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पेटू

पेटू

जयनंदन


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पेटू

दरबारी प्रसाद अपने बचपन की भूख को आज तक नहीं भूले, वे शायद इसे भूलना भी नहीं चाहते। भूख की याद आती है तो अन्न के एक—एक दाने का मोल वे महसूस करने लगते हैं और जब अन्न के दाने उन्हें बर्बाद या फेंके हुए दिखाई पड़ जाते हैं तो बरबस उन्हें भूख याद आ जाती है।

कल रात में उनके बेटों ने दोस्तों को पार्टी दी। सुबह में दाई ने ढेर सारा खाना, पुलाव, चिकेन, सलाद, नान आदि घूरे पर फेंक दिये। उनकी नजर पड़ गयी और आत्मा रिस उठी किसी पके घाव की तरह। उन्होंने अनुमान लगाया कि ये सामग्री कम से कम बीस आदमी के भरपेट खाने लायक हैं। इस तरह की बर्बादी उन्हें घर—बाहर अक्सर दिखाई पड़ जाती और वे बुरी तरह आहत हो जाते। क्लबों, होटलों, शादी की पार्टियों आदि में होनेवाली बाहर की बर्बादियों पर तो खैर उनका कोई अख्तियार नहीं हो सकता था, लेकिन वे बहुत निरीह और हताश थे कि घर की बर्बादी पर भी उनका कोई वश नहीं था।

उन्होंने कहीं पढ़ा था कि इस देश में एक दिन में अनाज की जितनी बर्बादी हो जाती है, उतने में इथोपिया, नामीबिया या सोमालिया जैसे भूखे देश के साल भर के भोजन की जरूरत पूरी हो सकती है।

माँ का चेहरा उन्हें अब भी बरबस याद आ जाता है। अन्न के कितने भी महीन दाने हों फटकते, सुखाते, पकाते या परोसते हुए उनके जमीन पर गिर जाने से वह एक—एक को मनोयोग से चुनने लग जाती थी, जैसे वे अन्न के नहीं मोती के दाने हों। बाद में भूख ने उन्हें भी समझा दिया था कि ये दाने सचमुच मोती से कहीं अधिक अनमोल हैं।

बेटे जवान हो गये थे, यों वे भी बूढ़े नहीं थे। बेटे मानते थे कि वे शहर में रहकर भी देहाती—गंवार ही रह गये। कदाचित यह सच था कि गाँव और भूख की सोहबत का इतना गाढ़ा रंग चढ़ गया था उनके दिमाग पर कि शहर और शहर के भरपेट भोजन का कोई प्रभाव वहाँ टिक ही नहीं पाया। वे सब कुछ सीखकर भी होशियारी और मक्कारी नहीं सीख सके। इसे ही उनके बेटे अक्लमंदी कहते और इसी अक्लमंदी के अभाव में उनकी बातों का घर में कोई तवज्जो नहीं। बेटे अपनी मरजी के मालिक थे और कुछ भी करने के लिए आजाद। इस आजादी में उनकी जो हरकतें होतीं, उन्हें देखकर वे हैरान रह जाते ल़गता ही नहीं कि ये बच्चे उनके घर, गाँव, जनपद और मुल्क के हैं। लगता कि इनकी रहन—सहन, चाल—चलन, खान—पान सब कुछ एकदम अनचिन्हा, अनपहचाना है। पता नहीं किस दुनिया—जहान की ये नकल कर रहे थे लगभग रोज उत्सव, पार्टी, नाच, गाना, धूम, धड़ाका। उनके लिए पैसों का यही बेहतर सदुपयोग था। दरबारी प्रसाद जैसे एक ही घर में रहकर भी एक अलग टापू बन गये। पैसों के सदुपयोग की परिभाषा यहाँ एकदम अलग थीं। चूँकि जिंदगी के ककहरे ने उन्हें एकदम दीगर तरीके से सबक सिखाया था। वे चाहते थे कि पैसों को सबसे पहले दुनिया की भूख और बीमारी मिटाने में खर्च होना चाहिए। चाहे वे पैसे किसी के द्वारा भी अर्जित किये गये हों। यह पूरी दुनिया अगर बहुत बड़ी लगती हो तो उसमें कम से कम अपने नजदीकी रिश्तेदारों को ही शामिल करें। अगर यह भी गले से न उतरे तो फिजूलखर्ची और बर्बादी के गुनाह से तो खुद को बचा लें!

पिछले छरू महीने में गाँव से दीदी की छरू चिठ्‌ठी आ चुकी हैं, जो स्याही से नहीं आँसुओं से लिखी हुई हैं। दीदी की एक किडनी खराब हो गयी है, उसे अॉपरेशन करके बाहर निकलवाना है, नहीं तो दूसरी भी संक्रमित हो जायेगी। उसने किसी तरह दस हजार रूपये जुगाड़ किये हैं, पाँच हजार उसे और चाहिए। घर के सकल आय—व्यय का वित्तमंत्री उनका बड़ा बेटा दुक्खन प्रसाद और मुख्य सलाहकार छोटा बेटा भुक्खन प्रसाद हैं। (दोनों को ही ये नाम बिल्कुल नापसंद हैं और वे खुद को डीपी एवं बीपी कहलवाना पसंद करते हैं। जबकि दरबारी ने ये नाम इसलिए दिये थे कि दुख और भूख को वे अपनी नजरों के सामने हर पल याद रखें। मगर ये लड़के अपने नाम की व्यंजना से बिल्कुल उल्टा विचार रखते थे।)

दरबारी प्रसाद ने छठी बार उन्हें याद दिलाया, ष्बेटे, पैसे भेज दो। दीदी मेरी सगी है, उसके बहुत ऋण हैं मेरे ऊपर। ऋण न भी होते फिर भी भाई होने के नाते इतनी सी मदद तो फर्ज है हमारा।

दुक्खन ने छठी बार उसी जवाब की आवृत्ति की जो पहली बार उसने दिया था, ष्आपने कह दिया, अब मुझ पर छोड़ दीजिए। मैं इंतजाम होते ही भेज दूँगा।

इस इंतजाम शब्द का रहस्य उन्हें एकदम समझ में नहीं आया। घर में पार्टियाँ चल रही थीं अजीब—अजीब तरह के बेमतलब सामान आ रहे थे, जिनके बिना न किसी की छाती में दम घुट रहा था, न किसी के गले में निवाला अटक रहा था। कालीनें बिना फटे ही पुराने पर्दे की जगह नये पर्दे बिना किसी खराबी के पुराने टीवी और अॉडियो सिस्टम का एक्चेंज माइक्रोवेव ओवन वैक्यूम क्लीनर टेलीफोन इंस्ट्रुमेंट के ठीक—ठाक रहते हुए भी कॉर्डलेस उपकरण घर में दो—दो बाइक के रहते हुए भी एक तीसरा बाइक साडियाँ, कपड़े और बेडशीट आदि के बेमतलब बदले जाने की तो खैर कोई गिनती नहीं।

दरबारी की आजिजी बढ़ती जा रही थी, लेकिन वे उन्हें बरजने की योग्यता नहीं रखते, यह एहसास उन्हें बहुत पहले करा दिया गया था। वे दोनों कमाऊ और उनसे कई गुणा बेहतर एवं सम्मानित पदों पर थे। लड़के मुँह से कुछ बोलते नहीं थे लेकिन उनके आवभाव से यह ध्वनि स्पष्ट फूटती प्रतीत होती थी कि कमाते हम हैं तो खर्च चाहे कैसे करें, आपको कष्ट नहीं होना चाहिए और आप बाप हैं तो क्या हुआ आज के जमाने में अक्लमंद (होशियार और मक्कार) होना इससे भी बड़ी बात है।

ठीक है, अपनी कमाई चाहे जैसे उड़ायें, दरबारी प्रसाद को इस पर कोई उज्र नहीं थी, उज्र तब होती जब ऐसी ही आजादी उन्हें नहीं दी जाती। वे अपनी कमाई के पैसे अपने अनुसार खर्च नहीं कर सकते, चूँकि बजट बनाने का हक सिर्फ वित्तमंत्री को था। दरबारी प्रसाद ने ठान लिया कि अब उन्हें एक सख्त विपक्ष की भूमिका में आ जाना होगा।

उन्होंने बहुत नाराज भंगिमा बनाकर पूछा दुक्खन से, ष्क्या मैं जान सकता हूँ कि दीदी को भेजने के लिए इंतजाम कितना आगे बढ़ा। क्या यह इंतजाम दीदी पर कुछ आफत टूट जाने के बाद पूरा होगा?

सॉरी बाउजी, मैं बताना भूल गया। फुआ को पैसे तो मैंने भेज दिये, कई दिन हो गये।

उनके मन ने खट से कहा कि ऐसी बात भूलने की नहीं हो सकती। जरूर कोई भेद हैं, उन्होंने पूछा, कितने रूपये भेजे?

एक हजार।

एक हजार? मगर मैंने तो कहा था कि उसे पाँच हजार की जरूरत हैं!

अब जरूरत की कोई सीमा तो होती नहीं हैं, बाउजी। माँगने में किसी को क्या जाता है, जितना मन किया माँग लिया। मगर देनेवाले को तो अपना हिसाब—किताब भी देखना पड़ता है। इससे ज्यादा देना संभव नहीं था।

एकदम चेहरा बुझ गया दरबारी प्रसाद का। कराहते हुए कहा, ष्क्या मैं किसी बीमारी में घिर जाऊँ और उसमें दस—बीस हजार लगाने पड़ जायें तो यों हीं छोड़ दोगे मुझे मरने के लिए?

बाउजी, आप कहाँ की तुक कहाँ जोड़ने लग जाते हैं! कितनी बार कहा कि अपने खंडहर अतीत से निकलिये बाहर और अपने इमोशंस—सेंटीमेंट को नये संदर्भ से जोडिये। फुआ कोई लावारिस नहीं हैं, उनके अपने परिवार हैं बेटे हैं दामाद हैं।

दरबारी प्रसाद की आँखें आँसुओं से डबडबा गयीं लगा कि आज भी वे उतने ही बेबस हैं, उतने ही भूखे हैं जितने गाँव में थे। फर्क सिर्फ इतना था कि भूख की वेदना अब आँत में नहीं जिगर में थी। दीदी उनके लिए खून की रिश्तेवाली सिर्फ एक सामान्य बहन नहीं थी। बल्कि उनकी भूख और भोजन से उसकी कई मार्मिक यादें जुड़ी थीं। दीदी उसे भरपेट खिलाने के लिए हर समय उतावली रहती थी।बहुत सुंदर थी दीदी, इसलिए उसका ब्याह एक अच्छे खाते—पीते परिवार में हो गया था। बगल के ही होम—टाउन नवादा में उसका जेठ नौकरी करता था। उसके डेरे पर अक्सर गाँव से लोगों का आना—जाना लगा रहता। कोर्ट—कचहरी, शादी—गौने की खरीदारी और बीमारी की दवा—दारू के लिए। दीदी भी किसी की सुश्रुषा करने या खुद का इलाज करवाने यहाँ आती रहती। गाँव से नवादा जाना तब बहुत आसान था। गाँव के पास ही स्थित स्टेशन पर जाने के लिए दिन भर में दो बार रेलगाड़ी रूकती थी और आने के लिए तीन बार। इनमें सफर के लिए टिकट लेना कभी—कभी ही जरूरी होता था। दरबारी हाई स्कूल में पढ़ रहा था और घूमने—देखने के लिए दोस्तों के साथ बाजार जाने लगा था। बाउजी ने एक दिन कहा कि जब नवादा जाते हो तो जरा दीदी का भी समाचार ले लिया करो।

दरबारी चला गया एक दिन। दीदी यहीं थी। उसे देखकर एकदम खिल उठी। थाली में पानी लाकर उसके पैर धोये (इस अर्थतंत्र में भी भाई की निर्धनता और फटेहाली के गणित से दीदी को कोई मतलब नहीं था) फिर कहा, खाना लगाती हूँ जल्दी से खा लो। उसने नीचे बोरे का आसन बिछा दिया और पानी का जग एवं गिलास रख दिया। दरबारी नीचे बैठ गया। भोजन की थाली आयी तो उसे देखकर उसकी आँखें चमक उठीं। इतना बढिया खाना उसने कब खाया था, याद करने की कोशिश की, लेकिन याद नहीं आया। भर थाली भात, भर कटोरा झोलदार मछली, पापड़, अचार और सलाद। अपने घर में भी उसने भात खाये थे और मछली भी मगर ऐसा भात, खुशबूदार, रूई के फाहे की तरह मुलायम एवं लंबे—लंबे। उसने बड़ा सा कौर मुँह में डालते हुए पूछा, यह कौन—सा भात और कौन—सी मछली है दीदी?

दीदी उसके सामने ही बैठी थी, कहा, ष्इसे बासमती चावल कहते हैं और मछली का नाम रोहू हैं।

दीदी ने आगे कहा कि उसके जेठ खाने—पीने के बहुत शौकीन हैं, हमेशा माँस—मछली और ऐसा ही उम्दा किस्म का महँगा चावल खाते हैं। दरबारी ने पहली बार यह जाना था कि आदमी—आदमी में फर्क की तरह चावल—चावल में इतना फर्क हो सकता है। उसने खूब छककर खाया और फिर दीदी को बहुत कृतज्ञ नेत्रों से निहारा।

दीदी उसे इस तरह बेसुध होकर खाते देख खुद भी एक आह्लाद से भरती रही। उसने माँ—बाउजी का समाचार पूछा। दुखी हुई जानकर कि वे पहले की तरह ही बीमार और दुर्बल हैं। आगे यह भी पूछा कि इस समय घर में खाने के लिए क्या है?

दरबारी ने बताया, ष्आठ दिन पहले तो कुछ नहीं हुआ था, अभी—अभी मडुआ कटा है तो रात—दिन मडुआ की रोटी चल रही है।

दीदी को कोई ताज्जुब नहीं हुआ। वह जानती थी कि यही होता रहा है धान की फसल होने पर जब तक चावल खत्म न हो जाये रात दिन भात गेहूँ की फसल होने पर जब तक गेहूँ खत्म न हो जाये रात दिन गेहूँ की रोटी इसी तरह चना, मकई और खेसाड़ी आदि के साथ भी होता था। दीदी के चेहरे पर एक मायूसी उभर आयी। उसने दरबारी के माथे को सहलाते हुए कहा, ष्सबका दिन फिरता है मुन्ना देखना, तुम्हारा भी फिरेगा एक दिन। खूब मन लगाकर पढ़ो, जरूर तुम्हें कोई अच्छा काम मिल जायेगा।

वह दीदी का मुँह देखता रह गया था, क्या सचमुच ऐसा होगा?

दीदी ने आगे बताया था, ष्मैं अभी चार—छह महीने यहीं रहूँगी। जेठानी को लड़का हुआ है। घर का सारा काम मेरे ही जिम्मे हैं खाना बनाने से लेकर उनका बदन मालिश तक। करना पड़ता है, तुम्हारे जीजा भी बेरोजगार हैं न और सबको मालूम है कि मैं बहुत गरीब घर से आयी हूँ!ष् दीदी के चेहरे पर एक थकान और बेबसी झाँक गयी थी। उसने फिर कहा, ष्तुम कम से कम हर इतवार को आ जाया करो। जेठ जी अभी खाना खाने आयेंगे, तुम उनसे बढिया से प्रणाम—पाति करके बोलना—बतियाना।

जेठ आया तो मन न होते हुए भी उसने उसके पैर छूकर प्रणाम किये। दीदी ने जेठ को सुनाते हुए कहा, आज यहीं रूक जाओ दरबारी, कल सुबह चले जाना।

दरबारी ने जेठ के चेहरे देखे, कोई आपत्ति नहीं थी वहाँ। पैर छूने का शायद असर हुआ। रूक गया वह, लालच तो था ही कि दो—तीन शाम और अच्छा खाना मिल जायेगा।

किसी शहर में रात गुजारने का यह उसके लिए पहला मौका भी था। खासकर एक ऐसे क्वार्टर में जहाँ इकठ्‌ठे सब कुछ उपलब्ध हों, टायलेट, बाथरूम, बिजली, पानी।

बहुत मजा आया उसे, मन ही मन उसने प्रार्थना की, हे भगवान! क्या हमें भी ऐसी जिंदगी नहीं मिल सकती है?

क्वार्टर के पास ही इस शहर का इकलौता सिनेमा हॉल सरस्वती टॉकिज था। उसने अब तक सिनेमा नहीं देखा था, हाँ एक हसरत से इस हॉल को उसने कई बार बड़ी देर तक खड़े हो—होकर देखा था। खासकर शो के टाइम हो जाने पर टिकट के लिए मची एक अफरा—तफरी देखकर उसके मन में एक जोरदार कौतूहल हो उठता था कि जरूर यह सिनेमा एक ऐसी चीज है जो सबको सहज उपलब्ध नहीं हो सकता। वह हॉल के शीर्ष पर रखे लाउडस्पीकर के चोंगे से बजते नये—नये फिल्मी गानों को बड़े ध्यान से सुनता और संतोष कर लेता।

जब मैटिनी शो का टाइम होने लगा तो लाउडस्पीकर की आवाज क्वार्टर में ही आने लगी। खिड़की के पास बैठकर उसने कान इधर ही लगा दिये। आनंद की एक हिलोरें उठने लगीं उसके मन में। ठहरे हुए, ठिठके हुए गाँव की तुलना में शहर कितना चलायमान और गुंजायमान होता है न!

दीदी के जेठ जब शाम को अॉफिस से वापस आए तो साथ में कई तरह की सब्जियाँ और फल भी लेते आए। दीदी उनके आने के ठीक पहले किचेन में चली गयी जहाँ से क्षुधा—ग्रंथि को जाग्रत कर देने वाली खुशबुएँ आनी शुरू हो गयीं। थोड़ी ही देर में उसने एक गरमागरम प्लेट लाकर दिया जिसमें देखते ही खाने का आमंत्रण समाया था। प्लेट की एक सामग्री हलवा को वह पहचानता था, दूसरी का नाम दीदी ने पनीर पकौड़ा बताया। गजब का स्वाद था उसमें। इसे खाने के बाद चाय दी गयी। रात के खाने में घी से चुपड़ी हुई चपातियाँ और दो—तीन तरह की बेहद लजीज सब्जियाँ थीं। रात में लग ही नहीं रहा था कि कहीं से भी अँधेरा हें। घर—बाहर हर जगह तेज रौशनी फैली थी और सारी चीजें दिन की तरह दिखाई पड़ रही थीं। गाँव के घरों में तो टिमटिमाते दीए की क्षीण और मरियल रौशनी के अलावा हर जगह अँधेरा ही अँधेरा बिछा होता हैं। उसे अच्छी नींद नहीं आयी बस सोचता ही रह गया कि इस एक दुनिया में कितनी अलग—अलग दुनिया हैं और इनमें रहनेवाले लोग कितने अलग—अलग हैं।

सुबह शौचालय जाने में उसने खूब फूर्ती महसूस की। गाँव में लोटा लेकर कम से कम एक मील तो पैदल जाना ही पड़ता था। अगर कहीं जोर लग गया तो सिवा किसी तरह रोक रखने का दूसरा कोई उपाय नहीं। उसने आज धोने में ढेर सारा पानी का इस्तेमाल किया। एक लोटे पानी से धोने में उसे हर बार लगता था कि यह बहुत कम हैं। ऐसा ही उसने नहाने में भी किया। ऊपर फव्वारा था, दरवाजा बंद करके उसने जोर से चला दिया। इस तरह बंद कमरे में अकेले नंगे होकर नहाने का यह उसका पहला अवसर था। हालांकि खुद से भी लाज लग रही थी उसे। उसने अच्छी तरह पूरी देह में दो बार साबुन लगाये। पता नहीं कितने दिनों बाद आज वह साबुन लगा रहा था।

कपड़े आदि उसने पहन लिये तो दीदी ने कहा, ष्नाश्ता ला रही हूँ, खा लो।

उसने थाली और कटोरे में पूड़ी, सब्जी और खीर ला दी। दरबारी खाते हुए एक रोमाँच से गुजरता रहा कि यह कैसा सौभाग्य है कि रात—दिन में यहाँ चार—चार बार लोग खा रहे हैं और चारों ही बार अलग—अलग तरह की चीजें! जबकि उसे एक ही तरह का रूखा—सूखा दो बार भी नियमित नहीं मिला करता। उसने सुना भर था कि अलग—अलग समय के खाने का अलग—अलग नाम होता है — ब्रेक फास्ट, लंच, स्नैक्स, डिनर आ़ज उसने चरितार्थ होते देख लिया।

नाश्ता करके उसने स्टेशन के लिए निकल जाना चाहा, लेकिन दीदी ने कहा, ष्खाना खाकर बारह बजेवाली पैसेंजर से चले जाना। जेठ जी माँस लाने गये हैं।

माँस के नाम से उसके खाने की तलब में एक अधैर्य समा गया और मुँह में ढेर सारी लार भर आयी। अपने घर में माँस खाये उसे न जाने कितने महीने हो गये। रूक गया वह और जी भरकर माँस—भात खाया।

दीदी ने चलते हुए उसकी मुठ्‌ठी में पाँच रूपये पकड़ा दिये और कहा, इतवार को आ जाया करना दरबारी।

दीदी की वह स्नेहमयी और रागात्मक संभाषण—मुद्रा दरबारी के हृदय—पटल पर अंकित हो गयी।

अब वह प्रायरू हर इतवार को वहाँ धमक जाने लगा। कभी रात में ठहर जाता, कभी खा—पीकर उसी दिन वापस हो जाता। दीदी बहुत खुश होती। इसी तरह आते—आते एक दिन उसने लक्ष्य किया कि दीदी का जेठ उसे कड़ी नजरों से घूरने लगा है और उसकी मुखाकृति पर एक रोष दिखाई पड़ने लगा है।

एक दिन दीदी ने उसे कुछ सामान से भरा एक थैला दिया और कहा, इसे लेते जा मुन्ना, घर में काम आएगा।

उस थैले में प्रचुर मात्रा में साबुन, तेल, बिस्कुट, चनाचूर आदि रखे थे। दीदी ने शायद अपने हिस्से की ये चीजें किफायत करके बचा ली थीं। जब इन्हें माँ ने देखा तो उसे डाँटने लगी, ष्यह अच्छा नहीं किया तुमने। बहन के यहाँ से भी कहीं कोई कुछ लेता है? तुम्हारी आदत बिगड़ती जा रही है। जरा सुधारो इसे।

दरबारी हैरान रह गया — उसने तो सोचा था कि इन्हें लेकर माँ बहुत खुश होगी, पर पता नहीं किस धातु की बनी थी वह! आगे उसने देखा कि घर में साबुन—सर्फ के रहते हुए भी माँ—बाउजी दोनों सोड्डे या रेह से कपड़े धोते रहे और सिर में काली मिट्टी लगाकर नहाते रहें। दरबारी अकेले बहुत दिनों तक इनका इस्तेमाल करता रहा। साबुन से वह कुएँ पर नहाता तो लोग ताज्जुब से इस तरह देखते जैसे वह चोरी करके लाया हो।

यों चोरी करना भी दरबारी के लिए अब कोई वर्जित काम नहीं था। कई दिन तक जब भूख से आँतें ऐंठने लगतीं, चूँकि महाजनों से डयोढिया—सवाई पर कर्ज लेने की सीमा भी पार हो गयी रहती और आगे कोई उपाय नहीं दिखता, तो वह रात में बड़े जोतदारों के खेत से भुट्टे, चना, आलू, शकरकंद, चीनियाबादाम आदि उखाड़ लाता। माँ—बाउजी उसकी यह हरकत देखकर माथा पीट लेते। वे भूखे रह जाते पर इन चीजों को हाथ तक नहीं लगाते। दरबारी अफसोस करता अपने आप पर, खुद को कोसता और बरजता भी, मगर भूख उसे माँ—बाउजी की तरह ज्यादा बर्दाश्त नहीं होती थी। उसे लगने लगा था उन दिनों कि अगर यही स्थिति रही तो वह एक दिन कोई बड़ा डाकू नहीं तो एक शातिर चोर तो जरूर ही बन जायेगा। यों वह समझ सकता था कि भुखमरी और लाचारी न होती तो शायद वह कभी गलत काम की तरफ रूख नहीं करता।

जब से वह दीदी के यहाँ जाने लगा था, इस बुरी लत पर एक काबू बनने लगा था। चोरी—छिछोरी से बेहतर समझता था कि नवादा हो आया जाये। एक—दो शाम डटकर खा लेने के बाद चार—पाँच दिन तो जैसे—तैसे निकल ही जाते थे। मगर उसके जेठ की चढ़ी त्योरी से अब यह भी आसान नहीं रह गया।

इस बार दरबारी चला तो रास्ते में असमंजस के अलावा भी कई अन्य अवरोध बिछे थे। ट्रेन काफी लेट आयी और दीदी के घर पहुँचते—पहुँचते गर्मी की प्रचंड धूप जैसे ज्वाला बन गयी।

इतवार होने की वजह से दीदी को उसके आने का शायद पूर्वाभास था। खिड़की से वह रास्ते को निहार रही थी। उस पर नजर पड़ते ही वह घर से निकलकर कुछ आगे बढ़ आयी और उसे वहीं रोक लिया। एक दरख्त की छांव में ले गयी और कहा, ष्मैं तुम्हारी ही राह देख रही थी मुन्ना। तुम्हारे बार—बार आने को लेकर जेठ बहुत उल्टा—टेढ़ा बोल रहा था, इस बात को लेकर मुझसे कहा—सुनी भी हो गयी। तुम आज घर मत जाओ, तुमसे भी उसने कुछ कह दिया तो मुझसे सहा नहीं जायेगा।

पल भर के लिए दरबारी को लगा कि दीदी ने पिछली बार जो सामान दिये थे उसे, कहीं घोंचू को इसकी जानकारी तो नहीं हो गयी? दीदी की बेचारगी को कुछ पल पढ़ता रहा दरबारी, फिर कहा, ष्ठीक हैं दीदी, मैं लौट जाता हूँ यहीं से कोई बात नहीं। लेकिन तुम मेरे कारण अपने जेठ से संबँध को कड़वा न करों। इन्हीं लोगों के साथ तुम्हें रहना हैं, जीजा अक्लमंद और तेज होते तो बात दूसरी थी। तुम जाओ, मैं जरा सामनेवाले घर से माँगकर एक लोटा पानी पी लूँ।

दीदी ने कहा, ष्यहाँ से क्यों माँगोगे, मैं अपने घर से पानी ले आती हूँ। अभी कोई देखेगा नहीं, सभी सोये हैं।

दीदी ने झट पानी में चीनी घोलकर ला दिया। इसे दरख्त के नीचे खड़े—खड़े ही उसने गटागट पी लिया और पैर को ठंडा करने के लिए उस पर पानी डालने लगा। दीदी ने देखा — तवे की तरह तपती जमीन पर दरबारी नंगे पाँव चलकर आया था और उसके तलवे में फफोले उठ आए थे। भूख क्या—क्या करवा देती हैं। बेचारे को फिर इसी तरह इन्हीं जले पैरों से अंगारों पर चलकर वापस होना होगा।

दीदी कराह उठी जैसे तलवों के सारे छाले (फफोले) दीदी के हृदय पर स्थानांतरित हो गये। भरे गले से उसने कहा, ष्मुन्ना, मुझे माफ कर देना कि मैं तुम्हें रास्ते से ही वापस कर रही हूँ। इस गरमी में झुलसकर आए तुम और मैं तुम्हें एक पहर आराम करने की भी जगह नहीं दे पा रही। कितना जुल्म कर रही हूँ मैं तुम पर मैं मर भी जाऊँ तो तुम मुझे देखने मत आना।

दरबारी ने देखा कि दीदी के चेहरे पर, उस वक्त की तुलना में, जब उसने कहा था श्हर इतवार को आया करो मुन्नाश्, इस वक्त यह कहते हुए कि श्अब मत आना मुन्नाश्, कहीं ज्यादा सान्निध्य और घनिष्ठता के भाव छलक आए हैं।

दरबारी ने पूरे आदर के साथ कहा, ष्अच्छा दीदी, अब मैं नहीं आऊँगा, लेकिन तुम भगवान के लिए मरने की बात मत करो।

दीदी की आँखों से टप—टप आँसू चूने लगे। एक अपराध—बोध से दरबारी का हृदय हाहाकार कर उठा, ष्तुम रो रही हो दीदी? मैंने तुम्हें रूलाया, कसूरवार हूँ मैं मत रोओ दीदी। सचमुच तुम्हारा यह भाई कितना पेटू हो गया था कि तुम्हारी इज्जत की बिना परवाह किये खाने चला आया करता था। तुम्हारे जेठ की आपत्ति वाजिब है, दीदी।

दीदी ने उसके माथे पर हाथ फिराते हुए कहा, ष्मैं कितना लाचार हूँ मुन्ना कि अपने घर में तुम्हें खाने तक की छूट नहीं दे सकती। सच मेरे भाई, विधाता अगर मुझे सामर्थ्‌यवान और आत्मनिर्भर बना दे तो मैं पूरी जिंदगी तुझे खिलाते हुए और खाते देखते हुए गुजार दूँ। सच दरबारी, तूँ खाते हुए मुझे बहुत अच्छा लगता है रे जब तुम खाते हो तो लगता है जैसे अन्न पूजित और प्रतिष्ठित हो रहे हों।

दरबारी दीदी के पाँव छूकर अपने फफोलेदार तलवों से चलकर वापस हो गया। दीदी ने उसकी जेब में दस रूपये डाल दिये और कहा, ष्किसी दुकान में कुछ खा लेना और सुनो दरबारी, इस भूख को अगर पछाड़ना है तो पढ़ाई में कोई कोताही न करना।

इसके बाद दरबारी सिर्फ खाने की लालसा लेकर दीदी के पास कभी नहीं गया। जब लगभग एक साल गुजर गया तब वह मिलने आया मगर एक खास मकसद लेकर। आते ही उसने स्पष्ट कर दिया, दीदी मैं खाने नहीं आया। तुमसे मिलने आया हूँ और तुरंत ही चला जाऊँगा। तुमने कहा था पढ़ाई ठीक से करना, तो मैं दिखाने आया हूँ कि मैं पढ़ाई ठीक से कर रहा हूँ और मैं मैट्रिक पास कर गया हूँ देखो, यह मार्कशीट है।

दीदी उसे तनिक विस्मय से, तनिक हर्ष से और तनिक गर्व से अपलक निहारती रह गयी। दरबारी झट मुड़ गया, ष्अच्छा दीदी, चलता हूँ।

ष्दरबारी!ष् राग दरबारी जैसे सुर में दीदी ने दरबारी को पुकारा। लपककर उसके हाथ से मार्कशीट ले ली। एक नजर कुलयोग पर डाला। फिर उसके भोलेपन पर रीझती हुई उसे गले से लगा लिया और कहा, तूने आज इतनी बड़ी खुशखबरी सुनायी है और मैं तुम्हें यों ही बिना मुँह मीठा कराये ही चली जाने दूँ? इतना बड़ा अपराध करायेगा तू अपनी दीदी से!

तो ऐसा कर दीदी, जल्दी से मुझे तू एक चम्मच चीनी खिला दे, कहीं तेरे जेठ ने मुझे देख लिया।

देखने दे, आज में किसी से नहीं डरूँगी आज तू विजेता बनकर आया है। हाँ दरबारी, भूख पर तूने एक चौथाई जीत हासिल कर ली हैं।

दीदी उसे बिठाकर घर में जो कुछ भी अच्छा उपलब्ध था, खिलाने—पिलाने लगी। दरबारी ने तय किया था कि घोंचू के इस क्वार्टर में वह कभी फिर से खाने की गलती नहीं करेगा। मगर दीदी के स्नेह के आगे भला दरबारी का कुछ भी तय किया हुआ कहाँ टिक सकता था! उसने सब बिसरा दिया आखिर भूख भी तो उसे लगी ही थी।

वह खा ही रहा था कि दीदी का जेठ प्रकट हो गया। उसके साथ दरबारी का ही हमउम्र एक लड़का था — जेठ का सबसे छोटा भाई। पहले तो दरबारी सहम गया। लगा कि कौर उसके गले में ही अब अटककर रह जायेगा। मगर उसकी आँखों में आज गुर्राहट नहीं थी। अच्छे मूड में वह दिख रहा था। आराम से बैठते हुए उसने दरबारी को संबोधित किया, पहचानते हो इसे यह मेरा छोटा भाई है मैट्रिक की परीक्षा दी थी इसने सेकेण्ड डिविजन से पास कर गया। एक तुम हो, एक नंबर के पेटू स्साले सिर्फ खाने के चक्कर में रहते हो आवारगर्दी करते हो। पढ़ाई—लिखाई तो नहीं करते होगे। करते भी तो क्या फायदा बिना पढ़े तो पास करते नहीं। मेरे इस भाई को देखो और जरा शर्म करो।

दरबारी ने जल्दी—जल्दी बचे हुए को खाकर खत्म कर दिया। हाथ धोकर बहुत देर तक यों ही बैठा रहा। मन में यह विचार करता रहा कि इस आदमी को अपनी मार्कशीट दिखाये या इसे यों ही एक भुलावे में पड़े रहने दे। दीदी ने जेठ के भाषण अंदर से ही सुन लिये थे। दरबारी को जब इसका कोई जवाब देते नहीं सुना तो द्वार पर आकर आवाज लगायी, ष्मुन्ना, भैया को जरा अपना अंकपत्र दिखा दो।

दरबारी ने जेब से निकालकर अंकपत्र दिखा दिया। जेठ की आँखें ताज्जुब से फटी की फटी रह गयीं। दरबारी ने सेकेण्ड नहीं फर्स्‌ट डिविजन से पास किया था सिर्फ फर्स्‌ट डिविजन नहीं बल्कि हाई फर्स्‌ट डिविजन।

उसे अपार खुशी हुई पहली बार वह दरबारी को देखकर इतना खुश हुआ था। कहा, ष्अरे तूने तो कमाल कर दिया, मैं तो तुम्हें एक नंबर का नकारा और पेटू समझता था मगर तुम तो बहुत तेज निकले!ष् उसने अपनी जेब से बीस रूपये निकाले और अपने भाई को देते हुए कहा, ष्जाओ, सरस्वती टॉकिज में दरबारी के साथ सिनेमा देखना और फिर मिठाई खा लेना।

पहले तो दरबारी को लगा कि उसे गरीब जानकर कोसने—धिक्कारने और अंडरइस्टीमेट करनेवाले इस अहमक आदमी के अॉफर को वह ठुकरा दे, मगर सिनेमा देखने की उसकी एक चिरसंचित आकांक्षा अब तक अधूरी थी अतरू वह इंकार नहीं कर सका। उसने सोचा कि इसे अच्छी पढ़ाई का एक पुरस्कार के रूप में लिया जाये। उसके छोटे भाई के साथ चला गया वह। हॉल में बैठकर सिनेमा देखने की उसकी साध पूरी हो गयी।

आगे की स्थितियाँ बहुत तेजी से उलट—पलट हो गयी थीं। जीजा की निष्क्रियता और निखट्टूपन के कारण घोंचू ने बदनीयती से जमीन के चंद टुकड़े देकर दीदी को अलग कर दिया जिससे उसकी हालत डगमग और बदतर होती चली गयी। दरबारी ने अभावों और मुश्किलों में भी अपनी पढ़ाई जारी रखी और उसे एक स्टील कंपनी में नौकरी मिल गयी। दीदी ने अभाव के बावजूद कभी हाथ नहीं पसारे मेहनत—मजूरी करके गुजारा चलाती रही। ये और बात है कि दरबारी खुद से किसी न किसी बहाने, जब तक उसका चला, अपनी मदद उपलब्ध कराता रहा।

आज शायद जीवन को दाँव पर लगा देख पूरे जीवन में पहली बार दीदी ने मुँह खोलकर उससे पाँच हजार रूपये माँगे थे। कुछ भी नहीं थी यह रकम दरबारी अपनी पूरी कमाई भी दीदी के लिए न्याछावर कर देता फिर भी बुरे दिन की उसकी जालिम भूख पर जो रहमोकरम उसने किये हैं, उसकी भरपाई नहीं हो सकती। हैरत है कि दरबारी के बेटे ऐसी ममतामयी दीदी को बचाने के लिए मामूली से पाँच हजार भी देने के तैयार नहीं हैं।

वे एकदम खिन्न और उद्विग्न हो गये। तनिक तैश में आकर जवाबतलब कर लिया, ष्कालीन, पर्दे, टीवी, बाइक आदि के लिए पैसे हैं तुम लोगों के पास, लेकिन मेरी अपनी उस बहन की जान बचाने के लिए एक तुच्छ सी पाँच हजार की रकम नहीं दे सकते, जिसने मेरे सुखाड़ के दिनों में मुझपर अगाध प्यार बरसा कर मुझे हरा बनाये रखा। उस जमाने में पाँच—दस करके ही जितने रूपये मुझे दिये हैं उसने, उसका सूद हम जोड़ना भी चाहें तो गणित फेल हो जायेगा। कहते—कहते एकदम भावुक हो गये दरबारी प्रसाद।

भुक्खन को उनकी यह भावुकता जरा भी अच्छी नहीं लगी। वह चिड़चिड़ा उठा, ष्आप यों ही बकबक करते हैं मगर आप जानते भी हैं कि इन चीजों का इंतजाम हम कैसे करते हैं?बाउजी, आप यह मत समझिए कि बैंक में इफरात पैसा पड़ा है जिससे हम बेमतलब की चीजें खरीद रहे हैं। दरअसल जो सर्किल और स्टेटस हैं हमारे, उसे मेंटेन करने के लिए यह सब करना पड़ता हैं। सच यह है बाउजी कि हम बहुत तंगी से गुजर रहे हैं और स्टैंडर्ड को मेंटेन करने में हमारी आमदनी बहुत कम पड़ रही हैं।

दरबारी ठगे रह गये — एक नया रहस्य खुल रहा था उनके सामने। एक तो रिटायर होने के बाद उनके पैसे भी घर बनाने और इसे सजाने—सँवारने में ही खर्च हो गये, ऊपर से दो—दो नौकरी के पैसे आ रहे हैं।

भुक्खन ने आगे कहा, ष्जिन चीजों के नाम आपने गिनाये हैं, आप जानना चाहते हैं न कि वे कैसे लाये गये? तो सुनिये, माइक्रोवेव ओवन हमने दुकान से छत्तीस किस्तों में लिये हैं टीवी और अॉडियो सिस्टम बहुत कम पैसे देकर एक्चेंज अॉफर में खरीदे गये हैं। चूँकि ये बहुत पुराने और आउट डेटेड हो गये थे। कालीन हमने क्रेडिट कार्ड से लिये हैं। बाइक भी दुक्खन भैया ने इम्प्लॉय टेम्परेरी एडवांस लेकर लिया है, चूँकि उनका पुराना बाइक बहुत पेट्रोल पी रहा था। नया बाइक जापानी टेक्नॉलॉजी से बना है और पेट्रोल के मामले में बहुत एकोनॉमी हैं। आज—कल में हमें कार भी खरीदनी हैं, चूँकि पास—पड़ोस में सबके पास कार हो गयी हैं। सब टोकते रहते हैं। बैंक से लोन लेना होगा इस तरह घर की एक सैलेरी लगभग किस्त चुकाने में ही खप जाती हैं। अब आप खुद ही निर्णय कर लीजिये कि हमारी हालत क्या है। आप चिन्तामुक्त रहें इसीलिये घर के अफेयर्स से हम आपको अलग रखते रहे, जिसका आपने शायद गलत अर्थ निकाल लिया, लेकिन ऐसा नहीं है, बाउजी।

दरबारी प्रसाद का माथा घूम गया बुरी तरह। उन्हें याद आ गयी गाँव की महाजनी प्रथा। उन्हें लगा कि आज वही प्रथा दूसरे रूप में उनके सामने आ गयी हैं जिनके व्यूह में फँसकर दो अच्छी तनख्वाह के बाद भी उनका घर पूरी तरह कर्जदार हो गया है। उनके बाउजी भी गाँव के साहुकार या बड़े किसानों से अनाज ड्योढिया—सवाई पर लाते थे और अगली फसल में मूल नहीं तो सूद चुका देते थे। मगर तब कर्ज लेने का मकसद सिर्फ पेट भरना होता था। आज स्टैंडर्ड मेंटेन करने के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है, कुछ इस तरह कि ऊपर से वह लगता ही नहीं कि कर्ज हैं। क्या पहले से भी शातिर और खतरनाक खेल नहीं बन गया है यह? बाजार ने अपने तिलिस्म इस तरह फैला रखे हैं कि आप में क्रय—शक्ति न भी हो तो भी वे लुभावने स्कीम जैसी कर्ज की एक अदृश्य फाँस में लेकर विलासिता के उपकरण खरीदने के लिए आपको आतुर बना देते हैं। एक्सचेंज अॉफर, क्रेडित कार्ड, कंज्यूमर लोन, परचेजिंग बाई इन्स्टॉलमेंट ये सारे अलग—अलग नाम कर्ज में घसीटने के लिए बाजारवाद और उपभोक्तावाद का व्यूहपाश ही तो हैं जिनमें उनके बेटे फँस गये हैं बुरी तरह।

मतलब तय हो गया कि दीदी को यहाँ से किडनी निकलवाने के लिए और रूपये नहीं भेजे जा सकते।

एक महीने बाद खबर मिली कि दीदी मर गयी। दरबारी प्रसाद को लगा कि वे फिर अपने उन भूखे दिनों में लौट गये हैं और दीदी कह रही हैं, ष्विधाता अगर मुझे सामर्थ्‌यवान और आत्मनिर्भर बना दें तो मैं पूरी जिंदगी तुझे खिलाते हुए और खाते देखते हुए गुजार दूँ। सच दरबारी, तू खाते हुए मुझे बहुत अच्छा लगता है रे जब तुम खाते हो तो लगता है जैसे अन्न पूजित और प्रतिष्ठित हो रहे हों।

बच्चे की तरह खूब बिलख—बिलखकर रोये दरबारी प्रसाद। मन में वे सोचते रहे कि दीदी की मौत का जिम्मेवार वे किसे ठहराएँ दीदी की गरीबी को, खुद को, अपने बेटों को या फिर बाजार के तिलिस्म को?

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