्थात् उस्‍को रुपे की ज़रूरत होगी तो कुछ न देंगे और ज़रूरत न होगी तो जबरदस्‍ती गले पड़ेंगे !

इन्के पीछै लाला मदनमोहन एक अखबार खोलकर देखनें लगे तो उस्‍मैं एक यह लेख दृष्टि आया :-

"सुसभ्‍यता का फल"

हमारे शहरके एक जवान सुशिक्षित रईसकी पहली उठान देखकर हमको यह आशा होती थी बल्कि हमनें अपनी यह आशा प्रगट भी कर दी थी कि कुछ दिनमैं उस्‍के कामोंसै कोई देशोपकारी बात अवश्‍य दिखाई देगी परन्‍तु खेद है कि हमारी वह आशा बिल्‍कुल नष्‍ट हो गई बल्कि उस्‍के विपरीत भाव प्रतीत होनें लगा. गिन्‍ती के दिनोंमैं तीन चार लाख पर पानी फ़िरगया. बिलायत मैं डरमोडी नामी एक लड़का ऐसा तीक्षण बुद्धि हुआ था कि वह नो वर्ष की अवस्‍था मैं और विद्यार्थियों को ग्रीक और लाटिन भाषाके पाठ पढ़ाता था परन्‍तु आगे चलकर उस्‍का चाल चलन अच्‍छा नहीं रहा. इसी तरह ही यहां प्रारम्‍भ सै परिणाम बिपरीत हुआ. हिनदुस्तानियों का सुधरना केवल दिखानें के लिये है वह अपनी रीति भांति बदलनें मैं सब सुसभ्‍यता समझते हैं परन्‍तु असल मैं अपनें स्‍वभाव और विचारोंके सुधारनें का कुछ उद्योग नहीं करते. बचपन मैं उन्‍की तबियत का कुछ, कुछ लगाव इस तरफ़ को मालूम होता भी तो मदरसा छोड़े पीछे नाम को नहीं दिखाई देता. दरिद्रियों को भोजन वस्‍त्र की फिकर पड़ती है और धनवानों को भोग बिलास सै अवकाश नही मिल्‍ता फ़िर देशोन्‍नति का बिचार कौन करे ? बिद्या और कला की चर्चा कौन फैलाय ? हमको अपनें देश की दीन दशा पर दृष्टि करके किसी धनवान का काम बिगड़ता देखकर बड़ा खेद होता है परन्‍तु देश के हित के लिये तो हम यही चाहते हैं कि इस्‍तरह पर प्रगट मैं नए सुधारे की झलक दिखा कर भीतर सै दीया तले अंधेरा रखनें वालों का भंडा जल्‍दी फूट जाय जिस्‍सै और लोगों की आंखै खुलें और लोग सिंह का चमड़ा ओढ़नें वाले भेड़िये को सिंह न समझैं" इस अखबार के एडीटर को पहलै लाला मदनमोहन सै अच्‍छा फायदा हो चुका था परन्‍तु बहुत दिन बीत जानें सै मानों उस्‍का कुछ असर नहीं रहा. जिस तरह हरेक चीज के पुरानें पड़नें सै उस्‍के बन्‍धन ढ़ीले पड़ते जाते हैं इसी तरह ऐसे स्‍वार्थपर मनुष्‍यों के चित्त मैं किसी के उपकार पर, लेन देन पर, प्रति व्‍यवहार पर, बहुत काल बीत जानें सै मानों उस्‍का असर कुछ नहीं रहता जब उन्‍के प्रयोजन का समय निकल जाता है तब उन्‍की आंखैं सहसा बदल जाती हैं तब वह किसी लायक होते हैं तब उन्के ह्रदय पर स्‍वेच्‍छाचार छा जाता है. जब उन्‍के स्‍वार्थ मैं कुछ हानि होती है तब वह पहले के बड़े से बड़े उपकारों को ताक मैं रख कर बैर लेनें के लिये तैयार हो जाते हैं. सादी नें कहा है "करत खुशामद जो मनुष्य सो कछु दे बहु लेत । एक दिवस पावै न तो दो सै दूषण देत ।।" [15] इस अखबार का एडीटर विद्वान था और विद्या निस्‍सन्‍देह मनुष्‍य की बुद्धि को तीक्ष्‍ण करती है परन्‍तु स्‍वभाव नहीं बदल सक्‍ती, जिस मनुष्य को विद्या होती है पर वह उस्‍पर बरताव नहीं करता वह बिना फल के बृक्ष की तरह निकम्‍मा है.

लाला मदनमोहन इन लिखावटों को देख कर बड़ा आश्‍चर्य करते थे परन्‍तु इस्सै भी अधिक आश्‍चर्य की बात यह थी कि बहुत लोगोंनें कुछ भी जवाब नहीं भेजा. उन्‍मैं कोई, कोई तो ऐसे थे कि बड़ों की लकीर पर फकीर बनें बैठे थे यद्यपि उन्‍के पास कुछ पूंजी नहीं रही थी उन्‍का कार ब्‍योहार थक गया था उन्‍का हाल सब लोग जान्‍ते थे इस्‍सै आगे को भी कोई बुर्द हाथ लगनें की आशा न थी परन्‍तु फ़िर भी वह खर्च घटानें मैं बेइज्‍जती समझते थे. सन्‍तान को पढ़ानें लिखानें की कुछ चिन्‍ता न थी परन्‍तु ब्‍याह शादियोंमैं अब तक उधार लेकर द्रब्य लुटाते थे उन्‍सै इस अवसर पर सहायता की क्‍या आशा थी ? कितनें ही ऐसे थे जिन्‍होंनें केवल अपनें फ़ायदे के लिये धनवानों का सा ठाठ बना रक्‍खा था इस वास्‍तै वह मदनममोहन के मित्र न थे उस्‍के द्रब्यके मित्र थे वह मदनमोहन पर किसी न किसी तरह का छप्‍पर रखनें के लिये उस्‍का आदर सत्‍कार करते थे इसलिये इस अवसर पर वह अपना पर्दा ढ़कनें के हेतु मदनमोहन के बिगाड़नें मैं अधिक उद्योग न करें इसी मैं उन्‍का विशेष अनुग्रह था. इस्‍सै अधिक सहायता मिलनें की उन्‍सै क्‍या आशा हो सकती थी ? कोई, कोई धनवान ऐसे थे जो केवल हाकमों की प्रसन्‍नता के लिये उन्‍की पसन्‍द के कामों मैं अपनी अरुचि होनें पर भी जी खोलकर रुपया दे देते थे परन्‍तु सच्‍ची देशोन्‍नति और उदारता के नाम फूटी कौड़ी नहीं खर्ची जाती थी वह केवल हाकमों सै मेल रखनें मैं अपनी प्रतिष्‍ठा समझते थे परन्‍तु स्‍वदेशियों के हानि लाभ का उन्‍हें कुछ बिचार न था, केवल हाकमों मैं आनें जानें वाले रईसों से मेल रखते थे और हाकमों की हां मैं हां मिलाया करते थे इस वास्‍ते साधारण लोगों की दृष्टि मैं उन्‍का कुछ महत्‍व न था. हाकमों मैं आनें जानें के हेतु मदनमोहन की उन्‍सै जान पहचान हो गई थी परन्‍तु वह मदनमोहन का काम बिगड़नें सै प्रसन्‍न थे क्‍योंकि वह मदनमोहन की जगह कमेटी इत्‍यादि मैं अपना नाम लिखाया चाहते थे इस वास्‍तै वह इस अवसर पर हाकमों सै मदनमोहन के हक़ मैं कुछ उलट पुलट न जड़ते यही उनकी बड़ी कृपा थी इस्‍सै बढ़ कर उन्‍की तरफ़ सै और क्‍या सहायता हो सक्ती थी ? कोई, कोई मनुष्‍य ऐसे भी थे जो उन्‍की रकम मैं कुछ जोखों न हो तो वह मदनमोहन को सहारा देनें के लिये तैयार थे परन्‍तु अपनें ऊपर जोखों उठाकर इस डूबती नाव का सहारा लगानें वाला कोई न था. विष्‍णु पुराण के इस वाक्‍य सै उन्‍के सब लक्षण मिल्‍ते थे "जाचत हूँ निज मित्र हित करैं न स्‍वारथ हानि । दस कौड़ी हू की कसर खायं न दुखिया जानि ।" [16]

निदान लाला मदनमोहन आज की डाक देखे पीछे बाहर के मित्रों की सहायता सै कुछ, कुछ निराश होकर शहर के बाकी मित्रों का माजना देखनें के लिये सवार हुए.